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Hindi Section ( 28 Dec 2021, NewAgeIslam.Com)

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Parveen Shakir : Her Nazms and Gazals; Part 5 on Kafe-Aaina;परवीन शाकिर की नज़्में और गज़लें:कफ़े आईना

प्रोफेसर मक्खन लाल, न्यू एज इस्लाम

28 दिसंबर 2021

कफ़े आईना परवीन शाकिर के अकाल मृत्यु के बाद उनकी बहन नसरीन, और उनके मित्रों ने संकलित की और इसे 1995 मे प्रकाशित किया । इसमें सम्मिलित नज़्मे और गज़लों  को आसानी से सदबर्ग, खुदकलामी और इंकार के साथ जोड़ा जा सकता है ।

(1)

बहुत रोया वो हमको याद करके

हमारी जिंदगी बरबाद करके

पलट कर फिर यहीं आ जाएंगे हम

वह देखे तो हमें आजाद करके

रिहाई की कोई सूरत नहीं है

मगर हां मिन्नते सैय्याद करके

बदन मेरा छुआ था उसने लेकिन

गया है रूह को आबाद करके

हर आमिर तूल देना चाहता है

मुकर्रर जुल्म की मियाद करके

(2)

चलने का हौसला नहीं रुकना मुहाल कर दिया

इश्क़ के इस सफ़र ने तो मुझ को निढाल कर दिया

ऐ मिरी गुल-ज़मीं तुझे चाह थी इक किताब की

अहले-किताब ने मगर क्या तेरा हाल कर दिया

मिलते हुए दिलों के बीच और था फ़ैसला कोई

उस ने मगर बिछड़ते वक़्त और सवाल कर दिया

अब के हवा के साथ है दामने-यार मुंतज़िर

बानू-ए-शब के हाथ में रखना सँभाल कर दिया

मुमकिना फ़ैसलों में एक हिज्र का फ़ैसला भी था

हम ने तो एक बात की उस ने कमाल कर दिया

मेरे लबों पे मुहर थी पर मेरे शीशा-रू ने तो

शहर के शहर को मिरा वाक़िफ़े-हाल कर दिया

चेहरा ओ नाम एक साथ आज न याद आ सके

वक़्त ने किस शबीह को ख़्वाबो-ख़याल कर दिया

मुद्दतों बाद उस ने आज मुझ से कोई गिला किया

मंसबे-दिलबरी पे क्या मुझ को बहाल कर दिया

(3)

सवादे-जिंदगानी में

सवादे-जिंदगानी में

एक ऐसी शाम आती है

कि जिसके सुरमई आंचल में

कोई फूल होता है

न हाथों में कोई तारा !

जो आकर बाज़ुओं में थाम ले

फिर भी

रगों-पे में कोई आहट नहीं होती

किसी की याद आती है

न कोई भूल पाता है

न कोई ग़म सुलगता है

न कोई ज़ख़्म सिलता है

गले मिलता है कोई ख़्वाब

न कोई तमन्ना हाथ मलती है

सवादे-जिंदगानी में

एक ऐसी शाम आती है

जो खाली हाथ आती है

(4)

ये मेरे हाथ की गर्मी

ये मेरे हाथ की गर्मी

जिसे छूकर

तुम्हारी आंख में हैरत के डोरे हैं

कि इससे क़ब्ल जब भी तुमने मेरा हाथ थामा

बर्फ़ का मौसम ही पाया था

यह मौसम मेरे अंदर कितने बरसों से फिरोकश था

बहार आती थी

और मेरे दरीचों पर कभी दस्तक न देती थी

गुलाबी बारिशें

मेरे लिए ममनूअथीं

और सुब्ह की ताज़ा हवा का ज़ायक़ा

मैं भूल बैठी थी

मिरे मलबूस से गर्म रंगों को शिकायत थी

मुझे बस बर्फ़ की चादर पहनने की इजाज़त थी

मगर जानां !

तुम्हारे साथ ने तो रूह का मौसम बदल डाला

यहां अब रंग का त्यौहार है

ख़ुशबू का मेला है

मिरा मलबूस अब गहरा गुलाबी है

मिरे ख़्वाबों का चेहरा माहताबी है

मेरे ख़ाबों की हिद्दत आफ़ताबी है

जिसे छूकर...........

