अहमद जावेद
१३ दिसंबर २०२०
रसूलुल्लाह के सहाबा
उसमा बिन ज़ैद का नाम किसी ने नहीं सूना। यह वही नौजवान हैं जिनको हुजुर अकरम सल्लल्लाहु
अलैहि वसल्लम ने अपने मौत से ठीक पहले अपने जलीलुल कद्र सहाबा पर इस्लामी लश्कर का
सालार नियुक्त फरमाया था। उनकी कम आयु को सामने रखते हुए हज़रत उमर फारुक रज़ीअल्लाहु अन्हु ने आप सल्लल्लाहु अलैहि
वसल्लम के बाद अमीरुल मोमिनीन हज़रत अबू बकर रज़ीअल्लाहु अन्हु को राय दिया कि किसी
और को सिपाह सालार बना दें तो वह उन पर सख्त नाराज़ हो गए थे कि जिसको अल्लाह के रसूल
ने अमीर नियुक्त किया मैं उस को हटा दूँ। यह आपके चहीते गुलाम ज़ैद के बेटे थे, उनकी परवरिश आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम
की गोद में हुई थी। रिवायत में आया कि आपके एक जानू पर आपका नवासा और दुसरे पर उसामा
बैठे होते थे। उसी चहीते नौजवान और जांनिसार सहाबी के साथ एक जंग में यह घटना पेश आया
कि एक शख्स उनकी तलवार के नीचे आ गया और उसे अपनी जान बचने की कोई सूरत नज़र ना आई तो
उसने कलमा ए तौहीद पढ़ लिया उसामा बिन ज़ैद ने उसकी एक ना सुनी और उसकी गर्दन मार दी।
इस्लाम के पैगम्बर को इसका इल्म हुआ तो आप
सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने इस पर सख्त ना गवारी का इज़हार फरमाया। आप सल्लल्लाहु अलैहि
वसल्लम ने उसामा से कहा क्या तुमने उसके ला इलाहा इललल्लाह कहने के बाद भी कत्ल कर
दिया? उसामा बिन ज़ैद रज़ीअल्लाहु अन्हु ने
अर्ज़ किया कि उसने केवल अपनी जान बचाने के लिए ऐसा किया था। आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम
को उनका यह जवाब पसंद नहीं आया। आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया: तुमने उसका
दिल चीर कर क्यों नहीं देखा कि तुमको मालूम हो जाता कि उसने दिल से कहा था या केवल
जुबान से कह रहा था। नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वासल्लाम्वासल्लम इस जुमले को बार बार
दुहराते रहे और एक रिवायत में है कि आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम इस जुमले को दुहराते
रहे कि क्या तुमने उसके ला इलाहा इललल्लाह पढ़ने के बावजूद उसे क़त्ल कर दिया? हज़रत उसामा कहते हैं कि काश! उसी दिन
मुसलमान हुआ होता (ताकि मेरा इस्लाम इतने बड़े गुनाह से आलूदा नहीं हुआ होता)। कुछ रिवायतों
में आया है कि आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया कि कयामत के दिन जब यह कलमा तय्यबा
तुम्हारे सामने आए गा तो क्या करो गे? उसामा सख्त नादिम थे, हुजुर से दुआ ए मगफिरत की दरख्वास्त
कर रहे थे लेकिन नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम बार बार इसी जुमले को दुहराते रहे
कि जब कयामत के दिन यह कलमा तुम्हारे सामने आएगा तो क्या जवाब दोगे? बुखारी और मुस्लिम की इन रिवायतों को
नकल करने और कई दूसरी हदीसों लाने के बाद ‘मसला ए तकफीर व मुतकल्लेमीन’ के लेखक ने लिखा है कि ‘जो काफिर कतई यकीनी और दुश्मन ए दीनी
हतमी हो, अगर वह ज़ाहिर में जान बचाने के लिए
भी कलमा तौहीद पढ़ ले तो उसके अलफ़ाज़ का एतेबार किया जाएगा और उसकी बातिनी कैफियत या
