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Hindi Section ( 24 Jan 2023, NewAgeIslam.Com)

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Listening to Songs [Naghma] in the Light of the Hanafi School of Jurisprudence – Part 2 नगमा सुनना - मज़हब ए हनफी की रौशनी में

डॉक्टर जीशान अहमद मिस्बाही, न्यू एज इस्लाम

(क़िस्त-2)

18 जनवरी 2023

गिना के सिलिसले में खुद इमाम मोहम्मद ने सैरुल कबीर में हज़रत अनस बिन मालिक की एक रिवायत नकल की है जिस से साबित होता है कि कुछ सहाबा खलवत में नगमा संजी किया करते थे, जब कि कुछ लोग इसे नापसंद भी करते थे। अफ़सोस इसका है कि खुद इमाम मोहम्मद ने इस रिवायत पर कोई गुफ्तगू नहीं की है, न इससे कुछ इस्तिदलाल किया है। हालांकि सैरुल कबीर के शारेह शम्सुल अइम्मा इमाम मोहम्मद बिन अहमद सरख़सी (483 हिजरी) ने इससे नगमा के कई मसले अख्ज़ किये हैं। सबसे पहले इमाम मोहम्मद की वह रिवायत देखिये:

عَنْ أَنَسِ بْنِ مَالِكٍ - رَضِيَ اللَّهُ عَنْهُ - أَنَّهُ دَخَلَ عَلَى أَخِيهِ الْبَرَاءِ بْنِ مَالِكٍ وَهُوَ يَتَغَنَّى فَقَالَ: أَتَتَغَنَّى؟ فَقَالَ: أَخْشَى أَنْ أَمُوتَ عَلَى فِرَاشِي وَقَدْ قَتَلْتُ سَبْعَةً وَسَبْعِينَ مِنْ الْمُشْرِكِينَ بِيَدِي سِوَى مَا شَارَكْتُ فِيهِ الْمُسْلِمِينَ.

हज़रत अनस बिन मालिक से रिवायत है कि आप अपने भाई बराअ बिन मालिक के पास तशरीफ ले गए तो देखा कि वह नगमा संजी में मसरूफ हैं। यह देख कर हज़रत अनस ने कहा: आप नगमा संजी फरमा रहे हैं? जवाब में हज़रत बराअ ने फरमाया: मुझे इस बात का डर है कि कहीं मैं अपने फराश पर ही लुकमा ए अजल न बन जाऊं, हालांकि मैं ने तनहा 77 मुशरिकीन को क़त्ल किया है और जिन के क़त्ल में दुसरे मुसलमान भी शरीक रहे हैं वह अलग हैं।

इसकी शरह में इमाम सरख़सी ने हस्बे जेल मसले अख्ज़ किये हैं:

1- इससे मालुम हुआ कि तनहाई में डर को दूर करने के लिए नगमा संजी सहीह है।

2- हज़रत अनस ने इस पर हैरत का इज़हार किया, जिसके बाद हज़रत बराअ ने वजाहत की, जिसका हासिल यह था कि उनकी नगमा संजी बतौर लहव व गफलत के नहीं, बल्कि एक अच्छी नियत से थी और वह वसवसो और खतरों को दूर करने की नियत से थी।

3- इससे मालुम हुआ कि इस कदर नगमा संजी सहीह है। बल्कि अगर नगमा संजी लहव के लिए हो तो वह मकरूह होगा, जैसा कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया:

أَنْهَاكُمْ عَنْ صَوْتَيْنِ أَحْمَقَيْنِ فَاجِرَيْنِ: صَوْتُ الْغِنَاءِ فَإِنَّهُ مِزْمَارُ الشَّيْطَانِ، وَخَمْشُ الْوُجُوهِ وَشَقُّ الْجُيُوبِ رَنَّةُ الشَّيْطَانِ۔(ملخصاً، شرح السیر الکبیر، باب لمبارزۃ،۱/۷۲(

इमाम मोहम्मद की मजकुरा बाला रिवायत और शम्सुल अइम्मा सरख़सी की शरह से मालूम होता है कि उलमा ए अह्नाफ के यहाँ जो मुतलक गिना की हुरमत मन्कूल है, मकाम ए तहकीक में वह मुतलक हो कर भी मुकय्यद है। दफअ ए वहशत और दफअ ए वसाविस के लिए बिला कस्दे लहव जवाज़े नगमा का कौल इसी हकीकत को साबित करता है। इमाम मोहम्मद ने अल जामेअ अल सगीर में इमाम अबू हनीफा से दावते वलीमा से संबंधित जो रिवायत नकल की है, इससे भी इस ख्याल को बल प्राप्त होता है। वह रिवायत निम्नलिखित है:

رجل دعى إِلَى وَلِيمَة أَو طَعَام فَوجدَ هُنَاكَ لعباً أَو غناء فَلَا بَأْس بِأَن يقْعد وَيَأْكُل، قَالَ أَبُو حنيفَة رضى الله عَنهُ ابْتُلِيتُ بِهَذَا مرّة۔(الجامع الصغیر، کتاب المزارعۃ، مسائل من كتاب الكراهية لم تشاكل ما في الأبواب(

किसी शख्स को वलीमे या खाने की दावत पर बुलाया गया, वहाँ उसने लहव व नगमा होता हुआ देखा तो वहाँ बैठने और खाने में कोई हरज नहीं। इमाम अबू हनीफा फरमाते हैं: एक बार मैं भी इसमें मुब्तिला हुआ था।

बज़ाहिर यह मालुम होता है कि इमाम साहब के नज़दीक गिना मुबाह है। ज़्यादा से ज़्यादा मकरूह है, लेकिन हराम नहीं है। इसकी वजह यह है कि वह गिना वाले वलीमे में बैठने और खाने की इजाज़त देते हैं और इसमें कोई हर्ज नहीं समझते। अगर वह गिना को हराम समझते तो हरगिज़ इसकी इजाज़त न देते। रहा उनका यह कहना कि एक बार मैं भी इसमें मुब्तिला हुआ थातो इससे अधिक से अधिक खिलाफे औला, खिलाफे मुरव्वत या अधिक से अधिक मकरूह होना साबित होता है, न कि हराम; क्योंकि इसमें हराम का पहलु जो निकल सकता था, لَا بَأْس بِأَن يقْعد وَيَأْكُ कह कर इसे पहले ही रद्द कर चुके हैं।

इसलिए आम फुकहा ए हनफिया जो गिना को मुतलकन हराम समझते हैं, वह इमाम साहब के मजकुरा कौल इब्तुलियत से गिना की हुरमत पर इस्तिदलाल करते हैं और इस सवाल के जवाब में कि फिर इमाम साहब ऐसी मजलिस में बैठे क्यों रहे, उठ कर चले क्यों नहीं आए? वह यह कहते हैं कि ऐसा इसलिए कि वह बावकार मुक्तदा थे और उनको उम्मीद थी कि उनकी वजह से गिना बंद हो जाएगा। ({FR 3542}) या इसलिए कि यह घटना उनके मुक्तदा बनने से पहले का है और आम आदमी के लिए ऐसी दावत में शिरकत की इजाज़त इसलिए है कि दावत कुबूल करना सुन्नत है और यहाँ जो खराबी पैदा हुई है वह, दावत में नहीं बल्कि एक खारजी अम्र में है और किसी अम्रे खारिज में मअसियत पैदा हो जाने के सबब असल सुन्नत को तर्क नहीं किया जाएगा।

फुकहा ए अह्नाफ ने मज़ीद कहा कि अगर गिना दस्तरख्वान पर ही हो रहा हो तो फिर आदमी को वहां से उठ जाना चाहिए। गौर कीजिये तो फुकहा की यह साड़ी तौजीहात, तावीलात पर आधारित मालुम होती हैं, जिसकी हाजत इसलिए पड़ी है कि आम फुकहा ए अह्नाफ ने गिना को हराम मान लिया है। यहाँ तक कि अल्लामा कासानी ने बिदाए अल सनाए (किताब अल इस्तेहसान) में और अल्लामा बदरुद्दीन ऐनी ने अलबिनाया शरह हिदाया (किताबुल कराहिया, फसल फिल अक्ल वल शरब) में साफ़ लिख दिया: اِنَّ مُجَرَّدَ الغِنَاءِ وَالاِستِمَاعِ الَیہِ مَعصِیَۃٌ۔ (गिना मुजर्र्द और उसका समाअ भी मासियत है) इसी तरह मुगनी और मुग्निया को फुकहा ए अह्नाफ ने मरदूदुल सहादत कहा है, जिससे मालुम होता है कि महज़ नगमा और नगमा संजी भी फिस्क व मासियत है। (अल मुहीत, किताबुल शहादात, फसल सोम)

