बदला लेने या किसी अन्य कारण से आम नागरिकों को निशाना बनाना
इस्लाम में हराम है
प्रमुख बिंदु :
* मुस्लिम नागरिकों पर हमलों के जवाब में आम नागरिकों
को निशाना बनाना और इसे सही ठहराना जिहादी बयानिये का हिस्सा है।
* आम नागरिकों को निशाना बनाने पर जिहादियों और क्लासिकी
उलेमा के लेखन की तुलना
* इस्लाम की क्लासिकी किताबों में आम नागरिकों को निशाना
बनाने पर रोक
* हदीस स्पष्ट रूप से कहती है कि उत्पीड़कों के अत्याचार
को आम नागरिकों द्वारा दंडित नहीं किया जा सकता है जो उनके अकीदे में विश्वास करते
हैं, और इसलिए उन्हें निशाना बनाना जायज़ नहीं है।
* जिहादियों ने जवाबी कार्रवाई में आम नागरिकों की हत्या
को सही ठहरा कर कुरआन और सुन्नत का उल्लंघन किया है।
* इसलिए, यह इस्लामोफोबिक दावा कि जिहादी बयानिया इस्लाम की क्लासिकी
व्याख्याओं पर आधारित है, पूरी तरह से गलत है।
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New
Age Islam Correspondent
न्यू एज इस्लाम विशेष संवाददाता
(उर्दू से अनुवाद, न्यू एज इस्लाम)
१७ जून २०२१
जिहादियों ने जिहाद की ऐसी व्याख्या पेश की है जिससे मानवता से सहानुभूति रखने वाले इस्लाम की क्लासिकी व्याख्या का उल्लंघन होता है और आम नागरिकों को बे तहाशा निशाना बनाए जाने का औचित्य मिलता है। जिहादियों के इस कार्य से सबसे अधिक लाभ इस्लामोफोबिक प्रचार प्रसार को हुआ है, और वह यह दावा करने लगे हैं कि जिहादी कार्य इस्लाम की क्लासिकी व पारम्परिक व्याख्या पर आधारित है। यह तर्क बिलकुल निराधार है इससे केवल इस्लामोफोबिक बयानिये का उद्देश्य पूरा होता है, लेकिन मानवता की भलाई व बेहतरी की खातिर इसका रद्द करना आवश्यक है।
चरमपंथियों का मानना है कि मुस्लिम नागरिकों पर हमलों के जवाब में आम नागरिकों को निशाना बनाना जायज़ है, और इसे सही ठहराने के लिए, वे कुरआन की इस आयत से गलत तरीके से तर्क देते हैं:
فمن اعتدى عليكم فاعتدوا عليه بمثل ما اعتدى عليكم (سورہ البقرہ آیت نمبر ۱۹۴)
अनुवाद: जो तुम पर अत्याचार करे तुम भी उस पर उसी की तरह अत्याचार करो जो तुम पर किया है।
नीचे कुछ जिहादी उद्धरण दिए गए हैं ताकि उनका बेहतर खंडन किया जा सके, फिर हम इस आयत की क्लासिकी और पारंपरिक व्याख्याओं पर चर्चा करेंगे और इस बात का अवलोकन करेंगे कि कैसे जिहादी इस आयत की गलत व्याख्या करते हैं।
जिहादी लेखन में आम नागरिकों को निशाना बनाने का औचित्य
वर्तमान युग के कई वहाबी जिहादियों ने कुछ परिस्थितियों में समान प्रतिशोध के रूप में गैर-लड़ाकू नागरिकों की हत्या को उचित ठहराया है। यूसुफ अल-अबीरी लिखते हैं:
لقد سقنا أدلة حرمة قتل النساء والصبيان والشيوخ ومن في حكمهم من غير المقاتلة من الكفار، إلا أن هؤلاء المعصومين من الكفار ليست عصمتهم مطلقة، بل إن هناك حالات يجوز فيها قتلهم سواء قصدا أو تبعا. ومن الحالات التي يجوز فيها قتل أولئك المعصومين قصدا أن يعاقب المسلمون الكفار بنفس ما عوقبوا به فإذا كان الكفار يستهدفون النساء والأطفال والشيوخ من المسلمين بالقتل، فإنه يجوز في هذه الحالة أن يفعل معهم الشيء نفسه لقول الله تعالى (فمن اعتدى عليكم فاعتدوا عليه بمثل ما اعتدى عليكم) (حقيقة الحرب الصليبية الجديدة للشيخ يوسف العييري، ص 24)
