प्रोफेसर मक्खन लाल, न्यू एज इस्लाम
20 दिसंबर
2021
उर्दू में एक अलग तर्ज़ पर बेतकल्लुफ
इज़हार की मल्लिका, और अपने समय की बेख़ौफ़ शायरा, परवीन शाकिर के
बारे में कुछ भी कहने से पहले उनके सामयिक और सामाजिक परिवेश को याद रखना जरुरी है
जिसमे एक सोच, एक पंथ ऐसा भी था जिसे औरत का स्वतंत्र और बराबरी का वजूद
स्वीकार्य नहीं था । दुर्भाग्यवश यह सोच रखने वाला पंथ आज भी है जो औरत को दोयम
दर्जे का सिर्फ इसलिए मानता है क्योंकि मसीही ग्रंथों के अनुसार, औरत को मर्द कि
बायीं पसली से बनाया गया है, अतः उसका दर्जा उनकी नज़र में मर्द से कम होना तय है । वस्तुतः यह
सोच रखने वाले मर्दों की कौम यह भूल गयी है कि वह भी जन्नत से बेदखल किया गया था ।
पसली की पीड़ा को भुलाने के लिए शायरी में अपना वजूद तलाशता, शख्स भी वही है
जिसकी बुनियाद वही औरत है । वही औरत जिसे उसने इज्ज़त और सम्मान से महरूम रखा ।
वस्तुतः उसने औरत को जीवन में जिस इज्ज़त और सम्मान से बेदखल किया, उस दर्द का इज़हार
बहुत गिनी चुनी औरतें ही अपनी शायरी में खुल के कर पायीं हैं । कारण, अब भी मानसिक रूप
से पिछड़ा हुआ आदिम मर्द औरत को पर्दे में, घर-बाहर नज़रें
झुकाए सिमटा हुआ मर्द से दो कदम पीछे चलते देखना चाहता है । उसे, औरत का खुली-सधी
आवाज़ में बोलना, अपने ही नहीं बल्कि पूरी मर्द जात अस्तित्व के लिए चुनौती लगती है
।
परन्तु इस सब के बावजूद, ऐसा नही है कि
शायरी में औरतों की दखलंदाजी नही है । औरतों ने शायरी पहले भी की है मगर उनकी
शायरी में खुलापन, बेझिझक औरत के अपने होने का एहसास इक्के-दुक्के ही मिलता है। जिस
तरह उन्हें खुल कर जीने का अधिकार नही था उसी तरह खुद को खुल कर व्यक्त करने की
अनुमति भी उन्हें नही थी और वह अपनी बात भी आदमीयत की आड़ में अर्थात मर्द्पन में
ढाल कर ही कहती थीं।
ऐसे में परवीन शाकिर एक ऐसी शक्सियत
हैं जिसे इज़हार की दुनिया में अनदेखा करना नामुमकिन है । ऐसे कसे हुए माहौल में
उनकी बेखोफ शायरी उन्हें औरों से अलग कर, एक अलग पहचान प्रदान करती है .... ऐसी पहचान जो औरत के लिए नियत
परम्परा की बेड़ियों को स्वीकार नही करती, न ही वह अपनी बात कहने में अंजाम की सोचती हैं .... उनकी शायरी एक
ऐसे वजूद की अभिव्यक्ति है जिसे उन्होंने जिया और झेला है .... नितांत अकेले ....
तन्हा, तिल-तिल, पल-पल । उनका वजूदी इज़हार एक चोट खाई औरत की शायरी ही नही बल्कि
चोट करती हुई औरत की शायरी भी है जो कही समाज के ऊल-जुलूल रूढ़ीवादिता पर प्रहार
करती है तो कहीं मर्दों की सोच पर ।
परवीन शाकिर अपनी शायरी के हर लफ्ज़ में
सच्ची-खरी औरत रहीं हैं। उनका बेटी से बहन से, प्रेयसी से, बीबी से, माँ बनने तक का सफ़र
उनकी शायरी के पन्नों पर फैला हुआ है। उनकी शायरी में लफ़्ज़ों के सफर का मुकाम
निश्चित है ।
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परवीन शाकिर ने बहुत कम उम्र में ही
लिखना शुरू कर दिया था। उन्होंने शायरी की सभी विधाओं पर हाथ आज़माया मगर उनकी
पहचान ग़ज़ल से ही बनी। अपने लेखन में उन्होंने विभिन्न विषयों को शामिल किया मगर
सबसे ज्यादा ध्यान देने योग्य विषय प्रेम, स्नेह, औरतपन और उसका
व्यक्तिगत और सामाजिक अपमान हैं। परवीन ने एक साक्षात्कार के दौरान कहा था:
"प्रेम का दर्शन मेरी कविता की नींव है और यही कारण है कि मैं हमेशा
भगवान, ब्रह्मांड और मानव के त्रिकोण पर विचार करती हूं और उन्हें समझती
हूँ।"
अपनी पहली पुस्तक लिखते समय, वह एक अविवाहित और
अपेक्षाकृत प्रतिबंधित युवा लड़की थीं । ---उनकी बाद की पुस्तकें उनके जीवन में
आने वाले बदलाव को दर्शाती हैं --- उनका संघर्ष, जैसा कि पाकिस्तान
में कई महिलाओं को भी उन जैसे ही मुद्दों का सामना करना पड़ता है, -- एक बेमेल विवाह से
