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Hindi Section ( 23 Dec 2021, NewAgeIslam.Com)

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Parveen Shakir: Her Poems and Ghazals, Part-1 परवीन शाकिर की नज़्में और गज़लें

प्रोफेसर मक्खन लाल, न्यू एज इस्लाम

23 दिसंबर 2021

परवीन शाकिर को दुनियां से विदा लिए हुए सत्ताईस वर्ष होंने को आए । 26 दिसम्बर 1994 को, सुबह दफ़्तर जाते समय एक सड़क हादसे ने उनको हमसे छीन लिया । अभी महीने भर पहले ही तो ही तो उन्होंने अपना 42वां जन्मदिन मनाया था । हादसे के बाद से लेकर आज तक कोई ऐसा साल नहीं बीता जब की उनकी याद में कोई बड़ा जलसा, मुशायरा, सेमिनार, कांफ्रेंस, पुरस्कार आदि न आयोजित किये गए हों और अखबारों, पत्रिकाओं, रिसालों में और अब तो वेब साइट्स पर भी अंग्रेजी, हिंदी, उर्दू फ़ारसी और तमाम यूरोपीय भाषाओँ लेख न लिखे गए हों । उनकी कई जीवनियाँ लिखी जा चुकी हैं और दर्ज़न भर के करीब तो शोध- ग्रन्थ सैकड़ो के संख्या में शोध पत्र प्रकाशित हो चुके हैं । उनके कविताओं का अनुवाद फ़ारसी, अंग्रेजी, इतालवी, जर्मन, जापानी, सिन्धी, हिंदी आदि भाषाओँ में भी हो चुका है । परवीन शाकिर की शायराना शक्सियत का अन्दाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है के जब 1981 में वो पाकिस्तान की सर्वोच्च प्रशासनिक सेवा (C.S.S.) की परीक्षा में बैठीं तो प्रश्नपत्र में एक प्रश्न तो उनके अपने लिखे हुए उर्दू साहित्य के महत्त्व पर था ।

परवीन शाकिर के मात्र 25 वर्षों के छोटे से रचना काल में चार संग्रह प्रकाशित हुए । पांचवा संग्रह उनके दुनियां से चले जाने के बाद दोस्तों ने संकलित कर प्रकाशित किया । अपने छोटे से जीवन के रचना काल में उन्होंने 600 से ज्यादा गज़लें और नज़्मे लिखीं । परवीन शाकिर का जन्म 24 नवम्बर 1952 में हुआ था । उनके ग़ज़लों और नज्मों का पहला संग्रह खुशबू 1975 में प्रकाशित हुआ ; दूसरा संग्रह सदबर्ग 1980 में , तीसरा संग्रह कुदकलामी 1985 में और चौथा संग्रह इन्कार 1990 में और कफ़े आईना उन की मृत्यु के बाद 1995 में।

इन पांचो संग्रहों को क्रम में पढ़ा जाए तो न केवल तत्कालीन समय और समाज पर रोशनी पड़ती है बल्कि उनकी अपनी जीवन-यात्रा भी साफ़ उभर के आती है । जैसे-जैसे हम उनकी ग़ज़लों और नज्मो के साथ आगे बढ़ते है न केवल उनकी शायरी में बदलाव नज़र आता है बल्कि उनकी अपनी ज़िंदगी भी अलग-अलग रंगों में साफ़ नज़र आती है । उनकी ग़ज़लों-नज़्मों में एक लड़की से प्रेयसी, प्रेमिका, बीवी, मां और एक औरत तक के सफ़र को साफ़ देखा जा सकता है । वह ज़ाहिर तौर एक बीवी के साथ मां भी हैं, शायरा भी और रोजी-रोटी कमाने वाली औरत भी । उन्होंने अवैवाहिक और वैवाहिक जीवन में प्रेम के जितने आयामों को छुआ है उतना कोई पुरुष शायर/कवि चाह कर भी नहीं कर पाया है; किसी शायरा/कवियत्री की तो बात ही छोड़ दीजिये ।

परवीन शाकिर एक ऐसी कवियत्री हैं जिन्होंने परंपराओं को परिभाषित किया और अपने अनुभवों और विश्वासों को ग़ज़लों और नज़्मों में व्यक्त किया। शाकिर ने अपने व्यक्तिगत जीवन की परिस्थितियों के दरकिनार करते हुए समाज एवं देश की रूढ़िवादी परम्पराओं और नारी के ऊपर उनके प्रभावों को विस्तृत पटल पर रखा । शाकिर ने अपनी कविताओं के माध्यम से समाज में महिलाओं की आंतरिक आवाज से अवगत कराया और पाखंडी सर्वव्यापी पुरुष समाज की मजबूत चाहरदीवारी में हमेशा के एक चौड़ी दरार बना दी । परवीन शाकिर को अपने विचारों की मौलिकता और अभिव्यक्ति में रचनात्मकता के लिए जाना जाता हैं । उन्होंने लगभग सभी विषयों पर गज़लें और नज़्में लिखीं एक औरत होने की मज़बूरी, भ्रष्टाचार, राजनीति, रूढ़िवादी विचार एवं सामाजिक संस्कार, कामकाजी महिलाओं के समस्याएं आदि; यहाँ तक की साहित्य के क्षेत्र में व्याप्त खेमेबंदी तक पर।

