जिहादियों का
तकफ़ीरी वक्तव्य बनाम तकफ़ीर की पारंपरिक व्याख्या
प्रमुख बिंदु
जमात-उल-तकफीर और
अल-हिजरा और अन्य जिहादियों का तकफीरी बयान
तकफ़ीरी बयानबाजी
मुख्यधारा के मुसलमानों को निशाना बनाती है
क्लासिकी उलमा और
तकफिर का मुद्दा
हदीसें जो मुसलमानों
को तकफिर से रोकती हैं
एक मुसलमान पर तब तक
तकफीर नहीं किया जा सकता जब तक कि वह स्वयं इस्लाम के मूल सिद्धांतों को नकार न
दे।
तकफिरी जिहादियों और
क्लासिकी उलमा के बीच तुलना साबित करती है कि इस्लामोफोबिक दावा झूठा और निराधार
है।
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न्यू एज इस्लाम
विशेष संवाददाता
(उर्दू से अनुवाद, न्यू एज इस्लाम)
25 जून 2021
इस्लामोफोबिया वाले
लोग अक्सर दावा करते हैं कि जिहादी सच्चे इस्लाम का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो इस्लामी कानून और स्रोतों की पारंपरिक व्याख्याओं में
संरक्षित है। हमने पिछले छह खंडों में अध्ययन किया है कि यह इस्लामोफोबिक दावा सच
नहीं है। इस विषय को जारी रखते हुए, हम अब जिहादी
तकफ़ीरी बयानबाजी पर ध्यान केंद्रित करेंगे ताकि उनके और इस्लाम की क्लासिकी
व्याख्या के बीच का अंतर स्पष्ट हो जाए। जो निश्चित रूप से इस इस्लामोफोबिक दावे
को अमान्य कर देगा।
जिहादियों का तकफीरी
बयान
जिहादी समूहों में, जमात-ए-तकफीर वल-हिजरा, सबसे चरमपंथी तकफ़ीरी समूह, जमात-ए-मुस्लिमीन को दिया गया एक नाम, जिसे शुक्री मुस्तफा ने मुस्लिम ब्रदरहुड की एक शाखा के रूप
में स्थापित किया, को "आतंकवादी
पनाहगाह" कहा जाता है। जो ओसामा बिन लादेन का सहयोगी है लेकिन वह अक्सर और भी
अधिक हिंसक साबित हुआ है। माना जाता है कि समूह ने "सलफी जिहादी आंदोलन में
एक बहुत ही हिंसक परंपरा का निर्माण किया है "इससे अल-कायदा द्वारा इस्तेमाल
की जाने वाली कुछ रणनीतियां पैदा हुई हैं और जिनकी तकफ़ीरी और हिंसक विचारधारा को
यूरोप में सलफी जिहादियों द्वारा व्यापक रूप से स्वीकार किया जा रहा है। समूह की
स्थिति यह है कि "मानव
निर्मित कानून" "अवैध" हैं और जो लोग उनकी विचारधारा को स्वीकार
नहीं करते हैं उनके साथ "चोरी, अपहरण, जबरन विवाह और यहां तक कि उन्हें मारने की अनुमति है।"
इस समूह की तकफ़ीरी बयानबाजी किसी भी अन्य जिहादी समूह की तुलना में अधिक चरमपंथी
है। जमात-उल-तकफीर वल-हिजरा के कुछ तकफीरी बयान नीचे दिए गए हैं, जिनमें से अधिकांश को अन्य जिहादी समूहों ने स्वीकार कर
लिया है।
* हर बड़ा गुनाह
करने वाला जो उस पर ज़ोर देता है और उससे तौबा नहीं करता वह काफिर है।
* मुस्लिम शासक जो
अल्लाह द्वारा बताए गए नियमों के अनुसार न्याय नहीं करते हैं, वे निश्चित रूप से काफिर हैं।
* उलमा काफिर हैं
