New Age Islam
Sun Sep 08 2024, 07:28 PM

Hindi Section ( 17 Jul 2021, NewAgeIslam.Com)

Comment | Comment

Refuting Islamophobic Claims That Jihadists Represent Traditional and Mainstream Interpretations of Islam: Part 8 On Killing Mushrikin and Kuffar इस्लामोफोबिक दावे का खंडन, क़िस्त 8 कुफ्फार व मुशरेकीन के कत्ल पर मुशरेकीन के कत्ल का हुक्म देने वाली आयत 9:5 पर अमल इस दौर में नहीं किया जा सकता

प्रमुख बिंदु

१. वर्तमान युग के मुशरेकीन की हत्या को न्यायोचित ठहराते हुए जिहादियों द्वारा आयत 9:5 प्रस्तुत करना कुरआन का उल्लंघन है और इस्लाम की पारंपरिक व्याख्या के खिलाफ विद्रोह है।

2. मक्का के मुशरेकीन और समकालीन मुशरेकीन की प्रथाओं और अक़ीदों के बीच अंतर

3. पारंपरिक इस्लामी फिकह के व्याख्यात्मक सिद्धांत और आयत 9:5

4. आयत 9:5 में वर्णित मुशरेकीन शब्द का भाषाई विश्लेषण

5. ज़ाहिर और नस का फिकही सिद्धांत और आयत 9:5 की व्याख्या

6. 'दलालतू सियाक अल-कलामका सिद्धांत और आयत 9:5

7. आयत 9:5 में मुशरेकीन से मुराद विशेष रूप से वे हैं जिन्होंने मक्का का धार्मिक रूप से शोषण किया और शांति संधि का उल्लंघन किया।

8. आयत 9:5 का शाने नुज़ूल

९. आयत 9:5 का इन्तेबाक इस दौर के नागरिकों पर लागू नहीं किया जा सकता

10. मुस्लिम और गैर-मुसलमानों को इस्लामोफोबिया और जिहादियों से समान रूप से सावधान रहना चाहिए

----------------------

विशेष संवाददाता, न्यू एज इस्लाम

उर्दू से अनुवाद, न्यू एज इस्लाम

1 जुलाई 2021

इस्लामोफोब और जिहादियों का अपना एजेंडा है। इस्लामोफोब्स (लोगों के दिलों में इस्लाम का आतंक पैदा करने वाले) गैर-मुसलमानों को मुसलमानों के खिलाफ भड़काने पर जोर देते हैंजबकि जिहादी (जो लोग बिला शरई शर्तों को पूरा करने और निषिद्ध काम करने के लिए जिहाद का इस्तेमाल करते हैं) मुसलमानों को उकसाने पर जोर देते हैं। काफिरों और मुशरिकों के संदर्भ मेंआम गैर-मुस्लिम नागरिकों के खिलाफ मुसलमानों को भड़काने पर तुले हुए हैं। इस संदर्भ में इस्लामोफोब्ज़ और जिहादियों ने एक दलील जो अवाम में फैलाई उसमें वह कुरआन करीम के सुरह तौबा की आयत नम्बर पांच का हवाला देते हैं जिसमें अल्लाह तआला ने हुक्म दिया है, "जहाँ भी पाओ मुशरिकों को मार डालो।" इस क़िस्त में हम इसी आयत पर पूर्ण उसूल और कवायद की रौशनी में एक उम्दा तहकीक पेश करेंगे जिससे हक़ स्वतः स्पष्ट हो जाएगा और यह कि इस्लामोफोब और जिहादियों के बीच ऐसा सामंजस्य है कि उनके कर्म इस्लाम और मानवता विरोधी होने का जीता जागता सबूत हैं।

दोनों समूहों के बीच यही वह सामंजस्य है जिसकी तरफ हमने इससे पहले भी इशारा किया है। दोनों अवाम और सीधे सादे नागरिकों को अतिवाद की राह विकल्प करने की हौसला अफजाई करते हैं। आम शहरियों पर आधारित कुफ्फार व मुशरेकीन के क़त्ल का जवाज़ पेश करने के लिए जिहादिस्ट ज़िक्र किये गए आयत का हवाला देते हैं जबकि इस्लामोफोब्स इस आयत के तहत यह साबित करने की चाह रखते हैं। जिहादिस्ट असल इस्लाम की रिवायत और क्लासिकी व्याख्या का नेतृत्व करते हैं ताकि यह ज़ाहिर हो सके कि अब वह समय आ गया है कि इस्लाम और मुसलमानों के खिलाफ लड़ने के लिए गैर मुस्लिम अपनी ताकत मजबूत करें। दोनों ही गिरोहें असल में शांति भंग, हत्या और जमीनी फसाद बरपा करने से बाज़ रहने के लिए तैयार नहीं हालांकि कुरआन ने सख्त लहजे में शांति भंग और इस तरह के फसाद से भी बाज़ रहने का आदेश दिया है।

आतंकवादी जिहादी अक्सर अपने अवैध और गैर-इस्लामी कार्यों को सही ठहराने के लिए कुरआन की आयत 9:5 का हवाला देते हैं। आईएसआईएस के जिहादियों ने अपने दावे को सही ठहराने के लिए अपनी पत्रिका "दाबिक" में इस आयत का हवाला दिया है कि "इस्लाम तलवार का धर्म हैशांतिवाद का नहीं" (दाबिकसातवां अंकपृष्ठ 20)। इस पत्रिका में इब्ने कसीर की तफसीर के हवाले से लिखा गया है कि:

इब्ने अबी तालिब (रज़ीअल्लाहु अन्हु) फरमाते हैं कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम चार तलवारों के साथ मबउस किये गए: एक तलवार मुशरेकीन के लिए {फिर जब हुरमत वाले महीने निकल जाएं तो मुशरिकों को मारो जहां पाओ} [अल तौबा:5], एक तलवार अहले किताब के लिए {लड़ो उनसे जो ईमान नहीं लाते अल्लाह पर और कयामत पर और हराम नहीं मानते उस चीज को जिसको हराम किया अल्लाह और उसके रसूल ने और सच्चे दीन के ताबे नहीं होते अर्थात वह जो किताब दिए गए जब तक अपने हाथ से जज़िया न दें ज़लील हो कर} [अल तौबा:29], एक तलवार मुनाफेकीन के लिए {ऐ गैब की खबरें देनें वाले (नबी) जिहाद फरमाओ काफिरों और मुनाफिकों पर} [अल तौबा: 73], और एक तलवार बगावत (सरकशी और ज्यादती करने वालों) के लिए {ज्यादती वाले से लड़ो यहाँ तक कि वह अल्लाह के हुक्म की तरफ पलट आए} [अल हुजरात:9]” [तफसीर इब्ने कसीर]। (ये अंश आईएसआईएस पत्रिका दाबिक, ७ वें अंक, पृष्ठ 20 से लिया गया है)

