अरशद आलम, न्यू एज इस्लाम
उर्दू से अनुवाद न्यू एज इस्लाम
कई मुस्लिम महिलाएं हिजाब को एक रूढ़िवादी धार्मिक प्रथा मानती
हैं।
प्रमुख बिंदु:
*अंतरराष्ट्रीय हिजाब दिवस के माध्यम से पसंद और स्वतंत्रता
के प्रश्न के रूप में नकाब को बढ़ावा दिया जा रहा है।
* इस आंदोलन को विभिन्न इस्लामी संगठनों का समर्थन प्राप्त
है।
* अब हिजाब के पक्ष में धर्मनिरपेक्ष कारण सामने रखे जा
रहे हैं जो सभी फर्जी हैं।
* हिजाब पहनने का मुख्य कारण धार्मिक है क्योंकि इसकी
आज्ञा सहिफों में है।
* और सहिफों में स्वतंत्रता या पसंद के संबंध में पर्दे
का कोई उल्लेख नहीं है।
* यह अच्छा है कि अब खुद मुस्लिम महिलाएं ऐसी बातों का
विरोध कर रही हैं।
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1 फरवरी को मुस्लिम महिला समूहों ने अंतर्राष्ट्रीय हिजाब दिवस
मनाया। शुरुआत में ऐसी महिलाएं कुछ पश्चिमी देशों की थीं लेकिन अब 'तहरीक' ने विश्व स्तर पर गति पकड़ ली
है जिसमें मुस्लिम दक्षिण की महिलाएं भी तेजी से भाग ले रही हैं। विदेशी महिलाओं के
लिए, आंदोलन का उद्देश्य पश्चिमी
देशों में हिजाब को सामान्य बनाना है। उनका मानना है कि महिलाओं के शरीर पर कानून नहीं
थोपा जाना चाहिए: कि जब यूरोपीय और अमेरिकी महिलाओं पर 'विशेष तरीके' से कपड़े पहनने का बहुत दबाव था, लेकिन पुरुषों द्वारा ध्यान नहीं
दिया गया था, तो थोपने के सवाल पर कभी विचार नहीं किया गया था। इसलिए अगर महिलाओं को बिकनी पहनने
की आजादी है तो उन्हें भी हिजाब पहनने की आजादी होनी चाहिए। इसलिए, मुस्लिम महिलाओं के लिए पोशाक
की स्वतंत्रता के रूप में पर्दे को बढ़ावा दिया गया था। पर्दे का समर्थन करने वाली
पश्चिमी मुस्लिम महिलाओं की संख्या कम थी। अधिकांश महिलाओं ने या तो उनके निमंत्रण
को नजरअंदाज कर दिया या उदासीन बनी रही।
लेकिन बात केवल यहीं नहीं रुकी। आज यह तहरीक हज़ारों मुस्लिम महिलाओं को अपनी तरफ आकर्षित कर रहा है जो पर्दे के उपयोग को पसंद और आज़ादी के तौर पर पेश करने की हिमायत करती हैं। लेकिन बात केवल इतनी ही नहीं है; यह तहरीक अब गैर मुस्लिम महिलाओं तक भी फ़ैल चुकी है और मुसलमानों ने उन्हें पर्दे के साथ आने वालिऊ ‘आज़ादी’ का तजुर्बा करने की दावत दी है। आज इस तहरीक को कोई अजीब सा मामला नहीं कहा जा सकता जिसकी वजह से इससे पहले एक अजीब तजस्सुस पैदा हुआ था, बल्कि अब इसे दुनिया भर में कई ऐसी इस्लामी और इस्लाम पसंद तंजीमें परवान चढ़ा रही हैं जो “मुस्लिम जीवन शैली” को बढ़ावा देना चाहती हैं। और वह समझते हैं की जीवन के इस विशेष अंदाज़ को ज़ाहिर करने का बेहतरीन तरीका पर्दा हैं। किसी भी रुढ़िवादी तहरीक की तरह, इस्लामिज्म भी महिलाओं के जिस्मों और तहरीकों का इस्तेमाल करता है ताकि समाज के बारे में उनके विचार को फैलाया जा सके।