क्योंकि वे उन शासकों को काफिर नहीं मानते जिन्होंने घोर पाप किए हैं और निष्क्रिय
हैं।
* जो कोई भी उनके
द्वारा प्रस्तुत जिहादी और तकफीरी विचारधाराओं को स्वीकार नहीं करता है उसे काफिर
माना जाता है। यहां तक कि एक व्यक्ति जो उनकी विचारधारा को स्वीकार करता है लेकिन
उनके जिहादी समूह में शामिल नहीं होता है, उसे काफिर माना जाता है।
* हालांकि, जो व्यक्ति उनके समूह में शामिल
होने के बाद उसे छोड़ देता है उसे मुर्तद कहा जाता है और उसका खून उनके लिए जायज
माना जाता है। इसलिए, सभी धार्मिक समूह
जिनके पास उनका निमंत्रण पहुंचा, लेकिन वह उनके इमाम
के प्रति निष्ठा की शपथ लेने नहीं आए, वे सभी काफिर हैं और इस्लाम के
दायरे से बाहर हैं।
* अल्लाह और उसके
रसूल के अलावा किसी और का अनुसरण करना शिर्क है। इसलिए, जो कोई इमामों की राय और सहाबा की
आम सहमति में विश्वास करता है, या जो क़ियास या
मसालेह मुर्सलह या इस्तिहसान या अन्य शरिया तर्कों में विश्वास करता है, वह काफिर है।
* चौथी शताब्दी
हिजरी के बाद इस्लामी काल कुफ्र और अज्ञानता के हैं क्योंकि वे (इससे मुख्यधारा के
सुन्नी सूफी मुसलमानों को संदर्भित करता है जो फिकह के चार स्कूलों में से एक का
पालन करते हैं) 'तकलीद की मूर्तियों' की पूजा करते रहे हैं, और खुदा के अलावा जिनकी पूजा की
जाती है। इसलिए, एक मुसलमान को तर्क
के साथ शरीयत के नियमों को जानना चाहिए। उनके लिए किसी भी धर्म के मामले में तकलीद
करना जायज़ नहीं है।
* किसी भी सहाबी के
शब्द या कर्म शरीयत के सबूत नहीं हैं, भले ही वह खलीफा ए राशिद क्यों न
हो!
*हिजरत उनकी जिहादी
सोच का एक और महत्वपूर्ण तत्व है। इससे उनका मतलब जाहिल समाज से होशपूर्वक खुद को
अलग करना और जिहादियों के अनुसार आज के सभी समाज जिहालत और अंधकार से पीड़ित हैं।
इन समाजों से अलग होना जरूरी है। अन्यथा, यह कुफ्र और शिर्क के कृत्यों को
जन्म देगा।
* ये जिहादी ऐसे
क्लासिकी उलमा और फुक्हा की बातों को खारिज करते हैं जिनहें फिकही मामलों में
अनुसंधान और तर्क तक पहुंच है। वे तफसीर औरअकाइद पर उपलब्ध पुस्तकों की भी परवाह
नहीं करते। ऐसी पुस्तकों के अधिकांश महान उलमा और फुकहा उनकी नजर में मुसलमान भी
नहीं हैं।
* वे कुरआन और
सुन्नत की आज्ञाओं में विश्वास करने का दावा करते हैं। हालाँकि, उनके लेखन में यह स्पष्ट रूप से
देखा जा सकता है कि वह पहले एक राय बनाते हैं और फिर जबरन और अवैध रूप से कुरआन के
पाठ को अपनी राय के समर्थन में प्रस्तुत करते हैं और सुन्नत में जो उनकी बातों के
अनुसार है इसे स्वीकार कर लेते हैं। और जब कोई चीज़ उनके दृष्टिकोण का समर्थन नहीं
करती है, तो वे इसे सीधे तौर
पर अस्वीकार कर देते हैं या पल्ला झाड़ लेते हैं कि "इसका वह मतलब नहीं है जो
लोग समझते हैं"!
