बदरुद्दूजा रज़वी मिस्बाही
भाग-३
८ अप्रैल २०२१
يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا إِنَّمَا الْمُشْرِكُونَ نَجَسٌ فَلَا يَقْرَبُوا الْمَسْجِدَ الْحَرَامَ بَعْدَ عَامِهِمْ هَٰذَا ۚ وَإِنْ خِفْتُمْ عَيْلَةً فَسَوْفَ يُغْنِيكُمُ اللَّهُ مِن فَضْلِهِ إِن شَاءَ ۚ إِنَّ اللَّهَ عَلِيمٌ حَكِيمٌ (अल तौबा आयत:२८)
“ऐ ईमानदारों मुशरेकीन तो निरे नजिस हैं तो अब वह उस साल के बाद मस्जिदुल हराम (ख़ाना ए काबा) के पास फिर न फटकने पाएँ और अगर तुम (उनसे जुदा होने में) फक़रों फाक़ा से डरते हो तो अनकरीब ही ख़ुदा तुमको अगर चाहेगा तो अपने फज़ल (करम) से ग़नी कर देगा बेशक ख़ुदा बड़ा वाक़िफकार हिकमत वाला है”
यह सुरह तौबा की दूसरी आयत है जो इस्लाम दुश्मन तत्वों के दिल में खटक रही है इससे पहले बता दिया गया है कि सुरह तौबा की अक्सर आयतों में मुशरेकीन से वह मुशरिकीने मक्का मुराद हैं जिन्होंने अहद व पैमान की पासदारी नहीं की तथापि यहाँ पर यह बताना जरूरी है कि इस आयत में मुशरिकीन को जो नजिस करार दिया गया है उससे क्या मुराद है? इस आयत में निजासत से उसका विकल्प मफहूम बोल व बराज़ (पेशाब, पाखाना) मुराद नहीं है जैसा कि इस्लाम दुश्मन तत्व समझ रहे हैं बल्कि इससे उनका वह शिर्क मुराद है जो निजासत की मंजिल में है या उन्हें इस आयत में नजिस इस लिए करार दिया गया है कि वह सहीह तरह से तहारत और गुस्ल वगैरा नहीं करते हैं और निजासत से इज्तिनाब नहीं करते हैं जैसा कि आम तौर पर देखा जाता है कि यह खड़े खड़े पेशाब करते हैं और पेशाब की छींटों से नहीं बचते हैं, एक लोटा पानी से इजाबत करते हैं उन वजूहात की बिना पर उन पर निजासत के इतलाक किया गया है। इस आयत का मतलब यह नहीं है कि यह बोल व बराज की तरह ऐन नजिस हैं जैसा कि तफसीर अबी सऊद में है: وصفوا بالمصدر مبالغۃ کانھم عین النجاسۃ أو ھم ذو نجس لخبثِ باطنھم او لان معھم الشرک الذی ھو بمنزلۃ النجس او لانھم لا یتطھرون ولایغتسلون ولا یجتنبون النجاسات فھی ملابسۃ لھم۔ (تفسیر ابی سعود ج: 4، ص: 57)
बल्कि अल्लामा अबू जकरिया बिन शर्फ़ नव्वी दमिश्की रहमतुल्लाह अलैह सहीह मुस्लिम बाबूददलील अला इन्नल मुस्लिमु ला यंजिस के तहत फरमाते हैं: तहारत व निजासत में काफिर का वही हुक्म है जो मुस्लिम का हुक्म है यही शवाफे और जम्हूर सल्फ़ व खल्फ़ का भी मज़हब है और आयते मुबारका “इन्नमल मुशरिकुना नजस” से कुफ्फार व मुशरेकीन के एतिकाद की निजासत मुराद है यह मुराद नहीं है कि बोल व बराज़ और उनकी तरह की तरह उनके अंग नापाक हैं।
इमाम नव्वी रहमतुल्लाह अलैह फरमाते हैं: و اما الکافر فحکمہ فی الطھارۃ و النجاسۃ حکم المسلم ھذا مذھبنا و مذھب الجماھیر من السلف و الخلف و أما قول اللہ عزو جل: "اِنَّمَا المُشرِکُونَ نَجَسٌ" فالمراد نجاسۃ الاعتقاد و الاستقذار و لیس المراد ان اعضاءھم نجسۃ کنجاسۃ البول و الغائط و نحوھما" ( شرح مسلم للنووی، کتاب الطھارۃ/ باب الدلیل علی ان المسلم لا ینجس، ص162: مجلس برکات جامعہ اشرفیہ مبارک پور)
فَلَا يَقْرَبُوا الْمَسْجِدَ الْحَرَامَ بَعْدَ عَامِهِمْ هَٰذَا तो इस वर्ष के बाद वह मस्जिदे हराम के पास ना आने पाएं (कंज़ुल ईमान)
