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Hindi Section ( 27 Dec 2021, NewAgeIslam.Com)

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Parveen Shakir: Her Nazms and Gazals; Part 4 on Inkar; परवीन शाकिर की नज़्में और गज़लें: इन्कार

प्रोफेसर मक्खन लाल, न्यू एज इस्लाम

27 दिसंबर 2021

परवीन शाकिर के नज़मों और गज़लों का चौथा संग्रह इंकार 1990 मे छपा । तब तक  परवीन शाकिर अपनी व्यक्तिगत ज़िंदगी मे काफी संभली हुई नज़र आती हैं। वह अस्वस्थ एवं विश्वास से भरपूर है पति से तलाक होने के बाद की परिस्थियों से भी निपटने की कोशिश में हैं। कहीं न कहीं उन्हे किसी मित्र की तलाश अभी भी है ।  सरकार के काम काज और सामाजिक परिस्थितियों पर चोट करने से वो हिचक नहीं रही हैं। उनकी नज़्में बशीरे की घरवाली, “चैलेंजएक अफ़सरे आला का मशवरा, “फिर वही फ़रमानइसके खूबसूरत उदाहरण हैं । यह संकलन उन्होने अपनी मित्र, सहयोगी और सरपरस्त को समर्पित की थी । इसमे सम्मिलित एक नज़्म परवीन कादिर आग़ायह दर्शाती है की उनके और आग़ा के बीच मे कितने आत्मिक और भावनात्मक संबंध थे । वास्तव मे जीवन के अंतिम चरण मे परवीन कादिर आग़ा  शाकिर की असली अभिभावक सिद्ध हुईं ।

(1)

बाबे-हैरत से मुझे इज़्ने-सफ़र होने को है

तहनियत ऐ दिल कि अब दीवार दर होने को है

खोल दें ज़ंजीरे-दर और हौज़ को ख़ाली करें

ज़िंदगी के बाग़ में अब सह-पहर होने को है

मौत की आहट सुनाई दे रही है दिल में क्यूँ

क्या मुहब्बत से बहुत ख़ाली ये घर होने को है

गर्दे-रह बन कर कोई हासिल सफ़र का हो गया

ख़ाक में मिल कर कोई लालो-गुहर होने को है

इक चमक सी तो नज़र आई है अपनी ख़ाक में

मुझ पे भी शायद तवज्जो की नज़र होने को है

गुमशुदा बस्ती मुसाफ़िर लौट कर आते नहीं

मोजज़ा ऐसा मगर बारे-दिगर होने को है

रौनक़े-बाज़ारो-महफ़िल कम नहीं है आज भी

सानेहा इस शहर में कोई मगर होने को है

घर का सारा रास्ता इस सरख़ुशी में कट गया

इस से अगले मोड़ कोई हमसफ़र होने को है

(2)

तेरी ख़ुशबू का पता करती है

मुझ पे एहसान हवा करती है

चूम कर फूल को आहिस्ता से

मोजज़ा बादे-सबा करती है

खोल कर बंदे-क़बा गुल के हवा

आज ख़ुशबू को रिहा करती है

अब्र बरसे तो इनायत उस की

शाख़ तो सिर्फ़ दुआ करती है

हम ने देखी है वो उजली साअत

रात जब शेर कहा करती है

शब की तन्हाई में अब तो अक्सर

गुफ़्तुगू तुझ से रहा करती है

दिल को उस राह पे चलना ही नहीं

जो मुझे तुझ से जुदा करती है

ज़िंदगी मेरी थी लेकिन अब तो

तेरे कहने में रहा करती है

उस ने देखा ही नहीं वर्ना ये आँख

दिल का अहवाल कहा करती है

मुसहफ़े-दिल पे अजब रंगों में

एक तस्वीर बना करती है

बेनियाज़े-कफ़े-दरिया अंगुश्त

रेत पर नाम लिखा करती है

देख तू आन के चेहरा मेरा

इक नज़र भी तिरी क्या करती है

ज़िंदगी भर की ये ताख़ीर अपनी

रंज मिलने का सिवा करती है

शाम पड़ते ही किसी शख़्स की याद

कूचा-ए-जाँ में सदा करती है

मसअला जब भी चराग़ों का उठा

फ़ैसला सिर्फ़ हवा करती है

मुझ से भी उस का है वैसा ही सुलूक़

हाल जो तेरा अना करती है

दुख हुआ करता है कुछ और बयाँ

बात कुछ और हुआ करती है

(3)

