अदीस दुद्रेजा, न्यू एज इस्लाम
(उर्दू से अनुवाद: न्यू एज इस्लाम)
इस लेख का उद्देश्य कुरआन से पहले के सहिफों की तहरीफ़ या परिवर्तन के बारे में कुछ मुस्लिम उलेमा के खयालात को संक्षिप्त तौर पर पेश करना है, ख़ास तौर पर उनके जो यहूदी और ईसाई समाज के साथ जुड़े हैं। कुरआन मजीद ने विभिन्न स्थानों पर शब्द तहरीफ़ का प्रयोग किया है। वह यहाँ पेश है:
१- मोमिनों क्या तुम उम्मीद रखते हो कि यह लोग तुम्हारे (दीन के) कायल हो जाएंगे, (हालांकि) उनमें से कुछ लोग खुदा के कलाम (अर्थात तौरात) को सुनते, फिर उसके समझ लेने के बाद उसको जान बुझ कर बदल देते रहे हैं। (२:७५)
२- पस वाए हो उन लोगों पर जो अपने हाथ से किताब लिखते हैं फिर (लोगों से कहते फिरते) हैं कि ये खुदा के यहाँ से (आई) है ताकि उसके ज़रिये से थोड़ी सी क़ीमत (दुनयावी फ़ायदा) हासिल करें पस अफसोस है उन पर कि उनके हाथों ने लिखा और फिर अफसोस है उनपर कि वह ऐसी कमाई करते हैं। (२:७९)
३- बेशक जो लोग हमारी इन रौशन दलीलों और हिदायतों को जिन्हें हमने नाज़िल किया उसके बाद छिपाते हैं जबकि हम किताब तौरैत में लोगों के सामने साफ़ साफ़ बयान कर चुके हैं तो यही लोग हैं जिन पर ख़ुदा भी लानत करता है और लानत करने वाले भी लानत करते हैं। (२:१५९)
४- और (ऐ रसूल) इनको वह वक्त तो याद दिलाओ जब ख़ुदा ने अहले किताब से एहद व पैमान लिया था कि तुम किताबे ख़ुदा को साफ़ साफ़ बयान कर देना और (ख़बरदार) उसकी कोई बात छुपाना नहीं मगर इन लोगों ने (ज़रा भी ख्याल न किया) और उनको पसे पुश्त फेंक दिया और उसके बदले में (बस) थोड़ी सी क़ीमत हासिल कर ली पस ये क्या ही बुरा (सौदा) है जो ये लोग ख़रीद रहे हैं। (३:१८७)
५- (ऐ रसूल) यहूद से कुछ लोग ऐसे भी हैं जो बातों में उनके महल व मौक़े से हेर फेर डाल देते हैं और अपनी ज़बानों को मरोड़कर और दीन पर तानाज़नी की राह से तुमसे समेअना व असैना (हमने सुना और नाफ़रमानी की) और वसमअ गैरा मुसमइन (तुम मेरी सुनो ख़ुदा तुमको न सुनवाए) राइना मेरा ख्याल करो मेरे चरवाहे कहा करते हैं और अगर वह इसके बदले समेअना व अताअना (हमने सुना और माना) और इसमाआ (मेरी सुनो) और (राइना) के एवज़ उनजुरना (हमपर निगाह रख) कहते तो उनके हक़ में कहीं बेहतर होता और बिल्कुल सीधी बात थी मगर उनपर तो उनके कुफ़्र की वजह से ख़ुदा की फ़टकार है। (४:४६)
६- पस हमने उनकी एहद शिकनी की वजह से उनपर लानत की और उनके दिलों को (गोया) हमने ख़ुद सख्त बना दिया कि (हमारे) कलेमात को उनके असली मायनों से बदल कर दूसरे मायनो में इस्तेमाल करते हैं और जिन जिन बातों की उन्हें नसीहत की गयी थी उनमें से एक बड़ा हिस्सा भुला बैठे और (ऐ रसूल) अब तो उनमें से चन्द आदमियों के सिवा एक न एक की ख्यानत पर बराबर मुत्तेला होते रहते हो तो तुम उन (के क़सूर) को माफ़ कर दो और (उनसे) दरगुज़र करो (क्योंकि) ख़ुदा एहसान करने वालों को ज़रूर दोस्त रखता है। (५:१३)
७- ऐ अहले किताब तुम्हारे पास हमारा पैगम्बर (मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) आ चुका जो किताबे ख़ुदा की उन बातों में से जिन्हें तुम छुपाया करते थे बहुतेरी तो साफ़ साफ़ बयान कर देगा और बहुतेरी से (अमदन) दरगुज़र करेगा तुम्हरे पास तो ख़ुदा की तरफ़ से एक (चमकता हुआ) नूर और साफ़ साफ़ बयान करने वाली किताब (कुरान) आ चुकी है (५:१५)
उपर्युक्त से यह स्पष्ट है, शब्द तहरीफ़ का अनुवाद तो इबारत के सहीह अर्थ को छिपाने के लिए किया गया है, या इबारत के अर्थ को परिवर्तित और बेमहल करने के लिए किया गया है। कुरआनी नुसूस इबारत के ऐन मुताबिक़ अर्थ में किसी हद तक अस्पष्ट हैं, और इसने तहरीफ़ के अवधारणा के अर्थ के संबंध में एक बड़ी तादाद में नज़रियात को जन्म दिया है। हम निम्नलिखित में, उनमें से कुछ की तहकीक करेंगे।