(5)

मगर इस दिल की विरानी

तुम्हारा हाथ मेरे हाथ में है

और उसकी ख़ुश-असर हिद्दत

मिरे अंदर तिलस्मी रंग फूलों की नई दुनिया खिलाने में मगन है

तुम्हारे लबपे मेरे नाम का तारा चमकता है

तो मेरी रूह ऐसे जगमगा उठती है

जैसे आइने में चांद उतर आए

मेरी पलकों से आंसू चूम करतुमने

उन्हें मोती बनाने की जो ज़िद की है

वह ज़िद मुझको बहुत अच्छी लगी है

बहुत ख़ुश हूं

कि मेरे सर पर चादर रखने वाला हाथ

मेरे हाथ में फिर आ गया है

ये फूल और ये सितारे और ये मोती

मुझको क़िस्मत से मिले हैं

और इतने हैं कि गिनती में नहीं आते

मगर इस दिल की वीरानी ..........!

मगर इस दिल की वीरानी ..........!

(6)

न मैंने चाँद देखा

न मैंने चांद देखा

और न कोई तहनियत का फूल खिड़की से उठाया

मेरा मलबूस भी अब मलगिजा है

हिना से हाथ ख़ाली

और चूड़ी से कलाई

न मेरे पास थे तुम

और न मेरे शहर से गुजरे

मैं क्या अफ़शां लगाती

मांग में सिंदूर भरती

रंग और ख़ुशबू पहनती

चांद की जानिब नज़र करती

कि मेरी लज्ज़त-ए-दीदार तो तुम हो !

मेरा त्यौहार तुम हो !

(7)

ये बारिश खुबसूरत है

ये बारिश ख़ूबसूरत है

एक अरसे बाद

मेरी रूह में

सैराब होने की तमन्ना जाग उट्ठी है

मगर बादल के रस्ते में

बहुत से पेड़ आते हैं

मैं पल भर के लिए शादाब हूं

और अपनी बाक़ी उम्र

फिर सहरा में काटूं ?

मैं अपनी प्यास पर राज़ी रहूंगी

मिरे आंसू मिरे दिल की कफ़ालत के लिए काफ़ी रहेंगे

(7)

हर्फ़े-ताज़ा नई ख़ुशबू में लिखा चाहता है

बाब इक और मुहब्बत का खुला चाहता है

एक लम्हे की तवज्जोह नहीं हासिल उस की

और ये दिल कि उसे हद से सिवा चाहता है

इक हिजाबे-तहे-इक़रार है माने वर्ना

गुल को मालूम है क्या दस्ते-सबा चाहता है

रेत ही रेत है इस दिल में मुसाफ़िर मेरे

और ये सहरा तिरा नक़्शे-कफ़े-पा चाहता है

यही ख़ामोशी कई रंग में ज़ाहिर होगी

और कुछ रोज़ कि वो शोख़ खुला चाहता है

रात को मान लिया दिल ने मुक़द्दर लेकिन

रात के हाथ पे अब कोई दिया चाहता है

तेरे पैमाने में गर्दिश नहीं बाक़ी साक़ी

और तिरी बज़्म से अब कोई उठा चाहता है

(8)

वक़्त-ए-रुख़्सत आ गया दिल फिर भी घबराया नहीं

उस को हम क्या खोएँगे जिस को कभी पाया नहीं

ज़िंदगी जितनी भी है अब मुस्तक़िल सहरा में है

और इस सहरा में तेरा दूर तक साया नहीं

मेरी क़िस्मत में फ़क़त दुर्दे-तहे-साग़र ही है

अव्वले-शब जाम मेरी सम्त वो लाया नहीं

तेरी आँखों का भी कुछ हल्का गुलाबी रंग था

ज़हन ने मेरे भी अब के दिल को समझाया नहीं

कान भी ख़ाली हैं मेरे और दोनों हाथ भी

अब के फ़स्ले-गुल ने मुझ को फूल पहनाया नहीं

(9)

नज़्म

यह कैसा ख़ला है

असीरे-शामें-तन्हाई से आखिर गिला कैसा

तुझे तो इल्म था जंजीर का मेरी

जो पैरों में भी है

और रूह पर भी

मैं अपने बख्त की कैदी हूं

मेरी जिंदगी में

नर्म आवाज के जुगनू कम चमकते हैं

फ़सीले-शहरे-गम पर खुश-सदा तामर

कहां आकर ठहरते हैं

तेरी आवाज का रेशम मैं कैसे काट सकती थी

मेरे बस में अगर होता

तो सारी उम्र

उस रेशम से अपने ख्वाब बुनती

और इस रिमझिम के अंदर भीगती रहती

तुझे तो मेरे दुख मालूम थे जाना !

यह किस लहजे में तू रुखसत हुआ है !

