न्यू एज
इस्लाम विशेष संवाददाता
(उर्दू
से अनुवाद, न्यू एज इस्लाम)
मुस्लिम
उम्मत के प्रति वफादारी और देश के साथ गद्दारी की अवधारणा पर आधारित जिहादियों ने
एक गैर इस्लामी नजरिया बना रखा है। यह बयान मुसलमानों द्वारा अपने साथी नागरिकों
के खिलाफ आतंकवाद के कृत्यों को अंजाम देने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली सबसे
खतरनाक रणनीति में से एक है। ऐसा करके, वे अपना खुद का नापाक एजेंडा,
"इस्लामिक स्टेट" स्थापित करना चाहते हैं। उम्मत की
उनकी परिभाषा में सूफी सुन्नी और शिया मुसलमान शामिल नहीं हैं और इसलिए उन पर कोई
दया नहीं दिखाई जाती है। जिहादी विचारक अपने तर्क का समर्थन करने के लिए कुरआन की
आयतों, हदीसों और उनकी पारंपरिक और रिवायती व्याख्याओं का दुरुपयोग करते हैं।
जिहादियों के साथ, इस्लामोफोबिया पीड़ित एक और बड़ी चुनौती के रूप में सामने आते हैं, यह दावा करते हुए कि जिहादी इस्लाम की
पारंपरिक और शास्त्रीय व्याख्याओं पर आधारित है। इसलिए, इस लेख का उद्देश्य इस्लामोफोबिया और
जिहादवाद दोनों का रद्द करना है।
कुरआन और हदीस और
पारंपरिक स्रोतों के आलोक में जिहादियों और इस्लामोफोबिया वाले लोगों का रद्द करने
से पहले, देशद्रोह को बढ़ावा
देने वाले जिहादी बयानबाजी की प्रकृति का आकलन करना महत्वपूर्ण है जो गद्दारी का
प्रचार करता है, क्योंकि जब तक हम इसे
नहीं जानते इसमें सुधार भी नहीं कर सकते। अल-कायदा के यमनी-जन्मे अमेरिकी मौलवी
अनवर अल-अवलकी ने बार-बार कहा है कि इस्लाम और पश्चिम के बीच युद्ध चल रहा है।
अल-अवलकी ने पश्चिमी मुसलमानों का ब्रेनवॉश करने और जिहादियों की भर्ती करने में
महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। "ए मैसेज टू द अमेरिकन पीपल" शीर्षक से एक
ऑनलाइन बयान में उन्होंने पश्चिमी मुसलमानों को यह कहकर उकसाया कि वफादारी केवल
धर्म से होनी चाहिए, देश से नहीं। उनका कथन
है:
"मैं
अमेरिका के मुसलमानों से पूछना चाहता हूं, आपकी अंतरात्मा आपको एक ऐसे राष्ट्र के साथ शांतिपूर्वक रहने की अनुमति कैसे
देती है जो आपके भाइयों और बहनों के खिलाफ अत्याचार और अपराधों के लिए जिम्मेदार
है? आपकी
वफादारी उस सरकार के साथ कैसे हो सकती है जो इस्लाम और मुसलमानों के खिलाफ युद्ध
का नेतृत्व कर रही है? संयुक्त राज्य में मुसलमान देख रहे हैं कि कैसे इस्लाम के मूल सिद्धांत
धीरे-धीरे कम हो रहे हैं। आपके कई विद्वान और इस्लामी संगठन खुले तौर पर मुसलमानों
से मुसलमानों को मारने के लिए अमेरिकी सेना में काम करने, मुसलमानों की
जासूसी करने के लिए एफबीआई में शामिल होने का आग्रह कर रहे हैं। ये संगठन और ये
विद्वान आपके और आपके कर्तव्य जिहाद के बीच खड़े हैं।"
“धीरे
धीरे लेकिन निश्चित रूप से आपकी हालत बिलकुल वैसी ही हो रही है जैसे कि ग्रेनेडा
का पतन (सुकूते गर्नाता) के बाद स्पेन के युद्ध रत मुसलमानों की थी। पश्चिम के
मुसलमानों! जरा गौर करो, सोचो और इतिहास से सबक लो,
तुम्हारे उफक (वह जगह जहां आसमान और ज़मीन मिले हुए दिखाई देते हैं)
पर मनहूस बादल छा रहे हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका को गुलामी, अलगाववाद, लिंचिंग और कोकीन की भूमि के रूप में जाना जाता था, और कल यह धार्मिक भेदभाव और एकाग्रता शिविरों