लगभग सभी आधुनिक जिहादियों का मानना है कि अन्य काफिरों और मुशरिकोंविशेष रूप से "सूफी-सुन्नी और शिया मुसलमानों" की हत्या के आधार पर जिहाद को सही ठहराने के लिए इस आयत को उद्धृत करना आवश्यक है। इस संबंध में वे इस आयत की क्लासिकी व्याख्या की भी गलत व्याख्या करते हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि इस्लामोफोबिया से पीड़ित लोगों ने यह जिहादी तरीका अपनाया है ताकि वे मुसलमानों बनाम गैर-मुसलमानों के नाम पर चरमपंथ के दो रास्ते बना सकें। इस लेख मेंहम कुरआन और सुन्नत की व्याख्या के स्वीकृत फिकही सिद्धांतों का उपयोग करते हुए उपरोक्त कुरआन की आयत की क्लासिकी तफसीर प्रस्तुत करेंगे। इस खंड में खंडन के तर्क जनाब गुलाम गौस सिद्दीकी के लेखन पर आधारित होंगे जो अंग्रेजी में 5 भागों में न्यू एज इस्लाम वेबसाइट newageislam.com पर एक ही शीर्षक के तहत प्रकाशित किए गए हैं।

पारंपरिक तफसीर की किताबों के एक अध्ययन से पता चलता है कि आयत 9:5 का एक विशिष्ट संदर्भ है क्योंकि यह युद्ध की स्थितियों में नाज़िल हुआ था। इस प्रकार उन्होंने यह मत प्रस्तुत किया है कि इस आयत को सामान्य परिस्थितियों में लागू नहीं किया जा सकता है। इसे और स्पष्ट करते हुए हम कह सकते हैं कि यह आयत हमारी वर्तमान स्थिति पर लागू नहीं किया जा सकता। जहां तक जिहादियों की अथक हत्याआत्मघाती हमलेसार्वजनिक स्थानों को नष्ट करने और तथाकथित 'शहीदऑपरेशन को सही ठहराने के लिए इस आयत के इस्तेमाल का सवाल हैवे ऐसा करके केवल अल्लाह की जमीन पर फसाद पैदा कर रहे हैं [और अल्लाह बेहतर जानता है]। इस्लामी शिक्षाओं का प्राथमिक लक्ष्य धरती से भ्रष्टाचार को मिटाना हैलेकिन यह तभी संभव है जब हम इस संदेश को पूरे दिल से समझें और स्वीकार करें। कुरआन की व्याख्या के लिए फिकही कानून के पारंपरिक सिद्धांतों के आधार पर युद्ध और शांति से संबंधित सभी आयतों का अध्ययन करने के बादहम पूरे विश्वास के साथ कह सकते हैं कि जिहादी इस्लाम और युद्ध के बारे में इस्लामी आख्यान के अपने नापाक उद्देश्य के लिए दुरुपयोग कर रहे हैं। चूंकि यह इस्लाम के दुश्मनों का गुप्त एजेंडा रहा है कि इस्लाम में लोगों का विश्वास कम किया जाए या दुनिया को इस्लाम की वास्तविकता से वंचित किया जाए।

पारम्परिक इस्लामी फिकह के व्याख्या के सिद्धांत और आयत 9:5

इस्लामी फिकह के व्याख्यात्मक सिद्धांत में हर दौर के पारंपरिक फुकहा ने सर्वसम्मति से स्वीकार किया है कि कुरआन और सुन्नत के स्पष्ट शब्दों का कभी-कभी एक विशिष्ट संदर्भ होता है और आगे की व्याख्या की संभावना होती है। इस फिकही सिद्धांत के अनुसारआयत 9:5 में मुशरेकीन शब्द का उल्लेख हैहालांकि यह एक प्रत्यक्ष शब्द हैयह एक समूह या मुशरिकों के कुछ सदस्यों के लिए विशिष्ट है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि इस आयत को इस तर्क के एक निश्चित प्रमाण के रूप में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है कि कुरआन में "मुशरेकीन" शब्द दुनिया के सभी मुशरिकों या हर उम्र के मुशरिकों को संदर्भित करता है। "इसके विपरीतहमारे यहां न केवल आगे व्याख्या या विशेषज्ञता की संभावना हैबल्कि मजबूत सबूत भी हैं [...] जो हमें उस आयत को स्वीकार करने में सक्षम बनाता है 9: 5 में 'मुशरेकीनशब्द विशेष रूप से मक्का के मुशरिकों और उन लोगों को संदर्भित करता है और जो धर्म के आधार पर सताते थे और मुसलमानों के साथ युद्ध की स्थिति में थे।

मक्का के मुशरिकों और वर्तमान युग के मुशरिकों के बीच का अंतर

कुरआन की आयत 9:5 में वर्णित मुशरिकों की मान्यताएँ और व्यवहार आज के मुशरिकों से भिन्न हैं। गुलाम ग़ौस सिद्दीकी के लेख के निम्नलिखित अंश मक्का के मुशरिकों की मान्यताओं और प्रथाओं पर चर्चा करते हैं ताकि यह साबित हो सके कि यह आयत 9: 5 का एक विशिष्ट संदर्भ है और वर्तमान स्थिति में लागू नहीं होता है।

संक्षेप मेंउनका मानना है कि मक्का के मुशरिकों ने तशबीह का अकीदा गढ़ लिया था और अपने अकीदे को विकृत कर दिया था। उन्होंने कहा कि फरिश्ते खुदा की बेटियां हैं और खुदा में मानवीय गुण मौजूद होते हैं। जब वे अल्लाह के वास्तविक गुणों जैसे इल्म और सुनने और देखने को नहीं समझ सकते थेइसलिए उन्होंने अपने ज्ञान और सुनने और देखने की क्षमता के संदर्भ में अल्लाह के इन गुणों का न्याय करना शुरू कर दिया। शाह वलीउल्लाह के शब्दों मेंविकृति का रिकॉर्ड इस प्रकार है: "हज़रत इस्माइल की औलाद लम्बे समय तक इब्राहीमी दीन (मिल्लते इब्राहिम) पर कायम रही यहाँ तक कि अम्र बिन लही नामक व्यक्ति पैदा हुआ उसने बुत बनाया उसकी पूजा को अनिवार्य घोषित कर दिया। उसने बहिरावसीलासाईबाहामअल-इक्तेसाम बिल अज़्लाम और ऐसे ही अन्य अंधविश्वासों की स्थापना की। यह बदलाव हमारे पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के जन्म से तीन सौ साल पहले हुआ था। इन नापाक प्रथाओं के अलावाउन्होंने अपने पूर्वजों की परंपराओं का पालन किया और इस पितृसत्ता को अपने पक्ष में एक निर्णायक तर्क माना। हालांकि पिछले नबियों अलैहिमुस्सलाम ने भी लोगों को कयामत और हश्र व नशर का अकीदा दिया थालेकिन उन्होंने इसे कुरआन की तरह स्पष्ट और विस्तार से नहीं समझाया। चूँकि बुतपरस्त अरबों को मृत्यु के बाद के जीवन का विस्तृत विवरण नहीं दिया गया थावे कयामत के दिन की घटनाओं को असंभव और अवास्तविक मानते थे। यद्यपि अरब के मुशरिक इब्राहीमइस्माइल और मूसा की नबूवत में विश्वास करते थेलेकिन उन अम्बिया में मानवीय गुणों के अस्तित्व के बारे में गुमराह हो गएजो उनकी नबूवत की सुंदरता का हिजाब और पर्दा होता था। वे उस पर संदेह करने लगे ... वे मानव रूप में नबियों के अस्तित्व को असंभव और अविश्वसनीय मानते थे ”(शाह वलीउल्लाहअल-फ़ौज़ अल-कबीर)।

