बदरुद्दूजा रज़वी मिस्बाही, न्यू एज इस्लाम
भाग-6
१७ अप्रैल २०२१
(5) یٰۤاَیُّهَا الَّذِیْنَ اٰمَنُوْا لَا تَتَّخِذُوْۤا
اٰبَآءَكُمْ وَ اِخْوَانَكُمْ اَوْلِیَآءَ اِنِ اسْتَحَبُّوا الْكُفْرَ عَلَى الْاِیْمَانِؕ-وَ
مَنْ یَّتَوَلَّهُمْ مِّنْكُمْ فَاُولٰٓىٕكَ هُمُ الظّٰلِمُوْنَ( التوبہ ۲۳)
अनुवाद: “ऐ ईमान वालों अगर तुम्हारे माँ बाप और तुम्हारे (बहन) भाई ईमान के मुक़ाबले कुफ़्र को तरजीह देते हो तो तुम उनको (अपना) ख़ैर ख्वाह (हमदर्द) न समझो और तुममें जो शख़्स उनसे उलफ़त रखेगा तो यही लोग ज़ालिम है”।
(6) یٰۤاَیُّهَا الَّذِیْنَ اٰمَنُوْا لَا تَتَّخِذُوا
الْیَهُوْدَ وَ النَّصٰرٰۤى اَوْلِیَآءَ ﳕ بَعْضُهُمْ اَوْلِیَآءُ بَعْضٍؕ-وَ مَنْ یَّتَوَلَّهُمْ مِّنْكُمْ فَاِنَّهٗ
مِنْهُمْؕ-اِنَّ اللّٰهَ لَا یَهْدِی الْقَوْمَ الظّٰلِمِیْنَ( المائدہ ۵۱)
अनुवाद: “ऐ ईमान वालों यहूदियों और नसरानियों
को अपना सरपरस्त न बनाओ (क्योंकि) ये लोग (तुम्हारे मुख़ालिफ़ हैं मगर) बाहम एक दूसरे
के दोस्त हैं और (याद रहे कि) तुममें से जिसने उनको अपना सरपरस्त बनाया पस फिर वह भी
उन्हीं लोगों में से हो गया बेशक ख़ुदा ज़ालिम लोगों को राहे रास्त पर नहीं लाता”
(7) یٰۤاَیُّهَا الَّذِیْنَ اٰمَنُوْا لَا تَتَّخِذُوا
الَّذِیْنَ اتَّخَذُوْا دِیْنَكُمْ هُزُوًا وَّ لَعِبًا مِّنَ الَّذِیْنَ اُوْتُوا
الْكِتٰبَ مِنْ قَبْلِكُمْ وَ الْكُفَّارَ اَوْلِیَآءَۚ-وَ اتَّقُوا اللّٰهَ اِنْ كُنْتُمْ
مُّؤْمِنِیْنَ (المائدہ ۵۷)
अनुवाद: “ऐ ईमानदारों जिन लोगों (यहूद व नसारा) को तुम से पहले किताबे (ख़ुदा तौरेत, इन्जील) दी जा चुकी है उनमें से जिन लोगों ने तुम्हारे दीन को हॅसी खेल बना रखा है उनको और कुफ्फ़ार को अपना सरपरस्त न बनाओ और अगर तुम सच्चे ईमानदार हो तो ख़ुदा ही से डरते रहो”
इन आयतों को भी वसीम रिज़वी ने अपनी अर्जी में यह नोट लगा कर
पेश किया है कि यह आयतें देश में नफरत और हिंसा को हवा देती हैं (अल इयाज़ बिल्लाह)
इन आयतों में चूँकि मनही अन्हु (यानी जिस काम से रोका गया है) साझा है इसलिए हमने इस क़िस्त में एक साथ उन तीनों आयतों
को शामिल कर लिया है ताकि जवाब का बार बार इआदा करना न पड़े इन आयतों में अल्लाह पाक ने अहले ईमान को यहूद
व नसारा, कुफ्फार व मुशरेकीन
और मुर्तदीन से मुवालात से मना फरमाया है
और उनसे दोस्ती रखने वालों पर अपनी सख्त नाराजगी और बरहमी का भी इज़हार किया है लेकिन
इस पर रौशनी डालने से पहले हम इस्लाम दुश्मन तत्वों पर यह स्पष्ट करना चाहते हैं कि
इस्लाम दीने फितरत है यह इंसानों की ज़िन्दगी से खिलवाड़ करने के लिए नहीं आया बल्कि
इंसानी ज़िन्दगी को बनाने, संवारने और उसे तरक्कियात से हमकिनार करके कमाल के दर्जे पर
फायज करने के लिए वजूद में आया है इसलिए यहाँ पर वसीम रिज़वी और इस्लाम दुश्मन तत्वों
को यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि इन आयतों में यहूद व नसारा, कुफ्फार व मुशरेकीन
