कमाल मुस्तफा अजहरी, न्यू एज इस्लाम
उर्दू से अनुवाद, न्यू एज इस्लाम
५ मई २०२१
बिस्मिल्लाह
हिर्रहमानिर्रहीम
शुबहा नम्बर २: क्या
इस्लाम का जीज़िया लेना ज़िम्मियों पर अत्याचार है?
कुछ मुगालेतीन यह
मुगालता करते हैं कि इस्लाम अहलुल ज़िम्मा (वह कुफ्फार जो जीज़िया देकर दारुल इस्लाम
में पनाह इख्तियार करें) पर अत्याचार का मामला करता है, उनकी आज़ादी छीन लेता
है और उन पर अधिक टेक्स डाल कर परेशानी में मुब्तिला करता है जिसे मुसलमान जीज़िया
का नाम देते हैं और अदा ना करने पर जिहाद का हुक्म देता है।
ईस शुबहा को कुछ कारणों से रद्द
किया जाता है:
इसमें कोई शक नहीं
है कि इस तरह का शक पैदा करने वाले उन सारी बातों से अनजान हैं जो इस्लाम
ज़िम्मियों के अधिकारों की किफालत में बेमिसाल किरदार अदा करता है। हम उन तमाम
चीजों को निम्न लाइनों में ब्यान करते हैं कि दिल व दिमाग शक और संदेह से सुरक्षित
रहें।
सबसे पहले जीज़िया का
अर्थ बयान कर देते हैं:
जीज़िया शब्दकोष में
(जीम-ज़-या) से बना है और फेअलत के वज़न पर है जिसका अर्थ है " أعطوها جزا ما منحوا من
الأمن" जो अमान के बदले में दिया जाए। [मुख्तारुल सिहाह: ४४/१]
जीज़िया वह सीमित और
निश्चित माल है जो इस्लामी सलतनत के तहत रहने और हिफाज़त के बदले में केवल उन योग्य
और काम काज पर कुदरत रखने वाले गैर मुस्लिमों से लिया जाता है जो दारुल इस्लाम में
निवास विकल्प करें।
बूढ़े, बच्चे और औरतों को
जिजिया अदा नहीं करना पड़ता है। इसी तरह फकीर और मरीज़ और काम काज पर कुदरत ना रखने
वाले लोगों से भी जजिया नहीं लिया जाता है बल्कि उनमें से अक्सर तो वह लोग हैं जो
मुसलमानों के बैतूल माल से बकद्रे हाजत हिस्सा भी पाते हैं।
अहलुल ज़िम्मा जो
मुसलमानों के बीच रहते हैं दौलते इस्लामिया की क़ज़ा व जमानत व फ़ौज (Judiciary, Army, Police) की खिदमत से फायदा हासिल
करते हैं उसी तरह अवामी सहूलियात (Public
Facilities) से भी लाभान्वित होते हैं, और यह बात अहले नज़र
से पोशीदा नहीं कि इन तमाम मामलों को चलाने के लिए एक बड़ी रकम खर्च करना पड़ती है
जिसकी अदायगी मुसलमान करते हैं और जिम्मी लोग भी इस खर्चे की अदायगी में हिस्सा
दार बनते हैं।
जीज़िया के बदले
इस्लामी हुकूमत उनकी हिफाज़त व बचाव की जिम्मेदारी उठाती है और उनके लिए इस्लाम के
दायरे में अमन फराहम करती है जिस पर उन्हें जान व माल और इज्ज़त के बचाव या दौलते
इस्लामिया के बचाव का मुकल्लफ़ नहीं करती बल्कि उन तमाम मामलों की हिफाज़त और उनकी
निगरानी के लिए फ़ौजी दस्ता मामूर होता हैं।
तो यह जीज़िया इस्लाम
कुबूल ना करने की सज़ा या ज़ुल्म नहीं है बल्कि यह उनकी हिफाज़त व हिमायत और किफालत व
सरपरस्ती के बदले है। इसलिए कि जीज़िया का कुबूल करना उनकी जान व माल की अस्मत को
साबित करता है। जैसा कि अमीरुल मोमिनीन उमर फारुके आज़म रज़ीअल्लाहु अन्हु ने हजरत
अबू उबैदा रज़ीअल्लाहु अन्हु से सराहतन फरमाया था: " فإذا أخذت منهم الجزية
فلا شيء لك عليهم و لا سبيل." अर्थात जब तुम ने उनसे जीज़िया ले लिया तो अब तुम्हारे लिए
उन पर कोई चीज या रास्ता बाकी ना रहा” [अल खराज: १५४]
इस्लाम ने ज़िम्मियों
की जमानत में एक ऐसी अलग पहल की जिसकी मिसाल मानव इतिहास में नहीं मिलती कि
ज़िम्मियों में से कुदरत रखने वाले लोग सीमित और निश्चित
दिरहम अता करें और फिर मुसलामानों की निगरानी में अमन व सलामती के साथ सुरक्षित हो
