प्रोफेसर मक्खन लाल, न्यू एज इस्लाम
24 दिसंबर 2021
सदबर्ग में परवीन शाकिर के जीवन के 25 से 29 वर्ष के काल की गज़लें और नज़्में हैं। उनका विवाह सितम्बर 1977 को डॉ. नजीर अली से हुआ। वे पेशे से मेडिकल डॉक्टर थे । यह विवाह पूरी तरह से बेमेल सबित हुआ । दोनों दो अलग-अलग दुनियां के लोग थे । वैवाहिक जीवन चल न सका। सदबर्ग के नज़्मों और ग़ज़लों से साफ़ लगता है की ना केवल शदीद दुखों से गुज़र रही थीं बल्कि उनकी व्यक्तिगत जिंदगी भी तार-तार हो रही थी । परवीन शाकिर की सभी रचनाओं को देखने से साफ़ लगता है की यह समय उनका बहुत ही दुख से बीत रहा था और यह सब उनकी गजलों और नज़्मों से भी दिखाई देता है ।
(1)
जूद पशेमां
गहरी भूरी आंखों वाला ईक शहजादा
दूर देश से
चमकीले, मुश्की घोड़े पर हवा से बातें करता
जगर-जगर करती तलवार से जंगल काटता आया
दरवाजों से लिपटी बेलें परे हटाता
जंगल की बांहों में जकड़े महल के हाथ छुड़ाता
जब अंदर आया तो देखा
शहजादी के जिस्म की सारी सुईयां जंग आलूदा थीं
रास्ता देखने वाली आंखें
सारे शिकवे भुला चुकी थीं !
(2)
तसल्ली
अब जब कि मैं अपने आप पे
शहरे-वफ़ा का हर दरवाज़ा
अपने हाथों से बंद कर आई
और इनमें से हर एक की चाभी
शब्ज़ आंखों वाले निसयाँ के सर्द समंदर में फेंक आई हूं
डरा डरा सा यह एहसास भी
कितनी ठंडक देता है
जिंदा की ऊंची दीवार से दूर
पुराने शहर की एक छोटी सी गली में
एक दरीचा
मेरे नाम पर खुला रहेगा
(3)
मर भी जाऊँ तो कहाँ लोग भुला ही देंगे
लफ़्ज़ मेरे मिरे होने की गवाही देंगे
लोग थर्रा गए जिस वक़्त मुनादी आई
आज पैग़ाम नया ज़िल्ले-इलाही देंगे
झोंके कुछ ऐसे थपकते हैं गुलों के रुख़्सार
जैसे इस बार तो पतझड़ से बचा ही देंगे
हम वो शबज़ाद कि सूरज की इनायात में भी
अपने बच्चों को फ़क़त कोर-निगाही देंगे
आस्तीं साँपों की पहनेंगे गले में माला
अहले-कूफ़ा को नई शहर-पनाही देंगे
शहर की चाबियाँ आदा के हवाले कर के
तोहफ़तन फिर उन्हें मक़्तूल सिपाही देंगे
(4)
तू बरमन बलाशुदी
कच्चे ज़हन और कच्ची उम्र की लड़कियां
अपनी खूबी में
माएअ जैसी होती हैं
जिस बर्तन में डाली जायें
उसी शक्ल में कैसे मजे से ढल जाती हैं !
कैसा छलकना कैसा उबलना और कहां का उड़ना !