और मुर्तदीन से मुवालात करने से मना किया गया है लेकिन उनसे मुआमलात अर्थात खरीद व बिक्री, लेन देन, उठने बैठने, मिल जुल कर ज़िन्दगी
बसर करने और दुसरे दुनयावी मामलों से मना नहीं किया गया है इसलिए कुरआन पर नफरत और
हिंसा को हवा देने का आरोप लगाने वाले यह बात अच्छी तरह समझ लें कि मुवालात (कलबी दोस्ती) और मुआमलात दो अलग अलग चीजें हैं दोनों में से कोई भी किसी
के लिए लाजिम और मलज़ूम नहीं हैं ऐसा हो सकता है कि किसी से ज़िन्दगी भर आपके मुआमलात
हों, लेन देन हो, उठना बैठना हो मगर
इससे बराए नाम भी आपकी दोस्ती और संबंध खातिर ना हो उसी तरह यह भी हो सकता है कि किसी
से आपकी दोस्ती हो, मोहब्बत हो, दिली वारफत्गी और लगाव हो लेकिन ज़िनदगी भर आपका उससे कोई भी
लेन देन, मूदारात और मुआशरत ना
हो इससे यह स्पष्ट हो गया कि दोस्ती के लिए मुआमलात अनिवार्य नहीं हैं और ना ही मुआमलात के लिए मुवालात और दोस्ती लाज़िम है। मुवालात और दोस्ती अलग चीज है और मुआमलात और मुआशरत अलग
चीज है। अल्लाह पाक ने इन आयतों में यहूद व नसारा, कुफ्फार व मुशरेकीन और मुर्तदीन के साथ मुवालात से मना फरमाया है उनके साथ मुआमलात रखने और मुआशरत
से मना नहीं किया है और मुवालात (कलबी दोस्ती) से
मना करने की वजह यह है कि कहीं ऐसा ना हो कि जरूरत से ज़्यादा संबंध रखने, उनको दिल में बिठाने
या उनके दिल में बैठ जाने से मुसलमान अपना दीन व ईमान ही गंवा बैठें और उनकी मोहब्बत
में गिरफ्तार हो कर अपना कौमी और मिल्ली राज़ ही उनको दे बैठें और इस्लाम से फिर जाएं
जैसा कि वसीम रिज़वी आज इसकी जिंदा मिसाल है। यह उनसे मुवालात और दिली लगाव का ही करिश्मा है कि उसने अल्लाह व रसूल के खिलाफ
बगावत कर दिया है और खुलेफा ए सलासा
पर आरोप लगा रहा है और अपने दीन व ईमान से मुर्तद हो कर यहूद व नसारा की गोद में बैठ
कर उनकी जुबान बोल रहा है।
दुनिया को यह अच्छी तरह जान लेना चाहिए कि इस्लाम कौमी यक्जेहती को बढ़ावा देने, बिरादराने वतन के साथ जरुरत के मुताबिक़ उठने बैठने, मिल जुल कर ज़िन्दगी बसर करने और उनके साथ कारोबार तिजारत करने और कराने या उनके साथ मिल कर समाज की बेहतरी का कोई काम करने का विरोधी नहीं है बल्कि उनके साथ मुवालात (दोस्ती) से मना किया है और यह केवल इस्लाम ही नहीं बल्कि खुद हमारे और दुसरे देशों का संविधान भी इसका दाई है कि किसी के साथ इस हद तक दोस्ती ना की जाए कि अपना कौमी और मुल्की राज़ उन पर ज़ाहिर कर दिया जाए उनके साथ संबंध बनाने में इस हद तक आगे ना जाया जाए कि अपनी फौजी, अस्करी और दूसरी राजदाराना सरगर्मियां उन पर ज़ाहिर कर के देश की सुरक्षा को ही दाँव पर लगा दिया जाए और शहरियों की ज़िन्दगी के साथ खिलवाड़ किया जाए और अगर कोई इसका मुर्तकिब होता है तो उस पर देश से गद्दारी की धाराएं लगा कर मुकदमा चलाया जाता है और उसे फांसी पर चढ़ा दिया जाता है ताकि औरों के लिए यह इबरत का सामान और नसीहत हो।