की भूमि होगी। सरकार के वादों से मूर्ख मत बनो कि एक तरफ यह आपके अधिकारों की
रक्षा करेगा लेकिन दूसरी तरफ यह अभी आपके अपने भाइयों और बहनों को मार रहा है। आज, जैसा कि मुसलमानों और पश्चिम के बीच युद्ध
जारी है, आप किसी नागरिक समूह या राजनीतिक दल, या आपके साथ काम करने वाले एक अच्छे पड़ोसी या एक अच्छे सहयोगी से प्राप्त
एकजुटता के संदेशों पर भरोसा नहीं कर सकते। पश्चिम अंततः अपने मुस्लिम नागरिकों के
खिलाफ हो जाएगा।" (अनवर अल-अवलकी,
'अमेरिकी लोगों को संदेश,' यह उद्धरण" 21 वीं सदी में सुन्नी इस्लाम के सलाफी जिहादी डिस्कोर्स
"में भी उद्धृत किया गया है)
अल-अवलकी
का संदेश यह स्पष्ट करता है कि अमेरिकी मुसलमानों के पास केवल दो विकल्प हैं:
संयुक्त राज्य में रह कर संयुक्त राज्य से युद्ध करें, या संयुक्त राज्य से निकलकर युद्ध करें। और
जो लोग संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व में रहना चाहते हैं, उनकी निंदा की जानी चाहिए और उन्हें इस्लाम
के दायरे से बाहर कर दिया जाना चाहिए क्योंकि उनका विवेक मर चुका है।
अल-अवलकी
ने अल-कायदा द्वारा प्रकाशित अंग्रेजी भाषा की पत्रिका "इंस्पायर" में
पश्चिमी मुसलमानों को संबोधित किया।
"तो
मेरी आपको सलाह है कि आपके पास केवल दो विकल्प हैं, या तो प्रवास करना या जिहाद करना। या तो यूरोप छोड़ दो फिर किताल करो। या तो
यूरोप छोड़ दो और मुसलमानों के साथ रहो या वहां रहो और जान, माल और जुबान के जरिये किताल करो। मैं विशेष
रूप से युवाओं को या तो पश्चिम में रहने और लड़ने के लिए आमंत्रित करता हूँ, या अफगानिस्तान, इराक और सोमालिया में जिहाद के मोर्चों पर
लड़ने वाले अपने भाइयों के साथ शामिल हो जाएं।"
अल-अवलकी
"इंस्पायर" के एक अन्य अंक में कहते हैं:
"गाय
या मूर्ति पूजा के साथ सहअस्तित्व को इस्लाम कभी भी मान्यता नहीं दे सकता।"
अल-अवलकी का बयान मार्डिन घोषणा की प्रतिक्रिया थी। 4 और 5 मार्च को तुर्की के
मार्डिन में आर्टुकलो विश्वविद्यालय के परिसर में एक शांति सम्मेलन आयोजित किया
गया था और मुसलमानों ने सामूहिक रूप से गैर-मुस्लिम भाइयों और बहनों के साथ
संबंधों की न्यायिक प्रकृति और इससे संबंधित दुसरे मसलों जैसे जिहाद, वफादारी और दुश्मनी, नागरिकता और गैर-मुस्लिम क्षेत्रों में
प्रवास जैसे अन्य संबंधित मुद्दों को समझने की कोशिश की थी। इस घोषणा में, उलेमा ने शांतिपूर्ण और सामंजस्यपूर्ण
सह-अस्तित्व और सहयोग को मुसलमानों और गैर-मुसलमानों के बीच न्याय के लिए मौलिक
माना था।
अल-अवलकी
आगे लिखते हैं:
"कुल
मिलाकर, इस घोषणा की भाषा इस्लामी फिकह की भाषा नहीं है, बल्कि शांती और शांती कार्यकर्ताओं की मिश्रित भाषा है," और "घोषणा में कहा गया
है कि हम अपने पड़ोसी मुसलमानों पर कुफ्र और विद्रोह का आरोप नहीं लगा सकते हैं, और हमें सुरक्षा और सलामती में रहने वाले
लोगों को आतंकित करने की अनुमति नहीं है। तब यह घोषणा 21वीं सदी की वर्तमान स्थिति
के समर्थन में है, इसलिए इस घोषणा को संकलित करने वाले उलेमा सलफी जिहादी आंदोलन के दुश्मन हैं।
"
अल-अवलकी
का कहना है कि उन्हें अमेरिकियों को मारने के लिए धार्मिक फतवे की जरूरत नहीं है।
"अमेरिकियों
को मारने के बारे में किसी से सलाह न लें। शैतान से लड़ने के लिए फतवा, सलाह या मार्गदर्शन के लिए दुआ की आवश्यकता
