प्रोफेसर मक्खन लाल, न्यू एज इस्लाम
25
दिसंबर 2021
खुदकलामी की सभी नज्मे और गज़लें परवीन शाकिर द्वारा 29 से 34 साल की उम्र में लिखी गयीं हैं । पारिवारिक जिंदगी तो बिखर रही ही थी पर वो परिस्थितियों से लड़ती हुई दिखाई देती हैं. अपने माँ बनने का उन्हें बहुत गर्व है । उन्होंने अपने बेटे के लिए कई नज्मे लिखी. ऐसा लगता है की अब तक वो बहुत अकेली हो चुकीं थी. उन्हें अपनी बढ़ती उम्र का भी एहसास होने लगता है । अब वो खुल कर सामाजिक, आर्थिक और सरकारी सरोकारों पर खुल कर लिखने लगी थीं । नज़्म “फूलों का क्या होगा” बे सर पैर के सरकारी आदेशो पर बड़ा व्यंग है ।
(1)
कुछ तो हवा भी सर्द थी कुछ था तिरा ख़याल भी
दिल को ख़ुशी के साथ साथ होता रहा मलाल भी
बात वो आधी रात की रात वो पूरे चाँद की
चाँद भी ऐन चैत का उस पे तिरा जमाल भी
सब से नज़र बचा के वो मुझ को कुछ ऐसे देखता
एक दफ़ा तो रुक गई गर्दिशे-माहो-साल भी
दिल तो चमक सकेगा क्या फिर भी तराश के देख लें
शीशा-गिराने-शहर के हाथ का ये कमाल भी
उस को न पा सके थे जब दिल का अजीब हाल था
अब जो पलट के देखिए बात थी कुछ मुहाल भी
मेरी तलब था एक शख़्स वो जो नहीं मिला तो फिर
हाथ दुआ से यूँ गिरा भूल गया सवाल भी
उस की सुख़न-तराज़ियाँ मेरे लिए भी ढाल थीं
उस की हँसी में छुप गया अपने ग़मों का हाल भी
गाह क़रीबे-शाहरग गाह बईदे-वहमो-ख़्वाब
उस की रफ़ाक़तों में रात हिज्र भी था विसाल भी
उस के ही बाज़ुओं में और उस को ही सोचते रहे
जिस्म की ख़्वाहिशों पे थे रूह के और जाल भी
शाम की ना-समझ हवा पूछ रही है इक पता
मौजे-हवा-ए-कू-ए-यार कुछ तो मिरा ख़याल भी
(2)
दो साहिली नज़्में
पहले चांद की नर्म महकती रात
सुबक साहिल की ठंडक
और ख़ुश लम्स हवा
तन की चाह में जलने वाली
दो प्यासी रूहों को ऐसे छूने लगी थी
जैसे उनका दुख पहचान हो गई हो
=====
जिस जज़्बे पर
दिन भर सूरज अपने हाथ रखे रहता था
शब के लम्स से ऐसे जाग पड़ा था
रेत की दिल आराम रिफ़ाक़त
और सुलगती तन्हाई के बीच
समंदर की बाहों से लिपटे हुए दो मुनकर जिस्म
अपने आप से हार चुके थे
रात का जादू जीत चुका था
(3)
खुलेगी उस नज़र पे चश्में-तर आहिस्ता आहिस्ता
किया जाता है पानी में सफ़र आहिस्ता आहिस्ता
कोई ज़ंजीर फिर वापस वहीं पर ले के आती है
कठिन हो राह तो छुटता है घर आहिस्ता आहिस्ता
बदल देना है रस्ता या कहीं पर बैठ जाना है
कि थकता जा रहा है हमसफ़र आहिस्ता आहिस्ता
ख़लिश के साथ इस दिल से न मेरी जाँ निकल जाए
खिंचे तीरे-शनासाई मगर आहिस्ता आहिस्ता
हवा से सरकशी में फूल का अपना ज़ियाँ देखा
सो झुकता जा रहा है अब ये सर आहिस्ता आहिस्ता
(4)
क़ायनात के ख़ालिक़