परवीन शाकिर के विस्तृत लेखन को किसी एक लेख में समाहित कर पाना असंभव है । अतः यह सर्वथा उचित रहेगा की हम उनकी कुछ चुनिन्दा रचनाओं को उसी क्रम में पढ़े जिस क्रम में वे छपी थीं। इससे हम उनके जीवन यात्रा को भी आसानी और स्पष्ट रूप से समझ सकेंगे । रचनाओं को चुनना एक बड़ा जोखिम भरा काम है क्यों की सभी की पसंद अलग अलग होती है। यहाँ पर दी जा रही गज़लें और नज़्में मेरे द्वारा सम्पादित की गयी दो पुस्तकें –-- अस्के-खुशबू: परवीन शाकिर की ग़ज़लें और नज़्मे तथा परवीन शाकिर की नज़्में --- से ली गयी हैं

Part – I: खुशबू

खुशबू में परवीन शाकिर की किशोरावस्था से ले कर 24 वर्ष तक की उम्र की गज़ले और नज़्मे है। ये सभी विशुद्ध रूप से प्रेम से प्रभावित ग़ज़लें और नज्मे हैं। अविवाहित लड़की होने के वावजूद ना केवल वह प्रेम और यौनिकता पैर खुल कर लिखती हैं बल्कि उन्हें अपने नारीत्व पर पर गर्व है और वह यह मानती थीं की उन्हें अपने प्यार को व्यक्त करने का पूरा अधिकार भी है । यहाँ हमें एक नवयुवती के प्रेम, नाराजगी, मुनहार, कुढ़न और ईष्या आदि के सभी रंग देखने को मिलेंगे ।

(1)

अजनबी

खोई खोई आँखें

बिखरे बाल

शिकन आलूद क़बा

लुटा लुटा इंसान !

साए की तरह से मेरे साथ रहा करता है -- लेकिन

किसी जगह मिल जाये तो

घबरा के मुड़ जाता

और फिर दूर से जा कर मुझको तकने लगता है

कौन है यह?

(2)

एहतियात

सोते में भी

चेहरे को आँचल से छिपाये रहती हूँ

डर लगता है

पलकों की हल्की सी लरज़िस

होंठों की मौहूम सी जुंबिश

गालों पर रह रह के उतरने वाली धनक

लहू में चाँद रचाती इस नन्हीं सी ख़ुशी का नाम न ले ले

नींद में आई हुई मुस्कान

किसी से दिल की बात न कह दे

(3)

गुमाँ

मैं कच्ची नींद में हूँ

और अपने नीमख़्वाबीदा तनफ़्फ़ुस में उतरती

चाँदनी की चाप सुनती हूँ

गुमाँ है

आज भी शायद

मिरे माथे पे तेरे लब

सितारे सब्त करते हैं

(4)

खुली आँखों में सपना झाँकता है

वो सोया है कि कुछ कुछ जागता है

 

तिरी चाहत के भीगे जंगलों में

मिरा तन मोर बन के नाचता है

 

मुझे हर कैफ़ियत में क्यों न समझे

वो मेरे सब हवाले जानता है

 

मैं उसकी दस्तरसमें हूँ मगर वो

मुझे मेरी रज़ा से माँगता है

 

किसी के ध्यान में डूबा हुआ दिल

बहाने से मुझे भी टालता है

 

सड़क को छोड़ कर चलाना पड़ेगा

कि मेरे घर का कच्चा रास्ता है

(5)

रक्स में रात है बदन की तरह

बारिशों की हवा में बन की तरह

 

चाँद भी मेरी करवटों का गवाह

मेरे बिस्तर की हर शिकन की तरह

 

चाक है दामन-ए-क़बा-ए-बहार

मेरे ख़्वाबों के पैरहन की तरह

 

ज़िदगी तुझसे दूर रह कर मैं

काट लूंगी जलावतन की तरह

 

मुझको तस्लीम मेरे चाँद कि मैं

तेरे हमराह हूँ गगन की तरह

 

बारहा तेरा इंतज़ार किया

अपने ख़्वाबों में इक दुल्हन की तरह

(6)