सबसे महत्वपूर्ण
किताब जो उनके जिहादी विचारों और विश्वासों से पर्दा उठाती है वह “जिकरियात मआ जमाअतूल
मुस्लिमीन- अल तकफीर वल हिजरह” है जो जमातुल तकफीर वल हिजरह के एक सदस्य अब्दुल रहमान अबुल
खैर की लिखित है जिसने बाद में इस ग्रुप को छोड़ दिया था।
सैयद कुतुब ने अपनी
किताबों "फी ज़िलाल अल-कुरान" और "माअलिम फील-तरीक" में
आईएसआईएस की तकफीरी विचारधारा को प्रस्तुत किया। यह सर्वविदित है कि सैयद कुतुब और
मुस्लिम ब्रदरहुड के अन्य विचारक मौलाना मौदूदी की इलाही हुकूमत की अवधारणा से
बहुत प्रभावित थे। आईएसआईएस के प्रमुख सदस्यों में से एक अबू मुहम्मद अल-अदनानी
सैयद कुतुब की तफसीर "फी ज़िलाल-उल-कुरान" से प्रेरित थे।
तुर्की इब्न मुबारक
अल-बनाली कहते हैं, "अदनानी ने नियमित
रूप से बीस वर्षों तक इस पुस्तक का अध्ययन किया। एक सबक के दौरान उसकी नजर से
कुरआन की इस आयत की तफसीर गुजरी " और जो लोग अल्लाह के उतारे पर आज्ञा नहीं
देते हैं वे काफिर हैं। (5: 4)। उन्होंने अपने एक सहयोगी से पूछा कि सीरियाई
संविधान के स्रोत क्या हैं। विधायिका की शक्ति क्या है? निदेशक मंडल और न्यायिक शक्तियां क्या हैं? जब उनके साथी ने जवाब दिया तो अदनानी ने कहा, ''क्या हमारी सरकार काफिर है?'' उनके साथी उलमा चले गए। मामलों पर बहस करने का उसका तरीका
यह था।”
अदनानी
बाद में ISIS में शामिल हो गए और एक प्रमुख
प्रवक्ता बन गए।
अपनी किताब ‘रिसाला अल ईमान’ में एक सल्फी जिहादी
सिद्धांतकार सालेह सरिया (१९३३-१९७४) मुस्लिम शासकों की तकफीर करते हैं और आम
मुसलमानों को जाहिलियत बिरादरी से संबंध रखने वाला करार देते हैं और उनकी जमीनों
को ‘दारुल हरब’ करार देते हैं। वह
यह भी कहते हैं “सारे मुस्लिम देश में वर्तमान शासन का तरीका बेशक कुफ्र पर
आधारित है और उन तमाम देशों के लोग जाहिलियत के दिनों से संबंध रखते हैं।“
तकफ़ीरी बयानबाजी
मुख्य रूप से मुख्यधारा के मुसलमानों को लक्षित करती है
जिहादी तकफ़ीरी
बयानबाजी को देखने वाला कोई भी इस तथ्य से इनकार नहीं कर सकता कि उन्होंने दुनिया
भर के मुस्लिम समाजों को भारी नुकसान पहुंचाया है। यही कारण है कि सीरिया, इराक और अफगानिस्तान में मुसलमानों को "मुर्तद"
घोषित किया गया और उन्हें मार दिया गया। तुलनात्मक रूप से भी, तकफ़ीरी बयानिये का उद्देश्य गैर-मुसलमानों की तुलना में
मुसलमानों को अधिक नुकसान पहुँचाना है। प्रभावित देशों के आम मुस्लिम नागरिक अब
बेघर, अनाथ, विधवा या शरणार्थी आश्रितों का जीवन जीने को मजबूर हैं।
तकफीरी जिहादियों के प्रभाव में आने से पहले उनकी पूजा वे खुलेआम पूजा करते थे, अब परेशान कुन हालात या संदेह की स्थिति में है।
क्लासिकी उलमा और
फुकहा और तकफीर का मुद्दा
मुख्यधारा के
मुसलमानों के क्लासिकी और पारंपरिक उलमा द्वारा एक व्यक्तिगत मुसलमान के तकफीर का
भी अभ्यास किया गया है। हालांकि, जिहादियों के विपरीत, क्लासिकी इस्लामी उलमा तकफीर के बारे में बहुत सावधान हैं।
वे तकफ़ीर तभी करते हैं जब कोई व्यक्ति सार्वजनिक स्तर पर धर्म की ज़रूरतों को
नकारता है, अन्यथा उनका सामान्य
निर्णय यह है कि अहले क़िबला की तकफ़ीर नहीं की जाएगी।
इस्लामी कानून