शुरू हो कर, मातृत्व, सर्वव्यापी ससुराल, काम और पारिवारिक जीवन में संतुलन साधने और फिर तलाक तक पहुंचता है
परवीन महसूस करती थीं कि वह अपने ही
परिवार, ससुराल में उर्दू सहित्य, ग़ज़लों और नज्मों के लिए अपने जुनून को समझा नहीं सकीं। एक
प्रतिभाशाली शायरा और ज़हीन सिविल सरवेंट के रूप में उनकी प्रसिद्धी, प्रतिष्ठा भी
उन्हें सर्वव्यापी पितृसत्तात्मक, सामाजिक रूढियों और कुरीतियों से बचा नहीं सका। “सदबर्ग” की भूमिका में
परवीन लिखती हैं :
“ जिस मुआशरे में क़द्रों के नंबर मनसूख़ हो चुके हों और
दिरहमें-ख़ुद्दारी, दीनारे-इज़्ज़ते-नफ़स कौड़ियों के भी मोल न निकलें, वहां नेकी की नुसरत
को कौन आये? वहां तो समाअतें बहरी बसारतें अंधी हो जाती हैं .......... और मेरा
गुनाह यह है कि मै एक ऐसे क़बीले में पैदा हुई जहाँ सोच रखना जरायम में शामिल है ।
मगर क़बीलेवालों से भूल यह हुई की उन्होंने मुझे पैदा होते ही ज़मीन में नहीं गाड़ा
(और अब मुझे दीवार में चिन देना उनके लिए ख़लाकी तौर पर उतना आसान नहीं रहा!) मगर
वो अपनी भूल से बेख़बर नहीं, सो अब मैं हूँ और मेरे होने की मजबूरी का यह अँधा कुआँ जिसके गिर्द
घूमते-घूमते मेरे पांव पत्थर के हो गए हैं और आँखें पानी की -- क्यों कि मैंने और
लड़कियों की तरह खोपे पहनने से इन्कार कर दिया था ! और इन्कार करने वालों का अंजाम
कभी अच्छा नहीं हुआ !
हर इन्कार पर मेरे जिस्म में एक मेख़
का और इज़ाफ़ा हो गया --- मगर मेखें ठोकने वालों ने मेरी आँखों से कोई तअर्रुज़ न
किया --- शायद वो जानते थे इन्हें बुझाने से अंदर के रौशनी में कोई फ़र्क्र पड़ेगा, या फिर अपनी
सफ्फ़ाकियों से लुफ़्तअन्दोज़ होने के लिए वे एक गूंगे गवाह के तालिब थे और मै हैरान
हूँ की इस गवाही से मेरी आँखे अब तक पथरायीं क्यों नहीं!
परवीन कई मायनों में एक अपवाद थीं ।
यद्यपि उम्र में वह बहुत छोटी थी मगर ग़ज़लों और नज्मों पर उनका अधिकार अपने समय के
किसी भी बड़े शायर से कम नहीं था । कई लोगों ने उन्हे साहित्यिक हलकों के भीतर और
बाहर लांक्षित किया । इसके चलते तरह-तरह की अफवाहें फैलाई गईं। फिर भी उन्होंने
लिखना जारी रखा और समकालीन बड़े अदीबों, शायरों से तारीफ़ हासिल की । आम पब्लिक की तो वो लाडली थी हीं । सी.
एम. नईम, ज़िया मोहिद्दीन, मुनीर नियाज़ी, फ़हमीदा रियाज़, किशवर नाहीद, अमजद इस्लाम अमजद और अहमद फ़राज़ जैसे बड़े अदीबों और शायरों ने परवीन
शाकिर की भूरि-भूरि प्रशंसा की । गुलाम अली, आबिदा परवीन, तसव्वुर खानम, ताहिरा सय्यद, टीना सानी और मेहदी
हसन जैसे गायकों ने उनकी ग़ज़लों को अपनी आवाजें दीं। दुनिया भर के मुशायरों में
अपने उत्कृष्ट प्रदर्शन के साथ, उन्होंने टेलीविजन पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराई, साक्षात्कार दिए और
अपने समकालीनों के साथ अदब पर चर्चायें की।
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सैय्यद शाकिर हुसैन और
अफ़ज़ल-उन-निशा की बेटी सैय्यदा परवीन बानो शाकिर का जन्म 24 नवंबर, 1952 को पाकिस्तान के
कराची में हुआ । उनके पिता बिहार के रहने वाले थे और भारत के विभाजन से दो साल
पहले 1945 में नौकरी की तलाश में कराची चले गए थे। उनकी माँ भारत के पटना के
रहने वाली थीं और शाकिर हुसैन से शादी के बाद उनकी मां भी कराची आ गईं। उनके पिता
सैयद शाकिर हुसैन, पाकिस्तान के टेलीफोन और टेलीग्राफ विभाग में एक क्लर्क के रूप में
नौकरी करते थे। परवीन शाकिर की माँ ने एक बच्ची के रूप में उन्हें संवेदनशील और
बहुत जिद्दी बताया है । उनका कहना है कि परवीन को नंगे पांव रहना अच्छा लगता था और
उनकी यह आदत पूरे जीवन बनी रही । परवीन काफी अड़ियल होने के साथ साथ अपने माता-पिता
की बहुत प्रिय थी इसीलिए वह हमेशा हर चीज में अपना रास्ता बना लेती थी और अपनी