और इक में हूँ – पत्थर और शोरीदा मिज़ाज
कासये ख़ाली में बेवजह समा जाने की बजाये
उससे, उस कूबत से टकराना चाहूं की
ज़र्फे तही की गूंज से उसका भरम खुल जाए
मैंने आईने को कब झूठलाया है
हां – गहने मुझपे भी अच्छे लगते हैं
लेकिन जब भी मुझको उनका मोल कभी याद आता है
कंगन बिच्छू बन जाते हैं
और पाजेबें नाग की सूरत मेरे पांव जकड़ लेती हैं
बहुत ही मीठे बोलों का जुज़्बे आज़म
जब हालते खाम में मुझको नजर आ जाता है
दहशत से मेरी आंखें फैलने लगती हैं
और उस खौफ़ से मेरी रीढ़ की हड्डी जमने लगती है
इन ही मादर जाद मुनाफ़िक लोगों में
मुझको सारी उम्र बसर करनी है
कभी कभी ऐसा भी हुआ है
मैंने अपना हाथ अचानक किसी और के हाथ में पाया
लेकिन जल्द ही मेरी जरूरत से ज़ायद बेरहम बिसारत ने
ये देख लिया है
या तो मेरे साथी की परछाई नहीं बनती है
या फिर मिट्टी पर
उसके पंजे उसकी एड़ी से पहले बन जाते हैं
इंसानों की साया रखने वाली नस्ल नापेद हुई जाती है
शाम के ढल जाने के बाद, जब साया और साया कुनां
दोनों बेमानी हो जाते हैं, मैं मुकरुह इरादों वाली आंखों में घिर जाती हूं
और अपनी चादर पर ताजा धब्बे बनते देखती हूं
क्योंकि मुझको एक हज़ार रातों तक चलने वाली कहानी कहना नहीं आती
मैं आक़ाये वली नेअमत को
खुद अपनी मर्ज़ी भी बताना चाहती हूं
(5)
तराश कर मिरे बाज़ू उड़ान छोड़ गया
हवा के पास बरहना कमान छोड़ गया
रफ़ाक़तों का मिरी उस को ध्यान कितना था
ज़मीन ले ली मगर आसमान छोड़ गया
अजीब शख़्स था बारिश का रंग देख के भी
खुले दरीचे पे इक फूलदान छोड़ गया
जो बादलों से भी मुझ को छुपाए रखता था
बढ़ी है धूप तो बेसायबान छोड़ गया
निकल गया कहीं अनदेखे पानियों की तरफ़
ज़मीं के नाम खुला बादबान छोड़ गया
उक़ाब को थी ग़रज़ फ़ाख़्ता पकड़ने से
जो गिर गई तो यूँही नीम-जान छोड़ गया
न जाने कौन सा आसेब दिल में बसता है
कि जो भी ठहरा वो आख़िर मकान छोड़ गया
अक़ब में गहरा समुंदर है सामने जंगल
किस इंतिहा पे मिरा मेहरबान छोड़ गया
(6)
तमाम लोग अकेले थे रहबर ही न था
बिछड़ने वालों में इक मेरा हमसफ़र ही न था
बरहना शाख़ों का जंगल गड़ा था आंखों में
वो रात थी कि कहीं चांद का गुज़र ही न था
तुम्हारे शहर की हर छांव मेहरबां थी मगर
जहां पे धूप कड़ी थी वहां सजर ही न था
समेट लेती शिकस्ता गुलाब की ख़ुशबू
हवा के हाथ में ऐसा कोई हुनर ही न था
मैं इतने सापों को रस्ते में देख आई थी
कि तेरे शहर में पहुंची तो कोई डर ही न था
कहां से आती किरण ज़िंदगी के ज़िन्दां में
वो घर मिला था मुझे जिसमें कोई दर ही न था
बदन में फ़ैल गया सुर्ख़ बेल की मानिंद
वो ज़ख़्म सूखता क्या जिसका चारागर ही न था
हवा के लाये हुए बीज फिर हवा को गए
खिले थे कुछ फूल ऐसे कि जिनमें ज़रही न था
कदम तो रेत पे साहिल ने भी न रखने दिया
बदन को जकड़े हुए सिर्फ इक भंवर ही न था
(7)
सुंदर कोमल सपनों की बारात गुज़र गई जानाँ
धूप आँखों तक आ पहुँची है रात गुज़र गई जानाँ
भोर समय तक जिस ने हमें बाहम उलझाए रक्खा
वो अलबेली रेशम ऐसी बात गुज़र गई जानाँ
सदा की देखी रात हमें इस बार मिली तो चुपके से
ख़ाली हात पे रख के क्या सौग़ात गुज़र गई जानाँ
किस कोंपल की आस में अब तक वैसे ही सरसब्ज़ हो तुम
अब तो धूप का मौसम है बरसात गुज़र गई जानाँ
लोग न जाने किन रातों की मुरादें
माँगा करते हैं
अपनी रात तो वो जो तेरे साथ गुज़र गई जानाँ
अब तो फ़क़त सय्याद की दिलदारी का बहाना है वर्ना
हम को दाम में लाने वाली घात गुज़र गई जानाँ
(8)
कतबा
यहां वह लड़की सो रही है,
जिसकी आंखों ने नींद मोल लेकर