उसकी नियत के मामले को उसके और अल्लाह के हवाले छोड़ दिया जाएगा। हम शरई तौर पर इस बात
के मुकल्लफ हैं कि जो अपने आपको मुसलमान कहे हम भी उसको मुसलमान मानें। यह बहस किताब
का बारहवां बाब है। जी चाहता है कि ‘राहे एतिदाल’ के उन्वान से पेश कर्दा कोई २३ सफ्हात को मुहीत इस बहस को पूरी की पूरी यहाँ नक़ल
करूँ लेकिन काश! अखबार के इन कालमों इसकी गुंजाइश होती। यह मज़मून लेखक के इस जुमले
से शुरू होता ‘बुनियादी एतेबार से इस्लाम दीन ए तबलीग
है, दीने तकफीर नहीं।
बेशक तकफीर दुनिया के
दुसरे धर्मों की तरह इस्लाम में भी है, ऐसा नहीं है कि कोई
जुर्म या शरई गुनाह है बल्कि यह एक शरई ज़िम्मेदारी है लेकिन सवाल यह है कि यह जम्मेदारी
किस की है? क्या हर आलिम, मुफ्ती, फकीह, वाइज़ और शैख़ को यह हक़ हासिल है या केवल
रियासत ए इस्लाम का हक़ है? जिस तरह किसी को किसी मुल्क की शोहरत
से कोई हाकिम, हज, क़ाज़ी या सरबराह ए मुमलिकत बिना मुकदमा और सफाई का मौक़ा दिए महरूम नहीं कर सकता, इसी तरह किसी को खारिज अज इस्लाम करने
के लिए भी एक प्रोसेस है, इस्लाम और शरीअत ए इस्लाम ने उसूल व
कवाएद और शराएत व ज़वाबित तै किये है और तकफीर तो केवल शहरी और मज़हबी हुकुक की मनसूखी
का मामला नहीं, इसके नतीजे में तो इंसान अपनी जान की
हुरमत खो देता है, विरासत का हक़ मंसूख हो जाता है, निकाह ख़त्म हो जाता है, नमाज़ ए जनाज़ा और मुसलमानों के कब्रिस्तान
में दफन होने का हक़ तक खो देता है, उस पर लानत जायज हो
जाती है और उसे खुलूद फिन्नार का हकदार करार दे दिया जाता है, इतने सख्त अहकामात इस बात के मुतकाज़ी
हैं कि इस मामले में किस कदर एहतियात और तहकीक लाज़िम है। लेखक ने इस पर किताब की इब्तिदा
में ही विस्तृत प्रकाश डाली है कि गुलू फित्तक्फीर कोई नये ज़माने
का फितना नहीं है, इसका सिरा सहाबा के ज़माने से मिला हुआ
है, नया केवल यह कि आज मुसलमानों का इज्तिमाई
सीत्रह मफ्कूद है जिस के कारण इसकी तबाह कारियाँ बयान ना किये जाने के काबिल हद तक
बढ़ गई हैं। आज कोई ज़ुल्फ़िकार हैदरी नहीं है जो मौजूदा दौर के ख्वारिज की तकफीरी फितना सामानियों का दरवाज़ा बंद कर दे
जिस ने मुल्की और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इस्लामी भाईचारे के एहसास को मिटा दिया और
मुसलमानों को मुसलमानों के ही लहू का प्यासा बना दिया है और इसी का असर है कि करोड़ों
में होते हुए भी भारत जैसे देशों में मुसलमान अपना वज़न खो चुके हैं और दुनिया के नक़्शे
पर पचास से अधिक मुस्लिम रियासतें हैं लेकिन गैरों के दरयुज़ा गर और आला कार। डॉक्टर
जीशान अहमद मिस्बाही ने सच लिखा है कि यह तक्फीरियत का फितना है “जिसके प्रभाव में उम्मत की कल्पना मुजमहिल
हो गई है और मसलक से बाहर दीन की कल्पना कुफ्र सी लगने लगी है”।
इसमें किसी की कोई दो
राय नहीं हो सकती कि इस्मान की बुनियाद रिसालत की तस्दीक है। बिलकुल इसी तरह कुफ्र
की बुनियाद रिसालत को झुटलाना है, किसी मुजद्दिद, मुजतहिद, आलिम, फकीह, शैख़, वली पीर, सूफी और इमाम को मानना या ना मानना, यहाँ तक कि सहाबी को
मानना ना मानना ईमान ईमान की बहस से बाहर है, अमीरुल मोमिनीन हज़रत अली अल मुर्तजा ने