नहीं है। वे शैतान के पक्ष में हैं। उनसे लड़ना इस समय फ़र्ज़ है। हम उस स्तर पर
पहुंच गए हैं जहां तुम या तो हमारे साथ हो या उनके साथ। हम एक दूसरे के विरोधाभासी
हैं जो कभी एक साथ नहीं रह सकते। हम कभी भी उनकी इच्छा के अनुसार नहीं रहेंगे। यह
एक निर्णायक लड़ाई है। यह मूसा और फिरऔन का युद्ध है। यह सच और झूठ का युद्ध
है।"
अपनी
पुस्तक में, अल-जवाहिरी भी मुसलमानों को कुफ्र और उसके धर्मनिरपेक्ष "एजेंटों"
के वैश्विक मोर्चे के खिलाफ एकजुट होने और अपने कर्तव्यों का एहसास करने का आग्रह
किया है। वह लिखते हैं,
"हम उम्मत के सभी संप्रदायों, वर्गों और समूहों को जिहाद के कारवां में शामिल होने के लिए आमंत्रित करते
हैं" और यह कारवां मुशरिक उत्पीड़कों से दूर रहेगा, काफिरों के खिलाफ लड़ेगा, मोमिनों के प्रति वफादार रहेगा और अल्लाह के
रास्ते में लड़ेगा। इस कर्तव्य को पूरा करने के लिए, मुसलमानों को अपने देश के प्रति निष्ठा और वफादारी का त्याग करना चाहिए।
उन्हें खेल, मनोरंजन, फिजूलखर्ची और मौज-मस्ती से दूर रहना होगा और [खुद को] क़त्ल व किताल के
वास्तविक जीवन के लिए तैयार करना होगा। (अल-जवाहिरी, 2007)
आतंकवादी
संगठन अल-कायदा ने भारतीय मुसलमानों को अपने देश के साथ विश्वासघात करने के लिए
उकसाया, उन्हें अपने सफों को एकजुट करने, हथियार जमा करने और भारत के खिलाफ जिहाद करने के लिए कहा।
आईएसआईएस
इसी तरह के विश्वासघाती बयान का प्रचार करता है। भारत के बारे में एक प्रचार
पत्रिका, वॉयस ऑफ इंडिया के पहले ऑनलाइन अंक में "राष्ट्रवाद की बीमारी" को
उजागर करने के लिए समर्पित एक पूरा पृष्ठ था। राष्ट्रवाद को एक 'बीमारी' और 'विद्रोह' बताते हुए, आईएसआईएस समर्थक समूह भारतीय मुसलमानों को उनकी मातृभूमि से बहकाने का प्रयास
करता है। पत्रिका ने लिखा है:
और
इसमें कोई संदेह नहीं है कि राष्ट्रवाद का आह्वान वास्तव में कट्टरता का आह्वान है, सम्मान और कट्टरता के लिए लड़ने का आह्वान
है। और इसमें कोई संदेह नहीं है कि राष्ट्रवाद का आह्वान विद्रोह, गर्व और अहंकार का आह्वान है, क्योंकि राष्ट्रवाद खुदा द्वारा प्रकट नहीं
किया गया है और इसलिए यह आह्वान लोगों को उत्पीड़न और अहंकार से नहीं रोक सकता है।
यह एक अज्ञानी विचारधारा है जो लोगों को अज्ञानी गर्व और कट्टरता के लिए आमंत्रित
करती है, चाहे लोग उत्पीड़क हों या उत्पीड़ित। " (वॉयस ऑफ हिन्द, अंक 1, पृष्ठ 8)
उपर्युक्त
जिहादी उद्धरण स्पष्ट रूप से संयुक्त राज्य अमेरिका और भारत में रहने वाले
मुसलमानों को अपने देश को धोखा देने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। यह कुरआन और हदीस
और इस्लाम की पारंपरिक व्याख्याओं का स्पष्ट उल्लंघन है।
अल्लाह
पाक फ़रमाता है:
إِلَّا ٱلَّذِينَ يَصِلُونَ إِلَىٰ قَوْمٍۭ بَيْنَكُمْ وَبَيْنَهُم
مِّيثَـٰقٌ أَوْ جَآءُوكُمْ حَصِرَتْ صُدُورُهُمْ أَن يُقَـٰتِلُوكُمْ أَوْ
يُقَـٰتِلُوا۟ قَوْمَهُمْ ۚ وَلَوْ شَآءَ ٱللَّهُ لَسَلَّطَهُمْ عَلَيْكُمْ
فَلَقَـٰتَلُوكُمْ ۚ فَإِنِ ٱعْتَزَلُوكُمْ فَلَمْ يُقَـٰتِلُوكُمْ وَأَلْقَوْا۟
إِلَيْكُمُ ٱلسَّلَمَ فَمَا جَعَلَ ٱللَّهُ لَكُمْ عَلَيْهِمْ سَبِيلًۭا (سورہ
النساء، آیت نمبر۹۰)
अनुवाद: मगर जो लोग किसी ऐसी क़ौम से जा मिलें कि तुममें और उनमें (सुलह का) एहद व