बातें मनवा लेती थीं । परवीन शाकिर घरेलू कामों से विरक्त और काफी हद तक अनजान, लेकिन बौद्धिक
कामों में हमेशा बहुत आगे थीं । परवीन शाकिर के बारे में ये छोटी-छोटी बातें हमें
उनके व्यक्तित्व और स्वतंत्र स्वभाव को समझने में मदद करती हैं। जब वह एक स्त्री
के दृष्टिकोण से प्रेम, रोमांस, मन और शरीर के इच्छाओं के बारे में खुलकर बात करती हैं तो उत्साही
प्रकृति, संवेदनशीलता और जिद, ये सब उनकी रचनाओं में आते हैं । उस काल और संदर्भ को देखते हुए
परवीन की रचनायें वास्तव में महिलाओं के बारे में समाज के नियमों और रूढ़ियों को
चुनौतियाँ देती हैं और सामाजिक व्यवस्था, सांस्कृतिक परम्पराओं तथा प्रचलित मान्यताओं को भी प्रभावित करती
है।
परवीन शाकिर ने रिजविया गर्ल्स हाई
स्कूल से मैट्रिक करने के बाद उन्होंने 1968 में सर सैयद कन्या महाविद्यालय में दाखिला लिया और 1971 कला स्नातक की
उपाधि प्राप्त की, जिसके बाद शाकिर ने कराची विश्वविद्यालय में पोस्ट-ग्रेजुएट में
दाखिला लिया और उन्होंने अंग्रेजी की पढ़ाई की और 1972 में मास्टर डिग्री
हासिल की। अंगरेजी में पोस्ट-ग्रेजुएशन के बाद उन्होंने अब्दुल्ला गर्ल कालेज में
लेक्चरर के रूप में काम करना शुरू किया। साथ ही शाकिर ने दैनिक अखबार ‘जंग’ के लिए ‘गोशा-ए-चश्म’ के नाम से स्तम्भ
भी लिखना शुरू किया। शादी के तीन वर्ष बाद 1980 में उन्होंने ने
कराची विश्वविद्यालय से अंग्रेजी भाषा विज्ञान में एम.ए. की डिग्री हासिल की।
धीरे-धीरे शाकिर का मन अध्यापन से
ऊबने लगा । इसकी वजह बच्चों का अंग्रेजी विषय में रूचि न होना था । परवीन कहती हैं
कि “क्लास में पढ़ाते समय कभी-कभी उन्हें लगता था की दीवारों से बात कर
रही हैं।“ उन्होंने इस स्थिति से छुटकारा पाने की सोच ली । दिन-रात मेहनत
करके 1981 में शाकिर ने पाकिस्तान की सीनियर सिविल सर्विस (भारत की भारतीय
प्रशासनिक सेवा के समकक्ष) की परीक्षा दी और सफलता की मेरिट में दूसरा स्थान
प्राप्त किया । जब उन्होंने 1981 अपनी सिविल सर्विस परीक्षा दी, तो परीक्षा में एक
प्रश्न उनकी अपनी ग़ज़लों और नज्मों पर था । 1983 में उन्हें सीमा
शुल्क और आबकारी विभाग में प्रशिक्षण जारी रखने के लिए चुना गया था । हालांकि, शाकिर ने सिविल
सेवा में उत्कृष्ट प्रदर्शन किया था और वह विदेश सेवा में जाना चाहती थीं। लेकिन
ऐसा हो नहीं सका। पाकिस्तान के तत्कालीन मार्शल लॉ तानाशाह, जनरल जिया-उल-हक़, ने महिलाओं को
विदेश सेवा में काम करने से रोक दिया। परवीन शाकिर को इसका हमेशा दुख रहा। बाद में
पाकिस्तान टीवी को दिए एक साक्षात्कार में उन्होंने में बेहद भरे मन से कहा था
“मै फारेन सर्विस में जाना चाहती थी और सेलेक्ट भी हो गयी थी । यह
मेरी पहली पसंद थी और मैंने इसे हासिल भी कर लिया। लेकिन वो ज़माना ठीक नहीं था। 1983 में जो जनरल साहब
हम पर हुकूमत करते थे उन्होंने ने एक आर्डिनेंस जारी किया कि लेडी अफसर की
पोस्टिंग बाहर बिल्कुल नहीं होगी। मै औरत थी; यह मेरा ज़ुर्म था
जो वो माफ़ नहीं कर सकते थे। हमें अपनी दूसरी पसंद कस्टम्स में आना पड़ा”
परवीन शाकिर में पढ़ने और ज्ञान
प्राप्त करने की ऐसी ललक थी की नौकरी में आने के बाद भी प्रयास जारी रखे। 1991 में उन्हें
हारवर्ड विश्वविद्यालय प्रोग्राम में भाग लेने के लिए फुलब्राइट छात्रवृत्ति से
सम्मानित किया गया था । फुलब्राइट स्कालरशिप के दौरान उन्होंने ट्रिनिटी कॉलेज में
हर्टफोर्ड कंसोर्टियम फॉर हायर एजुकेशन के माध्यम से दक्षिण एशियाई साहित्य और
सेंट जोसेफ कॉलेज में पाकिस्तान और बांग्लादेश की राजनीति और संस्कृति पर
पाठ्यक्रम अलग से पढ़ाया। हारवर्ड विश्वविद्यालय में परवीन शाकिर ने पढ़ाने के
साथ-साथ हारवर्ड न्यूज एंड व्यूज अखबार के उप-संपादक के रूप में कार्य किया। 1993 में पाकिस्तान