इस आयत में मुसलामानों को यह हुक्म दिया गया है कि वह कुफ्फार व मुशरेकीन को मस्जिद हराम के करीब आने से रोकें।
यह हुक्म मुशरेकीन की नापाकी पर मूतफर्रेअ है और “नहीं अनिल कुर्ब (यानी कुर्बत से रोकना)” मुबालगा की गरज से है, इमाम आजम अबू हनीफा रहमतुल्लाह अलैह के नज़दीक इस आयत में मना से मुराद मुशरेकीन को हज व उमरा से रोकना है, ना कि हरम, मस्जिदे हराम और दुसरे मस्जिदों से और इमाम शाफई के नज़दीक ख़ास मस्जिदे हराम में दुखुल से रोकना मुराद है, और इमाम मालिक के नज़दीक जमीअ मसाजिद से मुशरेकीन को रोक देने का हुक्म दिया गया है जैसा कि तफसीर अबी सउद में है: و قیل المراد بہ النھی عن الدخول مطلقا،و قیل :المراد بہ المنع عن الحج و العمرۃو ھو مذھب ابی حنیفۃ رحمہ اللہ۔۔۔ولا یمنعون من دخول الحرم و المسجد الحرام و سائر المساجد عندہ و عند الشافعی یمنعون من المسجد الحرام خاصۃ و عند مالک یمنعون من جمیع المساجد (تفسیرِ ابی سعود، ج: 4، 57)
लेकिन साहबे तफ़सीर अबी सउद ने यहाँ पर अह्नाफ और शवाफे के मुफ़्ता बिही और राजेह कौल की वजाहत नहीं की है हम यहाँ पर इस बाबत अह्नाफ और शवाफे के मज़ाहिब पर मुख्तसरन रौशनी डालना चाहेंगे।
शवाफे के नज़दीक हरम में कुफ्फार व मुशरेकीन को दाखिल होने की इजाज़त नहीं है तथापि दुसरे मस्जिदों में वह मुसलामानों की इजाज़त से मस्जिद में दाखिल हो सकते हैं फिर यहाँ पर मुशरेकीन से ख़ास बुत परस्त मुराद हैं या दुसरे अक्साम के काफिर मुराद हैं इस पर शवाफे ने बहस की है। अल्लामा सुबकी फरमाते हैं: हरम में तो मूतलकन काफिर को दाखिल होने से रोक दिया जाएगा चाहे वह ज़िम्मी हों (मुस्लिम देश में गैर मुस्लिम अल्पसंख्यक) या मुस्तामीन (आरज़ी तौर पर पासपोर्ट और विज़े से आने वाले गैर मुस्लिम)
इमाम नव्वी शाफई दीमुश्की फरमाते हैं: हरम के अलावा बाकी मस्जिदों में मुसलमानों की इजाज़त
से काफिर का दाखिल होना जायज है (चाहे वह ज़िम्मी हो या मुस्तामन बुत परस्त हो या अहले
किताब) इसलिए कि सकीफ का एक वफद रमजान के महीने में हुजुर अलैहिस्सलाम के पास आया आपने
उनके लिए मस्जिद में खेमा नसब किया जब वह इस्लाम ले आए तो उन्होंने रोज़े रखे इस हदीस
को तबरानी ने अपनी सनद के साथ बयान किया है। और हजरत अबू हुरैरा रज़ीअल्लाहु अन्हु से
मरवी वह रिवायत भी है जिसमें समामा बिन असाल को गिरफ्तार कर के मस्जिद के सुतून से
बाँधने का ज़िक्र है इस वजह से इमाम शाफई ने हुक्म लगाया है कि मुसलमान की इजाज़त से
काफिर का मस्जिद में दाखिल होना जायज़ है चाहे वह गैर अहले किताब हो अलबत्ता मक्का की
मस्जिदों और हरम में किसी काफिर दाखिल होना जायज नहीं है। अल्लामा नव्वी ने “मजमुअ” में लिखा है कि हमारे
असहाब यह कहते हैं कि हरम में किसी काफिर को ना दाखिल होने दिया जाए और गैर हरम की
हर मस्जिद में काफिर का दाखिल होना जायज़ है और मुसलमानों की इजाज़त से वह रात को मस्जिद
में रह सकता है (तक्मिलुहू शरह तहज़ीब जिल्द ९ पृष्ठ ४३६, ४३७ मतबूआ दारुल फ़िक्र बैरुत)
अह्नाफ के नज़दीक गैर मुआहिद (जिनसे मुसलमानों का समझौता हुआ
हो) मुशरेकीन को हरम और इसी तरह बाकी मस्जिदों में दाखिल होने से मना किया जाएगा और