पैमान हो चुका है या तुमसे जंग करने या अपनी क़ौम के साथ लड़ने से दिलतंग होकर
तुम्हारे पास आए हों (तो उन्हें आज़ार न पहुंचाओ) और अगर ख़ुदा चाहता तो उनको तुमपर
ग़लबा देता तो वह तुमसे ज़रूर लड़ पड़ते पस अगर वह तुमसे किनारा कशी करे और तुमसे न
लड़े और तुम्हारे पास सुलह का पैग़ाम दे तो तुम्हारे लिए उन लोगों पर आज़ार (तकलीफ) पहुंचाने
की ख़ुदा ने कोई सबील नहीं निकाली”
यह आयत
सुलह करने वालों से लड़ने से मना करता है। आज दुनिया के लगभग हर देश, चाहे वह संयुक्त राज्य अमेरिका हो या भारत, का अपना संविधान है, जो विभिन्न धर्मों के लोगों को धार्मिक
स्वतंत्रता और सुरक्षा की गारंटी देता है, इसलिए जिहादियों के लिए न केवल मुसलमानों को अपने देश के साथ विश्वासघात करने
के लिए आमंत्रित करना मना है, बल्कि यह एक शर्मनाक कृत्य भी है।
अल्लाह
फरमाता है:
لَّا يَنْهَىٰكُمُ ٱللَّهُ عَنِ ٱلَّذِينَ لَمْ يُقَـٰتِلُوكُمْ
فِى ٱلدِّينِ وَلَمْ يُخْرِجُوكُم مِّن دِيَـٰرِكُمْ أَن تَبَرُّوهُمْ
وَتُقْسِطُوٓا۟ إِلَيْهِمْ ۚ إِنَّ ٱللَّهَ يُحِبُّ ٱلْمُقْسِطِينَ
अनुवाद: अल्लाह मना नहीं करता है भलाई करने
से और न्याय करने से उन लोगों के साथ जिन्होंने तुमसे दीन के मामले में जंग नहीं
की और ना तुम्हें तुम्हारे घरों से निकाला, बेशक अल्लाह न्याय करने वालों को दोस्त रखता है।
अधिकांश उलेमा इस बात से सहमत हैं कि यह आयत
मोहकम है मंसूख नहीं है। इस आयत का स्पष्ट अर्थ यह है कि मुसलमानों को गैर-मुस्लिमों
के साथ अच्छा व्यवहार करना चाहिए, जिसमें मुशरिक और काफिर शामिल हैं, जो धर्म के मामलों में मुसलमानों के साथ नहीं हैं, और सह-अस्तित्व में रहते हैं। इसके अलावा, गैर-मुस्लिम देशों ने मुस्लिम नागरिकों को
उनके घरों से बेदखल नहीं किया है, बल्कि मुस्लिम शरणार्थियों का अपने देशों में
स्वागत किया है। बेशक, ये देश मक्का के काफिरों की तरह नहीं हैं
जिन्होंने पहले मुसलमानों को उनके घरों से निकाल दिया और उनका धार्मिक शोषण किया।
इसलिए जिहादियों के लिए न केवल मुसलमानों को अपने देश के साथ विश्वासघात करने के
लिए आमंत्रित करना मना है, बल्कि यह एक शर्मनाक कृत्य भी है।
सभी मानव जाति के साथ शांति से रहने का आग्रह
कुरआन के साथ-साथ हदीसों में भी पाया जाता है। मुसलमानों की जिम्मेदारी है कि वे
उन देशों में शांति के रास्ते पर चलें जहां उन्हें धार्मिक स्वतंत्रता, सुरक्षा और शांति की गारंटी दी जाती है।
एक रिवायत में है कि अल्लाह के रसूल
सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया:
ثلاث من جمعهن فقد جمع الإيمان: الإنصاف من نفسك وبذل
السلام للعالم والإنفاق من الإقتار, (صحیح البخاری، کتاب الایمان، باب افشاء
السلام من الاسلام)
अनुवाद: जिसने तीन चीजों को जमा कर लिया, उसने सारा ईमान हासिल कर
लिया, अर्थात अपने नफ्स से
इन्साफ करना, सलामती को दुनिया में फैलाना, और तंग दस्ती के बावजूद अल्लाह के रास्ते में खर्च करना”
इस हदीस के अनुसार, दुनिया में अमन व सलामती
फैलाना ईमान को बजबुत करने का जरिया है। इसलिए जिहादियों का मुसलमानों को अपने देश
के साथ गद्दारी की दावत देना ना केवल मना है बल्कि एक शर्मनाक कार्य भी है।
अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने
फरमाया “लोगों के