लौटने पर शाकिर कस्टम्स और सीमा शुल्क निरिक्षण विभाग में उप-निदेशक के पद पर
पदोन्नत किया गया। उन्हें फिर से विदेश जाने और पीएचडी करने में रुचि थी, और 1971 के पाकिस्तान और
बांग्लादेश युद्ध पर शोध करना चाहती थीं, लेकिन 1994 में उनकी असामयिक मृत्यु के कारण वह इच्छा पूरी नहीं हो सकी।
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परवीन शाकिर ने अपनी किशोरावस्था में
ही नज़्मे और ग़ज़लें लिखना शुरू कर दिया था। जब शाकिर सर सैयद कॉलेज में एक छात्रा
थीं तब उनकी एक शिक्षका, इरफ़ाना अजीज़, ने उन्हें गजले और नज़्मे लिखने के लिए प्रेरित किया । अजीज़ ने
उन्हें पाकिस्तान के रक्षा दिवस (6 सितंबर, 1967) के अवसर पर एक नज़्म लिखने के लिए कहा । वह अभी 15 वर्ष की भी नहीं
थीं । शाकिर ने ‘सुब्हे-ए-वतन’ नामक एक नज़्म कही और इसके लिए उन्हें प्रथम पुरस्कार से सम्मानित
किया गया । शुरू के वर्षों मे इरफ़ाना अजीज ने परवीन को एक बेहतर शायरा बनने में
मदद की। इसके बाद परवीन, अहमद नादिम कासमी (1916 -
2006) के संपर्क में आयीं और उन्हें अपने
गुरु के रूप में लिया। परवीन ने कासमी को एक पिता के रूप में देखा और प्यार से
उन्हें “अम्मो” कहा करती थीं ।
परवीन शाकिर एक सुशिक्षित और
स्वावलम्बी महिला थीं जिन्हें किसी की भी आधीनता स्वीकार्य नहीं थी। उन्हें
सामाजिक रूढ़ियों औरे विसंगतियों से भी काफी थी। मुस्लिम समाज में स्त्रियों के व्यक्तिगत, समाजिक और अर्थिक
स्थिति को ले कर उन्होंने हमेशा स्पष्ट रुख अपनाया। नतीजतन, एक रुढ़िवादी समाज
में उनकी व्यक्तिगत और सामाजिक ज़िन्दगी बहुत उथल-पुथल से भरी रही । अगर हम उनकी
निजी जीवन यात्रा को समझने की कोशिश करें तो सबसे अच्छा तरीका है कि हम उनकी नज़्मो
और ग़ज़लों को उसी क्रम में पढ़ें जिस क्रम में संग्रह प्रकाशित हुए थे। जैसे जैसे
हम शाकिर के पांच खंडों को पढ़ते हैं वैसे- वैसे हम उनकी अधिकांश कविता के
आत्मकथात्मक स्वर से प्रभावित होते है। ऐसा भी लगता है कि शाकिर ने किताबों में
कविताओं को उनकी रचना के लगभग कालानुक्रमिक क्रम में व्यवस्थित किया है। इस प्रकार
उनमें "लड़की" से "प्रेमी", एक
"पत्नी", एक "माँ" और दुनिया का सामना करने वाली "कामकाजी
महिला" के विकास को पढ़ा जा सकता है।
बहुत ही व्यक्तिगत क्षणों में एक
टीवी इंटरव्यू में, (जिसका जिक्र शाकिर की बहुत करीबी मित्र रफ़ाक़त जावेद ने भी अपनी
किताब, “परवीन शाकिर जैसा मैंने जाना”, में किया है) शाकिर
ने कहा था, “जिन्दगी ने मेरे साथ इन्साफ नहीं किया।” अखिरकार उन्होंने
ऐसा क्यों कहा? हमें समझना होगा ।
एक मध्यवर्गीय परिवार में जन्मी
परवीन शाकिर को विरासत में वह सब कुछ मिला जो उस समाज का हिस्सा है ।
माँ-बाप-परिवार का प्यार, पढ़ने लिखने की आजादी के साथ सामाजिक रूढ़ियाँ और बेड़ियाँ भी उनके
हिस्से में आयीं । बीस वर्ष की उम्र तक आते-आते शाकिर उर्दू ग़ज़लों और नज्मों की
दुनिया में अच्छी-खासी प्रसिद्धि पा चुकीं थी । उन्हें बराबर मुशायरों में बुलाया
जाने लगा था । जवानी के ओर जब कदम बढ़े तो भावनाओं का ज्वार भी फूटा । विद्यार्थी
जीवन में उनका पहला प्यार अपने से सीनियर क्लास में पढने वाले एक लम्बे एवं
ख़ूबसूरत लड़के से हुआ । लेकिन समय के साथ उन्हें एक सरकारी अधिकारी से प्यार हुआ और
शाकिर की पहली किताब, ख़ुशबू, की शायरी के पीछे का प्रेरणा श्रोत भी यही व्यक्ति था। परवीन उसके
साथ शादी कर घर बसाना चाहती थीं। पर ऐसा हो न सका। यद्यपि दोंनों इस्लाम को मानने
वाले थे पर उनका सम्प्रदाय अलग था । शाकिर शिया थीं और वो सुन्नी । उनकी सामाजिक
स्थिति भी एक दूसरे से अलग थी। पिता सैयद शाकिर हुसैन ने सांप्रदायिक मतभेदों के
आधार पर इस विवाह की अनुमति देने से इन्कार कर दिया । इस दौरान परवीन शाकिर के