अनुवाद:
हमने महिलाओं, बच्चों, बुजुर्गों और उनके अधीन आने वालों, यानी गैर-लड़ाकू काफिरों की हत्या के निषेध के बारे में तर्कों का विश्लेषण किया है, लेकिन उनकी इस्मत मुतलक नहीं है। कुछ मामलों में, जानबूझकर या अनजाने में उन्हें मारने की अनुमति है। जिन परिस्थितियों में इन बेगुनाहों की हत्या जायज़ है, वह यह है कि मुसलमानों को काफिरों के साथ उतना ही आक्रामक व्यवहार करना चाहिए जितना उनके साथ किया गया है। यानी अगर काफ़िरों ने मुस्लिम औरतों, बच्चों और बुज़ुर्गों को क़त्ल कर दिया तो उनके साथ भी ऐसा ही करना जायज़ है, क्योंकि अल्लाह तआला फरमाता कहता है: فمن اعتدى عليكم فاعتدوا عليه بمثل ما اعتدى عليكم۔ (نئی صلیبی جنگ کی حقیقت، صفحہ نمبر ۲۴)
"मुबारक हमलों" से संबंधित अपने एक फतवे में जिसका शीर्षक है। بیان عما جری فی امریکا من احداث, सऊदी नजाद प्रभावी वहाबी अलीम हमूद बिन उकला अल शुएबी ने बदले के तौर पर आम नागरिकों को निशाना बनाए जाने को जायज़ करार दिया है। अपने फतवे में इमाम इब्ने तैमिया, इब्ने हजम और इब्नुल कय्यिम के हवाले से यह इस्तिदलाल किया है कि बदले के लिए आम नागरिकों को निशाना बनाना जायज़ है। इससे संबंधित वह कहते हैं:
कुफ्फार जैसा हमारे साथ करते हैं उनके साथ भी वैसा ही करना जायज़ है। (حمود بن عقلاء الشعيبي، التبيان في استهداف النساء والصبيان، تبیان پبلیکیشن، صفحہ نمبر۶۹)
वहाबी सलफी मकतबे फ़िक्र के विशिष्ट आलिम सालेह अल उसैमीन ने अपने एक टेप रिकार्डिंग में आम नागरिकों को मारने से संबंधित यह बयान जारी किया था:
दूसरा मुद्दा युद्ध के दौरान महिलाओं और बच्चों की हत्या पर रोक है। लेकिन कहा जाता है कि काफिर हमारे साथ ऐसा ही करते हैं, तो इसका मतलब यह है कि वे हमारे बच्चों और महिलाओं को भी मारते हैं, तो क्या हम उन्हें भी मार सकते हैं? जाहिर है, उस मामले में, हमारे लिए उनकी महिलाओं और बच्चों को मारना जायज़ होगा। (ابن صالح العثيمين، التبيان في استهداف النساء والصبيان، تبیان پبلیکیشن، صفحہ نمبر۷۲)
सामूहिक विनाश के हथियारों (WMD) के उपयोग की वैधता पर चर्चा करते हुए, सऊदी सलफी जिहादी आलिम नासिर इब्ने हमद अल-फहद ने कहा:
इसलिए यदि अमेरिकियों पर एक परमाणु बम गिराया गया, जिसमें दस मिलियन नागरिक मारे गए, और उनकी भूमि को इस हद तक नष्ट कर दिया गया कि जिस हद तक हमारी भूमि नष्ट की गई , तो ऐसा करना जायज़ होगा, और इसके लिए किसी और प्रमाण की आवश्यकता नहीं है। और सबूतों की जरूरत तभी पड़ेगी जब हम अपने पीड़ितों से ज्यादा मारना चाहते हैं। (ناصر بن حمد الفہد، حکم استخدام السلاح الدمار الشامل ضد الکفار، التبيان في استهداف النساء والصبيان، تبیان پبلیکیشن کے صفحہ نمبر ۷۵ پر منقول)
सऊदी जिहादी फारस अहमद जमआन आले श्वैल अल जहरानी कुछ इस तरह तर्क देते हैं:
इसलिए, मुसलमानों के लिए यह जायज़ है कि वे अपने दुश्मनों के साथ वैसा ही व्यवहार करें जैसा वे मुसलमानों के साथ करते हैं। अगर वे हमारी महिलाओं और बच्चों को निशाना बनाते हैं तो फिर मुसलमानों का यह भी अधिकार है कि वे समान प्रतिशोध के रूप में उनकी औरतों और बच्चों को निशाना बनायें, क्योंकि यह आयत उमूम पर दलालत करता है। (فارس أحمد جمعان آل شويل الزهراني، التبيان في استهداف النساء والصبيان، تبیان پبلیکیشن، ۲۰۰۴ صفحہ نمبر ۸۳ پر منقول)
लश्कर-ए-तैयबा के अनुसार, जिहाद के आठ कारणों में से एक यह है कि अगर कोई काफिर किसी मुसलमान को मारता है, तो उसे बदला लेना होगा। (हम जिहाद क्यों कर रहे हैं)
इस्लाम की क्लासिकी और पारंपरिक किताबों में आम नागरिकों को निशाना बनाने पर रोक
वहाबी जिहादी लेखन की समीक्षा करने के बाद, जो बदले के रूप में आम नागरिकों के निशाना बनाए जाने को वैध बनाता है, अब हम कुरआन और सुन्नत और क्लासिकी इस्लामी लेखन की जांच करेंगे। कुरआन और सुन्नत के अनुसार, प्रत्येक व्यक्ति अपने कार्यों के लिए जिम्मेदार है। यदि कोई व्यक्ति अन्याय करता है, तो वह समान दंड का पात्र है इस कृत्य के लिए किसी और को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है। इस हुक्म के अनुसार, यदि कोई गैर-मुस्लिम किसी मुस्लिम नागरिक को मारता है या उसे निशाना बनाता है, तो केवल उसे ही उसके कार्यों के लिए दंडित किया जाएगा। इस अमल के लिए किसी अन्य गैर-मुस्लिम को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है। उसके परिवार, गोत्र, मित्र या उसके साथ रहने वाले किसी भी सामान्य नागरिक को उसके अपराध की सजा नहीं दी जा सकती। कुरआन में, अल्लाह पाक स्पष्ट रूप से कहते हैं:
ولا تكسب كل نفس إلا عليها ولا تزر وازرة وزر أخرى ثم إلى ربكم مرجعكم فينبئكم بما كنتم فيه تختلفون (سورہ الانعام، آیت نمبر ۱۶۴)
अनुवाद: “और जो शख्स कोई बुरा काम करता है उसका (वबाल) उसी पर है और कोई शख्स किसी दूसरे के गुनाह का बोझ नहीं उठाने का फिर तुम सबको अपने परवरदिगार के हुज़ूर में लौट कर जाना है तब तुम लोग जिन बातों में बाहम झगड़ते थे वह सब तुम्हें बता देगा”
यह आयत यह स्पष्ट करती है कि यदि कोई उत्पीड़क मुस्लिम नागरिकों को मारता या निशाना बनाता है, तो वह अकेले अपने कार्यों के लिए जिम्मेदार होगा। उसके धर्म के किसी भी सामान्य नागरिक को उसकी क्रूरता के लिए दंडित नहीं किया जा सकता। इस्लामी कानून न्याय पर आधारित है और किसी ज़ालिम के ज़ुल्म का बदला किसी आम नागरिक को देने की अनुमति नहीं है।
अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम फरमाते हैं:
उनमें से किसी को भी (शांतिपूर्ण गैर मुस्लिम नागरिकों में से किसी को भी) इस अन्याय की सज़ा नहीं दी जाएगी, जो उसके धर्म के मानने वाले किसी दुसरे व्यक्ति ने की है। (इमाम अबू यूसुफ की किताब अल खिराज में पेज ७८ पर नकल है, और अल बलाजरी की किताब फुतुहुल बुल्दान के पेज ९० पर नकल है)
यह सब इस बात की पुष्टि करता है कि जो लोग प्रतिशोध में दूसरे देशों के आम नागरिकों को निशाना बनाते हैं और मारते हैं, वे कुरआन और सुन्नत के स्पष्ट आदेशों का उल्लंघन करते हैं।