बीच सुलह कायम करो। वाकई, लोगों के बीच खराब संबंध उस्तरा होते हैं।“
एक दूसरी हदीस में अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु
अलैहि वसल्लम ने फरमाया, “रहमान की
इबादत करो और अमन फैलाओ।“ (इब्ने माजा)
एक और रिवायत है कि अल्लाह के रसूल
सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया: “ऐ उक्बा, जो तुम से संबंध तोड़े तुम उससे जोड़ो, जो तुम्हें महरूम करे उसे अता करो और जो तुम पर अत्याचार करे उसे तुम
क्षमा करो।“ (मुसनद अहमद , हदीस उक्बा बिन आमिर, हदीस १७४५७)
एक रीवायत में आता है कि अल्लाह के रसूल
सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने इरशाद फरमाया कि “तकलीफ पहुंचाना और बदला लेना इस्लाम में नहीं
है।“ (इब्ने माजा, दारे कूतनी, मोअतता, मुस्तदरक, इमाम हाकिम और इमाम ज़हबी के नजदीक
यह हदीस इमाम मुस्लिम के शर्तों के अनुसार सहीह हदीस है)।
आखरी हज के मौके पर अल्लाह के रसूल
सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया
أيها الناس إن دماءكم وأعراضكم حرام عليكم إلى أن تلقوا
ربكم كحرمة يومكم هذا في شهركم هذا في بلدكم هذا
“लोगों! तुम्हारी जान व माल और इज्जतें हमेशा के लिए एक
दुसरे पर बिलकुल हराम कर दी गई हैं। इन चीजों की हुरमत ऐसी ही है जैसे कि इस दिन
की और इस माहे मुबारक (जिल हिज्जा) की खास कर इस शहर में है”
ये हदीसें शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व को प्रोत्साहित
करते हैं, लेकिन इसके विपरीत, जिहादियों का दावा है कि इस्लाम और पश्चिम के बीच हमेशा युद्ध होता है और
इस्लाम शांति से सह-अस्तित्व में नहीं हो सकता है। जिहादी बयानिये और असली इस्लाम
के बीच कितना विरोधाभास है!
अल्लाह पाक इरशाद फरमाता है:
وَلَا تَبْغِ ٱلْفَسَادَ فِى ٱلْأَرْضِ ۖ إِنَّ ٱللَّهَ
لَا يُحِبُّ ٱلْمُفْسِدِينَ (سورہ القصاص، آیت نمبر ۷۷ )
और जमीन में फसाद (दहशत और बुराई) मत चाहो, बे शक अल्लाह फसाद करने
वालों (अमन की खिलाफ वर्जी करने वालों) को पसंद नहीं फरमाता है।
पश्चिम और भारत ने अपने मुस्लिम नागरिकों को
शांति और धार्मिक स्वतंत्रता की पूरी गारंटी दी है, लेकिन जिहादी युवाओं को अपनी सेना में भर्ती
करते हैं और उन्हें कट्टरपंथी बनाते हैं, इस प्रकार शांति का उल्लंघन करते हैं और दंगे
भड़काते हैं। ये जिहादी फसादी हैं और अगर कुछ देश इन फसादियों को अपने नागरिकों की
सुरक्षा और कानून की बहाली के लिए दंडित करते हैं, तो यह उनका कर्तव्य है। मुसलमानों को
जिहादियों के इस दावे का शिकार नहीं होना चाहिए कि इन देशों में मुसलमानों को
सताया जा रहा है, क्योंकि उनकी सहानुभूति केवल उन दंगाई
जिहादियों के लिए है जिन्हें केवल बदले में दंडित किया जाता है और सज़ा दी जाती है।
गौरतलब है कि उन्होंने खुद हजारों मुसलमानों को मार डाला है जो उनके जिहादी आंदोलन
में शामिल नहीं होते हैं या उनके द्वारा व्याख्या किए गए इस्लाम का पालन नहीं करते
हैं। लेकिन आप देख सकते हैं कि भारत और पश्चिम में सभी नागरिकों को अपने धर्म का
पालन करने की अनुमति है, और यदि कोई अन्याय करता है, तो उन्हें भी उनके धर्म की परवाह किए बिना मुकदमा करने की अनुमति है। आपको उस
धर्म का पालन करने की आवश्यकता नहीं है जो आपको गारंटी देता है सुरक्षा, न्याय और धार्मिक स्वतंत्रता का।