मक्का के मुशरिकों और समकालीन मुशरिकों के बीच एक और अंतर यह है कि अरबों के मुशरिकों ने खुद को "अहनाफ" (सत्य के साधक) कहा और इब्राहीम अलैहिस्सलाम की मिल्लत का अनुसरण करने का दावा किया। वास्तव मेंहनीफ वह है जो हज़रत इब्राहिम अलैहिस्सलाम के मिल्लत का पालन करता है और आपके निर्देशों का पालन करता है। इब्राहीमी मिल्लत के कुछ संस्कार और शरीअत हैं: अल्लाह के घर में हज करनानमाज़ के दौरान क़िबला का इस्तिक्बाल करनाग़ुस्ले जनाबत करना और खतना जैसी सभी प्राकृतिक आदतेंबगल के बाल काटनादोनों तरह की कुर्बानी ज़बह और नहर करनानाभि के नीचे के बाल कटाना भी शामिल हैं ... अरब के मुशरिकों ने मिल्लते इब्राहिमी को त्याग दिया था और वे "गैरकानूनी हत्याचोरीजिनासूदखोरी और उत्पीड़न और हिंसा जैसे बुरे कामों में शामिल हो गए थे। "हज़रत इब्राहीम अलैहिसालाम के मिल्लत के सैद्धांतिक मुद्दों मेंइन मुशरिकों ने "आम तौर पर शक और संदेह पैदा किया और उन्हें अकल्पनीय माना और उन्हें समझने में कोई दिलचस्पी नहीं थी।" शिर्कतशबीह का अकीदाइब्राहिमी सहिफे में तरमीम आख़िरत को नकारना और हमारे पैगंबर के रिसालती मिशन को अविश्वसनीय घोषित करना कुछ ऐसे हैं जिन मुद्दों को मुशरिकों द्वारा अपनाया गया हैयह साबित करने के लिए कि वे इब्राहिमी मिल्लत से भटक गए हैं। इसके अलावाउन्होंने उत्पीड़नअन्यायदेशद्रोह और भ्रष्टाचार को अंजाम  दिए थे। वे शर्मनाक कृत्यों में शामिल थे और उन्होंने अल्लाह की इबादत के हर निशान को मिटा दिया था। [शाह वलीउल्लाहअल-फ़ौज़ अल-कबीरपृष्ठ 3-4]

"कुरआन की कई आयतों के अनुसारशिर्क एक अक्षम्य पाप है और इस पाप के अपराधी को कयामत के दिन इलाही दंड का सामना करना पड़ेगा। हालांकिकुरआन की आयतें मोमिनों को २१वीं सदी में शांति और सद्भाव में रहने से नहीं रोकती हैंजहां इंसानों ने शांति और सद्भाव के कानून के तहत रहने का संकल्प लिया है। जहाँ तक आयत ९:५ का संबंध हैयद्यपि इसमें 'मुशरिकीनशब्द का उल्लेख हैइसका अर्थ यह नहीं है कि उनके विरुद्ध शिर्क या अकीदे के आधार पर युद्ध छेड़े गए थे। बल्किउनके खिलाफ युद्ध छेड़े गए क्योंकि उन्होंने उन्हें धर्म के आधार पर सताया। दूसरे शब्दों मेंउनके हिंसक कार्यों के कारण उनके साथ युद्ध हुए।

कुरआन की आयत 9:5 में वर्णित मुशरिकीन के कर्म

"जहां तक कुरआन में वर्णित मुशरिकीन के कार्यों का संबंध हैमुशरिकीन ने 14 या 15 वर्षों तक मक्का में पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम और उनके अनुयायियों को सताया। उन्होंने अल्लाह के पसंदीदा दीन इस्लाम कुबूल करने वालों पर सभी प्रकार के अपमान और जिल्लत मुसल्लत की थी। उन्होंने अल्लाह के नाज़िल किये गए आयतों पर निराधार आपत्तियां उठाईशरीअत के आदेशों का उपहास किया और तेरह साल तक अपने अत्याचारों को जारी रखा यहाँ तक कि मुसलमानों को बदला लेने की अनुमति दी गई।

पैगंबर के तेरहवें वर्ष में हिजरत की अनुमति दी गई थी। पवित्र पैगंबर और उनके साथी मक्का से ढाई सौ मील दूर यसरब नामक एक बस्ती में एकत्र हुए। लेकिन मक्का के काफिरों का कोप फिर भी कम नहीं हुआ। यहां भी मुसलमानों को चैन का सांस लेने की इजाजत नहीं थी। काफिरों के दस-दस बीस-बीस लोगों के जत्थे आते। यदि किसी मुसलमान के मवेशी मक्का के चरागाहों में चर रहे होंतो उन्हें ले उड़ते। अगर कभी-कभी कोई मुसलमान मिल जातातो वे उसे मारना बंद नहीं करते।

जिन लोगों ने चौदह-पंद्रह वर्षों तक धैर्यपूर्वक अत्याचार सहेउन्हें आज अपनी रक्षा के लिए हथियार उठाने की अनुमति दी जा रही है कि तुम अपनी रक्षा में हथियार उठा सकते हो। कुफ्र की छाया की अति हो गई है। बातिल की मुश्किलें हद पार कर गई हैं। अब उठो और इन विद्रोही और शराबी काफिरों से कहो कि इस्लाम का दीया नहीं जलाया गया है ताकि तुम इसे बुझा सको। हक़ का झण्डा इसलिए नहीं बुलंद हुआ कि तुम बढ़ कर उसे गिरा दो। यह दीपक तब तक जलता रहेगा जब तक चर्खे नीलोफर पर चाँद और सितारे चमकते रहेंगे। (ज़िया-उल-कुरआनखंड ३पृष्ठ २१८)