हम ने ही लौटने का इरादा नहीं किया

उस ने भी भूल जाने का वादा नहीं किया

दुख ओढ़ते नहीं कभी जश्ने-तरब में हम

मल्बूसे-दिल को तन का लबादा नहीं किया

जो ग़म मिला है बोझ उठाया है उस का ख़ुद

सर ज़ेरे-बारे-साग़रो-बादा नहीं किया

कारे जहाँ हमें भी बहुत थे सफ़र की शाम

उस ने भी इल्तिफ़ात ज़ियादा नहीं किया

आमद पे तेरी इत्रो चरागो सुबू न हों

इतना भी बूदो-बाश को सादा नहीं किया

(4)

एक दफनाई हुई आवाज

फूलों और किताबों से आरास्ता घर है

तन की हर आसाइश देने वाला साथी

आँखों को ठंडक पहुँचाने वाला बच्चा

लेकिन उस आसाइश, उस ठंडक के रंगमहल में

जहाँ कहीं जाती हूँ

बुनियादों में बेहद गहरे चुनी हुई

एक आवाज़ बराबर गिर्या करती है

मुझे निकालो !

मुझे निकालो !

(5)

शरारत से भरी आंखे

सितारों की तरह से जगमगाती हैं

शरारत से भरी आंखें

मिरे घर में उजाला भर गया

तेरी हँसी का

यह नन्हे हाथ जो घर की कोई शय

अब किसी तरतीब में रहने नहीं देते

कोई सामाने-अराइश नहीं अपनी जगह पर अब

कोई क्यारी सलामत है

न कोई फूल बाक़ी है

यह मिट्टी से सने पांव

जो मेरी ख़्वाबगह की दूधिया चादर का ऐसा हाल करते हैं

के कुछ लम्हे गुज़रने पर ही पहचानी नहीं जाती

मगर मेरी जबीं पर बल नहीं आता

कभी रंगों की पिचकारी से

सरतापाभिगो देना

कभी चुनरी छुपा देना

कभी आना अक़ब से

और मिरी आंखों पर दोनों हाथ रख कर

पूछना तेरा

भला मैं कौन हूं

बूझो तो जानूं

मैं तुझसे क्या कहूं

तू कौन है मेरा

मिरे नटखट कन्हैया

मुझे तो इल्म है इतना

के येबेनज़्म और नासाफ़घर

मेरी तवाज़ुन गर तबीयत पर

गिरां नहीं बनने पाता

अगर तू मेरे आंगन में न होता

तो मेरे ख़ाना-ए-आईना सामांमें

बईं तरतीबो-आराइश

अंधेरा ही रहा करता

(6)

निशाते-ग़म

दिसंबर का कोई यख़ बस्ता दिन था

मैं योरूप के निहायत दूर उफ़तादा इलाक़े की

किसी वीरान तीरागाह में

बिल्कुल अकेली बेंच पर बैठी थी

एलाने-सफर की मुंतज़िर थी

जहां तक आंख शीशे के उधर जाती

उदासी से गले मिलती

मुसलसल बर्फ़बारी हो रही थी

अचानक मैंने अपने से मुख़ातिब

बहुत मानूसइक आवाज़ देखी

आप कैसी हैं

अकेली हैं

घने बालों, चमकती भूरी आंखों

दिलनशीं बातों से पुर

वो पुरकशिश लड़का कहां है ?

आप दोनों साथ कितने अच्छे लगते थे

मिरे चेहरे पर इक साया सालहराया था शायद

वो आगे कुछ नहीं बोला

मेरा दिल दुख से कैसा भर गया था

मगर तह में ख़ुशी की लहर भी थी

पुराने लोग अभी भूले नहीं हमको

हमें बिछड़े, अगरचे

आज सोलह साल तो होने को आए

(7)