पर्दे के हक़ में कई कारण शामिल हैं। लेकिन यह सब के सब फर्ज़ी हैं और उनकी कोई हकीकत नहीं है। कहा जाता है कि पर्दा महिलाओं को “सुरक्षा” के तौर पर निशानज़द करके उनकी इज्ज़त व तकरीम को बढ़ाता है। कुछ अरबी चैनल्ज़ पर मर्दों का बेपर्दा औरतों का मवाजना नंगी “गोश्त के टुकड़ों” से करना गैर मामूली बात नहीं है। पर्दादार महिलाओं की तुलना “कीमती फलों” से किया जाता है जबकि बेपर्दा औरतें वह हैं जिनकी कोई “कीमत” नहीं होती। लेकिन जैसा की हम देख सकते हैं, यह बात चीत जिसमें महिलाओं की आवाजें नदारद हैं, बुनियादी तौर पर महिलाओं के सुरक्षा के बारे में नहीं बल्कि मुस्लिम मर्दों के एक ख़ास तसव्वुर के बारे में है। औरतें केवल इस हद तक मतलूब हैं कि वह मर्दों की मुतलक जिंसी मिलकियत बनी रहें। इसलिए केवल “वही” औरतों को अपनी ख्वाहिश के मुताबिक़ देखना चाहते हैं। वह महिलाओं को जिस अंदाज़ से देख रहे हैं वह अपने आप में खुद एक मसला है। महिलाओं को इज्जत व तकरीम के लिए पर्दा करने की आवश्यकता नहीं। बल्कि इसके लिए उनके साथ केवल एक साथी और बराबर इंसान के तौर पर बर्ताव करने की आवश्यकता है। पर्दा महिलाओं को इज्जत नहीं देता। बल्कि जो समाज नकाब या बुर्के को लागू करते हैं वह भी बहुत रुजअत पसंद देशों के ही होते हैं
पर्दे के पक्ष में एक और तर्क यह है कि यह महिलाओं को पुरुषों
के अवांछित ध्यान से बचाता है, इसलिए यह यौन हिंसा में बाधा है। इस तरह के तर्कों से उत्पीड़ितों को ही दोष दिया
जाता है। पुरुषों की इस्लाह की कोशिश करने के बजाय, असल में यह इसबात की दलील है कि औरतें बेपर्दा हो कर अपने उपर हिंसा को दावत देती
हैं। हालांकि, इस बात का कोई सबूत नहीं है कि जिन समाजों में नकाब या बुर्का लागू होता है,
वहां महिलाओं के खिलाफ हिंसा
की कोई घटना नहीं होती हो। वास्तव में, सच इसके विपरीत है। ऐसी जगहों पर हिंसा इतनी आम है कि महिलाएं
इस तरह की घटनाओं की सूचना देने की हिम्मत तक नहीं करती हैं, नहीं तो वे खुद उपहास और उत्पीड़न
का निशाना बन जाती हैं।
इसलिए, पर्दे के बचाव में इस तरह के तर्कों में कोई दम नहीं है। स्पष्ट रूप से यह कहने के बजाय कि पर्दा इस्लाम का हुक्म है, मुसलमान इसे सही ठहराने के लिए धर्मनिरपेक्ष कारण खोजने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन कोई इस पर यकीन करने वाला नहीं है। कुरआन में पर्दे का हुक्म निम्नलिखित आयत से लगाया जा सकता है। “और (ऐ रसूल) ईमानदार औरतों से भी कह दो कि वह भी अपनी नज़रें नीची रखें और अपनी शर्मगाहों की हिफाज़त करें और अपने बनाव सिंगार (के मक़ामात) को (किसी पर) ज़ाहिर न होने दें मगर जो खुद ब खुद ज़ाहिर हो जाता हो (छुप न सकता हो) (उसका गुनाह नही) और अपनी ओढ़नियों को (घूँघट मारके) अपने गरेबानों (सीनों) पर डाले रहें और अपने शौहर या अपने बाप दादाओं या आपने शौहर के बाप दादाओं या अपने बेटों या अपने शौहर के बेटों या अपने भाइयों या अपने भतीजों या अपने भांजों या अपने (क़िस्म की) औरतों या अपनी या अपनी लौंडियों या (घर के) नौकर चाकर जो मर्द सूरत हैं मगर (बहुत बूढे होने की वजह से) औरतों से कुछ मतलब नहीं रखते या वह कमसिन लड़के जो औरतों के पर्दे की बात से आगाह नहीं हैं उनके सिवा (किसी पर) अपना बनाव सिंगार ज़ाहिर न होने दिया करें और चलने में अपने पाँव ज़मीन पर इस तरह न रखें कि लोगों को उनके पोशीदा बनाव सिंगार (झंकार वग़ैरह) की ख़बर हो जाए और ऐ ईमानदारों तुम सबके सब ख़ुदा की बारगाह में तौबा करो ताकि तुम फलाह पाओ (24:31)।
