बदरुद्दूजा
रज़वी मिस्बाही
(उर्दू
से अनुवाद: न्यू एज इस्लाम)
भाग-२
५
अप्रैल २०२१
नाखल्फ़
वसीम रिज़वी ने अभी हाल ही में गैर मुतबद्दल कुरआन पाक की छब्बीस जिहाद की आयतों के
खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में जो पेटीशन (अर्जी) दाखिल की है उन्हें खुलेफाए सलासा
रज़ीअल्लाहु अन्हुम के अख्लात का नतीजा करार दे कर कुरआन मुकद्दस से हज्फ़ करने का
जो नाजायज मुतालबा किया है यह उसका कोई नया कारनामा नहीं है। यह काम आज से दो दहाई
पहले विश्व हिन्दू परीषद की संगठन अपने दफ्तर से बड़े पैमाने पर एक पम्फलेट की
इशाअत और उसकी तकसीम के जरिये अंजाम दे चुकी है लेकिन विश्व हिन्दू परिषद भी यह
हिम्मत नहीं जुटा पाई कि सुप्रीम कोर्ट जा कर कुरआन को चैलेंज करे लेकिन आज इसकी
नाजायज औलाद वसीम रिज़वी ने उन आयतों के खिलाफ बनाम मुसलमान सुप्रीम कोर्ट में
अर्जी दाखिल कर आलमे इस्लाम को ना केवल यह कि हैरत में डाल दिया है बल्कि उनके
खामोश जज़्बात में हैजान पैदा कर दिया है और जरूरियाते दीन का इनकार कर के यह
स्पष्ट कर दिया है कि वह इस्लाम के दायरे से बाहर है आज शीई उलेमा और मशाइख के
केंद्र भी इसकी नापाक हरकत पर बड़े पैमाने पर इसे मुर्तद करार दे रहे हैं जिसके लिए
वह मुबारक बाद के काबिल हैं बल्कि उसके छोटे भाई ने भी निहायत दिलगीर लब व लहजे
में तकरीरी बयान दे कर घर वालों के साथ, भाई, मां और बहन के उससे संबंध विक्षेद का एलान कर दिया है जिसका
हम स्वागत करते हैं।
इतनी
तफसील के बाद अब हम उन आपत्ती जनक आयतों को एक के बाद एक पेश करेंगे फिर प्रमाणिक
तफसीरों की रौशनी में उनके अर्थ व मफहूम, शाने
नुज़ूल और पसे मंजर पर रौशनी डालेंगे ताकि यह स्पष्ट हो जाए कि इस्लाम फितरत का दीन
और खुदाई कानून का नाम है यह किसी इंसान का गढ़ा हुआ नहीं है और कुरआन खुदा की नाज़िल
की हुई वह अपरिवर्तनीय किताब है जो हर तरह के हशो व जवाइद से पाक व साफ़ है इसमें
खुलेफाए सलासा या अरबा या किसी और इंसान की किसी आमेज़िश का बिलकुल कोई दखल नहीं है
और इसकी सारी दफआत,
कुल्लियात व जुज़इयात फितरत
के तकाज़े के ऐन मुताबिक हैं और यह किसी भी किस्म के कता व बुरीद और ज्यादत व
नुक्सान से महफूज़ है और हमेशा महफूज़ रहेगा और यह कि कुरआन सुलह व आश्ती, अमन व अमान का दाई और नकीब है उसका दहशतगर्दी और आतंक से
कोई लेना देना नहीं है।
वह
जिहाद की आयतें जिनपर एतेराज़ किया गया उनका मफहूम व अर्थ
فَاِذَا انۡسَلَخَ الۡاَشۡھُرُ الۡحُرُمُ
فَاقۡتُلُوا الۡمُشۡرِکِیۡنَ حَیۡثُ وَجَدۡتُّمُوۡھُمۡ وَ خُذُوۡھُمۡ وَ
احۡصُرُوۡھُمۡ وَ اقۡعُدُوۡا لَھُمۡ کُلَّ مَرۡصَدٍ ۚ فَاِنۡ تَابُوۡا وَ
اَقَامُوا الصَّلٰوۃَ وَ اٰتَوُا الزَّکٰوۃَ فَخَلُّوۡا سَبِیۡلَھُمۡ ؕ
اِنَّ اللّٰہَ غَفُوۡرٌ رَّحِیۡمٌ (
التوبہ ، آیت : 5)
फिर
जब हुरमत के चार महीने गुज़र जाएँ तो मुशरिकों को जहाँ पाओ (बे ताम्मुल) कत्ल करो
और उनको गिरफ्तार कर लो और उनको कैद करो और हर घात की जगह में उनकी ताक में बैठो