एक नज़्म

बहुत दिल चाहता है

किसी दिन ग़ासिबों के नाम इक ख़त लिक्खूं एक खुला ख़त

लिखूं इसमें

कि तुमने चोर दरवाज़े से आकर

मिरे घर का तक़द्दुस

जिस तरह पामाल करके

तोशाख़ाने को तसर्रुफ़ में लिया है

तुम्हारी तरबियत में ये रवैया

दुश्मनों के साथ भी ज़ेबा नहीं था

कलामे-फ़tतह में भी

यह सुख़न शामिल नहीं था

यहां तक भी ग़नीमत था

तुम्हारे पेशरौ, बख्त-आज़माई में

जरो-सीमो-जवाहर तक नज़र महदूद रखते थे

जवानों को तहे-तलवार करते

मगर मांओं की चादर

बेटियों की मुस्कुराहट

और बच्चों के खिलौने से

तअर्रुज़कुछ ना करते मगर

तुम ने तो हद कर दी

न बैतुलमाल ही छोड़ा

न बेवा की जमा पूंजी

और अब तुमने

हमारी सोच को भी

राजधानी का कोई हिस्सा बनाने का इरादा कर लिया है

हमारे ख़्वाब की अस्मतपे नजरें हैं

क़लम का छीनना

आसां नहीं है

यह दरवेशों की बस्ती है

दबे पैरों भी यां आने की तुम ज़ुर्रत नहीं करना

किराए पर

क़सीदाख्वां अगर कुछ मिल भी जायें तो

क़बीलेके किसी सरदार की बैअत नहीं मिलनी

हमारे आखिरी साथी की तकमीले-शहादत

तक तुम्हें नुसरत नहीं मिलनी

(8)

चैलेंज

हकिमे शहर के हरकारे ने

आधी रात के सन्नाटे में

मेरे घर के दरवाजे पर

दस्तक दी है

और फ़रमान सुनाता है

आज के बाद से

मुल्क से बाहर जाने के सब रस्ते, खुद पर बंद समझना

तुमने गलत नज्में लिखी हैं

ए.एस.आई. से क्या शिकवा

उसने अपना ज़हन किराए पर दे रखा है

वह क्या जाने

मिट्टी की खुशबू क्या है

अर्जे वतन के रुख से बढ़कर

आंखों की राहत क्या है

हाकिमें वक़्त की नजरों में

मेरी वफादारी मशकूक ही ठहरी तो

मुझको कुछ परवाह नहीं

जिस मिट्टी ने मुझे जन्म दिया है

मेरे अंदर शेर के फूल खिलाए हैं

वह इस खुशबू से वाकिफ है

उसको ख़बर है

फस्लेखिज़ां कहने का मतलब

गुलशन से गद्दारी नहीं है

और अगर ऐसा ठहरा तो

हाकिमे वक़्त के हरकारे

मुझ पर फ़र्दे जुर्म लगाएं

ख़ाके वतनको हकम बनाएं

(9)

Vanity Thy Name Is

बहुत सादा है वो

और उसकी दुनिया मेरी दुनिया से सरासर मुख्तलिफ़ है

अलग है ख़्वाब उसके

ज़िंदगी में उसकी तरजीहात ही और कुछ लगती हैं

बहुत कम बोलता है वो

मुझे उसने लिखा है आज की सुब्ह

मैंने अपने लान में कुछ ख़ूबसूरत फूल देखे

मुझे बेसख्ता याद आ गईं तुम !

मुझे मालूम है

मैं उम्र के उस मलगज़े हिस्से में हूं

जब मेरा चेहरा

किसी भी फूल से क़ुर्बत नहीं रखता

मगर जी चाहता है

उसकी बातों पर

जरा सी देर को ईमान ले आऊँ

(10)

ताज़ा मुहब्बतों का नशा जिस्मो-जाँ में है

फिर मौसमें-बहार मिरे गुल्सिताँ में है

इक ख़्वाब है कि बारे-दिगर देखते हैं हम

इक आशना सी रौशनी सारे मकाँ में है

ताबिश में अपनी महरो-महो-नज्म से सिवा

जुगनू सी ये ज़मीं जो कफ़े-आसमाँ में है

इक शाख़े-यासमीन थी कल तक ख़िज़ाँ-असर

और आज सारा बाग़ उसी की अमाँ में है

ख़ुशबू को तर्क कर के न लाए चमन में रंग

इतनी तो सूझ-बूझ मिरे बाग़बाँ में है

लश्कर की आँख माले-ग़नीमत पे है लगी

सालारे-फ़ौज और किसी इम्तिहाँ में है

हर जाँनिसार याददहानी में मुनहमिक

नेकी का हर हिसाब दिले-दोस्ताँ में है

हैरत से देखता है समुंदर मिरी तरफ़

कश्ती में कोई बात है या बादबाँ में है

उसका भी ध्यान  जश्न शबे-सिपाहे-दोस्त

बाकी अभी जो तीर, उदू की कमां में है

बैठे रहेंगे शाम तलक तेरे शीशागर

ये जानते हुए के ख़सारा दुकां में है

मसनद के इतने पास न जाएं की फिर खुले

वो बेतअल्लुक़ी  मिज़ाज़े-शहाँ में है

वर्ना ये तेज़ धूप तो चुभती हमें भी है

हम छुप खड़े हुये हैं कि तू सायबां में है

(11)

