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Hindi Section ( 6 May 2021, NewAgeIslam.Com)

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Refuting Islamophobic Claims इस्लामोफोब्ज़ का दावा कि जिहादिस्ट इस्लाम की रिवायती तशरीहात की तर्जुमान है का रद्दे बलीग़, क़िस्त १: मसला हाकिमियत

न्यू एज इस्लाम विशेष संवाददाता

(उर्दू से अनुवाद , न्यू एज इस्लाम)

इस्लामोफोब्ज़ और जिहादी दहशतगर्दों के बीच सद्भाव इतनी स्पष्ट है कि किसी इंसान से इसमें भूल चुक नहीं हो सकती। दोनों का एक ही उद्देश्य है अर्थात मेनस्ट्रीम मुसलमानों को हिंसक अतिवाद के रास्ते को अपनाने की तरगीब देना। किसी शांतिपूर्ण शख्स या बिरादरी के मुकाबले में किसी हिंसक ज़ात या बिरादरी को बर्बाद करना आसान होता है। मुसलमानों को इस्लामोफोब्ज़ और जिहादियों दोनों ही से सामान तौर पर दूर रहना चाहिए। वह दोनों ही हमारे दुश्मन हैं। दोनों ही इस्लामी अकीदों में हिंसा के जवाजों को तलाशते हैं। इस सीरीज़ के अध्ययन से यह बात स्पष्ट हो जाएगी कि इस तरह के जवाज़ का कोई वजूद नहीं है।

इस्लामोफोब्ज़ अक्सर यह दावा करते हैं कि जिहादिस्ट इस्लाम के हकीकी वर्ज़न की नुमाइंदगी करते हैं ठीक उसी तरह जैसा कि इस्लामी नियमों और ज़रियों की रिवायती तशरीहात में दर्ज है। इसके नतीजे में, कुछ गैर मुस्लिम अमन पसंद मुसलमानों को भी शुकुक व शुबहात की नज़र से देखते हैं यहाँ तक कि कुछ तो अदावत की शक्ल इख्तियार कर लेते हैं। एक दुसरे के लिए दोनों पक्ष अपने दिलों में नफरत फैलाते मालुम पड़ते हैं। मुसलमानों से फिर यह उम्मीद की जाती है कि वह माज़रत ख्वाह हो जाएं और बार बार यह बयान करें कि इस्लाम जिहादियों की दहशतगर्दी की कार्रवाहियों का जवाज़ पेश करता है।

मौजूदा दौर का मंजर कुछ इस तरह का हो चुका है अर्थात एक ऐसी कैफियत बन चुकी है जिसका सामना कोई  शरीफ शख्स करना पसंद नहीं करेगा। इस लेख में यह हकीकत साबित करने के लिए कुछ रिवायती और क्लासिकी दलीलों की निशानदही की गई है। इस्लामोफोबिक दावा है कि इस्लाम और रिवायती थियोलोजी का जिहादिज्म से संबंध है, यह दावा हरगिज़ सहीह नहीं। ऐसे दावे केवल शरारत हैं या इस्लामी थियोलोजी से नावाकिफियत पर आधारित हैं।

जंग और अमन से संबंधित अह्कामों को अमली जामा पहनाने के रिवायती फिकही उसूल मौजूदा दौर के जिहादी नजरियों के खिलाफ हैं। हकीकत तो यह है कि इन रिवायती अहकाम की रौशनी में तो दहशतगर्दाना नज़रियात की तरदीद की जा सकती है जैसा कि यह जरूरी भी है। कहने का उद्देश्य यह है कि हम दहशतगर्दी के खात्मे के लिए प्रयोग की जाने वाली आधुनिक तकनीकों के साथ साथ, रिवायती सिद्धांतों और नज़रियात और फिकही जुज़ियात की रौशनी में जिहादिस्ट नज़रियात की तरदीद बखूबी कर सकते हैं।