बिसाल की उम्र रतजगे में गुजार दी थी,
अजीब था इंतजार उसका
कि जिसने तकदीर के तुनक हौसला महाजन के हाथ
बस एक दरीचये नीमबाज के सुख पे
शहर का शहर रहन करवा दिया था,
लेकिन वह एक तारा
की जिसकी किरनों के मान पर, चांद से हरीफ़ाना कशमकश थी
जब उसके माथे पर खिलने वाला हो, तो उस पल
सफेदये सुबह भी नमूदार हो चुका था
फ़िराक़ का लम्हा आ चुका था
(9)
पा-ब-गिल सब हैं रिहाई की करे तदबीर कौन
दस्त-बस्ता शहर में खोले मिरी ज़ंजीर कौन
मेरा सर हाज़िर है लेकिन मेरा मुंसिफ़ देख ले
कर रहा है मेरी फ़र्दे-जुर्म को तहरीर कौन
आज दरवाज़ों पे दस्तक जानी पहचानी सी है
आज मेरे नाम लाता है मिरी ताज़ीर कौन
कोई मक़तल को गया था मुद्दतों पहले मगर
है दरे-ख़ेमा पे अब तक सूरते-तस्वीर कौन
मेरी चादर तो छिनी थी शाम की तन्हाई में
बे-रिदाई को मिरी फिर दे गया तशहीर कौन
सच जहाँ पा-बस्ता मुल्ज़िम के कटहरे में मिले
उस अदालत में सुनेगा अद्ल की तफ़सीर कौन
नींद जब ख़्वाबों से प्यारी हो तो ऐसे अहद में
ख़्वाब देखे कौन और ख़्वाबों को दे ताबीर कौन
रेत अभी पिछले मकानों की न वापस
आई थी
फिर लबे-साहिल घरौंदा कर गया तामीर कौन
सारे रिश्ते हिजरतों में साथ देते हैं तो फिर
शहर से जाते हुए होता है दामन-गीर कौन
दुश्मनों के साथ मेरे दोस्त भी आज़ाद हैं
देखना है खींचता है मुझ पे पहला तीर कौन
(10)
अपनी तन्हाई मिरे नाम पे आबाद करे
कौन होगा जो मुझे उस की तरह याद करे
दिल अजब शहर कि जिस पर भी खुला दर इस का
वो मुसाफ़िर इसे हर सम्त से बरबाद करे
अपने क़ातिल की ज़ीहानत से परेशान हूँ मैं
रोज़ इक मौत नए तर्ज़ की ईजाद करे
इतना हैराँ हो मिरी बेतलबी के आगे
वा क़फ़स में कोई दर ख़ुद मिरा सय्याद करे
सल्बे-बीनाई के अहकाम मिले हैं जो कभी
रौशनी छूने की ख़्वाहिश कोई शबज़ाद करे
सोच रखना भी जराइम में है शामिल अब तो
वही मासूम है हर बात पे जो साद करे
जब लहू बोल पड़े उस के गवाहों के ख़िलाफ़
क़ाज़ी-ए-शहर कुछ इस बाब में इरशाद करे
उस की मुट्ठी में बहुत रोज़ रहा मेरा वजूद
मेरे साहिर से कहो अब मुझे आज़ाद करे
(11)
अमीरे-शहर से साइल बड़ा है
बहुत नादार लेकिन दिल बड़ा है
लहू ज़माने से पहले ख़ूँ बहा दें
यहाँ इंसाफ़ से क़ातिल बड़ा है
चटानों में घिरा है और चुप है
समंदर से कहीं साहिल बड़ा है
किसी बस्ती में होगी सच के हुकूमत
हमारे शहर में बातिल बड़ा है
जो ज़िल अल्लाह पर ईमान लाये
वही दानाओं में आकिल बड़ा है
उसे खो कर बहा-ए-दर्द पाई
ज़ियाँ छोटा था और हासिल बड़ा है
(12)
नजरें ‘फिराक’
सब्ज दिनों का सबसे तनावर पेड़
हवा के आगे बेबस है ---
पत्ते इक-इक करके गिरते जाते हैं
वही शाख़ कि कभी दुल्हन की तरह फूलों से लद कर भी
कैसी तीखी सरसारी से तनी रहती थी
आज अपने सब गहने उतार चुकी है --- फिर भी ख़मीदा है
वही तना --- जो बर्फ के हर मौसम के बाद
नन्हीं नन्हीं हरी सितारों जैसी कोपलों से भर जाता था
आज उस पर बस चीटियां चलती नजर आती हैं
वही सगूफे जिनसे लिपट कर धूप कभी हंसती
तो रंगों और किरनों के चेहरे गडमड हो जाते हैं
उसकी भी सारी पंखुड़ियां रिज़्के-हवा कहलायें
सब्ज़ दिनों का सबसे तनावर पेड़ --- आखिर
अपनी हर मुमकिन हरियाली कमा चुका
और अब खामोशी से अपने होने की मजबूरी का
वादा माफ गवाह बना इस्तादा है
और वक्त की अटल शहादत पर
अपने फैसलाकुन लम्हे का रास्ता देख रहा है
तनहा --- और तही दामा
सब्ज़ लिबासी गए जन्म की बात हुई
फिर ये बरहना साक्षी छन-छन कर
इतनी ठंडी छांव कहां से आती है
बिन फूलों के
खुशबू कैसे फैल रही है ?