फिर अगर वह लोग (अब भी शिर्क से) बाज़ आऎं और नमाज़ पढ़ने लगें और ज़कात दे तो उनकी
राह छोड़ दो (उनसे ताअरूज़ न करो) बेशक ख़ुदा बड़ा बख़्शने वाला मेहरबान है ।
यहाँ
पर आपको यह जान लेना चाहिए कि इस्लाम दुश्मन ताकतों को जिहाद के जिन आयतों पर
एतेराज़ है उनमें से अक्सर का संबंध सुरह तौबा से है इसलिए यहाँ पर यह जान लेना
आवश्यक है कि सुरह तौबा का नुज़ूल किन हालात और किसन असबाब व अलल से हुआ।
सुरह
तौबा की प्रारम्भिक ३० या ४० आयतों का नुज़ूल मक्का फतह होने के बाद ९ हिजरी में
हुआ मुसलमानों ने अल्लाह पाक की इजाज़त और हुजुर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के
इत्तेफाक से मक्का के मुशरीकिन और दुसरे अरब कबीलों से जंग बंदी का समझौता कर रखा
था जिसकी पासदारी दोनों पक्षों पर जरूरी थी मुसलमान इस अहद व पैमान पर अमल पैरा है
लेकिन बनू ज़मरा और बनू किनाना को छोड़ कर दुसरे मुशरेकीने मक्का और कबाएले अरब ने
वादा खिलाफी की जिसका ज़िक्र सुरह तौबा की आयत नम्बर ४ में सराहत के साथ मौजूद है
यहाँ तक कि सुलह हुदैबिया के आखरी समझौते को भी उन्होंने पीछे डाल दिया जिसकी दफआत
बज़ाहिर मुसलमानों की कमजोरी की तरफ मुशअर थीं। इस तरक्की याफ्ता दौर में गैर
मुस्लिम दुनिया भी अहद व पैमान का सम्मान करती है और इफा ए अहद को हर हाल में
लाज़िम करार देती है और इस्लाम में तो इफाए अहद की सख्त ताकीद की गई है कुरआन मजीद
जा बजा अहद व पैमान पर अमल आवरी का हुक्म दिया गया है और यहाँ तक फरमाया गया है कि
तुम अहद पूरा करो बेशक अहद से सवाल होगा। وَ اَوۡفُوۡا بِالۡعَھْدِ ۚ اِنَّ
الۡعَھْدَ کَانَ مَسۡئُوۡلًا ( بنی اسرائیل ، آیت: 34)
लेकिन ज़ाहिर है कि जब एक फरीक अहद शिकनी पर उतर आता है तो अहद खुद बखुद साकित हो
जाता है और यही यहाँ पर भी हुआ,
जब मुशरेकीन मक्का की अहद
शिकनी सामने आ गई तो हुजुर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने हज़रत अबू बकर रज़ीअल्लाहु
अन्हु को ९ हिजरी में हज के मौके पर अमीरुल हज बना कर मक्का मुकर्रमा रवाना फरमाया
और उनके पीछे अजबन (ऊंटनी) पर सवार कर के हज़रत अली रज़ीअल्लाहु अन्हु को भी मक्का
मुकर्रमा भेजा हज़रत अबुबकर सिद्दीक रज़ीअल्लाहु अन्हु ने यौमे तर्विया
(८/ज़िल्हिज्जा) को खुतबा इरशाद फरमाया जिस में आपने मनासिके हज बयान फरमाए और यौमे
नहर १०/ ज़िल्हिज्जा) को हज़रत अली ने जुमरा उक्बा के पास खड़े हो कर मुशरेकीन मक्का
को ख़िताब करते हुए फरमाया: ऐ लोगों! मैं तुम्हारी तरफ रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि
वसल्लम का फरिस्तादा बन कर आया हूँ मुशरेकीन ने कहा: आप हमारे लिए क्या पैगाम ले
कर आए हैं?इसके जवाब में हज़रत अली रज़ीअल्लाहु अन्हु ने
सुरह तौबा की इब्तिदाई ३० या ४० आयतों की तिलावत फरमाई और फरमाया कि मैं तुम्हारे
पास चार बातों का हुक्म ले कर आया हूँ (१) इस साल के बाद कोई मुशरिक काबा पाक के
पास ना आए (२) कोई शख्स नंगा हो कर काबा शरीफ का तवाफ़ ना करे (३) जन्नत में सिवाए
