अरशद आलम, न्यू एज इस्लाम
30 नवंबर, 2021
यह दिलचस्प बात है कि शुरुआती मुसलमानों ने कुरआन को एक किताब
रुप में मुरत्तब (संकलित) करने का इरादा क्यों नहीं किया?
प्रमुख बिंदु:
1. मुसलमानों का मानना है कि कुरआन खुदा का कलाम है इसलिए
इसे कभी बदला नहीं जा सकता
2. इस्लामी रिवायतों में ही लिखा है कि कुछ आयतें जैसे पत्थरबाजी
(रज्म) की आयतें क़ुरआन में बिल्कुल भी नहीं थीं।
3. प्रारंभिक इस्लामी इतिहास में कुरआन को संरक्षित और संकलित
(मुरत्तब) करने के लिए कोई व्यवस्थित प्रयास नहीं है
4. क्या शुरुआती मोमिनों की नजर में कुरआन वास्तव में इतना महत्वपूर्ण
था?
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कुरआन सभी धार्मिक पुस्तकों में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। जबकि यहूदी और ईसाई धर्म अपने पवित्र सहीफों को खुदाई वही मानते हैं, मुसलमानों का मानना है कि कुरआन खुदा का कलाम है। उनका यह भी मानना है कि सदियों से इस सहीफे का एक भी लफ्ज़ बदला या विकृत नहीं किया गया है। उनका तर्क है कि खुदा का वादा है कि मैं अपनी किताब की रक्षा खुद करूंगा, इसलिए कुरआन के मतन में कोई भी बदलाव असंभव है।
इस वजह से, और 'इतिहास' पर अपनी अंधी तकलीद के कारण आज बहुत सारे मुसलमान दो अलग-अलग दुनिया में रहते हैं। कुरआन की अफसानो की दुनिया में, मुसलमानों का मानना है कि पृथ्वी चपटी है और सूर्य, तारे और ग्रह पृथ्वी के चारों ओर घूमते हैं, जबकि स्कूलों में उन्हें बहुत अलग तरीके से पढ़ाया जाता है। इसी तरह, वह रचनात्मकता में विश्वास करते हैं जबकि उनके विज्ञान के क्लास में विकासवाद का सिद्धांत पढ़ाया जाता है।
ऐसे मुसलमान भी हैं जो यह साबित करने के लिए बहुत प्रयास करेंगे कि कुरआन के हर दावे को विज्ञान का समर्थन प्राप्त है। लेकिन अधिकांश मुसलमान इन दो अलग-अलग दुनिया में रहते हैं, और दोनों के बीच अंतर्विरोध को सुलझाने में असमर्थ हैं। चूंकि वे मानते हैं कि कुरआन खुदा का कलाम है, वे उस कलाम के किसी भी दावे पर सवाल नहीं उठा सकते क्योंकि ऐसा करने के लिए उन्हें अपनी धार्मिक मान्यताओं से समझौता करना होगा जिसके लिए हर मुसलमान तैयार नहीं है। इस तरह के विरोधाभासी दृष्टिकोण का मतलब केवल यह हो सकता है कि जब उन मामलों की बात आती है जिनमें कुरआन के कुछ सिद्धांतों पर सवाल उठाना जरूरी हो जाए तो, यहां तक कि अच्छे जहन के लोग भी अपने प्राकृतिक ज्ञान बुद्धिमत्ता को छोड़ देंगे। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि मुस्लिम देश वैज्ञानिक अनुसंधान में पीछे हैं।
इस संबंध में चर्चाओं में अक्सर तर्क दिया जाता है कि कुरआन को भाषा, वैज्ञानिक दावों और ऐतिहासिक दावों के संदर्भ में एक असाधारण कलाम नहीं कहा जा सकता है। लेकिन और भी बुनियादी स्तर पर, अगर हम केवल कुरआन के तद्वीन (संकलन) की कहानी को देखें, तो यह विश्वास करना मुश्किल लगता है कि यह कलाम मानवीय हस्तक्षेप से मुक्त है। यह तर्क सिर्फ एक कच्चा विचार है कि जो वही पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के दिल में नाज़िल हुआ था, उसे ही आज कुरआन कहा जाता है।
लेकिन सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह है कि खुद पैगंबर ने कुरआन के तद्वीन (संकलन) को इतना महत्व क्यों नहीं दिया। मुसलमानों का मानना है कि जब भी कोई वही नाज़िल हुआ, तो पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के आसपास कातिब होते थे जो इसे लिख लेते थे। हम कुछ रिवायतों से यह भी जानते हैं कि कभी-कभी पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने जानवरों की खाल और हड्डियों पर लिखे गए इबारतों को स्वयं ठीक किया था। लेकिन पवित्र पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने कभी भी एक किताब में वही को संकलित करने की आवश्यकता महसूस नहीं की। मुसलमानों के अनुसार, मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम अंतिम पैगंबर हैं और उन्हें केवल मुसलमानों के लिए नहीं, बल्कि सभी मानव जाति के लिए एक मार्गदर्शक के रूप में भेजा गया था। उसी तरह क़ुरआन को अबदी मार्गदर्शन की किताब माना जाता है, जो क़यामत के दिन तक सच्चाई का रास्ता रोशन करती रहेगी। इसलिए, यह बात काफी दिलचस्प है कि इस्लाम के प्रचार में कुरआन की केंद्रीयता के बावजूद, इसे पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के जीवन में कभी मुरत्तब (संकलित) नहीं किया गया था।