प्रारंभ मेंमुसलमानों को रक्षा में लड़ने की भी अनुमति नहीं थी। बाद में बचाव में लड़ने की अनुमति दी गईऔर एक ऐसी स्थिति उत्पन्न हुई जिसमें आयत "जहां कहीं भी आप उन्हें [युद्ध की स्थिति में] पाते हैंउन्हें मार डालो" नाज़िल हुई।

"मुशरेकीन" से शांति संधि को तोड़ने के लिए लड़ाई लड़ी गईइसलिए नहीं कि उन्होंने शिर्क किया था।

शाने नुजूल से यह सर्वविदित है कि उन्हें मक्का के मुशरेकीन के खिलाफ लड़ने की अनुमति दी गई थी जिन्होंने उन्हें धार्मिक आधार पर सताया और शांति संधि पर हस्ताक्षर करने के बाद इसका उल्लंघन किया। आयत ९:५ से यह मान लेना सही नहीं होगा कि शिर्क का प्रतिबद्ध करने के कारण उनसे जंग की गई। यह क्लासिकी उलमा की निम्नलिखित व्याख्याओं द्वारा भी समर्थित है।

इमाम बैज़ावी (मृतक ६८५ हिजरी) ने अपनी पुस्तक "अनवारुल-तंज़ील व इसरार अल-तावील कीखंड ३पृष्ठ ७१९: ५- अरबी) जो कि क्लासिकी तफसीर की किताब और उपमहाद्वीप भारत के मदरसों में पाठ्यक्रम में शामिल भी है, इस आयत की तफसीर करते हुए लिखते हैं فاقتلوا المشرکین (ای) الناکثینजिसका अर्थ यह है कि आयत 9:5 में बयान किये हसे मुशरेकीन से मुराद नाकेसीन हैं। नाकेसीन उन लोगों को कहा जाता है जो मुसलमानों पर हमला कर के अमन समझौते का उल्लंघन करते हैं।

अल्लामा आलूसी (मृतक १२७० हिजरी) अपनी किताब रुहुल मुआनी” (जिल्द १०, पेज ५०, ९:५, अरबी) में उल्लेखित आयत की तफसीर में लिखते हैं:

على هذا فالمراد بالمشركين في قوله سبحانه: (فاقتلوا المشركين) الناكثون

अनुवाद: इसलिए, अल्लाह पाक के कौल मुशरिकों को मारोमें मुशरेकीन से मुराद नाकेसीन अर्थात वह लोग जिन्होंने मुसलमानों के खिलाफ जंग का ऐलान कर के शांति समझौते का उल्लंघन किया।

दीनियात के माहिर अल्लामा अबू बकर अल जसास (मृतक ३७० हिजरी) लिखते हैं,

"صار قوله تعالى: {فَاقْتُلُوا المُشْرِكِينَ حَيْثُ وَجَدْتُمُوهُمْ} خاصّاً في مشركي العرب دون غيرهم"

अनुवाद: आयत (मुशरिकों को मार दो जहां कहीं उन्हें पाओ) में ख़ास तौर पर अरब के मुशरेकीन मुराद हैं और इसका इतलाक किसी और पर नहीं होता” (अह्कामुल कुरआन लील जसास, जिल्द ५, पेज २७०)

इमाम जलालुद्दीन सुयूती लिखते हैं:

कुरआन करीम की उपर्युक्त आयत ९:५ पर अपनी तफसीर में इमाम इब्ने हातिम ने हज़रत इब्ने अब्बास (रज़ीअल्लाहु अन्हु जो कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के चचा ज़ाद भाई थे) से यह रिवायत किया है कि वह फरमाते हैं: इस मजकूर आयत में मुशरेकीन से मुराद कुरैश के वह मुशरेकीन हैं जिनके साथ नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने [सुलह] का समझौता किया था (दुर्रे मंसूर, जिल्द-३ पेज ६६६)

वह यह भी ब्यान करते हैं इमाम इब्ने मंजर, इब्ने अबी हातिम और अबू शैख़ (रज़ीअल्लाहु अन्हुम) ने हजरत मोहम्मद बिन इबाद बिन जाफर से नकल किया है कि उन्होंने फरमाया यह मुशरेकीन बनू खुजैमा बिन आमिर के हैं जो बनी बकर बिन कनाना से संबंध रखते हैं” (दुर्रे मंसूर, जिल्द ३ पेज ६६६)

दुसरे इस्लाम के उलमा के अनुसार ऐसी तफसीरों की तस्दीक कुरआन के उस फरमान से होती है जो इसी सुरह की आयत १३ में मौजूद है,

क्या उस कौम से न लड़ो गे जिन्होंने अपनी कसमें तोड़ीं और रसूल के निकालने का इरादा किया हालांकि उन्हीं की तरफ से पहली होती है, क्या उनसे डरते हो तो अल्लाह का ज़्यादा हकदार है कि उससे दरो अगर ईमान रखते हो” (९:१३)

और सुरह तौबा की आयत नम्बर ३६ भी इसका समर्थन करती है

और मुशरिकों से हर वक्त लड़ो जैसा वह तुमसे हर वक्त लड़ते हैं, और जान लो कि अल्लाह परहेज़गारों के साथ है” (९:३६)

इन दो आयतों (९:१३) और (९:३६) और उपर्युक्त क्लासिकी फुकहा के तब्सिरों का हासिल यह है कि आयत ९:५ में बयान किये हुए मुशरेकीन से तमाम मुशरेकीन नहीं हैं बल्कि वह मुशरेकीन मुराद हैं जिन्होंने शुरूआती मुसलमान के खिलाफ जंग का एलान कर के अमन समझौते का उल्लंघन किया था। इसलिए , यह कहना गलत होगा कि मक्का के मुशरेकीन से जंग शिर्क की वजह से किया गया था।

हमें यहां दो बातों पर विचार करने की जरूरत है। पहला: यदि शिर्क का कार्य ही युद्ध का कारण होतातो अल्लाह के रसूल और मक्का के मुशरेकीन के बीच शांति संधि नहीं होती। दूसरा: यदि इन मुशरेकीन ने धर्म के आधार पर सताया या शांति संधि का उल्लंघन नहीं किया होतातो युद्ध नहीं होते। इसे हदीसों से समझा जा सकता है (जिसे आगे के खण्डों में प्रस्तुत किया जाएगा) जिसमें मुशरेकीन में से महिलाओंबच्चोंविकलांगों या बुजुर्गों को मारना मना है।

इस्लामी उसूले फिकह मेंज़ाहिर का सिद्धांत और नस का सिद्धांत बहुत प्रसिद्ध है। जनाब गुलाम गौस सिद्दीकी अपने लेख के तीसरे भाग में लिखते हैं: शब्दकोश में ज़ाहिर का अर्थ स्पष्टखुलारौशन है। शब्द मेंसिद्धांतों के अनुसारज़ाहिर वह हर शब्द है जो श्रोता द्वारा बिना किसी विचार के सुनते ही मालुम हो जाएया इमाम बजदवी के शब्दों में "ज़ाहिर हर उस कलाम का नाम है जिसका उद्देश्य सुनने वालों को उसके शब्दों से ज़ाहिर हो जाता है।" जबकि इमाम सरखसी ने ज़ाहिर को इस तरह से परिभाषित किया है कि "ज़ाहिर वह है जो केवल सुनने सेविचार किये बिना ही समझ में आ सके।"