(13)
रस्ता भी कठिन धूप में शिद्दत भी बहुत थी
साए से मगर उस को मुहब्बत भी बहुत थी
खे़मे न कोई मेरे मुसाफ़िर के जलाए
ज़ख़्मी था बहुत पाँव मसाफ़त भी बहुत थी
सब दोस्त मिरे मुंतज़िरे-पर्दा-ए-शब थे
दिन में तो सफ़र करने में दिक़्क़त भी बहुत थी
बारिश की दुआओं में नमी आँख की मिल जाए
जज़्बे की कभी इतनी रिफ़ाक़त भी बहुत थी
कुछ तो तिरे मौसम ही मुझे रास कम आए
और कुछ मिरी मिट्टी में बग़ावत भी बहुत थी
फूलों का बिखरना तो मुक़द्दर ही था लेकिन
कुछ इस में हवाओं की सियासत भी बहुत थी
वो भी सरे-मक़तल है कि सच जिस का था शाहिद
और वाक़िफ़े-अहवाले-अदालत भी बहुत थी
इस तर्के-रिफ़ाक़त पे परेशाँ तो हूँ लेकिन
अब तक के तिरे साथ पे हैरत भी बहुत थी
ख़ुश आए तुझे शहरे-मुनाफ़िक़ की अमीरी
हम लोगों को सच कहने की आदत भी
बहुत थी
(14)
गंगा से
जुग बीते
दज़ला से इक भटकी हुई लहर
जब तिरे पवित्र चरणों को छूने आई तो
तेरी ममता ने अपनी बाहें फैला दी
और तेरे हरे किनारों पे तब
अनन्नास और कटहल के झुंड में घिरे हुए
खपरैल वाले घरों के आंगन में
किलकारियां गूंजी
मेरे पुरखों की खेती शादाब हुई
और शगुन के तेल ने दिए की लौ को ऊंचा किया
फिर देखते-देखते
पीले फूलों और सुनहरी दियों की जोत
तेरे फूलों वाले पुल की कौस से होते हुई
महर उनकी ओर तक पहुंच गयी
मैं उसी जोत नंदी किरन
फूलों के थाल लिए
तेरे कदमों में फिर आ बैठी हूं
और तुझसे अब बस एक दिया की तालिब हूँ
यूं अंत समय तक तेरी जवानी हंसती रहे
पर ये शादाब हंसी
कभी तेरे किनारों के लब से
इतनी न छलक जाये
कि मेरी बस्तियां डूबने लग जायें
गंगा प्यारी !
ये जान
कि मेरे रुपहले रावी और भूरे महरान की गीली मिट्टी में
मेरी मां की जान छुपी हुई है
मेरे मां की जान मत लेना
मुझसे मेरा मान न लेना
(15)
बिछड़ा है जो इक बार तो मिलते नहीं देखा
इस ज़ख़्म को हम ने कभी सिलते नहीं देखा
इक बार जिसे चाट गई धूप की ख़्वाहिश
फिर शाख़ पे उस फूल को खिलते नहीं देखा
यक-लख़्त गिरा है तो जड़ें तक निकल आईं
जिस पेड़ को आँधी में भी हिलते नहीं देखा
काँटों में घिरे फूल को चूम आएगी लेकिन
तितली के परों को कभी छिलते नहीं देखा
किस तरह मिरी रूह हरी कर गया आख़िर
वो ज़हर जिसे जिस्म में खिलते नहीं देखा
(16)
मौजें बहम हुई तो किनारा नहीं रहा
आँखों में कोई ख़्वाब दुबारा नहीं रहा
घर बच गया कि दूर थे सायक़ा-मिज़ाज
कुछ आसमान का भी इशारा नहीं रहा
भूला है कौन एड़ लगाकर हयात को
रुकना ही रख्शे-जाँ को गंवारा नहीं रहा
जब तक वो बेनिशान रहा दस्तरस में था
ख़ुशनाम हो गया तो हमारा नहीं रहा
गुमगश्ता ए सफ़र को जब अपनी ख़बर मिली
रस्ता दिखाने वाला सितारा नहीं रहा
कैसी घड़ी में तर्के-सफ़र का ख़याल है
जब हम में लौट आने का यारा नहीं रहा
(17)
तूने कभी सोचा
गिला कमगोई का मुझ से बजा है
लेकिन ऐ जाने-सुख़न !