क़ायनात के ख़ालिक़
देख तो मिरा चेहरा
आज मेरे होंठों पर
कैसी मुस्कराहट है
आज मेरी आँखों में
कैसी जगमगाहट है
मेरी मुस्कराहट से
तुझको याद क्या आया
मेरी भीगी आँखों में
तुझको कुछ नज़र आया
इस हसीन लम्हे को
तू तो जानता होगा
इस समय की अज़्मत को
तू तो मानता होगा
हाँ तिरा गुमाँ सच है
हाँ कि आज मैंने भी
ज़िंदगी जनम दी है
(5)
अब भला छोड़ के घर क्या करते
शाम के वक़्त सफ़र क्या करते
तेरी मसरूफ़ियतें जानते हैं
अपने आने की ख़बर क्या करते
जब सितारे ही नहीं मिल पाए
ले के हम शम्सो-क़मर क्या करते
वो मुसाफ़िर ही खुली धूप का था
साये फैला के शजर क्या करते
ख़ाक ही अव्वलो आख़िर ठहरी
कर के ज़र्रे को गुहर क्या करते
राय पहले से बना ली तू ने
दिल में अब हम तिरे घर क्या करते
इश्क़ ने सारे सलीक़े बख़्शे
हुस्न से कस्बे-हुनर क्या करते
(6)
इख्तियार की एक कोशिश
अगर बन में रहना मुक़द्दर है
और यह एक तयशुदा उम्र भी है
के हर वन में बस भेड़िए मुंतज़िर हैं मिरे
तो यह सोचती हूं
के इस सूरते हाल में
क्यों न फिर
अपनी मर्जी के जंगल में ही जा बसूं
(7)
साथ
कितनी देर तक
अमलतास के पेड़ के नीचे
बैठ के हमने बातें की
कुछ याद नहीं
बस इतना अंदाज़ा है
चाँद हमारी पुश्त से हो कर
आँखों तक आ पहुंचा था
(8)
अब भला छोड़ के घर क्या करते
शाम के वक़्त सफ़र क्या करते
तेरी मसरूफ़ियतें जानते हैं
अपने आने की ख़बर क्या करते
जब सितारे ही नहीं मिल पाए
ले के हम शम्सो-क़मर क्या करते
वो मुसाफ़िर ही खुली धूप का था
साये फैला के शजर क्या करते
ख़ाक ही अव्वलो आख़िर ठहरी
कर के ज़र्रे को गुहर क्या करते
राय पहले से बना ली तू ने
दिल में अब हम तिरे घर क्या करते
इश्क़ ने सारे सलीक़े बख़्शे
हुस्न से कस्बे-हुनर क्या करते
(9)
इक न इक रोज तो रुखसत करता
मुझसे कितनी ही मुहब्बत करता
सब रुतें आ के चली जाती हैं
मौसमें ग़म भी तो हिजरत करता
भेड़िये मुझको कहाँ पा सकते
वो अगर मेरी हिफ़ाज़त करता
मेरे लहजे में गुरूर आया था
उसको हक़ था कि शिकायत करता
कुछ तो थी मेरी ख़ता वरना वो क्यों
इस तरह तर्के रफ़ाक़त करता
और उससे न रही कोई तलब
बस मिरे प्यार की इज़्ज़त करता
(10)
मिसफिट
कभी-कभी मैं सोचती हूं
मुझमें लोगों को ख़ुश करने का मलका
इतना कम क्यों है
कुछ लफ़्ज़ों से, कुछ मेरे लहजे से खफा हैं
पहली मेरी मां
मेरी मसरूफ़ियत से
नाला रहती थी
अब यही गिला मुझसे मेरे बेटे को है
रिज्क़ की अंधी दौड़ में रिश्ते कितने पीछे रह जाते हैं
जबके सूरते-हाल तो यह है
मेरा घर
मेरे औरत होने की मजबूरी का
पूरा लुत्फ़ उठाता है
हर सुबह
मेरे शानों पर
ज़िम्मेदारी का बोझा लेकिन
पहले से भारी होता है
फिर भी मेरी पुश्त पे