प्यार

अब्रे-बहार ने

फूल का चेहरा

अपने बनफ़शीं

हाथ में लेकर

ऐसे चूमा

फूल के सारे दुख

ख़ुशबू बन कर बह निकले हैं

(7)

पेशकश

इतने अच्छे मौसम में

रूठना नहीं अच्छा

हार जीत के बातें

कल पे हम उठा रक्खें

आज दोस्ती कर लें

(8)

एतराफ़

जाने कब तक तिरी तस्वीर निगाहों में रही

हो गयी रात तिरे अक्स को तकते तकते

 

मैंने फिर तेरे तसव्वुर कि किसी लम्हे में

तेरी तस्वीर पे लब रख दिया अहिस्ता से

(9)

एक्सटेसी

सब्ज़ मद्धम रौशनी में सुर्ख़ आँचल की धनक

सर्द कमरे में मचलती गर्म साँसों की महक

 

बाज़ुओं कि सख़्त हल्क़े में कोई नाज़ुक बदन

सिलवटें मलबूस पर आँचल भी कुछ ढलका हुआ

 

गर्मी-ए-रुख़्सार से दहकी हुई ठंडी हवा

नर्म ज़ुल्फ़ों से मुलायम उँगलियों की छेड़-छाड़

 

सुर्ख़ होंटों पे शरारत कि किसी लम्हे का अक्स

रेशमी बाँहों में चूड़ी की कभी मद्धम खनक

 

शर्मगीं लहजों में धीरे से कभी चाहत की बात

दो दिलों की धड़कनों में गूँजती थी इक सदा

 

काँपते होंटों पे थी अल्लाह से सिर्फ़ इक दुआ

काश ये लम्हे ठहर जाएँ, ठहर जाएँ ज़रा!

(10)

वाहिमा

तुम्हारा कहना है

तुम मुझे बेपनाह शिद्दत से चाहते हो

तुम्हारी चाहत

विसाल की आखिरी हदों तक

 

मिरे --- फक़त मेरे नाम की होगी

मुझे यकीं है ---- मुझे यकीं है

 

मगर कसम खाने वाले लड़के !

तुम्हारी आंखों में एक तिल है !

(11)

चाँद

एक से मुसाफिर हैं

एक सा मुकद्दर है

 

मैं ज़मीन पे तन्हा

वह आसमानों में

(12)

आज मलबूस में है कैसी थकन की ख़ुशबू

रात भर जागी हुई जैसे दुल्हन की ख़ुशबू

 

पैरहन मेरा मगर उसके बदन की ख़ुशबू

उसकी तरतीब है एक-एक शिकन की ख़ुशबू

 

मौजा-ए-गुल को अभी इज़्ने तकल्लुम ना मिले

पास आती है किसी नर्म-सुख़न की ख़ुशबू

 

क़ामते-शेर की जेबाई का आलम मत पूछ

मेहरबां जबसे है उसे सर्व बदन की ख़ुशबू

 

ज़िक्र शायद किसी ख़ुर्शीद बदन का भी करे

कु-ब-कू फैली हुई मेरे गहन की ख़ुशबू

 

आरिज़े-गुल को छुआ था कि धनक की बिखरी

 

किस क़दर शोख़ है नन्हीं सी किरन की ख़ुशबू

किसने ज़ंजीर किया है रमे-आहू-चश्मा

निकहते-जां है इन्हीं दश्तो- दामन की ख़ुशबू

 

इस असीरी में भी हर सांस के साथ आती है

सहने-जिंदा में इन्हीं दस्ते-वतन की ख़ुशबू

(13)

अक्से-ख़ुशबू हूँ बिखरने से न रोके कोई

और बिखर जाऊँ तो मुझ को न समेटे कोई

 

काँप उठती हूँ मैं ये सोच के तन्हाई में

मेरे चेहरे पे तिरा नाम न पढ़ ले कोई

 

जिस तरह ख़्वाब मिरे हो गए रेज़ा रेज़ा

उस तरह से न कभी टूट के बिखरे कोई

 

मैं तो उस दिन से हिरासाँ हूँ कि जब हुक्म मिले

ख़ुश्क फूलों को किताबों में न रक्खे कोई

 

अब तो इस राह से वो शख़्स गुज़रता भी नहीं

अब किस उम्मीद पे दरवाज़े से झाँके कोई

 

कोई आहट कोई आवाज़ कोई चाप नहीं

दिल की गलियाँ बड़ी सुनसान हैं आये कोई

(14)

उस वक्त

जब आंख में शाम उतरे

पलकों पे शफ़क़ फूले

काजल के तरह, मेरी

आँखों को धनक छू ले

उस वक़्त कोई उसको

आँखों से मेरी देखे

पलकों से मेरी चूमे

(15)