(फिकह) के मानक और क्लासिकी उलमा का सामान्य दृष्टिकोण यह है कि किसी भी मोमिन की
तकफीर निषिद्ध है यहाँ तक कि वह खुद उस धर्म की किसी भी आवश्यकता से इनकार न करे
जो मुस्लिम बनने के लिए आवश्यक है। वे इस समझ और व्याख्या को निम्नलिखित हदीसों पर
लागू करते हैं।
आका ए दो जहां सैयद
मोहम्मद मुस्तफा सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम फरमाते हैं: “अगर कोई शख्स अपने
भाई को काफिर कहता है तो यकीनन उनमें से एक काफिर है”। (सहीह बुखारी
जिल्द ८ किताब ७३ हदीस नम्बर १२५)
यही हदीस मुस्लिम
शरीफ में थोड़े अलग शब्दों के साथ रिवायत की गई है:
हजरत मोहम्मद
मुस्तफा सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम फरमाते हैं: “जो कोई भी अपने भाई
को काफिर कहता है तो उसकी हकीकत उनमें से किसी एक की तरफ लौटेगी। अगर उसकी बात सच
है तो ठीक, वरना उसकी बात उसी की तरफ लौट जाएगी (और इस तरह तोहमत लगाने
वाला शख्स खुद काफिर हो जाएगा)। [सहीह मुस्लिम किताब १००, नम्बर ०११७]
“जिस शख्स ने किसी
मोमिन को काफिर कहा गोया कि उसने उसका क़त्ल कर दिया” । (तिरमिज़ी और बुखारी)
“जो शख्स शहादत के
कलमे की गवाही दे उसे काफिर न कहो। जो शख्स शहादत के कलमे की गवाही देने वाले को
काफिर कहता है वह कुफ्र के करीब है। (तबरानी में इब्ने उमर से मरवी है)
“ईमान की बुनियाद तीन
चीजों पर है। जो शख्स शहादत के कलमे की गवाही दे उसे किसी भी गुनाह के लिए काफिर न
कहो और न ही किसी बद आमाली की वजह से उसे इस्लाम से बाहर मत करो”। (अबू दौउद)
ऊपर वर्णित सभी
हदीसों से यह कानून निकला है कि सच्चे अकीदे के किसी भी मोमिन को काफिर नहीं कहा
जाना चाहिए। यह कानून इतना सख्त है कि आरोप सही नहीं होने पर आरोप लगाने वाले को
काफिर माना जाएगा। इसलिए तालिबान के विचारक काशिफ अली ने इलाही अहकाम और पैगंबर
मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के आदेशों और उपरोक्त सभी बयानों का उल्लंघन किया
है।
“अहले सुन्नत का एक
सिद्धांत है कि अहले क़िबला में से किसी को भी काफिर नहीं कहा जा सकता” (शरह अकाएदे नसफीया, अल्लामा
साअदुदीन तफ्ताजानी- १२१)
“किसी मुसलमान पर उस
वक्त तक कुफ्र का फतवा सादिर नहीं किया जा सकता जब तक उसकी बातों में ईमान की
गुंजाइश बाकी हो (दुर्रे मुख्तार, किताबुल जिहाद, फी बयान इर्तेदाद)
हनफी मकतबे फ़िक्र के
संस्थापक अबू हनीफा की तरफ इशारा करते हुए यह खा गया है कि उन्होंने किसी भी अहले
किबला की तकफीर नहीं की है”।
इमाम आज़म अबू हनीफा
रज़ीअल्लाहु अन्हु ने फरमाया: “कोई भी शख्स उस समय तक ईमान से बाहर नहीं हो सकता जब तक वह
इस बात का इनकार न करे जिससे वह ईमान में दाखिल हुआ है” । (दुर्रे मुख्तार, जिल्द ३, पेज ३१०)
अल्लामा मुल्ला अली
कारी ने फरमाया कि “किसी मोमिन को ईमान से बाहर करना एक गंभीर काम है” (शरह अल शिफा, जिल्द 2, पृष्ठ-५००)
अल्लामा जलालुद्दीन
रज़ीअल्लाहु अन्हु ने फरमाया कि “अहले किबला की तकफीर खुद मुशरिकाना अमल है”। (दलाइलुल मसाइल)
“कई इमामों ने स्पष्ट
रूप से यह खा कि अगर तकफीर न करने की कोई भी बुनियाद पाई जाए तो तकफीर नहीं की
जाएगी चाहे वह बुनियाद कमज़ोर ही क्यों न हो”। (रफउल इश्तेबाह अन