नाएहली का कोब
रोज़ रोज़ नुमायाँ होता जाता है
फिर मेरा दफ़्तर
जहां तक़र्रूर की पहली ही शर्त के तौर पे
ख़ुद्दारी का इस्तीफ़ा दाखिल करना था
मैं बंजर ज़हनों में फूल उगाने की कोशिश करती हूं
कभी-कभी हरियाली दिख जाती है
वरना
पत्थर
बारिश से अक्सर नाराज़ ही रहते हैं
मिरा क़बीला
मेरे हर्फ़ में रोशनी ढूंढ निकालता है
लेकिन मुझको
अच्छी तरह मालूम है
इनमें
किसकी नज़रें लफ़्ज़ पर हैं
और किसकी लफ़्ज़ की ख़ालिक़ पर
सारे दायरे मेरे पांव से छोटे हैं
लेकिन वक़्त का वहशी नाच
किसी मुक़ाम नहीं रुकता
रक्स की लयहर लम्हे तेज़ हुई जाती है
या तो मैं कुछ और हूं
या फिर
मेरा सय्यारा नहीं है
(11)
बेबसी की एक नज़्म
क्या उस पर मेरा बस है
वो पेड़ घना
लेकिन किसी और के आंगन का
क्या फूल मिरे
क्या फल मेरे
साया छूने से पहले
दुनिया की हर उंगली मुझ पर उठ जायेगी
वह छत किसी और के घर की
बारिश हो कि धूप का मौसम
मिरे एक-एक दिन के दुपट्टे आँसू में रंगे
आँसूं में सुखाए जाएंगे
तहख़ाना-ए-ग़म के अंदर
सब जानती हूं
लेकिन फिर भी
वो हाथ किसी के हाथ में जब भी देखती हूं
इक पेड़ की शाखों पर
बिजली सी लपकती है
इक छोटे से घर की
छत बैठने लगती है
(12)
बेफ़ैज़ रिफ़ाक़त में समर किसके लिये था
जब धूप थी क़िस्मत में तो सजर किसके लिये था
परदेस में सोना था तो छत किस लिए डाली
बाहर ही निकलना था तो घर किसके लिये था
जिस ख़ाक से फूटा है उसी ख़ाक की ख़ुशबू
पहचान न पाया तो हुनर किसके लिये था
ऐ मादरे-गेती तेरी हैरत भी बजा
है
तेरे ही न काम आया तो सर किसके लिये था
यूँ शाम की दहशत से सरे-दस्त इरादा
रुकना था तो फिर सारा सफर किसके लिए था
(13)
एक विक्टोरियन शख्स से
बजाय इसके
कि तुम मुझे सेंतसेंत कर
अपने दिल में रखो
और एलिज़ाबेथ दोयम के ज़माने में
अहदे-विक्टोरिया के आदाब सीखने में
इसी तरह ज़िंदगी गवां दो
और एक फ़िक़रे की गुफ़्तगू के लिए
यहां से वहां तलक का अदब खंगालो
बहार के पहले दिन का हर साल
मेरी खिड़की के नीचे तन्हा खड़े हुए
इंतज़ार खींचो
बस एकदिन
दफ़अतन कहीं से निकल के आ जाओ
और मुझे
बाज़ुओं में अपने समेटकर
एड़ियों पर तुम अपनी घूम जाओ
(14)
चेन रिएक्शन (Chain
Reactions)
मुझे तुम अच्छे लगते हो
तुम्हारी गुफ़्तगू में
बीसवीं सदी की आठवीं दहाई को समझने वाले ज़ेहन की चमक है
और तुम्हारे लम्स में
वो गर्म ताज़गी
जो बदन के सारे मौसमों को सब्ज़ रखती है
तुम्हारे बाज़ुओं पर सर रखे
मैं ज़ेहन और जिस्म का विसाल देखती हूं
(की जमाना किस कदर अज़ीब वाक़या है)
मगर तुम्हारे और मेरे दरमियां
ज़मानों और उम्रों
और अपने-अपने तबक़े के मुफ़ाद का जो बोअद है
उसे फलांगना
न मेरे बस में है