(10)

एक खाली दोपहर

मैं बाहर की तमाज़त से

झुलस कर आई तो देखा

मिरे घर में भी वैसी धूप मेरी मुंतज़िर थी !

किसी आवाज़ ने माथा मेरा चूमा

न कोई दिलरुबा लहजा

मुझे बाहों में ले पाया

हसूले-रिज्क की गहरी मशक्क़त में

उठाए जाने वाले ज़ख़्म पर

कोई सदा मरहम फ़िशां थी

और न कोई लफ्ज़ ही उसका रफ़ूगर था

मैं जिस आवाज़ से लबरेज़ रहती थी

उसी के एक जुरए को तरसती थी

मेरे हाथों में एक टूटी हुई पूजा की थाली थी

मेरी शामों की तरह आज मेरी दोपहर भी

तुझ से ख़ाली थी !

(11)

नज़्म

तिरे लहजे में अबकी बार

ऐसी शांती थी

जो इक गहरे तज़बज़ुब से निकलकर

ज़हन में इक फ़ैसले के बाद आती है

तज़बज़ुबसे निकलना इस क़दर आसान नहीं जानां !

येवो जंगल है

जिसमें रास्ते इक दूसरे को काट देते हैं

मुसाफ़िर इक क़दम आगे बढ़ाता है

तो सौ ख़दशात दामन थाम लेते हैं

कोई रास्ता दिखाने को कहां सोचे

चराग़ों का तो कहना क्या

यहां तो जुगनुओं पर शक गुज़रता है

सो ऐसे घुप अंधेरे में

यकीं की शम्म किसने आके तेरे दिल में रौशन की

तेरे चेहरे पर अब की बार

कैसी रौशनी थी !

(12)

नज़्म

जान !

क्या बात है

किस तज़बज़ुबे में हो

फ़ैसले पर पहुंचने में क्या बात मानेअ हुई

और अगर फ़ैसले पर पहुंच ही गए हो

तो फिर इसका दुख तो नहीं

और दुख है तो फिर

लौटने की घड़ी

हाथ में है अभी

गरचे अब शाम है

और जंगल क़रीं

फिर भी तन्हाई का वक्त कट जाएगा

रास्ते में अब इतनी मसाफ़त नहीं

उम्र की रात के

आख़िरीपहर में

मैं भी हूं

तुम भी हो

(13)

नज़्म

दुआ करना

मिरे हक़ में दुआ करना !

बिछड़ते वक़्त उसने एक ही फ़िक़रा कहा था

उसे क्या इल्म

मेरे हर्फ़ से तासीर कब की उठ चुकी है

दुआ का फूल

मेरे लब पे खिलते ही

अचानक टूट जाता है

मैं किस ख़ुशबू को उसके हाथ पर बांधूं

मुझे ख़ुशबू से डर लगने लगा है !

(14)

नज़्म

गले से अपने लगाए मुझ को

समेटकर अपने बाजूओं में

वो एक बच्चे की तरह मुझको थपक रहा था

और अपनी ख़्वाब-आफ़रीन सरगोशियों में मुझसे ये कह रहा था

अभी न थकना !

अभी न थकना !

मिरे मुसाफ़िर !

मैं जानती हूं

अभी सफ़र इब्तिदा हुआ है

अभी मसाफ़त की हद भी लिक्खी नहीं गई है

अभी तो जंगल में रास्ता ढूंढना पड़ेगा

अभी तो रास्ते में शाम होगी

ये शाम भी बेचराग़ होगी

अभी तो सहरा की धूप में नंगे पांव चलना पड़ेगा मुझको

शज़र मिलेगा न सर पर बादल का सायबां कोई तान देगा

तेरी झलक का अभी का अभी बहुत इंतज़ार करना पड़ेगा मुझको

अभी तो कच्चे घड़े पे दरिया को पार करना पड़ेगा मुझको

मिरे मुसाफ़िर !

मैं जानती हूं सफ़र की सारी सऊबतों को मैं जानती हूं

मगर मिरी आंख में जो ये राख उड़ रही है

यह गर्द जो मेरे ख़ालो-ख़द पर जमी हुई है

क़बा-ए-तन तक नहीं रुकी है

शिकस्तगी मेरी रूह में है !