ज़ाहिर का अर्थ स्पष्ट हैलेकिन उनके लिए वैकल्पिक व्याख्या को स्वीकार करने के गुंजाइश होती है। इसका मुख्य कारण यह है कि इसका स्पष्ट अर्थ हमेशा उस संदर्भ के अनुरूप नहीं होता है जिसमें इसे प्रकट किया गया था। दूसरे शब्दों मेंकभी-कभी ज़ाहिर और नस  के बीच एक विरोधाभास होता है। जिस चीज के लिए कलाम लाया गया हैउसे नस कहते है अर्थात जिस उद्देश्य से कलाम लाया गया हैउसे नस कहते हैं। नस एक स्पष्ट इबारत को इंगित करता है जो शब्द के आने का कारण बताता है। नस कायल के उद्देश्य को प्रकट करता है जबकि ज़ाहिर का अर्थ कायल का उद्देश्य नहीं होता।

अब हम आयत ९:५ के ज़ाहिर और नस पर विचार करते हैं, "मुशरिकों को जहां कहीं पाओउन्हें मार डालो।" यह आयत मोमिनों को मुशरेकीन जहाँ कहीं भी मिले को मारने का आदेश देने में ज़ाहिर हैजबकि यह आयत धर्म का शोषण करने वालों और युद्ध की स्थिति बनाने और शांति का उल्लंघन करने वालों के खिलाफ लड़ने के लिए नस में है। इस आयत के नुज़ूल का उद्देश्य युद्ध के समय में धार्मिक शोषकों और उग्रवादियों की हत्या की अनुमति देना है। क्योंकि यह "मरो या मार डालो" की स्थिति थी। इस उद्देश्य को आसानी से समझा जा सकता है यदि युद्ध से संबंधित सभी आयतों को ध्यान में रखा जाएजैसे कि "औरहे महबूबयदि कोई मुशरिक आपकी शरण चाहता हैतो उसे शरण दें ताकि वह अल्लाह का कलाम सुन सके और फिर उसे उसकी शांति की जगह पहुंचा दो। यह इसलिए है क्योंकि वे एक अज्ञानी लोग हैं "(9: 6)," और अल्लाह के राह में उन लोगों के खिलाफ लड़ो जो तुम्हारे खिलाफ लड़ते हैंऔर हद से आगे न बढ़ो अल्लाह उन लोगों को पसंद नहीं करता है जो हद से आगे बढ़ते हैं ।" (2:190)।

इस प्रकार हम सीखते हैं कि आयत ९:५ एक नस है जिसमें कई बिंदु हैंजैसे: १) युद्ध उत्पीड़न पर आधारित होना चाहिएधार्मिक विश्वास पर नहीं२) शांति संधि की समाप्ति और युद्ध की घोषणा के बाद ही लड़ा जाना चाहिए। ३) युद्ध की स्थिति में ही हत्या होनी चाहिए। इस आयत के नुज़ूल का मुख्य उद्देश्य ये तीन बिंदु थे। इसके उलटइस आयत का ज़ाहिर यह बयान करता है कि चूँकि इस आयत में शब्द मुशरिकीन का उल्लेख किया गया है और यह मुशरिक शब्द का एक बहुवचन हैइसलिए सभी इसके सदस्यों को जहाँ कहीं भी मिले उन्हें मार दिया जाना चाहिए। हालाँकिनस (इस आयत के नुज़ूल का उद्देश्य) इस आयत की ज़ाहिर के खिलाफ है। और यह एक प्रसिद्ध सिद्धांत है जो इस्लामिक मदरसों के पाठ्यक्रम में भी पढ़ाया जाता है कि जब नस और ज़ाहिर दोनों के बीच संघर्ष होता हैनस को हमेशा प्राथमिकता दी जाएगी।

दूसरे शब्दों मेंमैं दोहराता हूं कि मुशरिकीने अरब के खिलाफ लड़ने की आज्ञा इसलिए नाज़िल हुई क्योंकि उन्होंने मुसलमानों पर अत्याचार किया और शांति संधि का उल्लंघन कियाइसलिए नहीं कि उन्होंने शिर्क या कुफ्र किया था। और इसी अर्थ में यह आयत एक नस है। जहाँ तक इस आयत के ज़ाहिर होने का संबंध हैयह इस आयत के नस के अनुरूप नहीं है और सलफ उलमा इस बात से सहमत हैं कि जब नस और ज़ाहिर के बीच संघर्ष होगातो नस को हमेशा प्राथमिकता दी जाएगी। ताकि कुरआन की बेहतर समझ हो।

कुरआन की आयत 9:5 में ज़ाहिर और नस के सिद्धांत को लागू करने के बादहम मानते हैं कि "वर्तमान परिस्थितियों में आम मुशरेकीन की हत्या" को सही ठहराना गलत है। इसके अन्य कारण भी नीचे दिए गए हैं।

हनफी फिकह के सिद्धांत دلالۃ سیاق الکلامसे वह सूरते हाल मुराद है जहां किसी भी शब्द का शाब्दिक अर्थ कलाम के संदर्भ के कारण से तर्क कर दिया जाता है। मिसाल के तौर पर निम्नलिखित अंश देखें:

इमाम बैज़ावी कहते हैं कि, “आयत 9:5 में शब्द मुशरेकीनसे मुराद नाकेसीनहैं अर्थात वह लोग जिन्होंने अमन समझौते का उल्लंघन किया और जंग की हालत को दुबारा बहाल कर दिया। (बैजावी, “अनवारुल तंजील व असरारुल तावील, जिल्द ३, पेज ७१, ९:५) इसी तरह अल्लामा अलूसी ने भी कलामे इलाही के संदर्भ की वजह से शब्द मुशरेकीन के शाब्दिक अर्थ को छोड़ दिया और यूँ उन्होंने शब्द मुशरेकीनसे नाकेसीनमुराद लिया (आलूसी, रुहुल मआनी, जिल्द १०, पेज ५०, ९:५) इमाम सुयूती लिखते हैं, “इमाम इब्ने मंजर, इब्ने अबी हातिम और अबू शैख़ (रज़ीअल्लाहु अन्हुम) ने हजरत मोहम्मद बिन इबाद बिन जाफर से नक़ल किया है कि उन्होंने फरमाया यह मुशरेकीन बनू खुजैमा बिन आमिर के हैं जो बनी बकर बिन कनआना से संबंध रखते हैं, “(दुर्रे मंसूर, जिल्द ३ पेज ६६६)। अल्लामा अबू बकर अल सुयूती के अनुसार यह आयत (मुशरिकों को मारो जहां पाओ) मुशरेकीने अरब के लिए ख़ास है और इसका इतलाक किसी और पर नहीं किया जा सकता। (अह्कामुल कुरआन लील जसास, जिल्द ५, पेज २७०)

