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Hindi Section ( 20 May 2022, NewAgeIslam.Com)

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Why Salman Nadwi’s Lamentation Puts a Negative Spotlight on Islam क्यों सलमान नदवी का आह व फुगाँ करना इस्लाम पर नकारात्मक प्रकाश डालता है?

अरशद आलम, न्यू एज इस्लाम

22 अप्रैल 2022

आवश्यक नहीं कि तौहीद की दावत से भारतीय मुसलमानों के उद्देश्यों की पूर्ति हो

प्रमुख बिंदु:

1. सलमान नदवी ने जहांगीर पुरी झडपों के पृष्ठभूमि में एक संक्षिप्त वीडियो प्रकाशित किया है

2. उनका कहना है कि मुसलमान इस आफत का सामना इसलिए कर रहे हैं क्योंकि वह इस्लाम के रास्ते से हट गए हैं और कब्र परस्तबन गए हैं

3. उनकी यह बात झूटी है कि सनातन धर्म और इस्लाम दोनों तौहीद की दावत देते हैं

4. उनका कहना है कि भारत मुसलमानों को खुदा ने तोहफे के तौर पर अता किया था ताकि इस्लाम की रौशनी फैलाई जाए लेकिन उन्होंने हिन्दू मुशरिकों की कार्य शैली विकल्प कर के मौक़ा गंवा दिया है

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सलमान नदवी की एक छोटी वीडियो आपको यह जानने के लिए काफी होगी कि स्वयंभू भारतीय उलमा की समस्या क्या है। यह वीडियो दिल्ली में जहांगीर पूरी झड़पों के पृष्ठभूमि में बनाई गई है जिसमें राम नवमी के जुलूस के दौरान एक मस्जिद पर हिंदुओं की तरफ से झंडा लहराने के प्रयास के बाद मुसलमानों ने पथराव किया था। इस वीडियो में सलमान नदवी यह विश्लेषण करते हुए दिखाई देते हैं कि ऐसा क्यों हुआ, यह मुसलमानों के लिए अपने गलत कार्योंको बदलने का दर्स देता है, और किस तरह भड़काने वाले वास्तव में सनातन धर्म के अनुयायी नहीं हैं।

 वीडियो में, नदवी सनातन धर्म और हिंदू धर्म के बीच अंतर करते हुए तर्क देते हैं कि सनातन धर्म ने हमेशा तौहीद (अल्लाह / ईश्वर एक है) सिखाया है। उनका कहना है कि हिंदू धर्म फारसियों द्वारा भारतीयों को दिया गया एक व्यंग्यपूर्ण मुहावरा था। यह सच हो सकता है कि उन दिनों हिंदू शब्द का प्रयोग बेहद नकारात्मक था, लेकिन क्या उन्हें आज के धार्मिक रूप से विभाजित समाज के संदर्भ में ऐसा कहना चाहिए था? वे हिंदुओं को याद दिलाकर क्या हासिल करना चाहते हैं कि वे अभी भी मुसलमानों द्वारा दिए गए नाम का पालन कर रहे हैं? अगर आज बड़ी संख्या में लोग खुद को हिंदू कहना चाहते हैं, तो इसमें गलत क्या है? एक अरब लोग जो खुद को इस नाम से जोड़ना चाहते हैं, उन पर यह अपना दिया हुआ नाम क्यों थोपना चाहते हैं? इससे हमें नदवी के बारे में यही मालुम होता है कि वह यह है कि वह अभी भी उस अतीत से बाहर नहीं निकल सके हैं कि जब उनके जैसे लोगों को नाम और पद देने की शक्ति प्राप्त थी।

नदवी इसके बजाए हिंदुओं के लिए सनातन धर्म का शब्द उपयोग करना चाहेंगे। लेकिन फिर बात यह पैदा होगी कि सनातनियों के बारे में भी उनकी अपनी एक अजीब व गरीब समझ है और यह हैरत की बात नहीं कि वह इस शब्द को क्यों तरजीह देते हैं। उनका तर्क यह है कि सनातन धर्म शिर्क के बजाए तौहीद को बढ़ावा देता है जैसा कि प्रसिद्ध हिन्दू रिवाज से ज़ाहिर है। इसलिए, शब्द सनातन के लिए उनकी तरजीह इस हकीकत से माखूज़ है कि इस्लाम की तरह दुसरे धर्म भी तौहीद को बढ़ावा देते हैं। इससे हमें मालुम होता है कि मुस्लिम मज़हबी नेतृत्व और अंतरधार्मिक सहअस्तित्व के बारे में उनकी समझ में बुनियादी खराबी क्या है।