जैसा कि हम स्पष्ट कर चुके हैं कि जिहादिस्ट नज़रियात और रिवायती नज़रियात व तशरीहात के बीच काफी फर्क है, इसलिए उसी फर्क को बयान करने के लिए मैंने कुछ ऐसे विषयों को अध्ययन में रखा जिन्हें जिहादी नजरिया साज़ मौजूदा दौर में मुस्लिम नौजवानों को बहकाने के लिए लगातार इस्तेमाल करते रहते हैं, जैसे हाकिमियत का मसला, “दारुल हरब और दारुल इस्लाम की कल्पना, “अल वला वल बराअ का नजरिया, “मुस्लिम सरज़मीन को दोबारा हासिल करना, “वतन के लिए गद्दारी का मसला, “आम शहरियों को निशाना बनाना, “खुदकश हमले, “मुशरेकीन और कुफ्फार का कत्ले आम करना, “जिहाद बिल क़िताल के शराएतआदि। लेखक का उद्देश्य यह है कि इन विषयों को कई किस्तों में लिखा जाए और यह स्पष्ट करे कि इस्लामोफोब्ज़ का दावा कि मौजूदा जिहादी नज़रियात इस्लाम की रिवायती तशरीहात की तर्जुमान है, बेबुनियाद और बेकार दावा है जिसका हकीकत से कोई संबंध नहीं। सबसे पहले हम हाकिमियत के मसले पर बहस पेश कर रहे हैं।

रिवायती और जिहादिस्ट नज़रियात के बीच हाकिमियत का मसला

सलफी जिहादिस्ट नज़रिया साज़ सालेह सुरय्या (१९३३-१९७४) अपनी किताब रिसालतुल ईमानमें मुस्लिम हुकमरानों के तकफीर करते हैं, आम मुसलमानों को जाहिली बिरादरी से संबंध रखें वाला करार देते हैं और उनकी रियासत को दारुलहरबमानते हैं। वह मज़ीद कहते हैं तमाम मुस्लिम देशों की मौजूदा तर्ज़े हुकुमत बेशक काफिर तर्ज़े हुकूमत है और उन तमाम देशों की बिरादरी जाहिली दौर से संबंध रखती है। इस्लामी रियासत के नाम निहाद तरबियती कैम्प की दरसी किताब मुकर्रर फिल तौहीदमें वह उन तमाम लोगों को मुर्तद करार देते हैं जो कानूने खुदावन्दी पर अमल पैरा नहीं होते। उनकी लेखों में चाहे वह दाबिकरुमीयाया विशेषतः भारत के संबंध में प्रोपेगेंडा किया गया रिसाला वाइस ऑफ़ हिन्दहो इन तमाम में वह अपने दावे को मुस्तहकम करने के लिए लगातार निम्नलिखित दो कुरआनी आयतों को नक़ल करते हैं कि जो अल्लाह के नाज़िल किये हुए अहकाम के सिवा पीरी करते हैं वह काफिर व मुशरिक और बेदीन है।

कुरआन की वह दो आयतें निम्नलिखित हैं:

और जो शख्स ख़ुदा की नाज़िल की हुई (किताब) के मुताबिक़ हुक्म न दे तो ऐसे ही लोग काफ़िर हैं। (५:४४)

पस (ऐ रसूल) तुम्हारे परवरदिगार की क़सम ये लोग सच्चे मोमिन न होंगे तावक्ते क़ि अपने बाहमी झगड़ों में तुमको अपना हाकिम (न) बनाएं फिर (यही नहीं बल्कि) जो कुछ तुम फैसला करो उससे किसी तरह दिलतंग भी न हों बल्कि ख़ुशी ख़ुशी उसको मान लें (४:६५)

कुरआन मजीद की इन दो आयतों की बुनियाद पर जिहादी नजरिया साज़ ने इस बहस में इन्तिहाई तौसीक पैदा की है कि मौजूदा दौर के मुसलमान जो इस्लामी नियमों को नाफ़िज़ नहीं करते हैं वह सभी काफिर व मुर्तद हैं। उनके बीच फर्क को देखने के लिए कोई भी शख्स यह देख सकता है कि इन दो कुरआनी आयतों की रिवायती और क्लासिकी तफ़सीर उन मुसलमानों की तकफीर नहीं करती हैं जो इस्लामी नियमों को लागू नहीं करते हैं क्योंकि वह बदलते हालात और कतई जरूरियात के पेशे नज़र यकीनी तौर पर काबिले इतलाक नहीं हैं।

उपर्युक्त आयतों की क्लासीकी और रिवायती व्याख्या यह है कि जो शख्स अल्लाह की नाज़िल की हुई अह्कामों के मुताबिक़ फैसला नहीं करता अर्थात इसकी उलुहियत, ईमान और सच्चाई से इनकार करता है वह वाकई काफिर है। जहां तक वह मुसलमान जिनका यह अकीदा है कि यह आयत हक़ है, वही ए इलाही और अहकामे खुदावन्दी है लेकिन बदलते हुए हालात या किसी मज़बूरी के तहत इस पैगाम को नाफ़िज़ करने में असफल है तो वह काफिर नहीं है।

