अहमद जावेद
६ दिसंबर २०२०
अल्लामा कल्बे सादिक नकवी के जनाज़े में सुन्नियों की शिरकत
और उनके लिए मगफिरत की दुआ पर देवबंद के एक आलिम के अनुचित और अवांछनीय प्रतिक्रिया
के संबंध से लोगों के कुफ्र व इस्लाम का निर्णय करने वालों से डॉक्टर जीशान अहमद मिस्बाही
की किताब ‘मसला तकफीर व मुतकल्लेमीन’ पढ़ने की गुजारिश किया कि हफ्ते भर से मुझ पर समबन्धित विषयों पर तरह तरह की किताबों
और फतवों की यलगार है। कोई अबू साद एह्सानुल्लाह शहबाज़ की ‘तकफीर: असबाब, अलामात और हुक्म’ भेज रहा है, कोई अल्लामा यूसुफ अल
कर्ज़ावी का रिसाला ‘जाहिरतुल गुलू फिल तकफीर
(तकफीर में गुलू का ज़ुहूर) मेल कर रहा है, किसी ने शिया लेखकों की धार्मिक पुस्तकों के पन्नों के पन्ने भेजने का ऐसा सिलसिला
शुर किया है जो टूटने का नाम नहीं लेता, किसी को बनू हाशिम, बनू उमय्या और बनू अब्बास की तारीख और उसकी बारीकियों से मुझे आगाह करने का दौरा
पड़ा हुआ है और किसी ने देवबंद और बरेली के दारुल इफ्ता के फतावे की कापियां किताबों
से निकाल निकाल कर भेजने में जान खपा रखी है। एक कासमी मौलवी ने फतावा रिजविया जिल्द
९ से इमाम अहमद रज़ा खां कादरी बरेलवी का एक फतवा भेजा है जिस पर जनाब ने ‘शियों की जनाज़ा फतावा रिजविया के मुताबिक़’ का शीर्षक लगाया है। शुक्र है कि इसमें
बहुत अधिक संख्या उन लोगों की है जिन्होंने मेरी गुजारिशात पर पसंदीदगी का इज़हार
किया है और उनमें शिया सुन्नी, देवबंदी बरेलवी, सूफी सलफी हर मसलक व मशरब के नौजवान और उलेमा भी शामिल हैं। इंटरनेट और सोशल मीडिया
ने लोगों को ऐसी पहुँच उपलब्ध करा दी है कि जिसको देखिये वही अपने लाव लश्कर और टॉप
व तफंग के साथ आपकी तनहाई में घुसा चला अता है। मैं अपनी काहिली और उस पर जिम्मेदारी
की व्यस्तता के कारण इस दुनिया का अपेक्षाकृत बहुत कम सक्रीय व्यक्ति हूँ और इस पर
शर्मिंदा भी था लेकिन एहसास हुआ कि मेरे भी समाजी रवाबित बहुत विस्तृत होते और जीतने
हैं वहाँ भी खातिर ख्वाह सक्रीय होता तो बहुत सारे दुसरे लोगों की तरह कई संवेदनशील
मामलों में पहले कन्फ्यूज़, फिर बेराह हो गया होता।
अल्लाह तेरा शुक्र है कि उन दोस्तों से तूने इस हकीर को बचा लिया जिनकी मेहरबानियों
ने अच्छे खासे मुसलमानों को दीन से उसी तरह वापस और दूर कर दिया जिस तरह अकबर की इबादतगाह
के उलेमा ए दीन की मेहरबानियों ने उस दीनदार बादशाह को बेदीन कर दिया था।
एक होता है इल्म और एक इदराक। इदराकात संगठित हो जाएं
तो इल्म बनता है। बिलकुल संभव है कि आप की जानकारी बहुत हों, आप ने रोटियाँ कम खाई और किताबें अधिक पढ़ीं हों लेकिन इसके बावजूद आप आलिम ना हों।
बादशाह जहांगीर ने अपने अमीर नवाब मुर्तजा फरीदी बुखारी से इस चाहत का इज़हार किया कि
“ चार दीन दार उलेमा की एक जमात हर समय दरबार में उसके साथ