लेकिन सबसे पहली बात तो यह कि नदवी को किस ने बताया कि सनातन धर्म केवल तौहीद की शिक्षा देता है? इस धर्म के अंदर ऐसे फिरके हैं जिनको तौहीद से जोड़ा जा सकता है, लेकिन इसके अलावा और भी ऐसे फिरके हैं, जो उतने ही सहीह हैं, लेकिन खुद को तौहीद परस्त नहीं कहते। पूरी भक्ति रिवायत ने एक शख्सी खुदा का तसव्वुर पेश किया है, जो खुद के करीब है तस्वीर या बुत के साथ या उसके बिना। हिन्दू दर्शन के अंदर वह कादिरे मुतलक, खालिक की विभिन्न गुणों के मज़हर हैं। केवल यही नहीं, बल्कि हिन्दू मत में बुद्ध मत, शुरूआती जैन मत और यहाँ तक कि आजीविका जैसे मुल्हिदाना अकीदों के लिए भी जगह है, जहां खुदा की कोई कल्पना नहीं है या उनके फलसफों में इसकी कोई इफादियत नहीं बची। आंतरिक विविधता की ऐसी गुंजाइश इस्लाम में बिलकुल नहीं है और शायद इस पर तौहीने मज़हब के आरोप भी लग जाएं। नदवी का इस्लाम केवल हिन्दू धर्म के उस हिस्से से संबंधित हो सकता है जो खुदा को एक मानता है। उनका इस्लाम केवल इसी मज़हबी नजरिये के साथ संबंधित है जो खालिक के बारे में उनके मान्यताओं को शामिल हो, और इसमें किसी दुसरे फलसफे की गुंजाइश नहीं है। और शायद सबसे बड़ा चैलेंज है जिसे भारत जैसे विविध समाज में इस्लाम अब तक हल करने के काबिल नहीं हो सका है

अंततः तमाम अफ़साने मनगढ़त हैं। अगर इस्लाम में इस अफ़साने के लिए जगह हो सकती है कि इसके पैगम्बर ने चाँद को दो हिस्सों में तकसीम कर दिया था तो हिन्दू व गणेश और कृष्णा के अफसानों पर क्यों यकीन नहीं कर सकते? नदवी का और उन जैसे बहुत से मुसलमानों का मसला यह है कि वह यह चाहते हैं कि केवल उनकी बातों को सहीह करार दिया जाए और बाकी सबको बातिल करार दिया जाए। मज़हबियत के इज़हार का केवल एक ही तरीका क्यों होना चाहिए? अगर कोई बहुत से खुदाओं को मानता हैया किसी खुदा को नहीं मानता तो इसमें क्या हर्ज है? और क्या इस बात की कोई गारंटी है कि जब पुरी दुनिया तौहीद परस्त हो जाए गी तो लोगों के मसले खत्म हो जाएंगे। इस्लाम और इसाइयत के बीच काफी साझा बातें हैं लेकिन उन्होंने लम्बे समय तक खूंरेज़ जंगें केवल इस बात पर लड़ी हैं कि तौहीद की कौन सी शक्ल सहीह है। नदवी को तौहीद परस्त मज़ाहिब की तारीख का अध्ययन करना अच्छा होगा ताकि यह समझ सकें कि अमन का कोई तरीका नहीं है।

नदवी यहीं बस नहीं करते। उनका मानना है कि खरगोन और दिल्ली जैसी जगहों पर आग भड़काना और लूट मार करने वालों को जंगली गुंडा कहा जाना चाहिए जो यह नहीं जानते कि शहरों जैसी सभ्य जगहों पर किस तरह का बर्ताव करना चाहिए। चूँकि मुसलमान अधिकतर शहरी हैं, इसलिए वह यह कहने की कोशिश कर रहे हैं कि इस देश में सबसे पहले मुसलामानों ने शहर और सभ्यता की बुनियाद रखी हैं। यह मध्य युग के भारत में शहर कारी पर बहस करने की जगह नहीं है लेकिन इसके दावे पर आधारित पाखंड को समाप्त करने की आवश्यकता है कि मुसलमानों ने इस देश में सभ्यता की बुनियाद डाली है। देश के हिन्दू तहज़ीबी विरसे के बारे में इस तरह की घटिया सूझ बूझ बहुलता के लिए अच्छा नहीं है।