दुख-दर्द का अहसास उनकी पहली किताब “ख़ुशबू” के भूमिका “दरीचा-ए-गुल” से मिलता है । परवीन लिखती हैं :
तेज़ जाते लम्हों की टूटती हुई दहलीज़
पर, हवा के बाज़ू थामे एक लड़की खड़ी है और सोच रही है कि इस समय आपसे
क्या कहे । बरस बीते, गयी रात के किसी ठहरे हुए सन्नाटे में उसने अपने रब से दुआ की थी
कि उस पर उनके अंदर की लड़की को प्रकट कर दे । मुझे यकीन है, यह सुन कर उसका
ख़ुदा इस दुआ की सादगी पर एक बार तो जरूर मुस्कराया होगा ! (कच्ची उम्रों के
लड़कियां नहीं जानती कि मोह-बंधन से बड़ी यातना धरती पर आज तक नहीं उतरी) पर वह उसकी
बात मान गया -– और उसे चाँद की तमन्ना करने के काम में अस्तित्व के हज़ार दरवाजे
वाले शहर का जादू दे दिया गया ।
अस्तित्व नगर के सारे दरवाज़े अंदर की
तरफ खुलते हैं और जहाँ से वापसी का कोई रास्ता नहीं ! बात यह नहीं कि शहरे-जाँ की
दीवार की मुरझाई बेलों पर किसी का सौंदर्य, बुलबुले की तरह
नहीं उतरा या उस शहर के गलियों में जिंदगी ने ख़ुशबू नहीं खेली – यहाँ तो ऐसे मौसम
भी आये कि जब बहार ने आँखों पर फूल बांध दिए और रंगों के घेरे से रिहाई दुश्वार हो
गयी थी –- मगर जब हवा के दिल में पत्ते रहित शाखें गड़ जाएं तो बहार के हाथों
से सारे फूल गिर जाते हैं ।
इन्हीं फूलों के पंखुडियाँ
चुनते-चुनते, आइना-दर-आइना ख़ुद को खोजती यह लड़की – शहर की उस सुनसान
गली तक आ पहुँची है कि मुड़ कर देखती है तो पीछे दूर-दूर तक किर्चियाँ बिखरी हुई
हैं –- ऐसा नहीं है कि उसने अपने अक्स को जोड़ने की कोशिश नहीं की –- की –- पर इस खेल में कभी
तस्वीर धुंधला गयी और कभी उंगलियाँ लहू-लूहान हो गयीं । “ख़ुशबू” उसी सफ़र की कहानी है
। हैरान आँखों, शबनमी गालों और उदास मुस्कराहट वाली यह लड़की मानती है कि उसकी यह
कहानी नई नहीं है (और यही क्या, दुनिया की कोई कहानी नई नहीं है -- यह तो हमारे अंदर का कहानीकार
है जो इसको ऐसा सुन्दर बुन देता है कि संसार का मन मोह ले) ।
फिर ख़ुद को पाने की तलाश में अपना आप
को खो देना तो बड़ी पुरानी बात है -– पर है बहुत सच्ची और अनिवार्य! …… सो यह लड़की जब आप
से बात करेगी तो उसकी पलकें बेशक भीगी हुई होंगी –- लेकिन ज़रा गौर से
देखिएगा -- इसका सिर उठा हुआ है।
परवीन शाकिर की पहली किताब “ख़ुशबू” को विशुद्ध रूप से
प्रेम और उनके साथ जुड़े सभी रंगों के कविता संग्रह की उपाधि दी जा सकती है । “ख़ुशबू” में न केवल बहुत
बेबाकी से प्रेम, वियोग, विछोह, निराशा, कुढ़न आदि का इज़हार तो है ही; बेहद सादे एवं सभ्य
ढंग से यौनिकता का भी वर्णन पाते हैं । यह सब तत्कालीन इस्लामी समाज में और वह भी
एक कुआंरी लड़की द्वारा लिखा जाना अपने आप में बहुत बड़ी बात थी । शाकिर के पहले
उनकी सीनियर्स फहमीदा रियाज़, किश्वर नाहीद आदि नारी मुक्ति आन्दोलन टाइप नज़्मे और ग़ज़लें लिख
रहीं थीं और शाकिर को भी उसी तरह से लिखने के लिए प्रेरित किया लेकिन परवीन कभी उस
रास्ते नहीं गयीं । एक बार जब उनसे उनके नज्मों के बारे में नारी मुक्ति आन्दोलन
के सन्दर्भ में पूछा गया तो परवीन ने शालीनता से जवाब दिया कि हाँ “वो हैं तो उसी तरफ
लेकिन मिलिटेंट टाइप की नहीं।“ परवीन शाकिर ने नारी अधिकार एवं स्वतंत्रता के बात तो की लेकिन
हमेशा सामाजिक दायरे और शालीनता के अन्दर रह कर । परवीन ने कभी भी फ़हमीदा रियाज़, किश्वर नाहीद आदि
की भाषाशैली नहीं अपनाई ।
परवीन शाकिर का पहली नज्मों और ग़ज़लों
का संग्रह “ख़ुशबू” 1977 में प्रकाशित हुआ । यह एक तात्कालिक सनसनी बन गई और उन्हे बहुत
आलोचनात्मक प्रशंसा और जनता का प्यार मिला। परवीन को इसके लिए प्रतिष्ठित “अदमजी साहित्य
पुरस्कार” भी मिला । “ख़ुशबू” में वह एक युवा भावुक लड़की के रूप में दिखाई देती हैं, जिसके पास न केवल