लेकिन बड़ी देर हो चुकी थी

इक उम्र के बाद उस को देखा

आँखों में सवाल थे हज़ारों

होंटों पे मगर वही तबस्सुम

चेहरे पे लिखी हुई उदासी

लहजे में मगर बला का ठहराव

आवाज़ में गूँजती ज़ुदाई

बाँहें थीं मगर विसाले-सामाँ

सिमटी हुई उस के बाज़ुओं में

ता देर मैं सोचती रही थी

किस अब्रे-गुरेज़ पा की ख़ातिर

मैं कैसे शजर से कट गई थी

किस छाँव को तर्क कर दिया था

मैं उस के गले लगी हुई थी

वो पोंछ रहा था मिरे आँसू

लेकिन बड़ी देर हो चुकी थी!

(12)

उसने फूल भेजे हैं

उसने फूल भेजे हैं

फिर मेरी अयादत को

एक-एक पत्ती में

उन लबों की नर्मी है

उन जमील हाथों की

ख़ुशगवार हिद्दत है

उन लतीफ़ साँसों की

दिलनवाज़ ख़ुशबू है

दिल में फूल खिलते हैं

रुह में चिराग़ां है

ज़िन्दगी मुअत्तर है

फिर भी दिल यह कहता है

बात कुछ बना लेना

वक़्त के खज़ाने से

एक पल चुरा लेना

काश! वो ख़ुद वो आ जाता

(13)

तुम्हारी ज़िन्दगी में

तुम्हारी ज़िन्दगी में

मैं कहाँ पर हूँ ?

हवा-ए-सुब्ह में

या शाम के पहले सितारे में

झिझकती बूँदा-बाँदी में

कि बेहद तेज़ बारिश में

रुपहली चाँदनी में

या कि फिर तपती दुपहरी में

बहुत गहरे ख़यालों में

कि बेहद सरसरी धुन में

तुम्हारी ज़िन्दगी में

मैं कहाँ पर हूँ ?

हुज़ूमे-कार से घबरा के

साहिल के किनारे पर

किसी वीक-ऐण्ड का वक़्फ़ा

कि सिगरेट के तसलसुल में

तुम्हारी उँगलियों के बीच

आने वाली कोई बेइरादा रेशमी फ़ुरसत

कि जामे-सुर्ख़ से

यकसर तही

और फिर से

फिर जाने का ख़ुश-आदाब लम्हा

कि इक ख़्वाबे-मुहब्बत टूटने

और दूसरा आग़ाज़ होने के

कहीं माबेन इक बेनाम लम्हे की फ़राग़त ?

तुम्हारी ज़िन्दगी में

मैं कहाँ पर हूँ ?

(14)

हमारे दरमियां ऐसा कोई रिश्ता नहीं था

हमारे दरमियां ऐसा कोई रिश्ता नहीं था

तेरी शानों पे कोई छत नहीं थी

मेरे ज़िम्मे कोई आंगन नहीं था

कोई वादा तिरी ज़ंजीरे-पा बनने नहीं पाया

किसी इक़रार ने मेरी कलाई को नहीं थामा

हवा-ए-दस्त की मानिंद

तू आज़ाद था

रस्ते तेरी मर्जी के ताबे थे

मुझे भी अपनी तन्हाई पे

देखा जाए तो

पूरा तसर्रुफ़ था

मगर जब आज तूने

रास्ता बदला

तो कुछ ऐसा लगा मुझको

कि जैसे तूने मुझसे बेवफ़ाई की

(15)