उनकी तकफीर करने वाले ख्वारिज की भी तकफीर नहीं की, उनसे जंग किया लेकिन उनको अपना बागी भाई कहा। शिर्क, इल्हाद, यहूदियत व ईसाईयत, दीन की जरूरतों का इनकार, कुरआन में तहरीफ़, दीन की अहानत और रसूलुल्लाह की गुस्ताखी
सब रिसालत को झुटलाने की ही भिन्न-भिन्न शक्लें हैं, जब तक रिसालत को झुटलाना सरज़द ना हो, ईमान रहे गा, कुफ्र ना होगा। सहाबा को गाली देना
एक कबीह फेल है लेकिन अगर किसी तावील की बिना पर हो तो उसकी तकफीर नहीं की जाएगी। उलेमा
की एक जमात सहाबा को गाली देने को कुफ्र कहती है लेकिन यह बात तहकीक से सहीह नहीं, अधिक से अधिक यह कुफ्र लुज़ुमी हो सकता
है, कुफ्र हकीकी नहीं। इसी तरह तकफीर कतई
और तकफीर ज़न्नी में फर्क है, तकफीर मुअय्यन और तकफीर गैर मुअय्यन
की शराएत भिन्न हैं, तकफीर कलामी के उसूल व कवाइद हैं। कुछ
सूरतों में कोई कॉल कुफ्र होगा लेकिन कायल काफिर ना होगा। लेखक ने बारीकियों पर जिस
खूबी से रौशनी डाली है, उसकी तारीफ़ ना करना ज़्यादती होगी। यह
ज़िक्र पहले आ चुका कि उन्होंने इन मुबाहिस पर बहस को आगे बढाने और मुआसिर रुझानात का
जायजा लेने के लिए गज्ज़ाली की किताब’ फैसलुल तफरका व ज़िन्दिका’ को रहनुमा बनाया है। जिसने यह फैसला कर दिया है कि हर काफिर रसूल को झुटलाने वाला
है और हर किज्बे रसूल काफिर है लेकिन एक सूरत और भी है कि कोई जुबान से तो तस्दीक करे
लेकिन उसका दिल काफिर हो। ऐसे लोगों के लिए कुरआन ने मुनाफिक की इस्तिलाह इस्तेमाल
की है और चाहे वह आख़िरत में वह जहन्नम के सबसे निचले तबके में होंगे। हमारे बीच बहुत
सारे लोग हैं जो जुबानी शहादत को अस्वीकार कर देते हैं। वह अपने दावे के सबूत में कुरआन
की उन आयतों को पेश करते हैं जिनमें कहा गया है कि उनका ईमान का दावा एतिबार के काबिल
नहीं है जबकि इस तरह की आयतों से ईमान की गवाही देने वालों को काफिर करार देना सहीह
दलीलों से गलत परिणाम निकालना है। अल्लाह गैब का जानने वाला और अश्हादा है, अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम
को भी यह हक़ था कि आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम वही के जरिये सदाकत का इल्म रखते थे।
काश! विभिन्न मस्ल्जों और मशरबों के लोग एक
दोसरे को काफिर व मुशरिक कहने से पहले ठहर कर सोच लेते कि वह क्या कर रहे हैं और क्यों
कर रहे हैं, उनको इसका मजाज़ व मुकल्लफ़ किस ने बनाया
कि लोगों के जन्नती और दोजखी होने का फैसला करें और दिल चीर कर देखने से पहले उनके
ईमान के दावे को अस्वीकार कर दें?
१३ दिसंबर २०२०, बशुक्रिया: इंक़लाब, नई दिल्ली
Part: 1 - Fitna, Takfiriyyah, Religions, Sects of Islam And Us: Part-1 तक्फीरियत का फितना, मज़ाहिबव मसालिक ए इस्लाम और हम
Part: 2- Tribulation Of Takfiriyyah, Religions, Sects Of Islam And We: Part-2 तक्फीरियत का फितना, इस्लाम के मज़ाहिब, मसालिक और हम
Part: 1- Fitna, Takfiriyyah, Religions, Sects of Islam And Us فتنۂ تکفیریت ، مذاہب و مسالک اسلام اور ہم
Part: 3-
Tribulation Of
Takfiriyyah, Religions, Sects Of Islam And We: Part-3 فتنۂ تکفیریت ، مذاہب و مسالک
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