इबारतुल इश्तेबाह-४)
दिल्ली के तीन महान
शायरों में से एक प्रसिद्ध सूफी संत ख्वाजा मीर दर्द (1785) ने कहा: "हम
क़िबला के लोगों को काफिर नहीं कहते हैं, हालांकि यह हो सकता
है कि वे अक्सर मामलों में झूठे होते हैं और अलग अकीदों और मामुलात पर अमल पैरा
होते हैं। यह इस तथ्य के कारण है कि अल्लाह की वहदानियत, मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की नबूवत में विश्वास और
क़िबला के प्रति उनका आकर्षण उन्हें उनके ईमान से बाहर नहीं करता है। जिन्होंने
बाद में बिदआत (बिदअते सय्येअह) और झूठे मोअतकेदात का प्रतिबद्ध किया। पवित्र
पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने कहा: अहले क़िबला के मामले में सावधान रहें और
उन्हें काफिर न कहें। (इल्मुल किताब पेज- ७५)
इसके अलावा और भी
अनेकों उलमा और फुकहा ए इस्लाम का यह सर्वसम्मत निर्णय है कि अहले क़िबला में से
किसी भी व्यक्ति को काफिर नहीं कहा जा सकता है। (अल मवाकिफ, पेज ६००)
तकफीर के मुद्दे पर
जिहादियों और क्लासिकी उलमा और फुकहा के बीच तुलना
जिहादी हर उस
मुसलमान की तकफीर करते हैं जो उनके जिहादी विचारों का समर्थन नहीं करते जबकि
क्लासिकी उलमा व फुकहा किसी एक मुस्लिम की तकफीर में बहुत एहतियात बरतते हैं। शुरू
से लेकर अब तक क्लासिकी उलमा हमेशा एतेकादियात और फुरुई अहकाम के बीच एक अलग करने
वाली लाइन स्थापित करते आए हैं। इस विचार के विपरीत जिहादी एतेकादियात और फुरुई
अहकाम के बीच कोई फर्क ही नहीं करते यही वजह है कि वह तकफीर के मामले में एक गंभीर
खता का शिकार हैं।
न्यू एज इस्लाम
द्वारा प्रकाशित एक लेख में, नियमित स्तंभकार
गुलाम ग़ौस सिद्दीकी लिखते हैं:
अकीदों और आमाल के
बीच फर्क करते हुए मरकजी धारे के क्लासिकी मुस्लिम विद्वान अपनी किताब “ शरह अकाएद अल नस्फी” में लिखते हैं, “तुम्हें मालुम होना
चाहिए कि शरीअत के अहकाम में से कुछ का संबंध अमल की कैफियत से जिन्हें फुरुई और
अमली कहा जाता है और कुछ एतेकादियात से संबंधित हैं जिन्हें अस्लिय और एतेकादियह
कहा जाता है (तफ्ताजानी, शरह अकाएद)
"सभी मुख्यधारा
के इस्लामी उलमा अकीदों से संबंधित मामलों पर पूर्ण सहमति में हैं, जबकि व्यावहारिक नियमों या सांप्रदायिक मुद्दों से संबंधित
मामलों पर भी एक-दूसरे के साथ मजबूत मतभेद हैं। नतीजतन, हम देखते हैं कि इस्लामी फिकह के सभी चार स्कूल हनफ़ी, शाफई, मालकी और हंबली
अकीदों के मामलों में एक दूसरे के साथ पूर्ण सहमति में हैं, जबकि वे व्यावहारिक मामलों या फुरुई मुद्दों से संबंधित
मामलों पर बहुत भिन्न हैं। सांप्रदायिक फैसलों में मतभेदों के बावजूद, वे कभी भी एक-दूसरे की तकफीर नहीं करते हैं। इसके बजाय, वे एक-दूसरे को मुसलमान मानते हैं और अपने-अपने फुरुई
अहकामों का पालन करते हुए एक-दूसरे का सम्मान करते हैं।
मोतकेदात को मामुलात
से भ्रमित करके, जिहादी उन मुसलमानों
को बदनाम करते हैं जो उनसे सहमत नहीं हैं। उदाहरण के लिए, जिहादी वर्तमान मुख्यधारा के मुसलमानों की तकफीर करने के
लिए निम्नलिखित आयत पेश करते हैं:
“और जो अल्लाह के
उतारे पर हुक्म न करे वही लोग काफिर हैं।“ (5:44)
आइएसआइएस के तथाकथित