उपरोक्त आयत से यह स्पष्ट है कि इस्लाम में महिलाओं को "पारसाई" अपनाने की आज्ञा दी गई है और ऐसा करने का निर्धारित तरीका पर्दा करना है। आयत और कई अन्य हदीसें यह भी दर्शाती हैं कि महिलाओं को पुरुष के लिए फितने का कारण माना जाता है। और ये महिलाएं ही हैं जो अपने जादू से मुस्लिम पुरुषों को आकर्षित करती हैं। और सहिफों के लेखकों के अनुसार, इस तरह के फितने को रोकने का सबसे अच्छा तरीका महिलाओं का पर्दा करना है। इसमें अशरफ अली थानवी का क्या दोष है जब वह मुस्लिम महिलाओं को अपनी किताब बहिश्ती ज़ेवर में शांत स्वर में बोलने की सलाह देते हैं ताकि गैर-पुरुष उनकी आवाज़ न सुनें और फ़ितना का कारण बन जाएं! इसलिए, मानक इस्लामी परंपरा महिलाओं के बारे में ऐसा ही सोचती है: यानी एक महिला वह है जिसके नाम की कोई पहचान नहीं है और कोई स्वतंत्रता नहीं है, केवल उसका एकमात्र उद्देश्य पुरुषों को खुश करना और बच्चे पैदा करना है। यह एक तथ्य है कि इस्लामी फिकह में दो महिलाओं की गवाही को एक पुरुष के बराबर माना जाता है, जो यह साबित करता है कि धर्म उन्हें पुरुषों से कम और हीन मानता है।
ऐसे धार्मिक संदर्भ को देखते हुए, यह तर्क कि हिजाब स्वतंत्रता और पसंद का मामला है, पूरी तरह से अविश्वसनीय है। इसके अलावा, ऐसी सभी महिलाएं और उनके संबद्ध संगठन कभी नहीं कहते हैं कि मुसलमानों को स्वतंत्रता और अधिकार होना चाहिए कि वे पर्दा न करें। जब सऊदी अरब, अफगानिस्तान, ईरान और आचे में इस्लामी सरकारें पर्दे को जबरदस्ती थोपती हैं, तो ऐसे समूह चुप रहते हैं।
यह अच्छी की बात है कि मुस्लिम महिलाएं स्वयं इस पर्दे की स्थिति
का विरोध कर रही हैं और इसे जबरदस्ती और वर्चस्व के रूप में खारिज कर रही हैं। 'विश्व हिजाब दिवस' के विपरीत अब 'नो हिजाब डे' मनाया जा रहा है, जिससे पता चलता है कि कैसे यह
कपड़े का टुकड़ा मुस्लिम महिलाओं की लाचारी और यौन शोषण का प्रतीक बन चुका है।
पश्चिम में मुस्लिम महिलाओं के लिए हिजाब को फैशन बनाना और उसका जश्न मनाना बहुत आसान है। लेकिन दक्षिणी देशों में यह एक अलग मामला है जहां हिजाब और पर्दा मर्दाना इस्लामी हिंसा का प्रतीक बन चुका है।
English Article: Hijab, Muslim Women and the Question of Choice
Urdu Article: Hijab, Muslim Women and the Question of Choice حجاب، مسلم خواتین اور آزادی
کا مسئلہ
Malayalam Article: Hijab, Muslim Women and the Question of Choice മുസ്ലീംസ്ത്രീകളുംഹിജാബ്ചോയിസിന്റെചോദ്യവും
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