कुरआन जैसे महत्वपूर्ण कलाम को बहुत सावधानी से लिखना चाहिए था। बल्कि, रिवायत में जो हम पाते हैं वह यह है कि इसे घुड़ सवारी के अंदाज में संभाला गया था। नहीं तो यह समझ में नहीं आता कि यह जानवरों की हड्डियों और पत्तियों पर क्यों लिखा गया था, जिनमें से कुछ को शायद जानवरों ने खा लिया हो। यदि कुरआन वास्तव में खुदा का कलाम था, तो पैगंबर का सबसे महत्वपूर्ण मिशन इसे अगली पीढ़ी तक सुरक्षित रूप से पहुंचाना होना चाहिए था। वह हज्जत-उल-विदा जैसी किसी भी सभा में ऐसा कर सकते थे। लेकिन इस्लामी रिवायतों में ऐसी कोई बात नहीं है, और न ही पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने इसका कोई संदर्भ दिया है।
कुछ सुन्नी रिवायतों के अनुसार, कुरआन को पहले खलीफा हजरत अबू बक्र रज़ीअल्लाहु अन्हु के समय में मुरत्तब (संकलित) किया गया था, जबकि कुछ रिवायतों के अनुसार, इसे तीसरे खलीफा हजरत उस्मान गनी रज़ीअल्लाहु अन्हु के समय में संकलित किया गया था। शियाओं का मानना है कि अली रज़ीअल्लाहु अन्हु के पास कुरआन की एक पूरी प्रति थी जिसे उन्होंने पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की मृत्यु के छह महीने के भीतर मुरत्तब (संकलित) किया था। ऐसा क्यों है कि मुसलमानों के बीच इस बात पर कोई सहमति नहीं है कि उनकी सबसे महत्वपूर्ण पुस्तक कब संकलित की गई थी, विशेष रूप से इस तथ्य को देखते हुए कि हर कोई इस बात से सहमत है कि कुरआन के बिना इस्लाम असंभव है? क्या इससे हमें इस्लाम के शुरुआती दिनों में इस किताब के महत्व का कोई अंदाजा होता है?
कुरआन चाहे अबू बक्र रज़ीअल्लाहु अन्हु या उस्मान रज़ीअल्लाहु अन्हु या अली रज़ीअल्लाहु अन्हु द्वारा संकलित किया गया था, हमारे पास इन खलीफाओं से मंसूब कुरआन की कोई प्रति क्यों नहीं है? आखिरकार, इस्लाम, जैसा कि वे दावा करते हैं, इतिहास के पूर्ण प्रकाश में सामने आया। हम सभ्यता के आरंभ के किसी सहीफे की बात नहीं कर रहे हैं, बल्कि सातवीं शताब्दी में अस्तित्व में आए किसी सहीफे की बात कर रहे हैं। क्या हमें यह मान लेना चाहिए कि प्रारंभिक मुसलमानों के लिए कुरआन का कोई विशेष महत्व नहीं था? यदि नहीं, तो हम इस तथ्य को कैसे समझें कि मुसलमानों के पास शुरुआती सहीफे की कोई प्रति सुरक्षित नहीं है? विभिन्न संग्रहालयों में हम जो बिखरे पड़े देखते हैं वह केवल कुछ टुकड़े हैं और वह भी बाद के काल से।
इस्लामी रिवायत हमें यह भी बताती है कि जब उस्मान गनी रज़ीअल्लाहु अन्हु ने कुरआन को मुरत्तब (संकलित) किया, तो उन्होंने पूरे राज्य में बिखरे हुए सभी मौजूदा नुस्खों को जलाने और नष्ट करने का आदेश दिया। ऐसा करने की क्या जरूरत थी? कुछ जगहों पर विद्रोह हुए क्योंकि उनके नियम आधिकारिक कुरआन का हिस्सा नहीं बने। शिया अभी भी शिकायत करते हैं कि अली के कुरआन की अनदेखी की गई। अगर मुसलमान मानते हैं कि कुरआन का सही नुस्खा केवल उस्मान रज़ीअल्लाहु अन्हु के पास था, तो उन शुरुआती मुसलमानों का क्या होगा जिन्होंने इस तदवीन के खिलाफ विद्रोह किया था? क्या यह जानने का कोई तरीका है कि उस्मान रज़ीअल्लाहु अन्हु के तदवीन में एक भी आयत गायब नहीं है जिसे पहले से ही कुरआन का हिस्सा माना जाता था? हरगिज नहीं। हम जानते हैं कि रज्म की आयत इस कुरआन का हिस्सा नहीं बनी। क्या इसका मतलब यह है कि उस्मान रज़ीअल्लाहु अन्हु द्वारा तदव्विन (संपादित) कुरआन पर आम सहमति धर्म के बजाय राजनीति का विषय थी?
कौम के भीतर विभाजन को कम करने के लिए एक आधिकारिक कुरआन पर सहमत होना मुसलमानों की बुद्धमत्ता थी। लेकिन यह उनके इस दावे का भी खंडन करता है कि कुरआन खुदा का कलाम है जो मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के दिल में नाज़िल हुआ था।
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English Article: The Myth of Quranic Preservation
Urdu Article: The Myth of Quranic Preservation حفاظت قرآن کا افسانہ
Malayalam Article: The Myth of Quranic Preservation ഖുർആനിക
സംരക്ഷണത്തിന്റെ മിത്ത്
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