फिर मिरे शहर से गुज़रा है वो बादल की तरह

दस्ते-गुल फैला हुआ है मिरे आँचल कीतरह

 

कह रहा है किसी मौसम की कहानी अब तक

जिस्म बरसात में भीगे हुए जंगल की तरह

 

ऊँची आवाज़ में उसने तो कभी बात न की

ख़फ़गियों में भी वो लहजारहा कोमल कीतरह

(16)

बाद मुद्दत उसे देखा, लोगो

वो ज़रा भी नहीं बदला, लोगो

 

ख़ुश न था मुझसे बिछड़ कर वो भी

उसके चेहरे पे लिखा था लोगो

 

उसकी आँखें भी कहे देती थीं

रात भर वो भी न सोया, लोगो

 

अजनबी बन के जो गुजरा है अभी

था किसी वक़्त में अपना, लोगो

 

दोस्त तो खैर, कोई किस का है

उसने दुश्मन भी न समझा, लोगो

 

रात वो दर्द मेरे दिल में उठा

सुबह तक चैन न आया, लोगो

(17)

अपनी रुस्वाई तिरे नाम का चर्चा देखूँ

इक ज़रा शेर कहूँ और मैं क्या क्या देखूँ

 

नींद आ जाए तो क्या महफ़िलें बरपा देखूँ

आँख खुल जाये तो तन्हाई का सहरा देखूँ

 

शाम भी हो गई धुँधला गईं आँखें भी मिरी

भूलने वाले मैं कब तक तिरा रस्ता देखूँ

एक इक कर के मुझे छोड़ गईं सब सखियाँ

आज मैं ख़ुद को तिरी याद में तन्हा देखूँ

 

काश संदल से मिरी माँग उजाले आ कर

इतने ग़ैरों में वही हाथ जो अपना देखूँ

 

तू मिरा कुछ नहीं लगता है मगर जाने-हयात

जाने क्यूँ तेरे लिए दिल को धड़कना देखूँ

 

बंद कर के मिरी आँखें वो शरारत से हँसे

बूझे जाने का मैं हर रोज़ तमाशा देखूँ

 

सब ज़िदें उस की मैं पूरी करूँ हर बात सुनूँ

एक बच्चे की तरह से उसे हँसता देखूँ

 

मुझ पे छा जाए वो बरसात की ख़ुश्बू की तरह

अंग अंग अपना इसी रुत में महकता देखूँ

 

फूल की तरह मिरे जिस्म का हर लब खुल जाए

पंखुड़ी पंखुड़ी उन होंटों का साया देखूँ

 

मैं ने जिस लम्हे को पूजा है उसे बस इक बार

ख़्वाब बन कर तिरी आँखों में उतरता देखूँ

 

तू मिरी तरह से यकता है मगर मेरे हबीब

जी में आता है कोई और भी तुझ सा देखूँ

 

टूट जाएँ कि पिघल जाएँ मिरे कच्चे घड़े

तुझ को मैं देखूँ कि ये आग का दरिया देखूँ

(18)

मिल के उस सख्स से मै लाख खमोशी से चलूँ

बोल उठती है नज़र, पांवकी छागल के तरह

 

पास जब तक वो रहे दर्द थमा रहता है

फैलता जाता है फिरआँख के काजल की तरह

अब किसी तौर से घर जाने की सूरत ही नहीं

रास्ते मेरे लिए हो गए दलदल की तरह

(19)

दरवाज़ा जो खोला तो नज़र आए खड़े वो

हैरत है मुझे आज किधर भूल पड़े वो

 

भूला नहीं दिल हिज्र के लम्हात कड़े वो

रातें तो बड़ी थीं ही मगर दिन भी बड़े वो

 

क्यों जान पे बन आई है बिगड़ा है अगर वो

उसकी तो ये आदत कि हवाओं से लड़े वो

 

इल्ज़ाम थे उसके कि बहारों के पयामात

ख़ुशबू सी बरसने लगी यूँ फूल झड़े वो

 

हर शख्स मुझे तुझसे जुदा करने का ख़्वाहाँ

सुन पाए अगर एक तो दस जा के जड़े वो

 

बच्चे की तरह चाँद को छूने की तमन्ना

दिल को कोई शह दे दे तो क्या क्या न अड़े वो

 

तूफाँ है तो क्या ग़म मुझे आवाज़ तो दीजे

क्या भूल गए आप मिरे कच्चे घड़े वो

(20)

ये ग़नीमत है कि उन आंखों ने पहचाना हमें

 

कोई तो समझा दयारे-ग़ैर में अपना हमें

 