हमने पहले जो कुछ ब्यान किया है अब हम उस पर कुछ सबुत पेश करते हैं: जब सुरह मुमतहेना की प्रारम्भिक आयतें नाजिल हुईं जैसे یاَیُّهَا الَّذِیْنَ اٰمَنُوْا لَا تَتَّخِذُوْا عَدُوِّیْ وَ عَدُوَّكُمْ اَوْلِیَآءَ (الممتحنہ 1) ऐ ईमान वालों! मेरे और अपने दुश्मनों को दोस्त ना बनाओ (कन्जुल ईमान) तो अहले ईमान ने अपने अहले कुराबत से अदावत रखने में हिंसा से काम लिया और इस मामले में उनसे बहुत सख्त हो गए तो अल्लाह पाक ने यह आयत नाजिल फरमाई (खजाइनुल इरफ़ान) لا یَنْهٰىكُمُ اللّٰهُ عَنِ الَّذِیْنَ لَمْ یُقَاتِلُوْكُمْ فِی الدِّیْنِ وَ لَمْ یُخْرِجُوْكُمْ مِّنْ دِیَارِكُمْ اَنْ تَبَرُّوْهُمْ وَ تُقْسِطُوْۤا اِلَیْهِمْؕ اِنَّ اللّٰهَ یُحِبُّ الْمُقْسِطِیْنَ( الممتحنۃ ۸) अल्लाह तुम्हें उनसे मना नहीं करता जो तुमसे दीन में ना लड़े और तुम्हें तुम्हारे घरों से ना निकाला कि उनके साथ एहसान करो और उनसे इन्साफ का बर्ताव तो बेशक इन्साफ वाले अल्लाह के महबूब हैं (कन्जुल ईमान)
इस आयत की तफसीर के तहत साहबे तफसीर अबी सउद फरमाते हैं: ای لا ینھاکم عن البر بھولاء فان قولہ تعالی (ان تبروھم) بدل من الموصول (و تقسطوا الیھم) ای تفضوا الیھم بالقسط ای العدل (ان اللہ یحب المقسطین) ای العادلین۔ (تفسیر ابی سعود ج 8 ص 238)
जिसका हासिल यह है कि जिन लोगों ने तुम्हारे साथ ज़ुल्म व ज्यादती नहीं किया है और तुम्हें तुम्हारे घरों से दरबदर नहीं किया है अल्लाह तुम्हें उनके साथ भलाई, हुस्ने सुलूक और न्यायप्रिय बर्ताव से मना नहीं करता है।
इसी तरह इस आयत की तफसीर में साहबे मदारीक फरमाते हैं: تکرموھم و تحسنوا الیھم قولا و فعلا" (مدارک، الجزء الثالث ص 248 مطبع جاملی محلہ ممبئی نمبر 3)
इसका भी यही मतलब है कि जिन लोगों ने तुम पर ज्यादती नहीं कि है तुम उनकी इज्ज़त करो और उनके साथ कौलन (बात मे) और फेअलन (यानी काम मे) भलाई और एहसान करो फिर इसके बाद फर्क बयान करते हुए अल्लाह पाक ने फरमाया: نَّمَا یَنْهٰىكُمُ اللّٰهُ عَنِ الَّذِیْنَ قٰتَلُوْكُمْ فِی الدِّیْنِ وَ اَخْرَجُوْكُمْ مِّنْ دِیَارِكُمْ وَ ظٰهَرُوْا عَلٰۤى اِخْرَاجِكُمْ اَنْ تَوَلَّوْهُمْۚ-وَ مَنْ یَّتَوَلَّهُمْ فَاُولٰٓىٕكَ هُمُ الظّٰلِمُوْنَ(ایضا ۹) अल्लाह तुम्हें उनसे मना करता है जो तुमसे दीन में लड़े या तुम्हें तुम्हारे घरों से निकाला या तुम्हारे निकालने पर मदद की कि उनसे दोस्ती करो और जो उनसे दोस्ती करे तो वही सितमगार हैं (कन्जुल ईमान)
अब हम फतावा रिजविया शरीफ से कुछ हवाले नकल करते हैं कि सैय्यदी इमाम अहमद रज़ा कुद्दसिर्रुहू की तहकीक हमारे लिए आखरी हर्फ़ का दर्जा रखती है