बशीरे की घर वाली

हे रे तेरी क्या औक़ात

दूध पिलाने वाले जानवरों में

ए सबसे कम औक़ात

पुरुष की पसली से तो तेरा जन्म हुआ

और हमेशा पैरों में तू पहनी गई

जब मां जाया फुलवारी में तितली होता

तेरे फूल से हाथों में

तेरे क़द से बड़ी झाड़ू होती

मां का आंचल पकड़े पकड़े

तुझको कितने काम आ जाते

उपले थापना

लकड़ी काटना

गाय की सानी बनाना

फिर भी मक्खन की टिकिया

मां ने हमेशा भैया की रोटी पर रखी

तेरे लिये बस रात की रोटी

रात का सालन

रूखी सूखी खाते

मोटा झोटा पहनते

तुझ पे जवानी आई तो

तेरे बाप की नफ़रत तुझसे और बढ़ी

तेरे उठने बैठने, चलने फिरने पर

ऐसी कड़ी नजर रखी

जैसे ज़रा सी चूक हुई

और तू भाग गई

सोलहवां लगते ही

एक मर्द ने अपने मन का बोझ

दूसरे मर्द की तन पे उतार दिया

बस घर और मालिक बदला

तेरी चाकरी वही रही

बल्कि कुछ और ज़ियादा

अब तेरे जिम्मे शामिल था

रोटी खिलाने वालों को

रात गये ख़ुश भी करना

और हर सावन गाभन होना

पूरे दिनों से घर का काम संभालती

पति के साथ

बस बिस्तर तक

आगे तेरा काम !

कैसी नौकरी है

जिसमें कोई दिहाड़ी नहीं

जिसमें कोई छुट्टी नहीं

जिसमें अलग हो जाने की, सिरे से कोई रीत नहीं

ढोरों डंगरों को भी

जेठ आषाढ़ की धूप में

पेड़ तले सुस्ताने की आज़ादी होती है

तेरे भाग में ऐसा कोई समय नहीं

तेरे जीवन पगडंडी पर कोई पेड़ नहीं है

है रे !

किन कर्मों का फल है तू

तन बेचे तो कस्बी ठहरे

मन का सौदा करें और पत्नी कहलाए

समय के हाथों होता रहेगा

कब तक यह अपमान

एक निवाला रोटी

एक कटोरी पानी की खातिर

देती रहेगी कब तक तू बलिदान

(16)

एक मुश्किल सवाल

टाट के परदों के पीछे से

एक बारह तेरह साला चेहरा झाँका

वो चेहरा

बहार के पहले फूल की तरह ताज़ा था

और आंखे

पहली मुहब्बत के तरह शफ्फ़ाक़

लेकिन उसके हाथ में

तरकारी काटने रहने की लकीरें थीं

और उन लकीरों में

बर्तन मांजने वाली राख जमीं थी

उसके हाथ

उसके चेहरे से बीस साल बड़े थे

(17)

एक अफसरे आला का मशवरा

मेरे एक अफ़सरे आला ने

एक दिन मुझे अपनी बारग़ाहे  ख़ास में तलब किया

और एक दो फाइलों का हाल पूछने के बाद

मेरी ग़ैर सरकारी मसरूफ़ियात पर चीं-ब-जबीं हुए

मआसरे में शाइर की औक़ात पर रोशनी डाली

खुलासा-ए-गुफ़्तगू यह के

मुल्क में शाइर की हैसियत वही है

जो जिस्म में अपेंडिक्स की

बे फ़ायदा ------- मगर कभी-कभी सख्त़ तकलीफ़ का बाईस

सो इसका एक ही हल है ------ सरजरी

चश्मे तसव्वुर से, मेरी शख्सियत के अपेंडिक्स से निजात पाकर

कुछ शगुफ़्ता हुए

फिर गोया हुए

एक आईडियल अफ़सर वो है

जिसका कोई चेहरा नहीं होता

पहले उसके होंठ गायब होते हैं

फिर आंखें

उसके बाद कान

आख़िर में सिर

होंठों, आंखों, कानों और सिर से निजात पाए बग़ैर

कोई अफसर फ़ेडरल सेक्रेटरी नहीं बन सकता

अपनी बात पर ज़ोर देने के लिये

उन्होंने दो एक मशहूर सिरकटे अफ़सरों का हवाला दिया

लेकिन मेरे चेहरे पर

शायद उन्होंने पढ़ लिया था

के यह बेवकूफ़ लोकल शायर बने रहने में ही ख़ुश है

सो बद मज़ा होकर

(18)

हम सब एक तरह से डॉक्टर फास्टस हैं

हम सब एक तरह से

डॉक्टर फास्टस हैं

कोई अपने शौक की खातिर

और कोई किसी मजबूरी से ब्लैकमेल होकर

अपनी रूह का सौदा कर लेता है

कोई सिर्फ आंखें रहन रखवा कर

ख्वाबों की तिजारत शुरू कर देता है

किसी को सारा जहन ही गिरवी रखवाना पड़ता है

बस देखना यह है

के सिक्का-ए-रइजज़ुल वक्त क्या है

सो जिंदगी की Wall Street का एक जायजा यह कहता है

कि आजकल कुव्वते खरीद रखने वालों में

इज्जते नफ्स बहुत मकबूल है

(19)