वो कि जिसके हाथ में तक़दीरे फ़स्ले-गुल रही

दे गए सूखे हुए पत्तों का नज़राना हमें

 

वस्ल में तेरे ख़राबे भी लगे घर की तरह

और तेरे हिज्र में बस्ती भी वीराना हमें

 

सच तुम्हारे सारे कड़वे थे, मगर अच्छे लगे

फांस बन कर रह गया बस एक अफ़साना हमें

 

अजनबी लोगों में हो तुम और इतनी दूर हो

एक उलझन सी रहा करती है रोज़ाना हमें

 

सुनते हैं क़ीमत तुम्हारी लग रही है आजकल

सबसे अच्छे दाम किसके हैं ये बतलाना हमें

 

ताकि उस ख़ुशबख्त ताजिर को मुबारकबाद दे

और उसके बाद दिल को भी है समझाना हमें

(21)

सिर्फ एक लड़की

अपने सर्द कमरे में

मैं उदास बैठी हूँ

नीम वा दरीचों से

नम हवाएँ आती हैं

मेरे जिस्म को छूकर

आग सी लगाती हैं

तेरा नाम ले लेकर

मुझको गुदगुदाती हैं

काश मेरे पर होते

तेरे पास उड़ आती

काश मैं हवा होती

तुझको छू के लौट आती

मैं नहीं मगर कुछ भी

संगदिल रिवाजों के

आहनी हिसारों में

उम्र क़ैद की मुल्ज़िम

सिर्फ़ एक लड़की हूँ

(22)

टूटी है मेरी नींद मगर तुम को इस से क्या

बजते रहें हवाओं से दर तुम को इस से क्या

 

तुम मौज मौज मिस्ले-सबा घूमते रहो

कट जाएँ मेरी सोच के पर तुम को इस से क्या

 

औरों का हाथ थामो उन्हें रास्ता दिखाओ

मैं भूल जाऊँ अपना ही घर तुम को इस से क्या

 

अब्रे-गुरेज़-पा को बरसने से क्या ग़रज़

सीपी में बन न पाए गुहर तुम को इस से क्या

 

ले जाएँ मुझ को माले-ग़नीमत के साथ अदू

तुम ने तो डाल दी है सिपर तुम को इस से क्या

 

तुम ने तो थक के दश्त में खे़मे लगा लिए

तन्हा कटे किसी का सफ़र तुम को इस से क्या

(23)

कू-ब-कू फैल गई बात शनासाई की

उस ने ख़ुशबू की तरह मेरी पज़ीराई की

 

कैसे कह दूँ कि मुझे छोड़ दिया है उस ने

बात तो सच है मगर बात है रुस्वाई की

 

वो कहीं भी गया लौटा तो मिरे पास आया

बस यही बात है अच्छी मिरे हरजाई की

 

तेरा पहलू तिरे दिल की तरह आबाद रहे

तुझ पे गुज़रे न क़यामत शबे-तन्हाई की

 

उस ने जलती हुई पेशानी पे जब हाथ रखा

रूह तक आ गई तासीर मसीहाई की

 

अब भी बरसात की रातों में बदन टूटता है

जाग उठती हैं अजब ख़्वाहिशें अंगड़ाई की

(24)

दिल पे इक तरफ़ा क़यामत करना

मुस्कराते हुए रूख़सत करना

 

अच्छी आँखें जो मिली हैं उसको

कुछ तो लाज़िम हुआ वहशत करना

 

जुर्म किसका था सज़ा किसको मिली

क्या गई बात पे हुज्जत करना

 

कौन चाहेगा तुम्हें मेरी तरह

अब किसी से न मुहब्बत करना

 

घर का दरवाज़ा खुला रक्खा है

वक़्त मिल जाये तो ज़हमत करना

(25)

ड्यूटी

जान !

मुझे अफ़सोस है

तुम से मिलने शायद इस हफ़्ते भी आ न सकूँगा

बड़ी अहम मजबूरी है !

जान !

तुम्हारी मजबूरी को

अब तो मैं भी समझने लगी हूँ

शायद इस हफ़्ते भी

तुम्हारे चीफ़ की बीवी तन्हा होगी

(26)

दस्तरस से अपनी बाहर हो गए

जब से हम उनको मयस्सर हो गए

 

हम जो कहलाये तुलू-ए माहताब

डूबते सूरज का मंज़र हो गए

 

शहरे-ख़ूबाँ का यही दस्तूर है

मुड़ के देखा और पत्थर हो गए

 

बेवतन कहलाये अपने देस में

अपने घर में रह के बेघर हो गए

 

सुख तिरी मीरास थे, तुझको मिले

दुख हमारे थे, मुक़द्दर हो गए

 

ब सबब उतरा रगो पै में कि हम

ख़ुद फ़रेबी में समंदर हो गये

 