बहुत सौंदर्य बोध है बल्कि सुंदरता की परख के लिए आँखें भी। वह अपने स्त्रीत्व को
पूरी तरह से प्यार करती है और इसे छिपाने की कभी कोशिश नहीं करती । परवीन शाकिर का
उर्दू शायरी में सबसे बड़ा योगदान यह है कि उन्होंने खुलासा किया कि एक महिला अपने
पूरे दिल से किसी पुरुष से कैसे प्यार करती है। उनसे पहले किसी अन्य शायरा की आवाज
इतनी गहराई से व्यक्त नहीं हुई थी। “ख़ुशबू” की रोमांटिक यात्रा के दौरान एक अव्यक्त उदासी भी महसूस होती है।
यह अंत में आता है जब वह प्यार में निराश होती है। उन्हें लगता है कि उनकी भावनाएँ
पूरी नहीं हुई हैं और वह अपने पूरे प्रेम प्रसंग पर हैरान हैं।
यहीं से असली शायरा का जन्म होता है।
“ख़ुशबू” एक सुंदर प्रेम कहानी है जो कविता में लिखी और कोमल भावनाओं के साथ
बुनी गई है। प्यार के बारे में परवीन शाकिर ने हमेशा बहुत स्पष्ट रुख अख्तियार
किया । इस सिलसिले में एक टीवी इंटरव्यू में जब उनसे से पूछा गया कि क्या शायरी
करने के लिए प्यार करना ज़रूरी है? उनका जवाब था:
“जब कोई व्यक्ति सीखता है कि उसे किसी को प्यार करना और किसी से
प्यार पाना कितना महत्वपूर्ण है, तो वह व्यक्ति सभ्य हो जाता है; प्रेम धैर्य सिखाता
है और एक व्यक्ति को सहने की शक्ति देता है और आदमी को सम्पूर्ण बनाता है ….. जब अस्तित्व ने
प्रेम के लिए अंतर्ज्ञान पाया, तो कविता का जन्म हुआ।"
उनकी शादी सितम्बर 1976 में उनके चचेरे
भाई, डॉ. नसीर अली से हुई । परवीन शाकिर उस समय चौबीस साल की थीं और तब
तक वह उर्दू के दुनियां में काफी जानी-मानी हस्ती बन चुकी थीं । शादी के लगभग़ तीन
वर्ष बाद 20 नवम्बर 1979 परवीन शाकिर ने एक खुबसूरत बेटे, सैय्यद मुराद अली, को जन्म दिया । वह
प्यार से अपने बेटे को ‘गीतू’ नाम से बुलाया करती थें और उसे अपनी तीसरी पुस्तक, “ख़ुदक़लामी” समर्पित की। परवीन
शाकिर को यह बात हमेशा सालती रही की बेटे के जन्म के बाद उनसे मिलने और बेटे का
मुंह देखने डॉ. नसीर अली उसके जन्म के तीन दिन बाद आये । किसी भी पत्नी और पहली
बार माँ बनने वाली औरत के लिए यह बहुत दुख की बात थी।
“ख़ुशबू” की संवेदनशील लड़की इन वर्षों में काफी परिपक्व हो गई थी और एक
मजबूत महिला बन गई थी। उनके लिए अब दुनिया में प्यार और भावनाएं ही सब कुछ नहीं
हैं। उन्होंने बहुत प्रसिद्धि और आलोचना भी देखी । “ख़ुशबू” की शर्मीली लड़की
वैवाहिक आनंद पर स्वतंत्र रूप से लिखने वाली एक आश्वस्त महिला बन गई है। “सदबर्ग” की नज़्में और ग़ज़लें
एक मजबूत एहसास देती हैं कि दुःख उनकी खुशियों को छीन रहा हैं। सपना टूट चुका था; दुःख पहले से कहीं
अधिक गहरा था ।
बिखरते वैवाहिक जीवन की झलक “सदबर्ग” की भूमिका में
दिखाई देती है । परवीन “सदबर्ग” (जो 1980 में छपी थी) की भूमिका में लिखती हैं:
“ज़िन्दगी के मेले में रक्स की घड़ी आई तो, संड्रिला की
जूतियाँ ही ग़ायब थीं, न वह ख़्वाब था, न वह बाग़ था, न वह शहज़ादा, अच्छे रंगों की सब परियां अपने तिलस्मी देश को उड़ चुकी थीं और
लहू-लुहान हथेलियों से आँखों को मलती शहज़ादी जंगल में अकेली रह गयी –- और जंगल की शाम कभी
तनहा नहीं आती ! भेड़िये उसके खास दोस्त होते हैं ! शहज़ादी के बचाव का सिर्फ एक ही
तरीक़ा है उसे हज़ार रातों तक कहानी कहनी है….. और अभी तो सिर्फ 27 रातें ही गुज़री
हैं ।
मादरज़ाद झूठों की बस्ती में जीवन
जीने का और कोई हुनर नहीं -- और हवा से बढ़ कर और कोई झूठा क्या होगा कि जो
सुबह-सवेरे फूलों को चूम कर जगाती भी है और शाम ढले अपने लालची नाखूनों से उसकी
पंखुड़ियाँ भी नोच लेती है -- खिलने की कीमत चुकाने में जान का नुकसान वैसे कोई बात
नहीं, मगर यह पंखुड़ी-पंखुड़ी हो कर दर-ब-दर फिरना यकीनन दुख देता है --
हवा का कोई घर नहीं, सो वो किसी के सर पर छत नहीं देख सकती !