कुरआन और हदीस की सही समझ के लिए जिहादियों
को कुरआन और हदीस के संदेशों पर विचार करना चाहिए। अल्लाह ने अपने धर्म के लिए
इस्लाम को चुना ان الدین عند اللہ الاسلام और
फिर इसे शांति की शिक्षाओं से भर दिया, और युद्ध के मुकाबले शांति को इस हद तक तरजीह
दी कि उसने पवित्र पैगंबर के माध्यम से मुस्लिम उम्मत को आज्ञा दी, यदि कोई शांति का हाथ बढ़ाता है, तो उसे स्वीकार करें भले ही विरोधियों की
नीयत ठीक न हो। उन्हें खुद से पूछना चाहिए कि क्या मुख्यधारा के मुसलमानों के लिए
उनके अपवित्र इरादे तो नहीं हैं जो वहाबी इस्लाम में विश्वास नहीं करते हैं, जैसे सूफी सुन्नी और शिया मुसलमानों को 'मुर्तद' और काफिरों करार दे कर मारने जैसा इरादा।
बेशक, कुरआन और हदीस में युद्ध के बारे में आयतें
हैं, हम इससे इनकार नहीं करते हैं। लेकिन युद्ध की
अनुमति देने वाले आयत विशिष्ट परिस्थितियों के लिए नाजिल किए गए थे। जीवन और धर्म
की रक्षा में युद्ध की घोषणा करने वाले आयत नाजिल हुए। युद्ध का आधार आस्था का
खंडन नहीं बल्कि धार्मिक शोषण था। इसे निम्नलिखित आयत की तफसीर से भी समझा जा सकता
है।
لا یَنْهٰىكُمُ اللّٰهُ عَنِ الَّذِیْنَ لَمْ
یُقَاتِلُوْكُمْ فِی الدِّیْنِ وَ لَمْ یُخْرِجُوْكُمْ مِّنْ دِیَارِكُمْ اَنْ
تَبَرُّوْهُمْ وَ تُقْسِطُوْۤا اِلَیْهِمْؕ-اِنَّ اللّٰهَ یُحِبُّ
الْمُقْسِطِیْنَ۔ (سورہ الممتحنہ، آیت نمبر۸)
अनुवाद: अल्लाह तुम्हें उन लोगों के साथ
एहसान और इंसाफ करने से मना नहीं करता जो तुमसे दीन के मामले में नहीं लड़ते हैं और
तुम्हें तुम्हारे घरों (वतन) से नहीं निकाले, बेशक इन्साफ करने वाले अल्लाह को महबूब हैं।
जिहादियों की नजर में देश से प्रेम व मुहब्बत
एक 'बीमारी' है और इसलिए मुसलमानों को अपने देश के साथ
विश्वासघात करने की कोशिश करनी चाहिए। यह कथन भी अज्ञानता का ही परिणाम है।
जिहादियों की इस अज्ञानता को समझने के लिए निम्न लेख पढ़ें।
"देश प्रेम की अवधारणा धर्म या राष्ट्र
के खिलाफ नहीं है। जिस देश में एक नागरिक को धार्मिक अधिकार, सुरक्षा और स्वतंत्रता प्राप्त है, वह निश्चित रूप से उस देश से प्यार करेगा।
ऐसे देश में जहां मुसलमानों को दिन में पांच बार अल्लाह के सामने झुकने और हर समय
अल्लाह और उसके रसूल को याद करने की पूरी आज़ादी प्राप्त हो तो निश्चित रूप से वह
देश उनकी प्यारी मातृभूमि होगी, और वह इसकी सुरक्षा और सलामती के लिए
जिम्मेदार होंगे। ”
"देशप्रेम अज्ञानता का हिस्सा नहीं है। अपने देश के
लिए प्यार एक जुनून है जो स्वाभाविक रूप से प्रत्येक नागरिक में पाया जाता है और
यह जुनून तब और बढ़ जाता है जब नागरिकों को सुरक्षा और धार्मिक अनुष्ठानों का
अभ्यास करने की पूर्ण स्वतंत्रता होती है। दूसरी ओर, अज्ञानता एक व्यक्तिगत दोष है जिसे शिक्षा, अच्छे कर्म, तकवा और बन्दों के हुकूक और अल्लाह
के हुकूक के पालन करने से दूर किया जा सकता है। जिस देश में हर नागरिक को हर जीवन क्षेत्र
में बेहतर इंसान बन्ने के बराबर मौके मिले हों वह देश अज्ञानता का शिकार नहीं हो सकता।"
"आतंकवादी संगठन देशप्रेम का अर्थ नहीं
समझते हैं क्योंकि उन्होंने कुरआन को समझने का सही तरीका नहीं अपनाया है। कुरआन
में और विभिन्न मुफ्स्सिरों की तफसीरों में देशप्रेम के संकेत हैं। हदीस और इसकी