इमाम अहले सुन्नत सय्यदी आला हजरत इमाम अहमद रज़ा कुद्दासिर्रुहू मुमतहेना की आयतों में बर व मुआमलात से क्या मुराद है? इसकी वजाहत करते हुए फरमाते हैं: इस तहकीक से रौशन हुआ कि “کریمہ لا ینھاکم” में बिर (भलाई) से केवल औसत मुराद है कि आला (मवालात की किस्म आला, रुकून, वदाद, इत्तेहाद, तब्तील) मुआहिद से भी हराम और अदना (मवालात की किस्म अदना मसलन मुआमलात, मूदारात) गैर मुआहीद से भी जायज़ और आयतें फर्क के लिए उतरी है। और ये भी ज़ाहिर हुआ कि “کریمہ انما ینھاکم” में “لا تولوھم” से यही बीर और सिला (यानी भलाई और अच्छा सिला) मुराद है ताकि दोनों मे फर्क ज़ाहिर हो। लाजुर्म तफसीरे मुआलिम और तफसीरे कबीर में है: ثم ذکر الذین ینھاھم عن صلتھم فقال انما ینھاکم اللہ الآیہ फिर अल्लाह पाक ने उन लोगों का ब्यान फरमाया जिनसे नेक सुलूक की मुमानिअत है कि फरमाया अल्लाह तुम्हें उनसे मना करता है जो तुमसे दीन में लड़ें (फतावा रिजविया शरीफ जिल्द १४ पृष्ठ ४६९ मतबा मरकज़ अहले सुन्नत बरकात रजा पोर बंदर गुजरात)
फिर इमाम अहमद रजा एक दुसरे मुकाम पर मौलाना सैयद सुलेमान अशरफ बिहारी प्रोफेसर दीनियात मुस्लिम यूनिवर्सिटी अलीगढ़ के एक सवाल के जवाब में मुवालात की हकीकी अक्साम और उनका हुक्म ब्यान करते हुए फरमाते हैं: और मुआशरत बजरुरत व मजबूरी जायज वरना हराम और जवाजे मूदारात के लिए जरूरत और मजबूरी दरकार नहीं मसलेहत ही काफी है यह अक्साम मुवालात में उन सब से खारिजा मामला है यह हर काफिर से हर वक्त जायज़ है मगर मुर्तदीन से (जायज नहीं), वल्लाहु आलम” (फतावा रिजविया शरीफ, जिल्द ६ पृष्ठ ११०, मतबा रज़ा एकेडमी मुम्बई)
अब हम संक्षेप में इस क़िस्त की आयतों का शाने नुज़ूल ब्यान करेंगे। सुरह तौबा की आयत २३ में तमाम अहले ईमान को मुखातिब बताते हुए यह फरमाया गया कि कुफ्फार व मुशरेकीन से मवालात ना करें और यह आयत मुहाजिरिन के बारे में नाजिल हुई। जब मक्का के हालात इन्तेहाई जान लेवा हो गए तो सहाबा को हिजरत करने का आदेश दिया गया इसपर कुछ लोगों ने यह कहा कि यह क्यों कर संभव है कि इन्सान अपने मां बाप, भाई बहन, अज़ीज़ व अकारिब, जमीन व जायदाद, और घर बार को छोड़ कर तरके वतन कर जाए इसपर यह आयत नाजिल हुई जैसा कि तफसीर अबी सऊद में है: والآیۃ نزلت فی المہاجرین لما امروا بالہجرۃ فقالوا الی آخرہ (تفسير ابی سعود، ج 4 ص 54)
जब यह आयत नाजिल हुई तो सहाबा ने अल्लाह व रसूल के हुक्म पर इतनी सख्ती के साथ अमल दरामद किया कि उनके पास उनके अज़ीज़ व अकारिब आते लेकिन वह उन पर कोई ध्यान ना देते ना उन्हें पास ठहराते ना उन पर कुछ खर्च करते और एक कौल यह भी है कि यह आयत उन लोगों के बारे में नाजिल हुई जो मुर्तद हो कर मक्का लौट गए थे (एज़न)
सुरह मायदा की आयत ५१ में अला सबीलुत तग्लीज़ अहले ईमान को हुक्म दिया गया है कि यहूद व नसारा के साथ दोस्ती और मुवालात अर्थात उन्की मदद करना और उनसे मदद चाहना और उनसे कलबी रवाबित रखना मना है यह हुक्म आम है अगरचह इसका नुज़ूल हज़रत उबादा बिन सामित सहाबी ए रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम और अब्दुल्लाह बिन अबी इब्ने सलोल मुनाफेकीन के सरदार के बारे में नाजिल हुई है तफसील तफसीर में मौजूद है।