रहे जो उसे दीन के मसाइल से आगाह करती रही “तो इमाम रब्बानी मुजद्दिद अल्फ सानी शैख़ अहमद फारुकी सरहिन्दी ने उनको लिखा कि
“चार उलेमा की बजाए केवल एक ‘आख़िरत का आलिम’ को तलाश करो जो बादशाह
की दिनी इस्लाह और तरवीज ए शरीअत का फ़रीज़ा अंजाम दे”। मैं समझता हूँ कि तकफीर के मसले के विषय पर किताब लिख कर डॉक्टर जीशान ने केवल
जानकारी उपलब्ध नहीं किया है, अपने मुखातिबों को उन्होंने
इस मसले का इल्म देने और ‘ आलम ए आख़िरत’ का फरीज़ा अंजाम देने की कोशिश की है और अपनी इस कोशिश में वह सफल हैं। मेरे हमदर्दों
और खैरख्वाहों ने इस विषय पर जो जो किताबें, रसाइल और फतावा मुझे भेजे हैं और मसला के जिन जिन पहलुओं पर ध्यान दिलाई है, यह किताब उन सब का एहाता करती है। किताब का इन्तिसाब इमाम अबू हामिद मोहम्मद बिन
मोहम्मद गज्ज़ाली के नाम है जिनके अफकार को लेखक इफ्तेराक बैनुल मुस्लिमीन के मुआसिर
ज़हर का त्रियाक मानते हैं। यहाँ यह घटना उल्लेखनीय है कि इमाम गज्ज़ाली की मशहूर किताब
‘ अहया उल उलूम’ सामने आई तो उनके खिलाफ उलेमा ए अहले सुन्नत व जमात के एक बड़े वर्ग में बेचैनी
फ़ैल गई क्योंकि कुछ जगहों पर इसमें अशअरियों से भिन्न विचार पाए जाते थे, अशअरी फुकहा में सख्त नाराज़गी थी, यहाँ तक कि उनकी तकफीर
व तजलील की सदाएं बुलंद होने लगीं। यह सब सुन सुन कर उनके एक दोस्त का दिल दुखता था।
उसने उनको इन घटनाओं की सुचना दी और इमाम गज्ज़ाली ने इसका जवाब दिया। वही जवाब उनकी
मशहूर लेखनी ‘ अल तफरका बैनुल इस्लाम
वल ज़िन्दिका’ के नाम से मशहूर है।
कि “ऐ ईमान वालों! जब तुम अल्लाह की राह में जिहाद पर निकलो
तो सहीह से तहकीक कर लो और जो तुम्हें सलाम करे उससे यह ना कहो कि तुम मोमिन नहीं हो, अलख (निसा: ९४) । अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने मुजाहेदीन का एक दस्ता
भेजा था, जिसका सामना एक शख्स से हुआ तो उसने उनसे कहा अस्सलामुलैकुम।
फिर एक सहाबी उसे कत्ल करने के लिए बढ़ा तो उसने कहा कि मैं मोमिन हूँ। सहाबी ने कहा
कि तुम झूट बोलते हो। तुम बस जान बचाना चाहते हो। यह कह कर सहाबी ने उसको कत्ल कर दिया।
इसके बाद अल्लाह ने यह आयत नाज़िल फरमाई। किताब का अगला पन्ना ‘सरनामा’ और ‘अक्स ए सरनामा’ है जिसके तहत मौलाना
जामी के एतेकाद नामे के बख्श २२ से दस अशआर और उनका तर्जुमा शामिल है जिस का शीर्षक
‘ इशारत बह अंकी तकफीर अहले किबला जाईज़ नेस्त’ है, जिसका खुलासा यह है कि जिसको भी तुम अहले किबला और अल्लाह
के नबी का मानने वाला जानते हो, गर चह इल्म व अमल की
रु से इसके अन्दर सैंकड़ों बिदअतें, खताएं और कमी व खलल पाओ, फिर भी इसकी तकफीर मत करो, ना उसे जहन्नुमी समझो
और इसी तरह जिसे तुम सुबह शाम मुत्तकी व दीनदार पाओ, फ़राइज़ व नवाफिल का पाबंद देखो, फिर भी उसे कतई व यकीनी