सुरह बकरा की आयत नंबर १९४ की क्लासिकी व्याख्या, जिहादी कसरत से इस आयत का गलत उपयोग करते हैं:
हमने ऊपर देखा है कि कैसे जिहादी आम नागरिकों को निशाना बनाने को सही ठहराने के लिए सूरह अल-बकरा की आयत संख्या १९४ का उपयोग करते हैं। पूरी आयत इस प्रकार है:
الشهر الحرام بالشهر الحرام والحرمات قصاص، فمن اعتدى عليكم فاعتدوا عليه بمثل ما اعتدى عليكم ۚ واتقوا الله واعلموا أن الله مع المتقين (سورہ البقرہ، آیت نمبر ۱۹۴)
अनुवाद: “हुरमत वाला महीना हुरमत वाले महीने के बराबर है (और कुछ महीने की खुसूसियत नहीं) सब हुरमत वाली चीजे एक दूसरे के बराबर हैं पस जो शख्स तुम पर ज्यादती करे तो जैसी ज्यादती उसने तुम पर की है वैसी ही ज्यादती तुम भी उस पर करो और ख़ुदा से डरते रहो और खूब समझ लो कि ख़ुदा परहेज़गारों का साथी है”।
فمن اعتدى عليكم فاعتدوا عليه بمثل ما اعتدى عليكم अनुवाद: [जो तुम पर ज़्यादती करे तुम भी उस पर उसी के जैसे ज़्यादती करो जो तुम पर की है] इस आयत में اعتدی का अनुवाद ज़्यादती से किया गया है, जबकि اعتدی का अर्थ हद से आगे बढना भी हो सकता है। किस तरह की आक्रामकता या हद से आगे बढ़ने की अनुमति दी गई है? रिवायती मुफस्सेरीन इस आयत की व्याख्या इस तरह करते हैं कि इस्लाम से पहले चार महीने पवित्र माने जाते थे अर्थात जुल कादा, जुल हिज्जा, मुहर्रम और रजब। और इन महीनों में जंग या क़िताल करना गैर कानूनी समझा जाता था। कुफ्फारे मक्का भी इन महीनों के पवित्रता की पासदारी करते थे। इल्साम के प्रारम्भिक दौर में भी यह हुक्म कायम था, इसी लिए सहाबा को हैरानी हुई। जब सहाबा इस संकोच में थे कि क्या इन चार पवित्र महीनों में रक्षात्मक जंग लड़ सकते हैं या नहीं, तब यह आयत नाज़िल हुई और इन चार महीनों में रक्षात्मक जंग लड़ने की इजाजत मिली। यह कहा जा सकता है कि इन महीनों में पहल करना हद से आगे बढ़ना है। लेकिन जब इन महीनों में दुश्मन जंग की पहल करे तो जवाबन बचाव में हद से आगे बढ़ना या आक्रमण करना जायज़ है।
इस आयत को तफ़सीर क़ुरतुबी में बहुत विस्तार से समझाया गया है, लेकिन अत्याचारी के ज़ुल्म के प्रतिशोध में आम नागरिकों को निशाना बनाना कहीं भी उचित नहीं है। فمن اعتدى عليكم فاعتدوا عليه بمثل ما اعتدى عليكم [अनुवाद: जो तुम पर ज़्यादती करे तुम भी उस पर उसी की तरह ज़्यादती करो जो तुम पर की है] सुरह बकरा की आयत के इस जुज़ की क्लासिकी व्याख्या से इस बात का इशारा मिलता है कि यह आयत इस बात की बुनियाद है कि बदला में बराबरी का बर्ताव जरूरी है। जिन्होंने कोई अपराध नहीं किया उनको निशाना बना कर हद से आगे नहीं बढ़ा जा सकता है। तफसीरे कुरतुबी के अलफ़ाज़ में इसका अर्थ कुछ इस प्रकार होता है:
जिसने किसी को जिस चीज से कत्ल किया होगा, उसको उसी चीज से कत्ल किया जाएगा, यह जम्हूर का कौल है। जब तक कि उसने किसी बुराई से ना कत्ल किया हो, जैसे समलैंगिकता से कत्ल किया हो, या शराब पिला कर क़त्ल किया हो तो उस सूरत में उसे तलवार से कत्ल किया जाएगा। (तफसीर कुरतुबी, सुरह बकरा, आयत नंबर १९४)