शुरुहात की किताबों में भी देशप्रेम की अवधारणा के लिए भी प्रोत्साहन है। एक हदीस है
कि जब भी अल्लाह के नबी यात्रा से लौटते थे, तो वह मक्का की दीवारों को बड़े प्यार से
देखते थे। इमाम इब्ने हजर अल-असकलानी और इमाम ऐनी आदि ने लिखा है कि यह हदीस
देशप्रेम को सही ठहराती है।" पूरा लेख पढ़ने के लिए ऊपर दिए गए लिंक पर क्लिक
करें।
जिहाद के रास्ते पर चलने से पहले, जिहादियों को भी केवल अल्लाह की इबादत करने और दिन-रात अल्लाह और उसके रसूल की
याद में रहने का पूरा धार्मिक अधिकार था। उन्हें रक्षात्मक युद्ध लड़ने या हिजरत
के लिए किसी को आमंत्रित करने की आवश्यकता नहीं थी। लेकिन नागरिकों के खिलाफ
उत्पीड़न और आतंकवाद के कृत्यों को करने के बाद, उन्हें अब दुनिया में सबसे वांछित अपराधी
माना जाता है। हैरानी की बात यह है कि कुरआन, इस्लाम और जिहाद के नाम पर वे दूसरों को अपने
जैसा अपराधी बनने के लिए आमंत्रित कर रहे हैं।
कुरआन की आयत وَاَوۡفُوۡا
بِالۡعَهۡدِ اِنَّ الۡعَهۡدَ كَانَ مَسۡـُٔوۡلًا के अध्ययन से सुलह या
समझौते की पासदारी की अहमियत पर रौशनी पड़ती है। यह आयत बताती है कि मुसलमानों को
हर हाल में समझौते का पालन करना चाहिए। इसे भारतीय संदर्भ में समझते हैं। भारत की
स्वतंत्रता के बाद, सभी भारतीयों के सहयोग से संविधान का
मुसव्वदह तैयार किया गया था और यह
सर्वसम्मति से सहमत था कि सभी संविधान के अनुसार कानूनों का पालन करेंगे। भारतीय
मुसलमानों को अब संवैधानिक समझौते का पालन करना होगा। यदि कोई इस कानून का उल्लंघन
करता है, तो उसे भारतीय और इस्लामी कानून के तहत दोषी
पाया जाएगा। अल्लाह फ़रमाता है:
وَاَوۡفُوۡا بِالۡعَهۡدِ اِنَّ الۡعَهۡدَ كَانَ
مَسۡـُٔوۡلًا(سورہ الاسراء، آیت نمبر ۳۴)
अनुवाद: अपने अहद (वादे) को पूरा करो, यकीनन अहद के बारे में पूछ
गुछ होगी।
क्या कोई मुसलमान समझौते का उल्लंघन करके
अल्लाह के क्रोध का सामना करने की हिम्मत कर सकता है! संयुक्त राष्ट्र चार्टर, संविधान और लोकतांत्रिक कानून संधि के मौजूदा रूप हैं। यदि कोई मुसलमान समझौते
का उल्लंघन करने और अल्लाह के प्रकोप का शिकार होने की हिम्मत करता है, तो इसका मतलब है उसे जिहादियों द्वारा ब्रेनवॉश किया गया होगा।
शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व की संधि का उल्लंघन, ज़ाहिर है, देशद्रोह और राजद्रोह इस्लाम में सख्त वर्जित
है। इस्लाम दुश्मनों के साथ भी विश्वासघात और खयानत को सख्ती से मना करता है, अल्लाह पाक कुरआन में फरमाता है:
إِنَّ اللَّهَ لَا يُحِبُّ الْخَائِنِينَ(سورہ الانفال،
آیت نمبر۵۸)
अनुवाद: बेशक अल्लाह खयानत करने वालों को
पसंद नहीं फरमाता है।
इब्ने उमर रज़ी अल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि
अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया कि जब कयामत के दिन अल्लाह पाक पिछली
और अगली नस्लों को जमा करेगा तो हर गद्दार शख्स के पीछे एक झंडा लगा देगा और एलान
किया जाएगा कि फुलां शख्स गद्दार है और यह फुलां शख्स का बेटा है। (स्रोत: सहीह
बुखारी ५८२३, सहीह मुस्लिम १७३५)
दूसरी रिवायतों में कुछ इस तरह है। "لِكُلِّ غَادِرٍ لِوَاءٌ يومَ القيامةِ يُعرَفُ بِهِ"۔
"لِكُلِّ غَادِرٍ لِوَاءٌ عِنْدَ اسْتِهِ يَوْمَ الْقِيَامَةِ" . وَفِي
رِوَايَةٍ: "لِكُلِّ غَادِرٍ لِوَاءٌ يَوْمَ الْقِيَامَةِ يُرْفَعُ لَهُ