इमाम फखरुद्दीन राज़ी अपनी तफ़सीर की किताब अल तफ़सीर अल कबीरमें लिखते हैं।

अकरमा ने कहा, तकफीर का हुक्म जैसा कि अल्लाह के फरमान में उल्लेखित है और जो शख्स अल्लाह के नाज़िल किये हुए हुक्म के अनुसार फैसला (व हुकूमत) ना करे सो वही लोग काफिर हैंइसका इतलाक उस शख्स पर होता है जो अपने दिल में अल्लाह के नाज़िल किये हुए कानून की हक्कानियत पर यकीन रखता है और अपनी जुबान से यह स्वीकार करता है कि यह अल्लाह का नाज़िल किया हुआ कानून है हालांकि वह इसकी खिलाफवर्जी करता है लेकिन फिर भी वह अल्लाह की वही पर ईमान रखने वाला मोमिन ही कल्पना किया जाएगा हाँ लेकिन वह इस मामले में केवल बे अमल मोमिन के तौर पर जाना जाएगा इसलिए इसी वजह से आयत के अनुसार उसे काफिर नहीं समझा जाएगा। इस हवाले को नक़ल करने के बाद इमाम राज़ी ने फरमाया यह सहीह जवाब है। (इमाम राज़ी तफसीर अल कबीर ५:४४)

शैख़ उसामा अज़हरी लिखते हैं: मारुफ़ व मकबूल फुकहा की तौजीहात का अध्ययन करने के बाद हम ने जान लिया है कि इब्ने मसूद, इब्ने अब्बास, बराअ बिन आज़िब, हुज़ैफा बिन यमान, इब्राहीम नखई, अल सदी, अल ज़हाक, अबू सालेह, अकरमा, कतादा, आमिर, अल शबई, अता, ताउस और फिर इमाम तबरी अपनी जामेउल बयानमें इमाम गज्ज़ाली अल मुस्तफामेंम इब्ने अतिया अल मुहर्ररुल वजीजमें इमाम राज़ी फ़तहुल गैबमें, कुर्तुबी इब्ने जौजी अल तस्हीलमें, अबू हियान अल बहरुल मुहीतमें, इब्ने कसीर तफ्सीरुल कुरआन अल मजीदमें आलोसी रुहुल मुआनीमें ताहिर इब्ने आशिर अल ताहिरुल तन्वीनमें, और शैख़ शआरवी अपनी तफसीर में और उसी तरह दुसरे तमाम उलेमा भी इस आयत ५:४४ की तफ़सीर से ऐसे ही मुत्तफिक हैं। (जैसा कि इमाम राज़ी की अल तफ़सीर अल कबीरके हवाले के साथ उपर उल्लेखित है)। “(अल हक़ अल मुबीन फिल रद्द अला मन तलाईब बिल दीन, अरबिक एडिशन, पृष्ठ २३)

हाकिमियत वाली आयतों की क्लासिकल और जिहादिस्ट व्याख्या के बीच फर्क इतना स्पष्ट है कि मज़ीद वजाहत की हाजत नहीं। इस्लामोफोब्ज़ यह हक़ बजानिब दावा कैसे कर सकते हैं कि जिहादिस्ट नजरिया क्लासिकल और रिवायती व्याख्या पर आधारित है? क्या ऐसा नहीं लगता कि इस्लामोफोब्ज़ ने जिहादी नजरिया साज़ के साथ जिहादी नज़रियात के फरोग में मदद का हाथ बढ़ा दिया है? अगर ऐसा है तो जिहादी नज़रियात के हामेलीन को इस्लामोफोब्ज़ से बहुत ख़ुशी हासिल होती होगी।

इस्लामोफोब्ज़ और जिहादी दहशतगर्दों के बीच सद्भाव इतनी स्पष्ट है कि किसी इंसान से इसमें भूल चुक नहीं हो सकती। दोनों का एक ही उद्देश्य है अर्थात दोनों ही मेनस्ट्रीम मुसलमानों को हिंसक अतिवाद के रास्ते को अपनाने की तरगीब देते हैं। किसी शांतिपूर्ण व्यक्ति या बिरादरी के मुकाबले में किसी हिंसा पूर्ण ज़ात या बिरादरी को बर्बाद करना अधिक आसान होता है। मुसलमानों को इस्लामोफोब्ज़ और जिहादियों दोनों ही से बराबर तौर पर दूर रहना चाहिए। वह दोनों ही हमारे दुश्मन हैं दोनों ही इस्लामी अकीदों में हिंसा के जवाज़ को तलाशते हैं। इस सीरीज़ के अध्ययन से यह बात स्पष्ट हो जाएगी कि इस तरह के जवाज़ का कोई वजूद नहीं है।

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