ना तुम में इसका हौसला
मूफ़ाहिमत की गोलमेज पर
कभी शुमाल और ज़ुनूब के मुज़ाकरात की तरह
हमारी सब दलीलें
एक दूसरे पे शक करेंगी
और कभी ज़ुनूब और ज़ुनूब के गुलाम बहसें खाम की तरह से
एक दूसरे के ख़बसे बातनी का नील प्रिंट
ढूंढते रहेंगे हम
सो अफ़ियत इसी में है
के हम अंधेरे में रहें
और अपने अपने न्यूट्रॉन्स से
तअल्लूकात ठीक रखें
तुम्हारे और मेरे आइसोटोप्स
ताबकार नफ़रतों की जद में एक बार आ गये
तो फिर मुहब्बतों का इख़्तियार ख़त्म समझो
(15)
मैं तीतरी रहने में ही खुश हूँ
उम्र की निस्फ़ शब
कलबा-ए- जां में गूंगे किवाड़ों पे यह
कोई दस्तक हुई
या कि मैं नींद में डर गई
सोचती हूं
ये कैसी मुहब्बत हुई
जिसकी बुनियाद में खौफ़ के इतने पत्थर रखे हैं
कि लगने से पहले
इमारत के सारे दरीचों के शीशे लरज़ने लगे हैं
ऐसा लगता है, ये खौफ़
बाहर से बढ़कर कहीं मेरी बातिन में है
उसकी ज़हनी वज़ाहत की दहशत
उसकी ख़ुश-रोई की सांस को रोकने वाली हैबत
पीछा करती हुई आंख से मेरी बेपर्दा वहशत
तो बातिन के डर का लिबादा हूं
दर अस्ल मैं
उसको तस्लीम करके
उम्र भर की कमाई
इस आज़ादी-ए-ज़हनो-जां को
गंवाना नहीं चाहती
और मुझे खबर है
कि मैं इक दफा
हाथ उसके अगर लग गई तो
वो मक्खी बनाकर मुझे
अपनी दीवारें ख़्वाहिश से ताउम्र इस तरह चिपकाए रखेगा
के मैं
रौशनी और हवा और ख़ुशबू का
हर ज़ायक़ा इस तरह भूल जाऊंगी
जैसे कभी उस से वाक़िफ़ न थी
सो मैं तीतरी रहने में ही बहुत ख़ुश हूं
गरचे यहां
रिज्क़ और जां की साज़िशें बेपनाह है
मगर
मेरे पर तो सलामत रहेंगे
(16)
मैं हिज्र के अज़ाब से अनजान भी न थी
पर क्या हुआ कि सुब्ह तलक जान भी न थी
आने में घर मिरे तुझे जितनी झिझक रही
इस दर्जा तो मैं बेसरो-सामान भी न थी
इतना समझ चुकी थी मैं उसके मिज़ाज को
वो जा रहा था और मैं हैरान भी न थी
दुनिया को देखती रही जिसकी नज़र से मैं
उस आँख में मिरे लिए पहचाना भी न थी
रोती रही अगर तो मैं मजबूर थी बहुत
वो रात काटनी कोई आसान भी न थी
(17)
फूलों का क्या होगा
सुना है
तितलियों पर फिर कोई हद जारी होती है
अगर गुलकंद ख़ुद ही शहद की सब मक्खियों के घर पहुँच जाए
तो उनको गुल-ब-गुल आवारागर्दी की है हाजत क्या
हवा की चाल भी कुछ ना मुनासिब होती जाती थी
सो तितली और मक्खी और हवा
ना महरमों से दूर रखी जा रही हैं
मगर ये भी कोई सोचे
के फिर फूलों का क्या होगा
चमन में ऐसे कितने फूल होंगे
कि जो ख़ुद वस्ल और ख़ुद बार आवरा होंगे
(18)
एक मशवरा
दुरूने गुफ़्तगू
बामानी वक़्फ़े आने लग जाएं
तो बाक़ी गुफ़्तगू
बेमानी हो जाती है
सो ऐख़ुश-सुख़न मेरे
हमें अब ख़ामुशी पर ध्यान देना चाहिए अपनी
(19)
नविस्ता
