सुमित पाल, न्यू एज इस्लाम
उर्दू से अनुवाद न्यू एज इस्लाम
14 जून 2022
कुछ सहीफों के जानकार इस निराधार विश्वास के हामिल हो सकते हैं कि कुरआन की कुछ आयतें कायनात के फैलाव और बिग बैंग थ्योरी की बात करती हैं (जो कि 7 वीं सदी की किसी किताब में नहीं है), जबकि वह उसी गलती का इआदा कर रहे हैं जो अत्यंत कट्टरपंथी हिंदू अतीत में कर चुके हैं।
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मनोवैज्ञानिकों और विज्ञान के इतिहासकारों ने रचनात्मक सोच में प्रतीकात्मकता की भूमिका को स्पष्ट करने के लिए कई मुद्दों का हवाला दिया है, उनमें से कोई भी अगस्त कैकुले के somnolent vision of a snake biting its tail से अधिक प्रसिद्ध नहीं है, जोकि एक ऐसा सपना है जिसमें बेंजेन रंग की वास्तिवक संरचना को जर्मन रसायनज्ञ के सामने ज़ाहिर किया गया है।
जब मैं दर्शन इलाहियात का अध्ययन कर रहा था, तो मैंने अक्सर देखा कि तमाम मज़ाहिब और उनके सहीफों के मुफ़स्सेरीन और तर्जुमान असल में सांप के अपने ही दुम कांटने वाली तथाकथित प्रतीक को इस्तेमाल कर रहे थे। दुसरे शब्दों में वह सब एक दायरे में बहस कर रहे थे (लातीनी: Petito Principii) । में इसकी वजाहत करता हूँ: क्लासिकी भाषा और तर्क में, सवाल करना या नतीजा निकालना (लातीनी: Petito Principii) एक आम गलतफहमी है जी उस समय सरज़द होती है जब दलील का मुक़दमा इसकी हिमायत करने के बजाए उस नतीजे की सच्चाई बन जाता है। जैसे कि यह बयान कि, “हरा बेहतरीन रंग है क्योंकि यह तमाम रंगों में सबसे हरा है” दावा करता है कि हरा रंग सबसे बेहतर है क्योंकि यह सबसे अधिक हरा है। जिसे वह सबसे बेहतर कल्पना करता है। यह सर्कुलर तर्क की किस्म है: जो कि दलील की एक ऐसी किस्म है जिसका तकाज़ा है कि मतलूबा नतीजा दुरुस्त हो। यह अक्सर बिलवास्ता तौर पर होता है जैसे गलतफहमी की मौजूदगी का पोशीदा होना, या कम से कम इसका ज़ाहिर व बाहिर न होना।
यह दो अमली मिसालें मज़हबी बहसों और मुनाज़रों की फितरी बिगाड़ और कमियों पर ज़ोर दे सकती हैं, जिन्हें अना परस्त मज़हबी ‘उलमा’ ने छेड़ रखा है। बस जैन और बुद्ध राहिबों और स्कॉलरों से बहस करने वाले कदीम भारत के हिन्दू स्कॉलर (हमेशा ब्राह्मण) का एक अहम एतेराज़ यह है कि: ब्राह्मण ब्रह्मा (ब्रह्मस्य प्रतिरुपं ब्राह्मण) का मज़हर था। इसलिए, अगर आप पहले ही यह मां चुके हैं कि ब्राह्मण ब्रह्मा का मज़हर है तो बहस कैसे किसी भी तार्किक अंजाम तक पहुँच सकती है? यह दुसरे तमाम तसव्वुरात और मुकदमात का दरवाज़े ही बंद कर देता है।
इसी तरह कुछ सहीफों के जानकारी इस निराधार विश्वास के हामिल हो सकते हैं कि कुरआन की कुछ आयतें कायनात के फैलाव और बिग बैंग थ्योरी की बात करती हैं (जो कि 7 वीं सदी की किसी किताब में नहीं है), जबकि वह इसी गलती का इआदा कर रहे हैं जो अत्यंत कट्टरपंथी हिन्दू अतीत में कर चुके हैं। इसके सामने (गलत) हवाला जात हैं और वह उन्हें सहराई बद्दुओं की कदीम तरीन ‘हिकमत’ से जोड़ने की कोशिश कर रहा है। यह सब लोग बिना किसी मंतिकी अंजाम पर पहुंचे एक दायरे में झगड़ते रहते हैं। इस तरह के फुजूल और बिलकुल निराधार दलीलों से किसी की मज़हबी अना की तस्कीन के अलावा कुछ भी हासिल नहीं हो सकता।
अब सबसे महत्वपूर्ण मसला यह है कि: इस दुनिया को एक बेहतर जगह कैसे बनाया जा सकता है? कोई मज़हब, खुदा या किताब किसी काम के नहीं। कायनात के माहेरीन और फुजूल मुफ़स्सेरीन को यह कयास करने दें कि यह कायनात कैसे वजूद में आई। किसी भी मज़हब के आम इंसानों के पास ऐसे पेचीदा मसलों के साथ को संबंध नहीं होना चाहिए जो हमें किसी भी नतीजे तक न पहुंचाए और उसकी अमली अहमियत सिफर हो। अमली दृष्टिकोण विकल्प करें और मानवता के लिए अपना काम करें। पाणिनि ने संस्कृत को व्याकरण दिया और इसे ‘लिसानियात का बाप कहा जाता है, लेकिन जब इसका सामना एक शेर से हुआ, तो वह लिसानियाती ग्रामर की उलझन में उलझ कर रह गया। यह कहने की आवश्यकता नहीं कि इसे भूका शेर खा गया था। ऐसा दर्दनाक अंजाम आपके साथ न हो।
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