परवीन क़ादर आग़ा

जब मेरे सर से चादर उतरी

तो मेरे घर की छत मेरे लिये अजनबी हो गई

तुम हमारे लिये मर चुकी हो

अहले खाना की ख़ामोशी ने एलान किया

और मैं बाबुल के दरवाज़े से

दस्तक दिए बिना

लौट आई

मैंने

(बड़े मान से)

अपने प्रेमी की तरफ़ देखा

मगर उसकी आंखों में बर्फ़ जम चुकी थी

जैसे मेरे लिये इन झीलों में कवंल कभी खिले ही न थे

अब मैं खुले आसमान तले खड़ी थी

अपने लाल को सीने से लगाए

या अल्लाह ! मैं कहां जाऊं

सर पे पहाड़ सी रात

चारों तरफ़ भेड़िए

और औरत बू सुनते हुए शिकारी कुत्ते

हमें घास न डालने का नतीजा कहती आंखें

हमें मौक़ा दो कहने वाले इशारे

और चीथड़े उड़ाने वाले क़हक़हे

और मार देने वाली हंसी

ठट्ठे करती हवा

और फ़िक़रे कसती बारिश

हर तरफ़ से संग बारी

मुझमें और पागलपन में

बस एक रात का फ़ासला रह गया था

ख़ुदकुशी भी मेरी ताक में बैठी थी

करीब था के

मैं उसके हाथ आ जाती

के एक साया मेरी तरफ़ बढ़ा

और मेरे सर पर अपना हाथ रख दिया

हमें किसी की परवाह नहीं

तुम जैसी भी हो, हमें अज़ीज़ हो

उस दिन मैं इतना रोई

के दुनिया अगर एक ख़ाली ताली होती

तो मेरे आंसुओं से भर जाती

मेरा मलामत भरा वजूद

उस दिन से आज तक

उस महरबान साये की पनाह में है

ख़ुदा

कभी कभी

अपने फरिश्तों को

ज़मीन पर भी भेज देता है

(20)

फिर वही फ़रमान

कल्चर की बागडोर

पार्टी एक्टिविस्ट ने संभाल ली है

अब रागों की चूलें तुरख़ान बिठायेंगे

और शायरी

कुम्हारों के आंवे में पका करेगी

मुसव्वरी को लोहार की धौंकनी की जरूरत है

बहुत हो गई रुजअत पसंदी

राब्ते का हर वसीला अब हमारा है

ख़ुफ़िया या कौमी

बयान अधूरा रह गया

तो रहता है

मुगान्निया अभी स्थाई पर थी

कोई बात नहीं

अंतरा हम ख़ुद उठा लेंगे

लेकिन हुज़ूर एक नजर रोमानिया और चेकोस्लोवाकिया

और मशरिकी जर्मनी पर तो डालें

ख़ुद क़िबला गाही गोरबाचोव

हमें खबर है

लेकिन हम  ग्लास नोस्ट (Glassnost) की ख़ुराफ़ात में नहीं पड़ना चाहते

हर वो शख्स़ जो हमारी इजाज़त के बग़ैर

गुज़िश्ता बरसों ज़िंदा रहा

गद्दार है और गद्दार की सज़ा मौत है

और ज़िंदा बच जाने वालों को ख़बर हो

के वफ़ादारी के सर्टिफ़िकेट पर

अब हमारे दस्तख़त होंगे

रस्सा खींचने का इख्तियार हमें मिल चुका है

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(प्रोफ़ेसर मक्खन लाल एक अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त पुरातत्ववेत्ता, इतिहासकार हैं। आप कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के सीनियर फ़ैलो, काशी हिंदू विश्वविद्यालय, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में अध्यापक, दिल्ली विरासत अनुसन्धान एवं प्रबंधन संस्थान के संस्थापक निदेशक, विश्व पुरातत्व कॉंग्रेस के कोषाध्यक्ष और एकादमिक प्रोग्राम के कोर्डिनेटर रहे हैं। आपके विभिन्न विषयों पर 200 शोध पत्र छप चुके हैं तथा 23 किताबें आ चुकी हैं। इनकी साहित्य में विशेष रुचि है।)

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