अहले ईमान के कोई दाखिल नहीं होगा (४) हर ज़िम्मी के अहद को पूरा किया जाएगा (तफ़सीर
अबी साउद: ४,
पेज:४१)
उल्लेखित
विवरण से यह साफ़ हो गया कि आयत नंबर ५ में मुशरेकीन को अशहुरे हरम के बाद मारने या
उनसे जंग करने का हुक्म दिया गया है इससे आम कुफ्फार व मुशरेकीन मुराद नहीं है
बल्कि इसका संबंध मुशरेकीने अरब से है जिन्होंने मुसलमानों से या केवल यह कि अहद
शिकनी की बल्की दावते इस्लाम की पामाली के लिए अपनी नापाक मसाई सर्फ कर दीया जैसा
कि “फक्तुलुल मुशरिकीन” की तफसीर में साहबे तफसीर अबी सउद फरमाते हैं: “الناکثین خاصۃ فلایکون قتال الباقین مفھوما من عبارۃ النص بل من
دلالتہ" [ تفسیر ابی سعود ج: 4، ص: 43]” इससे केवल वह मुशरेकीन मुराद हैं जिन्होंने अहद शिकनी की
रही बात बाकी मुशरेकीन की तो उनसे क़िताल करना मुराद नहीं जैसा कि नस की इबारत से
स्पष्ट है बल्कि दलालतुल नस से भी स्पष्ट है)
और
साहबे मदारक ने भी इसकी यही तफसीर बयान फरमाते हैं: “الذین نقضوکم و ظاھروا علیکم" [ تفسیر النسفی ، ج: 2، ص: 116،
اصح المطابع ممبئی ]
बल्कि
इस सूरत में अव्वल से आखिर तक ख़िताब उन्हीं कुफ्फार व मुशरेकीन के साथ है
जिन्होंने अपने अहद की पासदारी नहीं की जैसा कि इससे अगली आयत की तफसीर में साहबे
तफसीर अबी सउद फरमाते हैं: المراد بالمشرکین الناکثون لان البراءۃ انما ھی
فی شانھم [ ایضا، ص: 44]
इन
प्रमाणिक और मोतबर तफसीरों से यह साफ़ हो गया कि सुरह तौबा की इस आयत में जो
मुशरेकीन व कुफ्फार को क़त्ल करने और वह जहां मिलें वहाँ उन्हें मारने और धर पकड़ का
जो हुक्म दिया गया है इससे आम कुफ्फार व मुशरेकीन और बिरादराने वतन मुराद नहीं हैं
जैसा कि वसीम रिज़वी और इस्लाम दुश्मन तत्व प्रोपेगेंडा कर रहे हैं बल्कि इससे ख़ास
उस गुजरे हुए दौर के वह मुशरेकीन मक्का और अरब के कबाइल मुराद हैं जिन्होंने
मुसलमानों के साथ कत्ल व गारत गरी, धोका
धड़ी और अहद शिकनी जैसे भयानक अपराध का प्रतिबद्ध किया कुरआन हरगिज़ इस अम्र का दाई
नहीं है कि बिला वजह चलते फिरते बे कुसूर या दुसरे लोगों पर कलाश्नकोफ़ से गोलियां
बरसाई जाएं कुरआन तो इसका दाई है कि अगर एक इंसान ने बिलावजह किसी भी इंसान की जान
ले ली चाहे वह किसी भी धर्म का अनुयायी हो तो गोया कि वह रुए जमीन के तमाम इंसानों
का कातिल है और अगर किसी ने किसी भी मज़लूम व मकहुर कमज़ोर और नातवां इंसान की जान
बचाई तो गोया कि उसने रुए ज़मीन के तमाम इंसानों की जान बचाने का काम किया कुरआन
फरमाता है: مَن قَتَلَ نَفْسًا بِغَيْرِ نَفْسٍ أَوْ
فَسَادٍ فِي الْأَرْضِ فَكَأَنَّمَا قَتَلَ النَّاسَ جَمِيعًا وَمَنْ أَحْيَاهَا
فَكَأَنَّمَا أَحْيَا النَّاسَ جَمِيعًاۚ(المائدہ آیت: 32)
जिसने
कोई जान क़त्ल की बगैर जान के बदले या ज़मीन में फसाद किया तो गोया उसने सब लोगों को
क़त्ल कर दिया और जिस ने एक जान को जिला लिया उसने गोया सब लोगों को जिला लिया
(कंज़ुल ईमान) बल्कि अगर कहीं पर सहीह तरह इस्लामी हुकूमत का निज़ाम नाफ़िज़ हो तो