सुरह मायदा की आयत ५७ रूफाअः बिन ज़ैद, और सुवैद बिन हारिस के बारे में नाजिल हुई जिन्होंने पहले अपना इस्लाम
ज़ाहिर किया फिर उन्होंने मुनाफिकत की और कुछ मुसलान उनकी मुनाफिकत के बावजूद उनसे कलबी लगाव रखते थे
तो उस वक्त यह आयत नाजिल हुई जैसा कि तफ़सीरे मदारीक में है: و روی ان رفاعۃ بن
زید و سوید ابن الحارث قد اظھر الاسلام ثم نافقا و کان رجال من المسلمین یوادونھما
فنزل (الجزء الثانی، ص 290 مطبع اصح المطابع ممبئی)
(जारी)
[To be continued]
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मौलाना बदरुद्दूजा
रज़वी मिस्बाही, मदरसा अरबिया अशरफिया ज़िया-उल-उलूम खैराबाद, ज़िला मऊनाथ भंजन, उत्तरप्रदेश, के प्रधानाचार्य, एक सूफी मिजाज आलिम-ए-दिन, बेहतरीन टीचर, अच्छे लेखक, कवि और प्रिय वक्ता
हैं। उनकी कई किताबें अब तक प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमे कुछ मशहूर यह हैं, 1) फजीलत-ए-रमज़ान, 2) जादूल हरमयन, 3) मुखजीन-ए-तिब, 4) तौजीहात ए अहसन, 5) मुल्ला हसन की शरह, 6) तहज़ीब अल फराइद, 7) अताईब अल तहानी फी
हल्ले मुख़तसर अल मआनी, 8) साहिह मुस्लिम हदीस की शरह
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Hindi Part: 1- The Verses of Jihad In The Quran- Meaning And Background- Part 1 जिहाद की आयतें: अर्थ व मफहूम, शाने नुज़ूल, पृष्ठ भूमि
Hindi Part: 2- The Verses of Jihad In The Quran- Meaning And Background- Part 2 जिहाद की आयतें: अर्थ व मफहूम, शाने नुज़ूल, पृष्ठ भूमि
Hindi Part: 3- The Verses of Jihad: Meaning and Context – Part 3 जिहाद की आयतें: अर्थ व मफहूम, शाने नुजुल और पृष्ठ भूमि
Hindi Part:4- The Verses of
Jihad in the Quran: Meaning and Context - Part 4 जिहाद की आयतें: अर्थ व मफहूम, शाने नुजुल और पृष्ठ भूमि
Hindi
Part: 5 -The Verses of
Jihad in the Quran: Meaning and Context - Part 5 कुरआन मे जिहाद की आयतें: अर्थ व मफहूम, शाने नुजुल और पृष्ठ भूमि
Urdu Part: 3- The Verses of Jihad: Meaning and Context - Part 3 آیات جہاد :معنیٰ و مفہوم ، شانِ نزول، پس منظر
Urdu Part: 4- The Verses of Jihad: Meaning and Context - Part 4 معترضہ آیاتِ جہاد، معنیٰ و مفہوم، شانِ نزول، پس منظر
Urdu Part: 5- The Verses of Jihad: Meaning and Context - Part 5 معترضہ آیاتِ جہاد، معنیٰ و مفہوم، شانِ نزول، پس منظر
Urdu Part: 6- The Verses of Jihad in Quran: Meaning and Context - Part 6 معترضہ آیاتِ جہاد، معنیٰ و مفہوم، شانِ نزول، پس منظر
Urdu Part: 7- The Verses of Jihad in Quran:
Meaning and Context - Part 7 معترضہ آیاتِ جہاد، معنیٰ و
مفہوم، شانِ نزول، پس منظر
Urdu Part: 8- The Verses of Jihad in The Quran: Meaning and Context - Part 8 معترضہ آیاتِ جہاد، معنیٰ و مفہوم، شانِ نزول، پس منظر
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