प्रशिक्षण कैम्प की दरसी किताब “मुकर्रर फिल तौहीद” में उन्होंने उस
तमाम लोगों को मुर्त्द करार दिया है जो खुदा के नियम लागू नहीं करते हैं। अपनी
लेखनी में चाहे वह ‘दाबुक’, ‘रोमिय’, या ख़ास भारतीय दुष्प्रचार मैगजीन ‘ वाइस ऑफ़ हिन्द” हो, वह अपने विचारों को
स्थिर करने के लिए लगातार कुरआन की इन आयतों 5:44 और 4:65 का हवाला देते हैं
जिनमें स्पष्ट तौर पर ब्यान किया गया है कि जो अल्लाह के उतारे पर हुक्म न करे वही
लोग काफिर हैं।
आयत 5:44 की जिहादी
व्याख्या के विपरीत क्लासिकी उलमा ए इस्लाम ने एक बिलकुल अलग ताबीर व व्याख्या पेश
की है जो मुख्य धारे के मुसलामानों के बीच आम और ख़ास में स्वीकार्य है। जनाब गुलाम
गौस सिद्दीकी लिखते हैं:
"पवित्र पैगंबर
सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के सहाबा सहित सभी समय के मुख्यधारा के इस्लामी उलमा की
विचारधारा आइएसआइएस, मौलाना मौदूदी, जमाते इस्लामी, सैयद क़ुतुब, अल बगदादी, अदनानी और भारत के
खिलाफ नए बनाए गए आइएसआइएस के समर्थक गिरोह "वलायत हिन्द" के खिलाफ है।
आयत (5:44) को समझने के लिए, इस्लामी उलमा ने
विभिन्न मतों और निर्देशों को तैयार किया है, और इस कविता के आवेदन के संबंध में सबसे आम और लोकप्रिय राय
यह है: "जो कोई अल्लाह द्वारा नाज़िल आज्ञाओं को मानता है। वह उसके अनुसार
न्याय नहीं करता है अर्थात्व उसके उलुहियत, ईमान और सच्चाई से इनकार करता है। वह वास्तव में एक काफिर है।
जब तक एक मुसलमान जो मानता है कि यह आयत सत्य, इलाही वही और खुदा की आज्ञा है, लेकिन बदलती परिस्थितियों या किसी मजबूरी में इस संदेश को
लागू करने में विफल रहता है, तो वह काफिर नहीं
है।
इमाम फखर-उद-दीन राजी
ने अपनी तफसीर "अल-तफ़सीर अल-कबीर" में लिखा है।
इकरमा ने कहा, तकफीर का हुक्म कि फरमाने इलाही है "और जो कोई अल्लाह
द्वारा नाज़िल किए गए आदेश के अनुसार शासन नहीं करता है, तो वे काफिर हैं। "यह उस व्यक्ति पर लागू होता है। जो
अपने दिल में और अपनी जुबान से अल्लाह द्वारा नाज़िल की गई आज्ञाओं की सच्चाई का
इनकार करता है। और जो कोई अपने दिल में अल्लाह के द्वारा नाज़िल किए गए कानून की
सच्चाई पर विश्वास करता है और अपनी जुबान से स्वीकार करता है कि यह अल्लाह द्वारा
नाज़िल किया गया कानून है, भले ही वह इसकी
अवज्ञा करता है, फिर भी वह अल्लाह के
वही में विश्वास करता है। ईमान वाला माना जाएगा हाँ, लेकिन इस मामले में वह केवल एक बेअमल मोमिन के रूप में जाना
जाएगा। इस संदर्भ को उद्धृत करने के बाद, इमाम रज़ी ने कहा, "यह सही उत्तर है।" (इमाम राज़ी अल तफसीर अल कबीर 5:44)
इसी तरह का उत्तर
इमाम गज्जाली ने “अल मुस्तफा” में और इमाम अबू
मोहम्मद बिन अतिया अल उन्द्लिसी ने “अल मुहर्र्रुल वजीज़” में भी दिया है।
तकफीर और कुरआनी आयत
5:44 की तफसीर व तशरीह के मसले पर जिहादियों और क्लासिकी उलमा ए इस्लाम के बीच इस
तुलनात्मक अध्ययन के बाद यह बात स्पष्ट हो जाती है कि जिहादियों का नज़रिया इस्लाम
की क्लासिकी और रिवायती व्याखा पर आधारित नहीं है। इसलिए, इस्लामोफोबिया के
शिकार लोगों के पास ऐसे दावे करने की कोई बुनियाद नहीं है।
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