सदबर्ग के 1988 के संस्करण की
भूमिका में परवीन शाकिर ने आगे जोड़ा:
“सदबर्ग आते-आते परिदृश्य बदल चुका था -– मेरे जीवन का भी और
उस धरती का भी जिसके होने से मेरा होना है –- संसार की युद्धभूमि
में हमने कई लड़ाइयां एक साथ हारीं और बहुत ख़्वाबों पर इकट्ठे मिट्टी बराबर की ।
सदबर्ग की ग़ज़लें और नज़्में परवीन
शाकिर के जिंदगी के सबसे मुश्किल समय की हैं और उनमे चारों तरफ निराशा और कड़वाहट
का ही माहौल दिखाई देता है । बेटे के जन्म के बाद एक बार उम्मीद बनी की डा. नसीर
और शाकिर के संबंधो में सुधार आएगा । अफ़सोस ऐसा हो न सका । वास्तव में परवीन शाकिर
और डा. नसीर अली अलग-अलग दुनिया के लोग थे । ज़िंदगी के बारे में दोनों के विचार
अलग थे । 1987 में दोनों आपसी रजामंदी से एक-दूसरे से अलग हो गए । परवीन शाकिर
को बेटे मुराद से बेपनाह मुहब्बत थी । वो मुराद के बिना ज़िंदगी सोच भी नहीं सकती
थीं । उन्होंने बिना किसी मांग, बिना किसी शर्त के मुराद के पालन-पोषण की जिम्मेदारी ख़ुद ली और
तलाकनामे की यह शर्त भी स्वीकार कर ली जिसमें कहा गया था कि अगर परवीन शाकिर ने
दूसरा विवाह किया तो बेटा मुराद उनसे लेकर पिता को दे दिया जाएगा । डा. नसीर ने तो
तलाक़ के एक वर्ष के अंदर ही दूसरी शादी कर ली लेकिन परवीन शाकिर अपने जीवन के शेष
वर्षों में अविवाहित रहीं । बेटा मुराद उनके जीवन का कितना बड़ा हिस्सा था यह शाकिर
द्वारा बेटे के लिए लिखी गयी कई नज्मों से समझा जा सकता है
उस समय जहाँ रोज़मर्रा की ज़िंदगी काफी
परेशानी भरी चल रही थी उसी दरम्यान उनका तीसरा संग्रह “खुद-कलामी” आया जो परवीन शाकिर
को एक स्वावलम्बी, स्वतंत्र, कामकाज़ी एवं दृढ़ महिला के साथ-साथ एक ममतामयी माँ की मजबूत छवि
प्रस्तुत करता है। उनके सभी अँधेरे उनके बेटे की आँखों की रौशनी में धीमे पड़ गए।
इन नज़्मों और ग़ज़लों में एक महिला की गर्भावस्था और माँ होने की भावनाओं का सुंदर
वर्णन मिलता है। वह दुनिया में एक नया जीवन लाने के लिए बहुत खुश है और अपने बच्चे
को पूरी तरह से प्यार करती है ।
इस संग्रह की कुछ नज़्में और ग़ज़लें
उनके पेशेवर जीवन के संघर्ष को दर्शाती हैं। ऐसा लगता है कि वह कठिन समय में बढ़ती
जिम्मेदारियों के बीच सामजस्य बनाने के कोशिश कर रही हैं और अपने को पेशेवर जीवन, घरेलू कर्तव्यों और
मातृत्व के बीच विभाजित महसूस करती है। उनके अंदर की शायरा को अपने लिए समय नहीं
मिलता। रीति-रिवाजों में अपनी नौकरी का जिक्र करते हुए वह लिखती हैं:
हिन्दसे गिध
के तरह दिन मिरा खा जाते हैं।
हर्फ़ मिलने
मुझसे आते हैं ज़रा शाम के बाद ।।
1986 में, परवीन शाकिर को इस्लामाबाद में फेडरल ब्यूरो ऑफ़ रेवेन्यू में
दूसरा सचिव नियुक्त किया गया। उन्होंने अपने जन्म के शहर कराची को छोड़ दिया और
राजधानी में नए जीवन की ओर बढ़ गयीं। उनकी कविता का अंतिम संग्रह “इन्कार” था। यह उनके पूरे
जीवन का प्रतिबिंब बनकर उभरता है। उन्होंने प्रेम की शायरी से किनारा नहीं किया
लेकिन अब वह सरकारी खामियों पर भी खुल कर लिखने लगीं।
परवीन शाकिर ने 1970 के दशक के शुरुआती
दिनों में दैनिक अखबार “जंग” में काम किया था। उन्होंने 1990 के दशक में समाचार
पत्रों में अपने विचारों को प्रकाशित करना जारी रखा। उन्होंने अपने स्तंभ, गोशा-ए-चश्म (आंख
का कोना) में, साहित्यिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक आदि असंख्य विषयों पर टिप्पणी की। इन
स्तंभों में वह सरकार की आलोचना से संकोच नहीं करती थीं। उदाहरण के लिए, 22 मई, 1994 को प्रकाशित, एक लेख में
उन्होंने कर्मचारियों के वेतन के भुगतान के संबंध में बैंकों में व्याप्त