थकन जो पिछले सफ़र की है

मेरी हड्डियों में उतर चुकी है

(15)

सैन्द्रीला ....  unvisited

खुली आंखों में ये कैसा ख्वाब मेरे सामने है

दिए आंगन से लेकर आसमां तक

गुलाबे-ताज़ा की खुशबू चमन से सहने-जां तक

बिल्लौरी जाम

और उसमें दमकती सुर्ख मय

और उसके नशे से फ़रोज़ा उनका चेहरा

सितारों से बना मेरा लबादा

सरापा इज़्तराब एक शहजादा

फर्श पर सम्मएं जलाता एक वादा

दिलों के वायलिन पर

वाल्ज करते दो बदन

और उसके सानों पर रखे सर

जिंदगी से

नीम सरगोशी में एक ही बात दुहआती हुई

खुशबू-ए-लब और उसका जादू

 

गजर के बचते ही आधी रात का

ये ख्वाब एकदम टूट जाता है

सितारों से बना मलबूस मेरा

फिर ख़सो-खाशक को जाता है

मेरा रथ अचानक टूट जाता है

मेरे शीशे की जूती रक्स-गाह में छूट जाती है

मगर अगली शहर मेरी तरफ

शाही महल से

कोई कासिद

दूसरे पांव की फ़ुरक़त में नहीं आता !

(16)

नज़्म

चलो इस ख्वाब को हम तर्क कर दें

और आंखों को ये समझा दें

कि हर तस्वीर में हल्का गुलाबी रंग चाहे से नहीं आता

बहुत से नक़्श, नक्क़ाशे-अज़ल ऐसा बनाता है

की जिनका हाशिया गहरा सियह

और नक़्श हल्का सुरमई रहता है और जिन पर

किसी भी ज़ाविये से चांद उतरे

ये कभी रोशन नहीं होते

ख़ुदा कुछ काम आधी रात को करता है

जब उसके पियाले में

सियाही के सिवा कुछ भी नहीं होता

यह ख़ाका भी

किसी ऐसी ही साअत में बना होगा

हमारी आंखों में जो ख़्वाब उतरा था

बहुत ख़ुशरंग लगता था

मगर उसके दमकने में

कई आंखें लहू होती हैं

किताबें और फूलों से सजे जिस घर के आंगन में

हम अपने आप को खिलते हुए महसूस करते थे

वहां इक और घर बुनियाद से यूँ सर उठाता था

कि हम अंदर से हिल जाते मगर चुप-चाप रहते थे

ये चुप दीमक की सूरत हमको एक दिन चार्ट जाती !

तुम्हारे दुख से मैं वाक़िफ़ हूं

और अपने मुक़द्दर की लकीरों से भी महरम हूं

हमारे बस में रंगों का चुनाव है

न ख़त का

सो इस तस्वीर को तहलील कर दें

हम अपना कैनवस तब्दील कर लें !

(17)

नज़्म

इन दिनों

मेरी अपने आप से बोलचाल बंद है

मेरे अंदर एक बांझ गुस्सा

फ़ुकारता रहता है

न मुझे डसता है

न मेरे गिर्द अपनी गिरफ्त ढीली करता है

नैनवा की सरजमीन

एक बार फिर सुर्ख है

फ़रात के पानी पर

इब्ने जियाद के तरफदारों का एक बार फिर कब्जा है

जमीन और आसमान

एक बार फिर शशमाहे का लहू

वसूल करने से इनकारी है

और मेरे चेहरे पर अब मजीद लहू की जगह नहीं !

फतेह फौज़ रोशनी और आग के फर्क को नहीं समझती !

सेहरा की रात काटने के लिए उन्हें अलाव की जरूरत थी

सो उन्होंने मेरे कुतुबखाने जला दिए

लेकिन मैं एहतज़ाज भी नहीं कर सकती

मेरे बालों में शुल्क स्कार्फ बंधा है

और मेरे गिलास में कोका कोला हंस रहा है

मेरे सामने डालर की हड्डी पड़ी हुई है !

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(प्रोफ़ेसर मक्खन लाल एक अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त पुरातत्ववेत्ता, इतिहासकार हैं। आप कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के सीनियर फ़ैलो, काशी हिंदू विश्वविद्यालय, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में अध्यापक, दिल्ली विरासत अनुसन्धान एवं प्रबंधन संस्थान के संस्थापक निदेशक, विश्व पुरातत्व कॉंग्रेस के कोषाध्यक्ष और एकादमिक प्रोग्राम के कोर्डिनेटर रहे हैं। आपके विभिन्न विषयों पर 200 शोध पत्र छप चुके हैं तथा 23 किताबें आ चुकी हैं। इनकी साहित्य में विशेष रुचि है।)

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URL: https://www.newageislam.com/hindi-section/parveen-shakir-poems-ghazals-kafe-aaina-part-5/d/126043

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