जिहादियों और इस्लामोफोबिक लोगों का एक और तर्क यह है कि इस आयत में शांति से जुड़ी आयतों का खंडन किया गया हैइसलिए इसे मौजूदा हालात पर भी लागू करना जरूरी है। यह तर्क केवल नासिख के अर्थ और उसके इतलाक के बारे में गलतफहमी का परिणाम है। जनाब गुलाम गौस सिद्दीकी ने अपने अंग्रेजी निबंध के पांचवें भाग में इस विषय पर विस्तार से बताया है। नीचे उनके लेख के कुछ अंशों का अनुवाद है:

बाद के क्लासिकी फुकहा के अनुसारजिन्होंने "नासिख" शब्द की बहुत सीमित परिभाषा दी हैयुद्ध से संबंधित आयतों ने शांति और सहिष्णुता वाली आयतों को मंसूख नहीं किया है। इमाम जलाल-उद-दीन सुयूती और जरकशी आदि ने कुरआन के उलूम पर अपने उत्कृष्ट लेखन में इस दृष्टिकोण को स्पष्ट किया।

इमाम जलाल अल-दीन अल-सुयूती ने अपनी किताब अल-इतकान फी उलूम अल-कुरआन मेंजिसे कुरआन के उलूम में एक महान कृति माना जाता हैने स्पष्ट किया है कि कुछ फुकहा की राय के खिलाफ यह आयत 9: 5 तंसीख का नहीं  बल्कि संदर्भ का विषय है। कुछ परिस्थितियों में धैर्य और क्षमा वाली आयत का पालन किया जाता हैजबकि कुछ परिस्थितियों में युद्ध आवश्यक हो जाता है। वह लिखते हैं कि कुरआन की कोई भी आयत किसी अन्य आयत द्वारा पूरी तरह से निरस्त नहीं की गई हैलेकिन प्रत्येक आयत का एक विशिष्ट संदर्भ और इन्तेबाक है। चूंकि इमाम सुयूती ने प्रमुख फुकहा के खिलाफ नस्ख की सीमित परिभाषा दी हैइसलिए उन्होंने संदर्भ या अस्थायी नस्ख के लिए 'नस्खशब्द का इस्तेमाल नहीं किया है। संक्षेप मेंइमाम सुयूती का यह दृष्टिकोण प्रमुख फुकहा से भिन्न नहीं है। अंतर केवल इतना है कि प्रमुख फुकहा ने "नस्ख" शब्द का अर्थ "संदर्भ या अस्थायी नस्ख" के सामान्य अर्थ में शामिल किया।

इमाम सुयूती ने अल्लामा मक्की का यह कौल भी नकल किया है कि फुकहा का एक वर्ग यह मानता है कि आयत उन्हें माफ़ कर दो और उनसे दरगुजर करो बेशक एहसान वाले अल्लाह को महबूब हैं” (5:13), मोहकम और गैर मंसूख है इसलिए कि इस किस्म का हुक्मे इलाही संदर्भ और महले इन्तेबाक का विषय है“ (अल इत्कान फी उलूमिल कुरआन, जिल्द२, पेज 70-71)। इससे पहले हम यह जान चुके हैं फुकहा ए मुतकद्देमीन ने संदर्भ और इन्तेबाक के महल के मामले को शब्द नस्खके आम अर्थ के साथ स्पष्ट किया है।

ठीक इसी दृष्टिकोण को इमाम जरकशी ने कुरआन के विज्ञान पर अपने सबसे प्रसिद्ध कार्यों में से एक "अल-बुरहान फी उलूम अल-कुरआन" में समर्थन दिया है। विभिन्न मुफ़स्सेरीन का हवाला देते हुएइमाम जरकशी ने सुझाव दिया कि कई मुफ़स्सेरीन ने यह कहते हुए गलती की है कि अयातुस सैफ ने धैर्य और क्षमा के आयतों को निरस्त कर दिया है। ऐसा इसलिए है क्योंकि "नस्ख" के लिए कानूनी आदेश को इस तरह से पूरी तरह से समाप्त करने की आवश्यकता होती है कि इसे फिर कभी लागू नहीं किया जाए। जबकि इस तरह की आयतों में ऐसा नहीं है। बल्किइनमें से प्रत्येक आयत का एक विशेष अर्थ है जो एक विशेष संदर्भ के लिए विशिष्ट है। जैसे-जैसे परिस्थितियाँ बदलती हैंविभिन्न आयतों का प्रयोग आवश्यक हो जाता है। नस्ख का सही अर्थ यह है कि किसी भी आदेश को हमेशा के लिए समाप्त नहीं किया गया है। इमाम जरकशी ने अपने तर्कों को प्रमाणित करने के लिए इमाम शाफई के "अल-रिसालाह" से एक उदाहरण भी दिया हैजिसे ऊपर उद्धृत पुस्तक में देखा जा सकता है।

यहां इमाम जरकशी का मतलब है कि युद्ध और शांति से संबंधित आयतों को परिस्थितियों और संदर्भ के अनुसार अनुकूलित किया जाएगाइसलिए उन्हें निरस्त या रद्द नहीं किया जा सकता है।

कुरआन के उलूम के उपरोक्त दो महान इमामोंअल्लामा जरकशी और अल्लामा सुयूती के तर्कों का सारांश यह है कि आयत ९:५ किसी भी तरह से शांति और क्षमा के आयतों को निरस्त नहीं करता हैलेकिन प्रत्येक आयत को अपने उचित संदर्भ में लागू करने की जरूरत है। आयत ९:५ का नियम विशिष्ट संदर्भ का विषय है न कि 'नस्खका जैसा कि बाद के फुकहा ने इसको निर्धारित किया है।

यही कारण है कि मकबूल और मशहूर क्लासिकी इस्लामी उलमा जैसे इमाम बैज़ावीअल्लामा आलूसीइमाम अबू बक्र अल-जस्सास और कई अन्य इमामों ने मुशरेकीन को "नाकेसीन" के रूप में व्याख्या की हैअर्थातमुसलमानों के खिलाफ जंग का झंडा बुलंद कर के अमन संधि का उल्लंघन करने वाले। " जैसा कि उपर हमने अध्ययन किया।

एक सूफी क्लासिकी दीन के आलिम मौलाना बदरू दूजा मिस्बाही, प्रिंसिपल मदरसा अरबिया अशरफिया ज्याउल उलूम खैराबाद, मऊ, यूपी (इण्डिया) अपने एक लेख में लिखते हैं:

उपरोक्त कथन से यह स्पष्ट हो जाता है कि आयत ५ में जिन मुशरेकीन को अशहुर हरम के बाद मारने या उनसे लड़ने का आदेश दिया गया हैइससे आम कुफ्फार और मुशरेकीन मुराद नहीं हैंबल्कि अरब मुशरेकीन को संदर्भित करते हैंजिन्होंने न केवल मुसलमानों के साथ अनुबंध को तोड़ा था। बल्कि उन्होंने दावते इस्लाम के पामाली के लिए अपने अशुद्ध प्रयासों का भी इस्तेमाल कियाजैसा कि "فاقتلوا المشرکین" की तफसीर में साहबे तफसीर अबी सऊद फरमाते हैं "الناکثین خاصۃ فلایکون قتال الباقین مفھوما من عبارۃ النص بل من دلالتہ" [तफ़सीर अबी सऊद खंड 4पृष्ठ 43] (अर्थात यह केवल उन मुशरेकीन को संदर्भित करता है जिन्होंने वादे को तोड़ा। बाकी मुशरेकीन के लिएइसका मतलब उनसे लड़ना नहीं है जैसा कि इबारत से स्पष्ट है यह दलालतुल नस से भी स्पष्ट है।)"

इन प्रामाणिक और विश्वसनीय तफसीरों से यह स्पष्ट हो गया है कि सूरह अत-तौबा की इस आयत मेंमुशरेकीन और काफिरों को मारने और जहाँ कहीं भी मिले उन्हें मारने और धर पकड़ करने की जो आज्ञा दी गई है उससे आम कुफ्फार व मुशरेकीन और बिरादराने वतन मुराद नहीं हैं जैसा कि वसीम रिज़वी और इस्लाम विरोधी तत्वों द्वारा प्रचारित किया जा रहा हैबल्कि यह मक्का के मुशरेकीन और अरब जनजातियों को संदर्भित करता है जिन्होंने मुसलमानों के साथ हत्याविश्वासघात और अनुबंध के उल्लंघन जैसे जघन्य अपराध किए। कुरआन हरगिज़ इस बात की दावत नहीं देता  है कि बिना किसी कारण के चलते फिरते निर्दोष या अन्य लोगों को कलाश्निकोव के साथ गोली मारने और सैकड़ों बच्चों को अनाथों और महिलाओं के सिर से सुहाग की चादरें छीन ली जाएं कुरआन तो इसका दाई है कि अगर एक व्यक्ति बिना किसी कारण के किसी इंसान की जान ले लेता हैचाहे वह किसी भी धर्म का मानने वाला होयह ऐसा है जैसे वह पृथ्वी पर सभी मनुष्यों का हत्यारा हैऔर यदि कोई किसी भी पीड़ित और कमजोर इंसान के जीवन को बचाता हैजैसे कि धरती पर उसने सभी मनुष्यों के जीवन को बचाने का काम किया। कुरआन कहता है: مَن قَتَلَ نَفْسًا بِغَيْرِ نَفْسٍ أَوْ فَسَادٍ فِي الْأَرْضِ فَكَأَنَّمَا قَتَلَ النَّاسَ جَمِيعًا وَمَنْ أَحْيَاهَا فَكَأَنَّمَا أَحْيَا النَّاسَ جَمِيعًاۚ(المائدہ آیت: 32)

और एक और स्थान पर हुजूर सल्लल्लाहु अलैही वसल्लम फरमाते हैं مَنْ قَتَلَ نفسا مُعَاهَدۃ لَمْ يَرَحْ رَائِحَةَ الْجَنَّةِ، وَإِنَّ رِيحَهَا لیوجَدُ مِنْ مَسِيرَةِ خمسمائۃ عام ‏” (जमउल जवामे लील सुयूती, जिल्द:९, पेज: ७२१, दारुल सआदह) जिस व्यक्ति ने किसी मुआहिद को क़त्ल किया वह जन्नत की खुशबु नहीं पा सकेगा बावजूद इसके कि जन्नत की खुशबु पांच सौ वर्ष की दुरी से सूंघी जाती है।

और अहद व पैमान के बाद उसे तोड़ देने वाले कोनबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम इस अंदाज़ में फटकार लगा रहे हैं: " اِن الغادِر یُنصب لہ لواء یوم القیامۃ فیقول ھذہ غدرۃ فلان بن فلان" (जमउल जवामे लील सुयूती, जिल्द:८, पेज: ३७०, दारुल आद्सा) वास्तव मेंकयामत के दिन उस व्यक्ति के लिए एक चिन्ह स्थापित किया जाएगा जिसने अहद को तोड़ा और कहा जाएगा कि उसने फलां बिन फलां से विश्वासघात किया।

और यह पुष्टि करने के बाद कि एक मुस्लिम हत्यारे ने मारे गए जिम्मी के वारिसों के खून बहा को स्वीकार कर लिया हैहज़रत अली रज़ीअल्लाहु अन्हु ने हत्यारे को मुक्त कर दिया और कहा: "من کان لہ ذمتنا فدمہ کدمنا و دیتہ کدیتنا" जो हमारा ज़िम्मी हुआ उसका खून हमारे खून की तरह है और उसकी दीयत हमारे दीयत की तरह है।[ अल सुनन अल कुबरा लील बहकी, जिल्द:८, पेज: ६३, किताब अल ज्राहुल हदीस: १५९३४ दारुल क़ुतुब अल इल्मिया बैरुत लेबनान]

उपरोक्त चर्चा से यह बहुत स्पष्ट है कि जिहादी अपने नापाक एजेंडे को हासिल करने के लिए कुरआन की आयत 9:5 की गलत व्याख्या कर रहे हैं। और इस प्रकार इस्लामोफोबिया से पीड़ित लोगों के इस दावे का भी खंडन हो जाता है कि जिहादी आख्यान इस्लाम की क्लासिकी व्याख्या पर आधारित हैं। सभी आम नागरिकोंचाहे मुस्लिम हों या गैर-मुसलमानको इस्लामोफोब और जिहादियों से समान रूप से सावधान रहना चाहिए और कुरआन की आयत 9: 5 की पारंपरिक और मुख्यधारा की व्याख्या को स्वीकार करना चाहिएकि इस आयत में मुशरेकीन से मुराद इस्लाम के शुरुआती दिनों में जिन्होंने धार्मिक शोषण और शांति भंग की थीइसलिए इस आयत को वर्तमान समय के आम मुशरेकीन पर लागू नहीं किया जा सकता है जो संविधान और कानूनों के तहत शांति और सुरक्षा में रहते हैं। और अल्लाह बेहतर जानता है

-----------------

Related Article:

Refuting Islamophobic Claims That Jihadists Represent Traditional and Mainstream Interpretations of Islam: Part 1- On the Hakimiyyah اسلاموفوبز کا دعوی کہ جہادزم اسلام کی روایتی تشریحات کی ترجمان ہے کا رد بلیغ، قسط اول مسئلہ حاکمیت پر