नदवी इस बात के कारण पर भी रौशनी डालते हैं कि आज मुसलमान आखिर क्यों मज़लूम हैं। वह शुरुआत अपनी इस बात से करते हैं कि उपमहाद्वीप मुसलमानों को तौहीद की रौशनी फैलाने के लिए अता किया गया था। लेकिन किसने दिया? इसका मतलब यह है कि भारत मुसलमानों को खुदा की तरफ से तोहफे में मिला था ताकि हिंदुओं को उनके धर्म के बातिल होने का एहसास दिलाया जाए। यह केवल बदतमीज़ी ही नहीं बल्कि नदवी जैसे लोगों की तरफ से हिन्दू मत का अपमान भी है। इसी तरह वह यह भी दलील देते हैं कि जब तक मुसलमान दूसरों को तौहीद (खुदा की वहदानियत) की खुले आम तबलीग नहीं करते, वह अल्लाह की नज़र में एक लानती जमात ही रहेंगे। वास्तव में इसका क्या मतलब है? मज़हबी नज़रियात के तबादले के बजाए, नदवी यह पसंद करेंगे कि मुसलमान हर एक हिन्दू को इस्लाम की दावत दें। मेरी बात मानों वरना कोई चारा नहींका यह रवय्या ऐसी बहुत सी वजूहात में से एक है जिसकी वजह से इस्लाम केवल हिंदुओं की ही नहीं बल्कि अब तो बहुत से मुसलमानों की नज़र में भी अजनबी और गैर लचकदार हो चुका है।

नदवी ने अफ़सोस का इज़हार करते हुए कहा कि मुसलमान कब्र की परस्तिश में मशगूल होने की वजह से इस्लाम की रौशनी को ठीक तरह से नहीं पकड़ सके (यहाँ सजदा, वहाँ सजदा)। यहाँ नदवी, अपने अहया पसंदाना मिज़ाज के मुताबिक़, भारतीय मुस्लिम आबादी की अक्सरियत पर यह आरोप लगा रहे हैं कि बरेलवी हिंदुओं से बहुत अधिक करीब हैं क्योंकि वह मज़ारों पर जाते और वहाँ इबादत करते हैं। दुसरे शब्दों में इसका अर्थ यह होता है कि मुसलमानों ने शिर्क (खुदा के साथ शरीक) किया इसलिए खुदा ने उनको सज़ा देने का फैसला किया है। मालुम होता है कि खुदा इन दिनों मुसलमानों को सज़ा देने के लिए जो तरीका विकल्प कर रहा है, उनमें से एक यह है कि हिन्दू हुजूम उनकी मामूली जायदादों, घरों और यहाँ तक कि उनकी मस्जिदों पर भी चढ़ाई करे। इससे तो यह बात यह स्पष्ट है कि नदवी को किसी मुसलमान के जान व माल के नुकसान से कोई हमदर्दी नहीं है क्योंकि उन्होंने उन्हें मुशरिक करार दिया है। लेकिन विडंबना यह कि लाखों मुसलमान फिर भी उनकी पैरवी करते रहेंगे।

लेकिन भारतीय मुसलमानों के लिए सबसे अधिक परेशान कुन बात यह है कि सदियों तक हिंदुओं के साथ मिल जुल कर रहने के बावजूद हम एक मज़हबी बहुलता का नजरिया तैयार करने में कामयाब नहीं हो सके। और नदवी इस असफलता की केवल एक घटिया मिसाल है।

English Article: Why Salman Nadwi’s Lamentation Puts a Negative Spotlight on Islam

Urdu Article: Why Salman Nadwi’s Lamentation Puts a Negative Spotlight on Islam کیوں سلمان ندوی کا آہ و فغاں کرنا اسلام پر منفی روشنی ڈالتا ہے؟

Malayalam Article: Why Salman Nadwi’s Lamentation Puts a Negative Spotlight on Islam എന്തുകൊണ്ടാണ് സൽമാൻ നദ്വിയുടെ വിലാപം ഇസ്ലാമിനെ നിഷേധാത്മകമാക്കുന്നത്

URL: https://www.newageislam.com/hindi-section/nadwi-lamentation-negative-spotlight/d/127044

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