بِقَدْرِ غَدْرِهِ أَلا وَلَا غادر أعظم مِن أميرِ عامِّةٍ"
इस्लाम की रिवायती व्याख्या के अनुसार भी
अपने देश से गद्दारी मना है। सुबूत के तौर पर निम्न में कुछ अंश दिए जाते हैं।
ज़ैदी शिया मसलक के इमाम अहमद बिन यहया अल
मुर्तजा अपनी किताब متن الأزهار في فقه الأئمة الأطهار में
फरमाते हैं कि अगर दुश्मन के इलाके से गुजरते समय मुसलमानों की जान व माल को अमान
मिले तो मुसलमान पर लाजिम आता है कि वह भी दूसरी कौम को इसी तरह का अमान फराहम करें
और अगर उनका माल ज़बरदस्ती छीन लिया जाए तो उसे लौटाना होगा। वह आगे यह भी फरमाते
हैं कि संधि के रु से यह भी जरूरी है कि इस इलाके के शर्तों की खिलाफ वर्जी ना की
जाए। (अहमद बिन यहया अल मुर्तजा, متن الأزهار في فقه الأئمة الأطهار जिल्द ३, पेज ७५३)
पश्चिम या भारत के संविधान के प्रावधानों के
अनुसार, प्रत्येक नागरिक को अपने देश के कानून का
पालन करना चाहिए, और कानून और व्यवस्था का उल्लंघन और देश की
सुरक्षा निषिद्ध है।
शाफई मसलक के इमाम और इस्लामी फिकह के
प्रसिद्ध दीन के आलिम अबू इसहाक इब्ने इब्राहीम अल शीराज़ी लिखते हैं:
"यदि कोई मुसलमान दुश्मन के इलाके में
प्रवेश करता है और चोरी या कर्ज लेने के बाद दारुल इस्लाम में लौटता है और फिर
मालिक अपनी संपत्ति की वापसी की मांग करता है, तो उसकी संपत्ति वापस कर दी जानी चाहिए
क्योंकि शांति का मतलब लोगों की संपत्ति की गारंटी है।" (अल शीराज़ी, अल मुहज्जब)
मौजूदा दौर के मिसरी आलिम मोहम्मद नजीब अल मुतीअ
फरमाते हैं कि यही ख्याल इमाम शाफई का भी था। अल मुतीअ मजीद फरमाते हैं कि इमाम
अबू हनीफा भी यह मानते थे कि अगर किसी फर्द को अमान के जरिये माल की हिफाज़त की
जमानत मिली हो तो उसकी खिलाफवर्ज़ी नहीं की जा सकती है। और अगर कोई ऐसा करता है तो
गुनाह का मुर्तकिब होगा। (अल नौववी, किताबुल मजमुअ शरह अल मुहज्ज़ब लील शीराज़ी)
सोलहवीं सदी के शाफ़ीई फिकह के इमाम इब्ने
हजर अल हैतमी की भी राय यह है कि इस तरह और अमान बाहमी होता है, इसलिए, मुसलमानों को गैर-मुसलमानों के साथ उनकी किसी भी अहद का पालन करना चाहिए। जब
मुसलमानों को अपने धर्म का पालन करने और गैर-मुस्लिम-शासित या गैर-मुस्लिम-बहुल
देशों में रहने और, उदाहरण के लिए, इस देश पर आक्रमण हो जाए तो वहां के लोगों के
लिए इसकी रक्षा करना आवश्यक होगा। इसके अलावा, दुनिया के सभी मुसलमानों को अपने देश के
कानूनों का पालन करना चाहिए, क्योंकि वे कानून का पालन करने के लिए सहमत
हुए हैं। उदाहरण के तौर पर अल जवाद में इमाम अल हैतमी लिखते हैं:
"इसलिए अहद के मुताबिक़, हमें ज़िम्मियों की रक्षा करनी है, क्योंकि हमें दुश्मन के इलाके में भी ऐसा ही
करना है, भले ही कोई मुसलमान वहां या पड़ोसी देश में
रह रहा हो, जब तक कि कोई देश न निकल आए जो समझौते में
निर्दिष्ट नहीं है।" (अल हैतमी, फ़तहुल जवाद, जिल्द ३ पेज ३४६)
कुरआन और हदीस की पारंपरिक व्याख्याओं की
बहुलता और इस्लामी कानून के मूल स्रोत यह स्पष्ट करते हैं कि देश के खिलाफ
देशद्रोह को उकसाने वाला जिहादी बयान गलत है। इसलिए, जिहादियों और इस्लामोफोबिया वाले लोगों का यह
दावा कि जिहादीयत इस्लाम की पारंपरिक व्याख्या पर आधारित है, सच नहीं है।
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