मिरे बच्चे
तेरे हिस्से में भी ये तीर आयेगा
तुझे भी इस पिदर दुनिया में बिलआख़िर
अपने यूं मादर निशाँन होने की,इकदिन
बड़ी क़ीमत अदा करनी पड़ेगी
अगरचे
तेरी इन आंखों की रंगत
तेरे माथे की बनावट
और तिरे होठों के सारे ज़ाविए
उस शख्स के हैं
जो तेरी तख़लीक़ में साझी है मेरा
फ़क़ीहे-शहर के नज़दीक जो पहचान है तेरी
मगर जिसके लहू ने तीन मौसम तक तुझे सींचा है
उस तन्हा शजर का
एक अपना भी तो मौसम है
लहू से फ़स्ल तारे छानने की
सोच से ख़ुशबू बनाने की रुतें
और शेर कहने का अमल
जिनकी अमलदारी तिरे अजदाद क़िलओं से बाहर जा चुकी है
और जिसे वापस बुला सकना
न सैफ़ो के लिए मुमकिन रहा था
न मीरा के ही बस में था
सो अब हमजोलियों में
गाहे गाहे तेरी ख़िजलत
वाक़िफ़ों के आगे तेरे बाप की मजबूर ख़िफ्फ़त
इस घराने का मुक़द्दर हो चुकी है
कोई तख्ती लगी हो सदर दरवाज़े पे
लेकिन हवाला एक ही होगा
तेरे होने ना होने का
(20)
अनहोनी की एक दुआ
चांदी का यह तार
मेरी सियाह बालों में
घड़ी घड़ी बिजली की तरह चमकता है
सोते जागते मैं इस लशकारे की ज़द में रहती हूं
एक लम्हा तो जैसे दिल ही ठहर
गया था
आईना
उम्र में पहली दफ़ा
सच बोलता नहीं लगा था
शक का फ़ायदा बिनाई को दिया था मैंने
लेकिन कितने अर्से
(फैसला कितना टलता)
कितने आईने चुप रहते
और कितनी आंखें मेरा दिल रख सकती थीं
जान गई हूं
वक़्त
मिरी बरनाई पर
पहला शब-खूँ डाल चुका है
कैसे कैसे चेहरे नज़र में घूम रहे हैं
फ़रते मुहब्बत से गुलनार
जोशे अक़ीदत से सरशार
मुझको देखने, मुझको छूने, मुझको पाने की हसरत में
कूचा ब कूचा ख़्वार
सरतापा दिलदार
आज हमा तन चश्म वो लोग
मुझको कैसे देखेंगे
देख सकेंगे ?
मालिक इस अबोहे-तलब में
क्या कोई ऐसी आंख भी होगी
जिसकी चमक
बुझ जाने की बजाय
चांदी के उस तार को
छूकर सोने जैसी हो जाए
(21)
एक ख़त
बहुत याद आने लगे हो
बिछड़ना तो मिलने से बढ़ के
तुम्हें मेरे नज़दीक लाने लगा है
मैं हर वक़्त ख़ुद को
तुम्हारे जवां बाज़ुओं में पिघलते हुए देखती हूं
मिरे होंठ अब तक
तुम्हारी मुहब्बत से नम है
तुम्हारा यह कहना ग़लत तो न था के
मिरे लब तुम्हारे लबों के सबब से ही गुलनार हैं
तो ख़ुश हूं
के अब तो मेरे आईने का भी कहना यही है
मैं हर बार बालों में कंघी अधूरी ही कर पा रही हूं
तुम्हारी मुहब्बत भरी उंगलियां रोक लेती हैं मुझको
मैं अब मानती जा रही हूं
मेरे अंदर की सारी रूतें
और बाहर का मौसम
तुम्हारे सबब से
तुम्हारे लिए थे !
जवा बन ख़िज़ां मुझ में पर चाहोगे तुम देखना
या के फस्ले-बहारां
कोई फैसला तो हो
मगर जल्द कर दो तो अच्छा !
(22)
जुदाई के बंदी ख़ाने में
बस अब तो जीने का एक ही सिलसिला है जानाँ !