तेरी ख़ुदग़र्ज़ी से ख़ुद को सोचकर

आज हम तेरे बराबर हो गए

(27)

रिफ़ाक़त

सब्ज़ मौसम की बेहद ख़ुनक रात थी

चमेली की ख़ुशबू से बोझल हवा

 

धीमे लफ़्ज़ों में सरगोशियां कर रही थीं

रेशमी ओस में भीग कर

 

रात का नर्म आंचल बदन से लिपटने लगा था

हारसिंगार की नर्म ख़ुशबू का जादू

 

जवां रात की सांस में घुल रहा था

चांदनी रात की गोद में सर रखे हँस रही थी

 

और मैं सब्ज मौसम की गुलनार ठंडक में खोई हुई

शाख़ दर शाख़

इक तीतरी की तरह उड़ रही थी

कभी अपने परवाज़ में रुक के नीचे जो आती तो अहसास होता मुझे

शबनमी घास का लम्स पैरों को कितना सुकूँ दे रहा है

दफ़अतन

मैंने टी.वी. की खबरों पे मौसम की बातें सुनी

तिरे शहर में लू चली है

एक सौ आठ से भी ज़ियादा हरारत का दरजा रहा है

मुझे यूं लगा मेरे चारों तरफ आग ही आग है

हवाएं जहन्नुम से आने लगी हैं

तमाज़त से मेरा बदन फुंक रहा है

मैं उस शबनमी रूह परवर फ़िज़ा को झटक कर

कुछ इस तरह कमरे में अपने चली आई

जैसे कि एक लम्हा भी और रुक जाऊंगी तो झुलस जाऊंगी

फिर बड़ी देर तक

तेरे तपते हुए जिस्म को

अपने आंचल से झलती रही

तेरे चेहरे से लिपटी हुई गर्द को

अपनी पलकों से चुनती रही

रात सोने से पहले

अपनी शब ख़्वाबियों का लबादा जो पहना

तो देखा

कि मेरे जिस्म पर आबले पड़ चुके थे

(28)

डिपार्टमेंटल स्टोर में

पर्ल का नेचुरल पिंक

रेवलॉन का हैंड लोशन

 

एलिजाबेथ आर्डरन का ब्लश आन भी

मेडोरा में फिर नेल पॉलिश का कोई नया शेड आया ?

 

मेरे इस बनफ़सी दुपट्टे से मिलती हुई

रायमल में लिपस्टिक मिलेगी ?

हां, वह ट्यूलिप का शैंपू भी दीजिएगा

याद आया

कुछ रोज पहले जो ट्वीजर लिया था, वह बिल्कुल ही बेकार निकला

दूसरा दीजिएगा !

ज़रा बिल बना दीजिए !

अरे वह जो कोने में एक सेंट रखा हुआ है

दिखाएं जरा

इसे टेस्ट करके तो देखूं

(ख़ुदाया!ख़ुदाया !

यह ख़ुशबू तो उसकी पसंदीदा ख़ुशबू रही है

 

सदा उसके मलबूस से फूटती थी !)

जरा उसकी क़ीमत बता दें! इस क़दर !!

अच्छा, यू कीजिए

बाक़ी चीज़ें कभी और ले जाऊंगी

आज तो सिर्फ़ इस सेंट को पैक कर दीजिए

(29)

ओथेलो

अपने फ़ोन पे अपना नंबर

बार-बार डायल करती हूँ

सोच रही हूँ

कब तक उसका टेलीफ़ोन इंगेज रहेगा

दिल कुढ़ता है

इतनी इतनी देर तलक

वो किससे बातें करता है !

(30)

आईना

लड़की सर झुकाए बैठी

काफ़ी के प्याले में चमचा हिला रही है

 

लड़का, हैरत और मुहब्बत की शिद्दत से पागल

लम्बी पलकों के लरज़ीदा सायों को

 

अपनी आँख़ से चूम रहा है

दोनों मेरी नज़र बचा कर

 

इक दूजे को देखते हैं हँस देते हैं

मैं दोनों से दूर

 

दरीचे के नज़दीक

अपनी हथेली पर अपना चेहरा रखे

 

खिड़की से बाहर का मंज़र देख रही हूँ

सोच रही हूँ

गये दिनों में हम भी यूँ ही हँसते थे

(31)