उपर इमाम सरख़सी की शरह अल सैरुल कबीर से गुज़रा कि गिना मकरूह उस समय है जब अज़ राहे लहव हो। यह बात उन्होंने हदीस बराअ बिन मालिक की शरह के जेल में कही है। इसी हदीस के ज़ेल में अल्लामा बुरहानुद्दीन इब्ने माज़ा फरमाते है कि संभव है जो अशआर पढ़ रहे थे वह वअज़ व हिकमत पर आधारित रहे हों, हकीकत में गिना न हो; क्योंकि गिना का इतलाक जिस तरह माअनी माअरूफ पर होता है, उसी तरह दुसरे मुआनी पर भी होता है। नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के इरशाद: (مَن لَم یَتَغَنَّ بِالقُرآنِ فَلَیسَ مِنَّا (जो कुरआन को गिना के साथ न पढ़े वह हम में से नहीं) उसी में से है।

(अल मुहीत अल बुरहानी, किताबुल शहादात, फस्ल सोम)

इस से मालुम हुआ कि फुकहा ए अह्नाफ जो मुतलक गिना को हराम या मकरूह कह रहे हैं, उनकी मुराद गिना से मुत्लकन अशआर की नग्मगी व तरन्नुम रेज़ी नहीं है, बल्कि वह गिना है जो उनकी इस्तेलाह में मारुफ़ है। गोया फुकहा ए अह्नाफ जब गिना बोलते हैं तो इससे एक परिचित व प्रसिद्ध समझ मुराद लेते हैं। गौर करने से मालूम होता है कि फुकहा की मुराद गिना से वह गज्लियात है जिसमें हुस्न व इश्क और बादह व सागर का ज़िक्र होता है। इसका इशारा इससे भी मिलता है कि अल्लामा बुरहानुद्दीन इब्ने माज़ा फरमाते हैं कि संभव है कि हज़रत बराअ बिन मालिक जो अशआर पढ़ रहे थे वह हिकमत व मौइज़त पर आधारित हों और मुबाह अशआर हों। अब उनके मुक़ाबिल वही अशआर रह जाते हैं जिनका संबंध हुस्न व शबाब से हो और जो फिस्क व मासियत की वादियों से गुज़र रहे हों। हालांकि गजलियात की हुरमत भी मुतलकन नहीं है। कुछ तफसील गुज़र चुकी कुछ आगे आती है।

इस तरह जिन फुकहा ए अह्नाफ ने गिना को अज़ राहे लहव मना किया है, ज़ाहिर है कि लहव से उनकी मुराद वह गफलत है जो हक़ से गाफिल करने वाली हो। शिर्क व कुफ्र और कबाएर। وَمِنَ النَّاسِ مَنْ يَشْتَرِي لَهْوَ الْحَدِيثِ لِيُضِلَّ عَنْ سَبِيلِ اللَّ से इसी का इशारा मिलता है। रहा वह गिना जो ज़िक्र के लिए हो, हम्द व सना और नात व मनकबत के लिए हो, वह मुसतस्ना है, इसे लहव नहीं कहा जा सकता। इसी तरह तफरीह तबअ या ख़ुशी के मौकों पर इजहारे मुसर्रत के लिए गिना सूना तो वह भी लहव नहीं है, इस [पर लहव का इतलाक मजाज़न है, या लहव तो है मगर लहव मुत्लकन हराम नहीं है, जिसकी तरफ मजकुर बाला आयत इशारा करती है। मज़ीद यह कि कुछ आयतें यूँ तो पुरी ज़िन्दगी को लहव व लइब कहा गया है। ({FR 3543}) अगर मुतलकन लहव हराम हो तो फिर पुरी जिंदगी हराम हो जाए। साबित हुआ कि लहव ममनूअ वह गफलत है जो खुदा और रसूल के इनकार पर आधारित हो, या ज़िक्रे फर्ज़ से गफलत पर आधारित हो, या उमुरे हराम में तलविस और इन्हेमाक पर आधारित हो, या फिर वाजिबात- इबादात व मुआमलात- के तर्क पर आधारित हो।

-------जारी----------

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Urdu Article: Listening to Songs in the Light of the Hanafi School of Jurisprudence – Part 1 سماع نغمہ-مذہب حنفی کی روشنی میں

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