तूने कभी सोचा
यह तेरी सिम्त जब मैं आंख भर कर देखती हूं तो
मेरी हल्की सुनहरी जिल्द के नीचे
अचानक
ढेरों नन्हें-नन्हें से दिए क्यों जलने लगते हैं
(18)
बुलावा
मैं ने सारी उम्र
किसी मंदिर में क़दम नहीं रक्खा
लेकिन जब से
तेरी दुआ में
मेरा नाम शरीक हुआ है
तेरे होंटों की ज़ुम्बिश पर
मेरे अंदर की दासी के उजले तन में
घंटियाँ बजती रहती हैं!
(19)
शब वही लेकिन सितारा और है
अब सफ़र का इस्तिआरा और है
एक मुट्ठी रेत में कैसे रहे
इस समुंदर का किनारा और है
मौज के मुड़ने में कितनी देर है
नाव डाली और धारा और है
जंग का हथियार तय कुछ और था
तीर सीने में उतारा और है
मत्न में तो जुर्म साबित है मगर
हाशिया सारे का सारा और है
साथ तो मेरा ज़मीं देती मगर
आसमाँ का ही इशारा और है
धूप में दीवार ही काम आएगी
तेज़ बारिश का सहारा और है
हारने में इक अना की बात थी
जीत जाने में ख़सारा और है
सुख के मौसम उँगलियों पर गिन लिए
फ़स्ले-ग़म का गोशवारा और है
(20)
कलाम
बर्फ की रुत और तन पर एक बोसीदा क़बा
जिससे जगह-जगह मौसम की नीली शिद्दत झांक रही है
हर झोंके पर हिलते हुए लकड़ी के मकां
जिन पर बारिश पंजे गाड़े बैठी है
सर्द हवा से सारे घर जख्मी हैं
लेकिन सब की छतों पर
नीले पीले शब्द गुलाबी झंडे ऐसे लहराते हैं
जैसे वादी के सब बच्चे रेशम पहने घूम रहे हो
(21)
बादबाँ खुलने से पहले का इशारा देखना
मैं समुंदर देखती हूँ तुम किनारा देखना
यूँ बिछड़ना भी बहुत आसाँ न था उस से मगर
जाते जाते उस का वो मुड़ कर दुबारा देखना
किस शबाहत को लिए आया है दरवाज़े पे चाँद
ऐ शबेहिज्राँ ज़रा अपना सितारा देखना
क्या क़यामत है कि जिन के नाम पर पसपा हुए
उन ही लोगों को मुक़ाबिल में सफ़आरा देखना
जब बनामेदिल गवाही सर की माँगी जाएगी
ख़ून में डूबा हुआ परचम हमारा देखना
जीतने में भी जहाँ जी का ज़ियाँ पहले से है
ऐसी बाज़ी हारने में क्या ख़सारा देखना
आइने की आँख ही कुछ कम न थी मेरे लिए
जाने अब क्या क्या दिखाएगा तुम्हारा देखना
एक मुश्ते-ख़ाक और वो भी हवा की ज़द में है
ज़िंदगी की बेबसी का इस्तिआरा देखना
(22)
स्टेनोग्राफर
चमकीली सुबह से पहले
जब नींद बदन में शहद की सूरत घुलती हो
और सबा के हाथों गिरह हर दर्द की खुलती हो
उस वक्त शिफा
सब कच्चे जख्म बदन के
सब प्यासे सपने तन के
बे-कीमत जान के उठना
इक हार सी मान के उठना
और खुद को मौसम की बे मेहर हवा के हवाले कर देना
दिन भर बे मानी हिंदसों
और बे मकसद नामों को
बस खाली जहन और बेहिस हाथ से टाइप करते जाना
गाहे - गाहे हस्बे मौका
गंजे सर वाले बॉस की मीठी और कड़वी बातें सहना
और पत्थर की मूरत की तरह हर लहजे पर चुप रहना
फिर शाम गए
जब चिड़ियां तक अपने घर की हो जाए
दफ्तर की खुंक भट्ठी से
झुलसा हुआ चेहरा लेकर
सदियों की थकन से दोहरे
झुकते हुए शांनें थामें
भूखी आंखों, जलते फिक़रों, घर तक छोड़ आने वाले इशारों
शाइस्ता कारों से बचती
डर - डर के कदम उठाती
एक स्टेनोग्राफर
अपने घर लौट आती है
और टूटी हुई दीवार थाम के शायद रोज ही कहती है
मालिक !