वो तो ख़ुशबू है हवाओं में बिखर जाएगा

मसअला फूल का है फूल किधर जाएगा

हम तो समझे थे कि इक ज़ख़्म है भर जाएगा

क्या ख़बर थी कि रगे-जाँ में उतर जाएगा

वो हवाओं की तरह ख़ाना-ब-जाँ फिरता है

एक झोंका है जो आएगा गुज़र जाएगा

वो जब आएगा तो फिर उस की रिफ़ाक़त के लिए

मौसमें-गुल मिरे आँगन में ठहर जाएगा

आख़िरश वो भी कहीं रेत पे बैठी होगी

तेरा ये प्यार भी दरिया है उतर जाएगा

मुझ को तहज़ीब के बरज़ का बनाया वारिस

जुर्म ये भी मिरे अज्दाद के सर जाएगा

(32)

दर्द फिर जागा, पुराना ज़ख्म फिर ताज़ा हुआ

फ़स्ले गुल कितने क़रीब आई है अंदाज़ा हुआ

 

सुब्ह यूँ निकली संवर कर जिस तरह कोई दुल्हन

शबनम-आवेज़ा हुई रंगे-शफ़क़ ग़ाज़ा हुआ

 

हाथ मेरे भूल बैठे दस्तकें देने का फ़न

बंद मुझ पर जब से उसके घर का दरवाज़ा हुआ

 

रेल की सीटी में कैसे हिज्र की तमहीद थी

उसको रुख़सत करके घर लौटे तो अंदाज़ा हुआ

(33)

मुश्तरक़ा दुश्मन की बेटी

नन्हे से एक चीनी रेस्तरान के अंदर

मैं और मेरी नेशनलिस्ट कलीग्स

कीट्स की नज़्मों जैसे दिल-आवेजधुंधलके में बैठी

सूप के प्याले से उठती,ख़ुश लम्स महक को

तन की सैराबी में बदलता देख रही थी

बातें हवा नहीं पढ़ सकतीताजमहल, मैसूर के रेशम

और बनारस की साड़ी के ज़िक्र से झिलमिल करती

पाको-हिंद सियासत तक आ निकलीं

पैंसठ -- उसके बाद इकहत्तर -- जंगी क़ैदी

अमृतसर का टी.वी.

पाकिस्तानी कल्चर -- महाज़ेनौ -- ख़तरे की घंटी ----

मेरी जोशीली कलीग्स

इस हमले पर बहुत ख़फ़ा थीं

मैंने कुछ कहना चाहा, तो

उनके मुंह यूँ बिगड़ गए थे

जैसे सूप के बदले उन्हें कुनैन का रस पीने को मिला हो

रेस्तरां के मालिक की हंसमुख बीबी भी

मेरी तरफ शाकिर नज़रों से देख रही थी

(शायद सन बासठ का कोई तीर अभी तक उसके दिल में तराज़ू था)

रेस्तोरान के नरौज़ में जैसे

हाई ब्लड प्रेशर इंसाँ के जिस्म की जैसी झल्लाहट दरआई थी

यह कैफ़ियत कुछ लम्हे रहती

तो हमारे ज़हनों की शरयानें फट जाती

लेकिन उस पल, आर्केस्ट्रा ख़ामोश हुआ

और लता कीरस टपकाती, शहद आंगी आवाज़, कुछ ऐसे उभरी

जैसे हब्सज़दा कमरे में

दरिया के रुख़ वाली खिड़की खुलने लगी हो

मैंने देखा

जिस्मों और चेहरों के तनाव पे

अनदेखे हाथों की ठंडक

प्यार की शबनम छिड़क रही थी

मस्ख़-शुदा चेहरे जैसे फिर संवर रहे थे

मेरी नेशनलिस्ट कलीग्स हाथों के प्यालों में अपनी ठोड़ीयां रखे

साकित-और जामिद बैठी थीं

गीत का जादू बोल रहा था

मेज़ के नीचे

रेस्तरां के मालिक की हंसमुख बीवी के

नर्म गुलाबी पांव भी

गीत की हमराही में थिरक रहे थे

मुश्तरक़ा दुश्मन की बेटी

मुश्तरक़ा महबूब की सूरत

उजले रेशम लहजों की बाहें फैलाए

हमें समेटे

नाच रही थी !

(34)

ज़िद

मैं क्यों उसको फोन करूं

उस के भी तो इल्म में होगा

कल शब

मौसम की पहली बारिश थी

(35)

बारिश हुई तो फूलों के तन चाक हो गए

मौसम के हाथ भीग के सफ़्फ़ाक हो गए

बादल को क्या ख़बर है कि बारिश की चाह में

कैसे बुलंदो-बाला शजर ख़ाक हो गए

जुगनू को दिन के वक़्त परखने की ज़िद करें

बच्चे हमारे अहद के चालाक हो गए

लहरा रही है बर्फ़ की चादर हटा के घास

सूरज की शह पे तिनके भी बेबाक हो गए

बस्ती में जितने आब-गज़ीदा थे सब के सब

दरिया के रुख़ बदलते ही तैराक हो गए

सूरज-दिमाग़ लोग भी अबलागे-फ़िक्र में

ज़ुल्फ़े-शबे-फ़िराक़ के पेचाक हो गए

जब भी ग़रीबे-शहर से कुछ गुफ़्तुगू हुई

लहजे हवा-ए-शाम के नमनाक हो गए

(36)