अहले ज़िम्मा को हरम और इसी तरह बाकी मस्जिदों में दाखिल होने से मना नहीं किया जाएगा।
इमाम मोहम्मद रहमतुल्लाह अलैह सैर कबीर में फरमाते हैं: و ذکر عن الزھری ان ابا سفیان بن حرب کان یدخل المسجد فی الھدنۃ وھو کافر
غیر ان ذلک لا یحل فی المسجد الحرام قال اللہ تعالی: إِنَّمَا الْمُشْرِكُونَ نَجَسٌ
فَلَا يَقْرَبُوا الْمَسْجِدَ الْحَرَامَ (سیر کبیر مع شرحہ ج :1، ص 134 مطبوعہ المکتبۃ
للثورۃ الاسلامیہ افغانستان )
ज़हरी से रिवायत है कि मुआहेदा हुदैबिया के अय्याम में अबू सुफियान
मस्जिद में आते थे हालांकि इस वक्त वह काफिर से अलबत्ता यह मस्जिदे हराम में जायज़ नहीं
है क्योंकि अल्लाह पाक फरमाता है: मुशरेकीन नापाक हैं वह मस्जिद हराम के करीब ना आएं।
इमाम मोहम्मद के इस कौल से विकल्प होता है कि मुतलक मुशरेकीन
को मस्जिदे हराम में दाखिल होने से रोक दिया जाएगा लेकिन जामेअ सगीर में उन्होंने इसकी
सराहत की है कि अहले ज़िम्मा के हरम में दाखिल होने में कोई हर्ज नहीं है। फरमाते हैं:
ولا باس بان یدخل اھل الذمۃ المسجد الحرام (जामेअ
सगीर पृष्ठ: १५३ मतबूआ मुस्ताफाई हिन्द)
इमाम मोहम्मद की सराहत के पेशेनजर फुकहाए अह्नाफ का नजरिया यह
है कि अहले ज़िम्मा को काबा शरीफ और बाकी मस्जिदों में दाखिल होने से मना नहीं किया
जाएगा यह मुमानियत केवल मुशरेकीन गैर मुआहिद के लिए है।
आलमगीरी में है:
لا باس بدخولِ اھل الذمۃ المسجد الحرام و سائر المساجد
و ھو الصحیح کذا فی المحیط للسرخسی [ فتاویٰ عالمگیری، ج: 5، ص: 346، مطبوعہ مطبع کبریٰ
امیریہ بولاق مصر]
यहाँ पर “वहुव अल-सहीह” से इस तरफ इशारा है कि अल्लामा सरखसी ने शरह सैर कबीर में जो यह लिखा है कि मस्जिदे
हराम और बाकी मस्जिदों में हर्बी और ज़िम्मी दोनों के दाखिल होने की मुमानियत नहीं है
यह स्पष्ट नहीं है।
इमाम मालिक के नज़दीक किसी भी किस्म के गैर मुस्लिम को किसी भी
मस्जिद में दाखिल होने की इजाजत नहीं चाहे वह मस्जिदे हरम हो या गैर हरम की मस्जिद।
इमाम अहमद बिन हम्बल के नज़दीक मुतलकन हरम (मका मुकर्रमा का वह
हिस्सा जो हरम में दाखिल है) मे मुशरेकीन का दाखिला
ममनूअ है इसमें मस्जिद हराम की कोई तस्खीस नहीं हौर गैर हरम की मस्जिदों में उनके दो
कौल हैं।
यह तमाम हवाले हमने अल्लामा सईदी रहमतुल्लाह की शरह सहीह मुस्लिम
जिल्द: ३, पृष्ठ: ६८१, ६८२, ६८३ से लिए हैं।
(जारी)
[To be continued]
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मौलाना बदरुद्दूजा
रिज़वी मिस्बाही, मदरसा अरबिया अशरफिया ज़िया-उल-उलूम खैराबाद, ज़िला मऊनाथ भंजन, उत्तरप्रदेश, के प्रधानाचार्य, एक सूफी मिजाज आलिम-ए-दिन, बेहतरीन टीचर, अच्छे लेखक, कवि और प्रिय वक्ता
हैं। उनकी कई किताबें अब तक प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमे कुछ मशहूर यह हैं, 1) फजीलत-ए-रमज़ान, 2) जादूल हरमयन, 3) मुखजीन-ए-तिब, 4) तौजीहात ए अहसन, 5) मुल्ला हसन की शरह, 6) तहज़ीब अल फराइद, 7) अताईब अल तहानी फी
हल्ले मुख़तसर अल मआनी, 8) साहिह मुस्लिम हदीस की शरह
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