इब्ने माजशून कहते हैं:
जिसने आग या ज़हर से कत्ल किया तो उस से क़त्ल नहीं किया जाएगा, क्योंकि नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया: अल्लाह के सिवा आग से कोई अज़ाब न दे और ज़हर छुपा हुआ आग है। (तफसीर कुतबी, सुरह अल बकरा आयत नंबर १९४)
इमाम मालिक की एक रिवायत में है कि अगर लाठी से क़त्ल करने में अधिक समय लगता हो और अज़ाब होता हो तो तलवार से क़त्ल किया जाएगा। (तफसीर कुतबी, सुरह बकरा आयत नंबर १९४)
इब्न अल-अरबी कहते हैं:
उलेमा के अनुसार समानता अनिवार्य है, लेकिन यह कि यातना होती हो तो तलवार से मार दिया जाएगा। (तफसीरे कुतबी, सुरह बकरा आयत नंबर १९४)
उलेमा के एक समूह ने थोड़ा भिन्न मत व्यक्त करते हुए कहा है कि किसास तलवार से ही लिया जाएगा। यह इमाम अबू हनीफा, शाअबी और नखई का कहना है उन्होंने पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की हदीस से तर्क दिया है कि उन्होंने कहा: किसास केवल लोहे के साथ, यानी एक तेज वस्तु के साथ लिया जाएगा, मुसला और आग से सजा देने को भी मना किया गया है क्योंकि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया: आग के साथ केवल आग का रब ही अज़ाब देगा। (तफसीरे कुतबी, सुरह बकरा आयत नंबर १९४)
पाठक तफसीरे कुतबी में वर्णित इस परिणाम को समझ सकते हैं:
यदि कोई तुम पर ज़ुल्म करता है, तो तुम अपने ज़ुल्म की मात्रा में उससे अपना हक प्राप्त कर सकते हैं, और यदि कोई तुमको गाली देता है, तो तुम वही गाली उसे वापस लौटा दो, लेकिन अधिक नहीं। यदि कोई तेरी इज़्ज़त को कलंकित करे, तो उसकी इज़्ज़त के साथ ऐसा ही करो, लेकिन तुम उसके माता-पिता, उसके बेटे और उसके रिश्तेदारों तक मत जाओ, उसके बारे में झूठ बोलना तुम्हारे लिए जायज़ नहीं है, भले ही उसने तुम्हारे बारे में झूठ बोला हो। क्योंकि गुनाह का मुकाबला गुनाह से नहीं किया जाता है। उदाहरण के लिए यदि उस ने तुम से कहा, ऐ काफिर! तुम भी कह सकते हो: तू काफ़िर! अगर उसने तुमसे कहा: ऐ जानी (जिना करने वाला)! तो तुम्हारा किसास यह कहना है: हे झूठे! झूठ का गवाह! यदि तुम उसे जानी कहते हो, तो तुम झूठे होगे और झूठ में गुनाहगार होगे । (तफसीरे क़ुरतुबी , सुरह बकरा आयत नंबर १९४)
अब यह बिलकुल स्पष्ट हो गया है कि فمن اعتدى عليكم فاعتدوا عليه بمثل ما اعتدى عليكم [अनुवाद: जो तुम पर आक्रामकता करे तुम भी उस पर उसी के जैसे आक्रामकता करो जो तुम पर की है] का अर्थ यह है कि अगर कोई किसी को कत्ल करता है तो उसको भी उसी तरीके और हथियार से सज़ा दी जाएगी। और यही जम्हूर उलेमा का कौल है। किसी भी क्लासिकी या रिवायती आलिम ने बदले के तौर पर मुस्लिम या गैर मुस्लिम आम नागरिकों को निशाना बनाने या कत्ल करने को जायज़ करार नहीं दिया है, अगर कातिल ने बड़ी संख्या में ही मुसलमानों का कत्ल क्यों न किया हो। क्योंकि यह अन्याय है और अन्याय को अल्लाह पाक पसंद नहीं करते।
आइए एक बार फिर पढ़ते हैं कि अल्लाह और उसके प्यारे नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम क्या फरमाते हैं, अल्लाह पाक फरमाता है:
ولا تكسب كل نفس إلا عليها ولا تزر وازرة وزر أخرى ثم إلى ربكم مرجعكم فينبئكم بما كنتم فيه تختلفون(سورہ الانعام، آیت نمبر ۱۶۴)
अनुवाद: और जो शख्स कोई बुरा काम करता है उसका (वबाल) उसी पर है और कोई शख्स किसी दूसरे के गुनाह का बोझ नहीं उठाने का फिर तुम सबको अपने परवरदिगार के हुज़ूर में लौट कर जाना है तब तुम लोग जिन बातों में बाहम झगड़ते थे वह सब तुम्हें बता देगा
अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम फरमाते हैं:
उनमें से किसी को भी (अमन चाहने वाले गैर मुस्लिम नागरिकों में से किसी को भी) इस अन्याय की सजा नहीं दी जाएगी, जो उसके मज़हब के मानने वाले किसी दुसरे शख्स ने की है। (इमाम अबू यूसुफ की किताब अल खिराज में पेज नंबर ७८ पर नकल है, और अल बिलाज्री की किताब फुतुहल बुल्दान की पेज नंबर ९० पर नकल है)
सूरह अल-बकरा की इस आयत को भी ध्यान में रखना चाहिए:
وقاتلوا في سبيل الله الذين يقاتلونكم ولا تعتدوا ۚ إن الله لا يحب المعتدين (سورہ البقرہ آیت نمبر ۱۹۰)
अनुवाद: और जो लोग तुम से लड़े तुम (भी) ख़ुदा की राह में उनसे लड़ो और ज्यादती न करो (क्योंकि) ख़ुदा ज्यादती करने वालों को हरगिज़ दोस्त नहीं रखता
सूरह अल-बकराह की यह आयत युद्ध की सीमा का वर्णन करने में सबसे स्पष्ट और दो टूक है। मुसलमानों को उन लोगों से लड़ने की आज्ञा दी जाती है जो उनसे लड़ने में पहल करते हैं और उन्हें मुल्क बदर करते हैं जो पहले उन्हें मुल्क बदर करते हैं, लेकिन इसकी भी सीमाएं हैं क्लासिकी और पारंपरिक उलेमा इस आयत का उपयोग युद्ध के सामान्य सिद्धांतों पर चर्चा करने के लिए करते हैं, जैसे कि महिलाओं, बच्चों, भिक्षुओं, अनाथों, लंबे समय से बीमार, बुजुर्गों और किसानों की हत्या पर प्रतिबंध। (हवाले के लिए तफसीर कुतबी देखिये)
उदाहरण के लिए, हज़रत इब्न अब्बास कहते हैं:
لا تقتلوا النساء ولا الصِّبيان ولا الشيخ الكبير وَلا منْ ألقى إليكم السَّلَمَ وكفَّ يَده، فإن فَعلتم هذا فقد اعتديتم.
अनुवाद:
महिलाओं, बच्चों और बुजुर्गों को मत मारो, सुलह का हाथ बढ़ाने वालों को मत मारो जो अपना हाथ रोक लें, अगर तुमने ऐसा किया तो तुम उन पर ज़्यादती करोगे।
सूरह अल-बकराह की आयत १९४ के बारे में जिहादियों और क्लासिकी उलेमा की व्याख्याओं की तुलना करने के बाद, यह बहुत स्पष्ट हो जाता है कि जिहादियों ने प्रतिशोध में नागरिकों की हत्या को सही ठहराते हुए कुरआन और सुन्नत का विरोध किया है। इसलिए, इस्लामोफोबिया से पीड़ित लोगों का यह दावा कि जिहादी बयानिया इस्लाम की पारंपरिक और क्लासिकी व्याख्याओं पर आधारित है, पूरी तरह से गलत है, और पूरी दुनिया में इस्लाम को बदनाम करने की विफल कोशिश है।
अंत में, पाठकों को यह भी पता होना चाहिए कि इस लेख में जो साबित हुआ है वह केवल युद्ध की स्थिति से संबंधित है, और यह किसी भी तरह से संविधान के तहत प्रदान की गई अमन की स्थिति में लागू नहीं होता है।
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