एक दिन ऐसा भी आए
मेरे सर पर छत पड़ जाए !
(23)
इस्म
बहुत प्यार से
बाद मुद्दत के
जब से किसी शख़्स ने चाँद कहकर बुलाया है
तब से
अंधेरों की ख़ूगर निगाहों को
हर रौशनी अच्छी लगने लगी है
(24)
बेपनाही
किसी और के बाजूओं में सिमटकर, तुझे सोचना
किस क़दर मुनफ़रिद तजरबा था !
ये अहसास ही किस क़दर जानलेवा है जानां !
कि ऐसी जगह, इस खुनकज़ार में
मेरे तन पर फिसलती हुई शबनमीहिद्दतें
तेरी लज़्ज़तफ़िशां उंगलियों से अगर फूटतीं
तो मिरे जिस्म की इक-इक पोर तब किस तरह जगमगाती
तिरे रौशनी आशना हाथ
कैसे भटकते,
यहां --- अब यहां
और अब सरख़ुशी की उस इक आख़िरी याद
रह जाने वाली घड़ी में
वक़्त की नासमझ रौ है
और बेबसी की लहर है
ज़मीस्ताँ इस आखिरी शाम में
और मिरे जिस्म में
शायद अब कोई भी फ़र्क़ बाक़ी नहीं
मेरा साथी मिरी बंद आंखों को किस प्यार से चूम कर कह रहा है
अरे ---- आज तो बर्फ़बारी अभी से ही होने लगी
जान! --- आओ मुझे ओढ़ लो, उसे क्या ख़बर है
कि इस वक़्त मैं आग भी ओढ़ लूं तो भी
मेरी रूह पर होने वाली कोई बर्फबारी
नहीं रुक सकेगी !
(25)
निक-नेम
तुम मुझ को गुड़िया कहते हो
ठीक ही कहते हो!
खेलने वाले सब हाथों को मैं गुड़िया ही लगती हूँ
जो पहना दो मुझ पे सजेगा
मेरा कोई रंग नहीं
जिस बच्चे के हाथ थमा दो
मेरी किसी से जंग नहीं
सोचती जागती आँखें मेरी
जब चाहे बीनाई ले लो
कूक भरो और बातें सुन लो
या मेरी गोयाई ले लो
माँग भरो सिन्दूर लगाओ
प्यार करो आँखों में बसाओ
और फिर जब दिल भर जाए तो
दिल से उठा के ताक़ पे रख दो
तुम मुझ को गुड़िया कहते हो
ठीक ही कहते हो!