वहाँ पर गैर मुस्लिम अक्लियात की जान व माल और हुकुक इतने ही महफूज़ हैं जितने कि
मुस्लिम अक्सरियत की जान व माल और हुकुक महफूज़ हैं उन्हें भी अपने मज़हब पर अमल
करने और इबादत खाने की तामीर का वही हक़ हासिल है जो मुस्लिम अक्सरियत को हासिल है
जैसा कि हुजुर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया "مَنْ قَتَلَ مُعَاهِدًا فِي غَيْرِ كُنْهِهِ
حَرَّمَ اللَّهُ عَلَيْهِ الْجَنَّةَ"( المستدرک للحاکم، ج: 2، ص: 142، کتاب
قسم الفئی، دار المعرفہ، بیروت ، لبنان )
जिसने
किसी मुआहिद को बिला जुर्म क़त्ल कर दिया उस पर जन्नत हराम है
और
एक जगह हुजुर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम फरमाते हैं نْ قَتَلَ نفسا مُعَاهَدۃ لَمْ يَرَحْ رَائِحَةَ الْجَنَّةِ،
وَإِنَّ رِيحَهَا لیوجَدُ مِنْ مَسِيرَةِ خمسمائۃ عام ".(جمع الجوامع
للسیوطی، ج: 9، ص: 721، دار السعادۃ،)
जिस
शख्स ने किसी मुआहिद को कत्ल किया वह जन्नत की खुशबु नहीं पा सकेगा बावजूद
इसके कि जन्नत की खुशबु पांच सौ बरस की दूरी से सूंघी जाती है। और अहद व
पैमान के बाद उसे तोड़ देने वाले की सरज़िंश हुजुर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम इस अंदाज़
में कर रहे हैं: “اِن الغادِر یُنصب لہ لواء یوم القیامۃ فیقول
ھذہ غدرۃ فلان بن فلان" ( جمع الجوامع للسیوطی، ج: 8، ص: 370، دار السعادۃ،)
बेशक
अहद शिकन के लिए कयामत के रोज़ निशान खड़ा किया जाएगा और कहा जाएगा उसने फुलां बिन
फुलां से गदर किया।
और
एक मुसलमान कातिल से मकतुल ज़िम्मी के वारेसीन के खून बहा स्वीकार कर लेने की
पुष्टि के बाद कातिल को आज़ाद करते हुए हज़रत अली रज़ीअल्लाहु अन्हु ने इरशाद फरमाया:
“من کان لہ ذمتنا فدمہ کدمنا و دیتہ کدیتنا"
[السنن الکبری للبیہقی، ج: 8، ص: 63، کتاب الجراح الحدیث: 15934 دار الکتب العلمیہ
بیروت لبنان]
जो
हमारा ज़िम्मी हो उसका खून हमारे खून और उसकी दियत हमारी दियत की तरह है। (जारी)
[To be continued]
___________
मौलाना बदरुद्दूजा रज़वी मिस्बाही, मदरसा
अरबिया अशरफिया ज़िया-उल-उलूम खैराबाद, ज़िला
मऊनाथ भंजन, उत्तरप्रदेश, के
प्रधानाचार्य, एक सूफी मिजाज आलिम-ए-दिन, बेहतरीन
टीचर, अच्छे लेखक, कवि
और प्रिय वक्ता हैं। उनकी कई किताबें अब तक प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमे कुछ मशहूर
यह हैं, 1) फजीलत-ए-रमज़ान, 2)
जादूल हरमयन, 3) मुखजीन-ए-तिब, 4)
तौजीहात ए अहसन, 5) मुल्ला हसन की शरह, 6)
तहज़ीब अल फराइद, 7) अताईब अल तहानी फी हल्ले मुख़तसर अल मआनी, 8)
साहिह मुस्लिम हदीस की शरह
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English Part-1: The Verses of Jihad: Meaning, Denotation, Reason of
Revelation and Background- Part 1
English
Part-2: The Verses of Jihad: Meaning, Denotation, Reason of
Revelation and Background- Part 2
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