Refuting Islamophobic Claim That Jihadists Represent Traditional and Mainstream Interpretations of Islam: Part 2 اسلامو فوبک دعوے کا رد کہ جہادیت ہی اسلام کی روایتی تشریحات کا ترجمان ہے

Refuting Islamophobic Claims: Part 3 on the Jihadist Narrative Inciting Treachery towards One’s Country اسلاموفوبک دعوے کا رد کہ جہادیت ہی اسلام کی روایتی تشریحات کا ترجمان ہے، قسط ثالث: ملک سے غداری کے لئے ورغلانے والے جہادی بیانیہ کا بطلان

Refuting Islamophobic Claim - Part 4 on the Jihadist Narrative Justifying Suicide Bombings or Martyrdom Operations اسلاموفوبک دعوے کا رد کہ جہادیت ہی اسلام کی روایتی تشریحات کا ترجمان ہے، قسط رابع: خودکش بم دھماکوں یا شہادت آپریشن کو جائز قرار دینے والے جہادی بیانیہ کا بطلان

Refuting Islamophobic Claims, Part 5- On The Concept of Darul Islam and Darul Harb اسلاموفوبک دعوے کا رد کہ جہادیت ہی اسلام کی روایتی تشریحات کا ترجمان ہے، قسط پنجم ، دار الحرب اور دار الاسلام

Refuting Islamophobic Claims That Jihadists Represent Traditional and Mainstream Interpretations of Islam: Part 6 On Targeting Civilians in Revenge اسلاموفوبک دعوی کا رد کہ جہادی اسلام کی روایتی اور مرکزی دھارے کی تشریحات کی ترجمانی کرتے ہیں: قسط ششم، انتقاما عام شہریوں کو نشانہ بنائے جانے سے متعلق بحث

Refuting Islamophobic Claims That Jihadists Represent Traditional and Mainstream Interpretations of Islam: Part 7 On Takfirism اسلاموفوبک دعوے کا رد کہ جہادیت ہی اسلام کی روایتی تشریحات کا ترجمان ہے، تکفیری بیانیہ پر

Refuting Islamophobic Claims That Jihadists Represent Traditional and Mainstream Interpretations of Islam: Part 8 On Killing Mushrikin and Kuffar اسلاموفوبک دعوے کا رد کہ جہادیت ہی اسلام کی روایتی تشریحات کا ترجمان ہے، قسط ۸ کفار ومشرکین کے قتل پرمشرکین کے قتل کا حکم دینے والی آیت 9:5 کا انطباق دور حاضر میں نہیں کیا جا سکتا

Refuting Islamophobic Claims That Jihadists Represent Traditional and Mainstream Interpretations of Islam: Part 1- On the Hakimiyyah

Refuting Islamophobic Claim That Jihadists Represent Traditional and Mainstream Interpretations of Islam: Part 2 on Imperativeness of Reclaiming ‘Muslim Land’

Refuting Islamophobic Claims That Jihadists Represent Traditional and Mainstream Interpretations of Islam: Part 3 on the Jihadist Narrative Inciting Treachery towards One’s Country

Refuting Islamophobic Claim That Jihadists Represent Traditional and Mainstream Interpretations of Islam - Part 4 on the Jihadist Narrative Justifying Suicide Bombings or Martyrdom Operations

Refuting Islamophobic Claims That Jihadists Represent Traditional and Mainstream Interpretations of Islam: Part 5- On The Concept of Darul Islam and Darul Harb

Refuting Islamophobic Claim That Jihadists Represent Islam- Part 6 On the Killing of Mushrikin and Kuffar

Refuting Islamophobic Claims That Jihadists Represent Traditional and Mainstream Interpretations of Islam: Part 7 On Takfirism

Refuting Islamophobic Claims That Jihadists Represent Traditional and Mainstream Interpretations of Islam: Part 8 On Killing Mushrikin and Kuffar

Refuting Islamophobic Claims इस्लामोफोब्ज़ का दावा कि जिहादिस्ट इस्लाम की रिवायती तशरीहात की तर्जुमान है का रद्दे बलीग़क़िस्त : मसला हाकिमियत

Refuting Islamophobic Claim That Jihadists Represent Traditional and Mainstream Interpretations of Islam: Part 2 इस्लामोफोबिया और जिहादिज्म का रद्द: कभी मुस्लिम सरज़मीन रहे इलाके को दुबारा हासिल करना लाज़िम या नहीं?

Refuting Islamophobic Claims: Part 3 on the Jihadist Narrative Inciting Treachery towards One’s Country इस्लामोफोबिक दावे का खंडन कि जिहादियत ही इस्लाम की पारंपरिक व्याख्याओं का प्रवक्ता हैतीसरी क़िस्त: देश से गद्दारी के लिए बहकाने वाले जिहादी बयानिये की अमान्यता

Refuting Islamophobic Claim - Part 4 on the Jihadist Narrative Justifying Suicide Bombings or Martyrdom Operations इस्लामोफोबिक दावे का खंडन कि जिहादियत ही इस्लाम की पारंपरिक व्याख्याओं का प्रवक्ता हैचौथी क़िस्त: आत्मघाती बम विस्फोटों या शहादत अभियानों को सही ठहराने वाले जिहादी बयानिये का खंडन

Refuting Islamophobic Claims, Part 5- On The Concept of Darul Islam and Darul Harb इस्लामोफोबिक दावे का खंडन कि जिहादियत ही इस्लाम की पारंपरिक व्याख्याओं का प्रवक्ता हैपांचवां क़िस्तदारुल हरब और दारुल इस्लाम पर

Refuting Islamophobic Claims That Jihadists Represent Traditional and Mainstream Interpretations of Islam: Part 6 On Targeting Civilians in Revenge इस्लामोफोबिक दावों का खंडन कि जिहादी इस्लाम की पारंपरिक और मुख्यधारा की व्याख्याओं का प्रतिनिधित्व करते हैं: किस्त: बदले में आम नागरिकों को निशाना बनाए जाने के विषय पर चर्चा

Refuting Islamophobic Claims That Jihadists Represent Traditional and Mainstream Interpretations of Islam: Part 7 On Takfirism इस्लामोफोबिक दावे का खंडन कि जिहादियत ही इस्लाम की पारंपरिक व्याख्याओं का प्रवक्ता है क़िस्त: 7 तकफीरिज़म पर

URL: https://www.newageislam.com/hindi-section/refuting-islamophobic-claims-jihadist-part-8/d/125090

New Age IslamIslam OnlineIslamic WebsiteAfrican Muslim NewsArab World NewsSouth Asia NewsIndian Muslim NewsWorld Muslim NewsWomen in IslamIslamic FeminismArab WomenWomen In ArabIslamophobia in AmericaMuslim Women in WestIslam Women and Feminism


Loading..

Loading..