भ्रष्टाचार पर चर्चा करते हुए कहा : “यह देखकर उन्हें प्रसन्नता है कि लोकतंत्र की तरह अन्य चीजें भी
किश्तों (instalments) में सौंपी जा रही हैं।“
यानी परवीन शाकिर सिर्फ एक रोमांटिक
और एक भावुक औरत नहीं थीं, उनके पास राजनीतिक और सामाजिक चेतना भी थी। “ख़ुशबू” में एक नज़्म है
जिसका शीर्षक “मुश्तरक़ा दुश्मन की बेटी” है। यह पाकिस्तानी और चीनी प्रतिनिधिमंडल की महिलाओं के उदाहरणों
से संबंधित है जो भारत के खिलाफ अपनी सामान्य भावनाओं को साझा करती हैं और बातचीत
के दौरान काफी उत्तेजना और तनाव का माहौल बन जाता है तथा स्थिति गंभीर लगने लगती
है। उसी समय लता मंगेशकर की मधुर आवाज़ रेडियो से आती है, तो वे सब कुछ भूल
जाती हैं और खुद को उनके संगीत की सराहना करते हुए पाती हैं। एक अन्य कविता “शहजादी का अलमीया” (राजकुमारी की
त्रासदी) बेनजीर भुट्टो की पदावनति को दर्शाता है, जब उनसे अपने
पार्टी कार्यकर्ताओं पर अनुचित एहसानों की बौछार करने की उम्मीद थी । इन पार्टी
कार्यकर्ताओं ने दावा किया था कि उन्होंने लंबे सैन्य तानाशाही के खिलाफ संघर्ष
किया।
ये उदाहरण बताते हैं कि परवीन शाकिर
की पाकिस्तान के राजनीतिक मुद्दों में दिलचस्पी थी और वो अपने विचारों को
सार्वजनिक रूप से साझा करने से डरती नहीं थीं। हालांकि, जब भी ऐसा अवसर आया, उन्होंने सरकार पर
टिप्पणी करते हुए परोक्ष रूप से ही ऐसा किया।
परवीन शाकिर की पांचवीं किताब “कफ़े-आइना” उनके मौत के बाद
उनकी बहन नसरीन और मित्रों ने संकलित की।
26 दिसंबर, 1994 की सुबह परवीन शाकिर ने अपने बेटे मुराद के साथ नाश्ता किया और
ऑफिस के लिए निकल पड़ीं । घर के पास ही फैज़ल चौराहे पर उनकी कार को एक यात्री बस ने
बहुत जोर से टक्कर मारी । कार चालक की घटनास्थल पर ही मौत हो गई। शाकिर को
इस्लामाबाद अस्पताल ले जाया गया जहाँ बाद में उनकी मृत्यु हो गई । वह तब बयालीस
वर्ष की थीं । परवीन शाकिर अपने जीवन के दौरान कहा करती थी कि वह 42 साल से अधिक नहीं
जियेंगी और यह सही साबित हुआ । उनकी सबसे अच्छी दोस्त और शुभचिंतक, श्रीमती परवीन
कादिर आगा ने अपनी किताब Teardrops,
Raindrops: A biography of Parveen Shakir में लिखा है
कि: “परवीन का ड्रेसिंग टेबल श्रृंगार की वस्तुओं से भरा रहता था, लेकिन मृत्यु के 15 दिनों से पहले, उसकी मेज लगभग खाली
थी और उसने श्रृंगार करना लगभग बंद ही कर दिया था। जैसे कि वह अनंत काल की यात्रा
के लिए तैयार थीं।
जिस सड़क पर दुर्घटना हुई उसका नाम
परवीन शाकिर के सम्मान में "परवीन शाकिर रोड" रखा गया। पाकिस्तान पोस्ट
एंड टेलीग्राफ विभाग ने 2013 में परवीन शाकिर को उनकी 19वीं पुण्यतिथि पर
सम्मानित करने के लिए 10 रुपये का एक स्मारक डाक टिकट जारी किया।
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(प्रोफ़ेसर मक्खन लाल एक अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त
पुरातत्ववेत्ता, इतिहासकार हैं। आप कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के सीनियर फ़ैलो, काशी हिंदू
विश्वविद्यालय, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में अध्यापक, दिल्ली विरासत
अनुसन्धान एवं प्रबंधन संस्थान के संस्थापक निदेशक, विश्व पुरातत्व
कॉंग्रेस के कोषाध्यक्ष और एकादमिक प्रोग्राम के कोर्डिनेटर रहे हैं। आपके विभिन्न
विषयों पर 200 शोध पत्र छप चुके हैं तथा 23 किताबें आ चुकी
हैं। इनकी साहित्य में विशेष रुचि है।)
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English Article: Parveen Shakir: A Brief Life Sketch
Urdu Article: Parveen Shakir: A Brief Life Sketch پروین شاکر: ایک مختصر سوانح عمری
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