शौक़े-रक़्स से जब तक उँगलियाँ नहीं खुलतीं

पाँव से हवाओं के बेड़ियाँ नहीं खुलतीं

पेड़ को दुआ दे कर कट गई बहारों से

फूल इतने बढ़ आए खिड़कियाँ नहीं खुलतीं

फूल बन की सैरों में और कौन शामिल था

शोख़ी-ए-सबा से तो बालियाँ नहीं खुलतीं

हुस्न के समझने को उम्र चाहिए जानाँ

दो घड़ी की चाहत में लड़कियाँ नहीं खुलतीं

कोई मौजा-ए-शीरीं चूम कर जगाएगी

सूरजों के नेज़ों से सीपियाँ नहीं खुलतीं

माँ से क्या कहेंगी दुख हिज्र का कि ख़ुद पर भी

इतनी छोटी उम्रों की बच्चियाँ नहीं खुलतीं

शाख़ शाख़ सरगर्दां किस की जुस्तुजू में हैं

कौन से सफ़र में हैं तितलियाँ नहीं खुलतीं

आधी रात की चुप में किस की चाप उभरती है

छत पे कौन आता है सीढ़ियाँ नहीं खुलतीं

पानियों के चढ़ने तक हाल कह सकें और फिर

क्या क़यामतें गुज़रीं बस्तियाँ नहीं खुलतीं

(37)

नाटक

रुत बदली तो भौंरों ने तितली से कहा ---

आज से तुम आज़ाद हो

परवाज़ों की सारी सिम्तें तुम्हारे नाम हुईं

जाओ,

जंगल की मग़रूर हवा के साथ उड़ो

बादल के हमराह सितारे छू आओ

ख़ुशबू के बाज़ू थामो और रक़्स करो

रक़्स करो

कि इस मौसम के सूरज की किरनों का ताज

तुम्हारे सर है

लहराओ

की इन रातों का चांद

तुम्हारी पेशानी पर

अपने हाथ से दुआ लिखेगा

गाओ

इन लम्हों की हवाएं तुमको

तुम्हारे गीतों पर संगत देंगी

पत्ते कड़े बजाएंगे

और फूलों के हाथों में दफ़ होगा

तितली मासूमाना हैरत से सरशार

सियह शाख़ों के हलक़े से निकली

सदियों के जकड़े हुए रेशम-पर फैलाए

और उड़ने लगी

खुली फ़ज़ां का ज़ायक़ा चखा

नर्म हवा का गीत सुना

अनदेखे कुहासारों की क़ामत नापी

रोशनीयों का लम्स पिया

ख़ुशबू के हर रंग को छूकर देखा

लेकिन रंग, हवा और ख़ुशबू का

विजदान अधूरा था

की रक़्स का मौसम ठहर गया

रुत बदली

और सूरज की किरनों का ताज

पिघलने लगा

चांद के हाथ

दुआ के हर्फ़ ही भूल गये

हवा के लब

बर्फीले समों में नीले पड़ कर

अपनी सदाएं खो बैठे

पत्तों की बाहों के सुर बेरंग हुए

और तन्हा रह गये फूल के हाथ

बर्फ़ की लहर के हाथों

तितली को लौट आने का पैग़ाम गया

भंवरे शबनम की ज़ंजीरें लेकर दौड़े

और बेचैन परों में

अनचखी परवाज़ों की आशुफ़्त प्यास जला दी

अपने काले नाखूनों से

तितली के पर नोच के बोले -- अहमक़ लड़की !

घर वापस आओ

नाटक ख़त्म हुआ

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(प्रोफ़ेसर मक्खन लाल एक अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त पुरातत्ववेत्ता, इतिहासकार हैं। आप कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के सीनियर फ़ैलो, काशी हिंदू विश्वविद्यालय, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में अध्यापक, दिल्ली विरासत अनुसन्धान एवं प्रबंधन संस्थान के संस्थापक निदेशक, विश्व पुरातत्व कॉंग्रेस के कोषाध्यक्ष और एकादमिक प्रोग्राम के कोर्डिनेटर रहे हैं। आपके विभिन्न विषयों पर 200 शोध पत्र छप चुके हैं तथा 23 किताबें आ चुकी हैं। इनकी साहित्य में विशेष रुचि है।)

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URL: https://www.newageislam.com/hindi-section/parveen-shakir-poems-ghazals-part-1/d/126016

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