(26)
एक कोहिस्तानी अलामिया
बादल इतने पास ----
हाथ बढ़ाकर छू लें
पानी इतनी दूर ----
हाथ कटा कर भी
कुछ हाथ ना आए
(27)
Working
Woman
सब कहते हैं
कैसे गुरूर की बात हुयी है
मै अपने हरियाली को ख़ुद अपने लहू से सींच रही हूँ
मेरे सारे पत्तों की शादाबी
मेरी अपनी नेक कमाई है
मेरे एक शगूफ़े पर भी
किसी हवा और किसी बारिश का बाल बराबर क़र्ज़ नहीं है
जब मै चाहूं खिल सकती हूँ
मेर अपना रूप मेरी अपनी दरयाफ़्त है
मै अब हर मौसम से सर ऊँचा करके मिल सकती हूँ
एक तनावर पेड़ हूँ अब मै
और अपने ज़रख़ेज़ नुमुं के सारे इमकानात को भी पहचान रही हूँ
लेकिन मेरे अन्दर की ये बहुत पुरानी बेल
कभी-कभी -- जब तेज हवा हो
किसी बहुत मज़बूत शजर के तन से लिपटना चाहती है
(28)
ज़िल्ले- इलाही की प्रॉब्लम्स
राज-पाट करने वालों की जान
हथेली पर रहती है
बेचारों के मसाइल कैसे अजब होते हैं
कभी उस बाजगुजार रियासत की शोरीदा-सरी
कभी उस जेरे-नगी सूबे की नाफ़रमानी
कभी ख़ुद पाया-ए-तख़्त के अंदर ग़ैर मुनासिब बेदारी
कभी सिपहसालारे-आज़म का शौके लश्कर आराई
कभी अमीरे-मतबख़ के खासे में ख़ासी ग़ैरजरूरी दिलचस्पी
शहज़ादों की शोरा–पुश्ती
हरमसरा में पलने वाली छोटी बड़ी सियासत
बिल एलान बगावत, दर परदा साज़िश !
दुश्मन जल्द ही खुल जाते हैं
उनसे निपटना इतना मुश्किल काम नहीं
उलझावा पावं चूमने वालों से पड़ता है !
और उनकी भी दो किस्में हैं
एक तो कुत्ते ----
अपनी वफ़ादारी में सोहरा-ए-आलम रखने वाले
जब तक जी चाहे पैरों में लौटते हैं
फिर अपनी-अपनी हड्डी लेकर अलग हो जाते हैं
दूसरी किस्म ज्यादा मोहलिक है
यह दो पैरों पर चलती है
देखने में इंसान, मग़र बातिन के रीछ
तलवे चाटते-चाटते अपने प्यारे आक़ा को ऐसा कर देते हैं कि
एक सुहानी सुबह को जब
अपनी कनीज-ए-ख़ास की भैरवी सुनकर आंखें खोलते हैं तो
ज़िल्ले-इलाही अपने पांव ढूंढते रह जाते हैं
(29)
एक उदास नज़्म
एक तरफ सुहाग है
और दूसरी तरफ
रूह को जलने वाली आग है
ख़ुद पे बर्फ गिरते हुए देखती हूँ
की राशनी का हाथ थाम लूं
ऐ ख़ुदा–ए–आबो–नार
मेरा फैसला सुना
जिंदा दफ़न हों
की जिंदगी का हाथ थाम लूं
(30)
लम्से- ज़र
कीमियागर यह कहते हैं
बाज़ शराबें अपने वस्फ़ में इतनी अज़ीब होती हैं
कि जब तक
जामें सिफाली में रखी जायें
तो उनका नशा
अपने खुमार तलक
मैख्वारों के हक में अमृत रहता है
और जैसे ही सोने के प्याले में उड़ेली जायें
तो अमृत- ज़हरे-हलाहल बन जाता है
आज अपने महबूब -- मगर मरहूम सुख़नवर को मैंने
जब कुर्सी-ए-आला पर बैठे
और तीसरे दर्जे के मोहमल असरार सुनाते देखा तो
मुझको ये मालूम हुआ
ऐसी अज़ीब शराबों में
एक शराबे - सुख़न भी है
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(प्रोफ़ेसर मक्खन
लाल एक अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त पुरातत्ववेत्ता, इतिहासकार हैं।
आप कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के सीनियर फ़ैलो,
काशी हिंदू विश्वविद्यालय, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में अध्यापक, दिल्ली विरासत
अनुसन्धान एवं प्रबंधन संस्थान के संस्थापक निदेशक, विश्व पुरातत्व कॉंग्रेस के कोषाध्यक्ष और एकादमिक प्रोग्राम
के कोर्डिनेटर रहे हैं। आपके विभिन्न विषयों पर 200 शोध पत्र छप चुके हैं तथा 23 किताबें आ चुकी हैं। इनकी साहित्य में विशेष रुचि है।)
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Parveen Shakir: A Brief Life Sketch परवीन शाकिर: एक
संक्षिप्त जीवनी
Parveen Shakir: Her Poems and Ghazals, Part-1 परवीन शाकिर की
नज़्में और गज़लें
URL: https://www.newageislam.com/hindi-section/parveen-shakir-poems-ghazals-sadbarg-part-2/d/126021
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