मुस्लिम लेखकों ने बुनियादी तौर पर आमेज़िश और तलबीस का अर्थ या तो तहरीफुल माना, मतन के मानी को मस्ख करना, समझा, या तहरिफुल नस अर्थात खुद मतन में जाल साजी और तहरीफ़ या कुछ सूरतों में इसका पूर्ण रूप से अस्वीकार कर दिया जाना, समझा।
जैसे कि, इब्ने खलदून ने, यहूदी ईसाई सहिफों में जालसाज़ी या तहरीफ़ के खयाल को रद्द कर दिया है “क्योंकि रिवायत उन लोगों को जिनके पास आसमानी दीन है, उनके पवित्र किताबों के साथ इस तरह पेश आने से रोकती है”। तथापि मुस्लिम लेखकों के बीच, तहरीफ़ की सबसे अधिक आम समझ, ख़ास तौर पर ११/५ शताब्दी से जदीद दौर तक, ऐसी रही है जिसने, यहूदियों और ईसाईयों को, जान बुझ कर, ख़ास उनके अपने कलाम के मतन की तहरीफ़ और तगय्युर व तबद्दुल का आरोपी ठहराया है। यहूदी जुबानी रिवायत, एक गैर प्रमाणिक सहिफा मालुम होती है, इसे उस तहरीफ़ और परिवर्तन का भी हिस्सा समझा जाता है। यूँ ही ईसाई फतवा और दुसरे कानून है। इस संदर्भ में, मुस्लिम लेखकों ने तहरीफ़ और परिवर्तन के सबूत के तौर पर “तीन बाइबिल”: के बीच मतभेद पर ज़ोर दिया है, यहूदियों की “इब्रानी बाइबल”, सामरी बाइबल; और ईसाईयों की यूनानी बाइबल’ (अर्थात तौरेत का यूनानी अनुवाद)।
एडमिन फ्रीच ‘Erdmann Fritch’ यह समझते हैं कि अली इब्ने रबान तबरी (मृतक २४० हिजरी) और इमाम जाहिज़ के लिए, बाइबिल का खोटा पन, पहले के असल सहिफों के मतन में नहीं पाया जाता, बल्कि उनका ज़हूर अनुवादकों और लिखने वालों से हुआ है। गावडियोल ‘Gaudeul’ और कैस्पर ‘Caspar’, के अनुसार इब्ने सीना (मृतक- ४२८ हिजरी) इब्ने खलदून और मोहम्मद अब्दा, ने यह समझा कि तहरीफ़ का अर्थ, मतन की गलत व्याख्या हैं, और खुद मतन और नुसूस में खराबी और फसाद नहीं। इमाम कासिम इब्ने इब्राहीम तहरीफ़ का अर्थ, बाइबल की तफ़सीर और तशरीह में तहरीफ़ समझते हैं, खुद मतन में नहीं। इब्ने कुतैबा ने एक खालिस नाज़िल शुदा सहिफे और एक काबिले एतिमाद एतेहासिक मसदर समझा है। बुरहानुद्दीन बहाई, (मृतक १४८० CE) का भी यह ख़याल था कि तहरीफ़ का मतलब बाइबल के मफहूम का परिवर्तन है, नुसूस का नहीं। इब्ने हज़म ने सबसे पहले संगठित तरीके से बाइबल के मतन की तहरीफ़ पर बहस किया था। शाह वलीउल्लाह का खयाल है कि तहरीफ़ का अर्थ, जान बुझ कर और सीधे रास्ते से भटक कर किसी आयत की गलत और मुफ्सिद तशरीह है। अहमद खान ने भी यह नजरिया विकल्प किया है कि तहरीफ़, मतन में बिगाड़ के बजाए, तशरीह के माध्यम से होती है’। एक उसी दौर के शिया मुस्लिम आलिम मोहम्मद तैय्यब, ये लिखते हैं
आम इस्लामी दृष्टिकोण के उलट, कुरआन यहूदियों और ईसाईयों पर अपने सहिफों के मतन की तबदीली का आरोप नहीं लगाता, बल्कि इस हकीकत की तबदीली का जिस पर वह सहीफे आधारित हैं। लोग कुछ पवित्र नुसूस को छिपा कर, उनके अहकाम का गलत इस्तेमाल कर के या शब्दों को उसके सहीह मुकाम से तब्दील कर के यह कारनामा अंजाम देते हैं। इससे इस बात का पहलू ग़ालिब है कि तहरीफ़, इस असल एडिशन में या असल सहिफों से शब्दों को मंसूख करने के बजाए, उसकी तशरीह में होती है।
इसलिए, नतीजा यह निकलता है कि तहरीफ़ के कुरआनी हवाले विभिन्न व्याख्या का विषय है,
और विभिन्न मुसलमानों ने इसका
मतलब, या मतन (के हिस्से) का,
मतन के अर्थ का बिगाड़,
समझा है, या किसी प्रकार की कोई भी खराबी
या बिगाड़ नहीं। उन्होंने जालसाजी के आधार पर भी मतभेद किया है, या तो जान बुझ कर या हाद्साती
तौर पर या किताबों या एडिटर के जरिये या उन फिरकों के असल मज़हबी रहनुमाओं के जरिये
ऐसा किया गया।
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डॉक्टर अदीस दुद्रेजा, विजिटिंग सीनियर लेक्चरर, जेंडर डिपार्टमेंट, यूनिवर्सिटी मलाया, “Constructing a Religiously Ideal Believer and Woman in Islam” के लेखक हैं।
(२०११, Palgrave)
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English article: Some Views on Tahrif or ‘Alteration’ of Pre-Qur’anic
Scriptures
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