तुम्हारी सोचों में डूबे रहना
तुम्हारे ख्वाबों में खोये रहना
किसी तरह तुमको देखने की सबील करना
तुम्हारे कूचे तक आने का कुछ बहाना करना
हर आते-जाते से ख़ैरियत की नवेद लेना
हवाओं और चांद और परिंदों पे रश्क करना
मिरा जो अहवाल पूछना है तो यह है जाना
कि जाने कबसे
जुदाई के बंदी ख़ाने में बंद
बर्फ़ के सिल पर तन्हा बैठी
हरारते-ज़िंदगी से कुछ रब्त ढूँढती हूँ
बदन की अपने
तुम्हारे हाथों से छू रही हूँ !
(23)
कुछ फ़ैसला तो हो कि किधर जाना चाहिए
पानी को अब तो सर से गुज़र जाना चाहिए
नश्तर-बदस्त शहर से चारागरी की लौ
ऐ ज़ख़्में-बेकसी तुझे भर जाना चाहिए
हर बार एड़ियों पे गिरा है मिरा लहू
मक़्तल में अब बतर्ज़े-दिगर जाना चाहिए
क्या चल सकेंगे जिन का फ़क़त मसअला ये है
जाने से पहले रख़्ते-सफ़र जाना चाहिए
सारा जुआर-भाटा मिरे दिल में है मगर
इल्ज़ाम ये भी चाँद के सर जाना चाहिए
जब भी गए अज़ाबे-दरो-बाम था वही
आख़िर को कितनी देर से घर जाना चाहिए
तोहमत लगा के माँ पे जो दुश्मन से दाद ले
ऐसे सुख़न-फ़रोश को मर जाना चाहिए
(24)
एक खूबसूरत ड्राइव
इसी रास्ते पर
मै कब से सफ़र कर रही थी
कभी नीम तन्हा
कभी दोस्तों की मय्य्त में
और कभी
इस तरह भी
के चलती रही और जरा सिम्त तक जानने की ज़रूरत न समझी
मगर आज इक अजनबी के
दिल-आवेज़, कम बोलते साथ में
सितंबर की तपती हुई दोपहर में
मैंने पहली दफ़ा यह भी देखा
के उस रास्ते पर
दोरोया गुलाबों के तख़्त बिछे हैं
(25)
एक ख़त
बहुत याद आने लगे हो
बिछड़ना तो मिलने से बढ़ के
तुम्हें मेरे नज़दीक लाने लगा है
मैं हर वक़्त ख़ुद को
तुम्हारे जवां बाज़ुओं में पिघलते हुए देखती हूं
मिरे होंठ अब तक
तुम्हारी मुहब्बत से नम है
तुम्हारा यह कहना ग़लत तो न था के
मिरे लब तुम्हारे लबों के सबब से ही गुलनार हैं
तो ख़ुश हूं
के अब तो मेरे आईने का भी कहना यही है
मैं हर बार बालों में कंघी अधूरी ही कर पा रही हूं
तुम्हारी मुहब्बत भरी उंगलियां रोक लेती हैं मुझको
मैं अब मानती जा रही हूं
मेरे अंदर की सारी रूतें
और बाहर का मौसम
तुम्हारे सबब से
तुम्हारे लिये थे !
जवाबन
ख़िज़ां मुझमें पर चाहोगे तुम देखना
या के फ़स्ले-बहारां
कोई फैसला हो
मगर जल्द कर दो तो अच्छा !
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(प्रोफ़ेसर मक्खन लाल एक अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त पुरातत्ववेत्ता, इतिहासकार हैं। आप कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के सीनियर फ़ैलो, काशी हिंदू विश्वविद्यालय, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में अध्यापक, दिल्ली विरासत अनुसन्धान एवं प्रबंधन संस्थान के संस्थापक निदेशक, विश्व पुरातत्व कॉंग्रेस के कोषाध्यक्ष और एकादमिक प्रोग्राम के कोर्डिनेटर रहे हैं। आपके विभिन्न विषयों पर 200 शोध पत्र छप चुके हैं तथा 23 किताबें आ चुकी हैं। इनकी साहित्य में विशेष रुचि है।)
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Parveen Shakir: A Brief Life Sketch परवीन शाकिर: एक
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