जन्नती मत समझो, सिवाए उनके जिनको अल्लाह
के पैगम्बर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने जन्नत की बशारत दी है। पेश बंदी का एक सफहा
और भी है जिस पर ‘अलमिये’ के तहत यह तीन जुमले दर्ज हैं: “तकफीर का मसला एक तहकीकी
मसला है, अफ़सोस कि इसे तक्लीदी और जबरी मसला बना दिया गया। इफ़रात
यह है कि बात बात पर तकफीर के गोले दागे जाएं और तफरीत यह है कि तकफीर को खुद एक जुर्म
समझ लिया जाए। तकफीर पसंद अनासिर अपने विरोधियों की मामूली बातों पर तकफीर कर गुज़रते
हैं और अपने मुहिब्बीन की बड़ी बड़ी बातों की तावील तलाश कर लाते हैं”।
अंदाजा लगाया जा सकता है कि लेखक का दृष्टिकोण और बयान
करने का तरीका और तहकीक क्या है। किताब एक संक्षिप्त पेश लफ्ज़ और दो तकरीज़ (प्रोफ़ेसर
सैयद शमीमुद्दीन अहमद मुनअमी और डॉक्टर वारिस मजहरी) के अलावा १३/ अबवाब पर मुश्तमिल
है। पहला बाब पृष्ठभूमि है जिसके तहत तकफीरियत का फितना, तकफीर में गुलू के अंदाज़, पहला फितना तकफीर, खारजियत के जदीद प्रभाव, गुलू फी तकफीर के नुकसान, तकफीर के दो बड़े असबाब, गैर तकफीरी जुर्म, काफिर या गैर मुस्लिम को बहस का विषय बनाया गया है। अगले अबवाब ईमान की हकीकत, कुफ्र की हकीकत, तकफीर की हकीकत, तावील का कानून, तकफीर के अहकाम, नुसुस ए तकफीर मुतल्लेकात ए तफ़सीर, तकफीर ए मसालिक, तकफीर ए मशाहिर, राहे एतिदाल और खुलासा
ए बहस। तकफीर ए मसालिक में शिया, ख्वारिज, कदरिया, मोतज़ेला और वहाबिया की
तकफीर पर लगभग साथ पन्नों में विस्तृत बहस की गई है, उसी तरह तकफीर ए मशाहीर के तहत दस मशाहीर को विषय बनाया गया है जिन में जनाब अबू
तालिब, इब्ने अरबी, फिरऔन, यजीद, बायजीद बुस्तामी, इब्ने मंसूर हल्लाज, हकीम तिरमिज़ी और इस्माइल
देहलवी शामिल है जिनकी तकफीर भिन्न है, इस बाब के आखरी हिस्से
में वह विषय बनाए गए हैं जिनकी तकफीर पर मुसलमानों का इत्तेफाक है। शिया की तकफीर के
बाब में यह किताब शिया फिरकों की तफसीलात और अकीदे पेश करने और उनके अलग अलग गिरोहों
के अकीदे के ताल्लुक से एक मारुज़ी तहकीक की जरुरत पर ज़ोर देने के बाद पूरी गंभीरता
से यह प्रश्न उठाती है कि क्या कुछ शिया के अकीदे तहरीफ़ ए कुरआन या अकीदा ए उलुहियत
ए अली का हवाला दे कर उनकी उमूमी और कुल्ली तकफीर दुरुस्त है, विशेषतः उसे स्थिति में कि वह जब उन कुफ्रियात से सरे आम इज़हार ए बराअत कर रहे
हों? (जारी)
६ दिसंबर २०२०, बशुक्रिया: इंकलाब, नई दिल्ली
Part: 1- Fitna,
Takfiriyyah, Religions, Sects of Islam And Us فتنۂ تکفیریت ، مذاہب و مسالک اسلام اور ہم
Part: 2- Tribulation Of
Takfiriyyah, Religions, Sects Of Islam And We: Part-2 فتنۂ تکفیریت ، مذاہب و مسالک اسلام اور ہم
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