कर अपनी खुशगवार जीवन गुजारें, हालंकि कुदरत व ताकत होने के बावजूद ज़ुल्म व सितम ना कर के
अधिकारों में न्याय व इन्साफ अता किया।
ज़िम्मियों के लिए आम
अधीकार
१- जुर्म के संबंध
में कानून ( Criminal
Law )
यह कानून मुसलमान व
जिम्मी पर बराबर जारी होता है अर्थात जुर्म की सजा दोनों के लिए बराबर है, जैसे अगर कोई
मुसलमान जिम्मी का माल चोरी कर ले या जिम्मी मुसलमान का माल चोरी कर ले तो दोनों
हालतों में चोर के हाथ काटे जाएंगे।
२- शहरी कानून (Civil Law)
यह कानून भी दोनों
के लिए बराबर है। जिम्मी का माल मुसलमान के माल की तरह है और ज़िम्मी के लिए शराब
बनाना,
बेचना
ख़ास है और खिंजीर पालने, खाने या बेचने की
इजाज़त है। तो अगर किसी मुसलमान ने जिम्मी की शराब बर्बाद कर दी या खिंजीर को हलाक
कर दिया तो उसका जुर्माना अदा करना लाजिम होगा। जैसा कि दुर्रे मुख्तार में हैं: يضمن المسلم قيمة خمرہ
و خنزيره إذا أتلفه "
३- इज्ज़त व पाकीजगी
की हिफाज़त
जिम्मी को हाथ या
जुबान से तकलीफ पहुंचाना जायज नहीं है और उसको गाली देना, मारना या उसकी गीबत
करना भी जायज नहीं है। दुर्रे मुख्तार में है: " يجب كف الأذى عنه و تحريم
غيبته كمسلم " अनुवाद: जिम्मी को तकलीफ देने से बाज़ रहना जरूरी है और उसकी गीबत
मुसलमान की तरह हराम है।
४- दीनी अनुष्ठान ५-
जीज़िया व खिराज लेने में नरमी
इस्लाम हाजतमंद
जिम्मियों को मुसलमानों के बैतूल माल से हिस्सा भी प्रदान करता है जैसा कि हज़रत
उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ रज़ीअल्लाहु अन्हु ने बसरा में अपने नियुक्त किये हुए गवर्नर
अदि बिन इर्ताह को यह कह कर रवाना किया: "انظر من قبلك من أهل
الذمة، قد كبرت سنه وضعفت قوته وولت عنه المكاسب، فأجرِ عليه من بيت مال المسلمين
ما يصلحه " [ الأموال : 170/1]
अनुवाद: अपना ख्याल
रखने से पहले अहले ज़िम्मा का ख्याल रखना कि उनमें कुछ दराज़ हो गए हैं, कुछ जईफ व कमज़ोर हैं
और उनकी आमदनी दूर हो गई है तो मुसलमानों के बैतूल माल से उनको अता करना जिससे
उनकी हालत में सुधार आए।
इस्लाम की मईशत में
गैर मुस्लिमों ने इस तरह आजादी व इन्साफ के साथ जिंदगी गुजारी है तो आज मुसलमानों
के साथ इतना अत्याचार क्यों?
इस्लाम रहमत व
सलामती का दीन है जो नफरत व दुश्मनी की तरफ नहीं उकसाता बल्कि वह मुस्लिम व गैर
मुस्लिम के बीच क़ज़ा व दुसरे मामलों में बराबरी का दर्स देता है जिसकी तारीख में
अनगिनत मिसालें मौजूद हैं।
यहाँ वह घटना
बेहतरीन मिसाल है जो हजरत अली रज़ीअल्लाहु अन्हु और एक यहूदी शख्स के बीच पेश आया।
हज़रत अली रज़ीअल्लाहु अन्हु की जिरह गुम हो गई जो आप ने एक यहूदी शख्स के पास पाई
तो आप उस शख्स के साथ क़ाज़ी शरीह रदी अल्लाहु अन्हु के पास तशरीफ लाए और फरमाया यह
मेरी जिरह है जो ना मैंने बेची है और ना हिबा की है, तो हजरत क़ाज़ी शरीह
ने उस शख्स से पुछा जो अमीरुल मोमिनीन फरमा रहे हैं इस पर तुम क्या कहते हो? तो उस शख्स ने कहा
यह तो मेरी ही ज़िरह है और ना ही अमीरुल मोमिनीन मेरे नजदीक झूटे हैं। तो क़ाज़ी शरीह
रदी अल्लाहु अन्हु हजरत अली की तरफ मुतवज्जोह हुए और दरियाफ्त किया: ऐ अमीरुल
मोमिनीन आप के पास कोई दलील है? तो हजरत अली मुस्कुराते हुए फरमाते हैं कि क़ाज़ी साहब मेरे
पास कोई वाजेह हुज्जत नहीं है। तो क़ाज़ी शरीह ने फैसला उस यहूदी शख्स के हक़ में
फरमा दिया कि जिरह उस यहूदी शख्स की है। उसने जिरह ली और चला गया। कुछ ही कदम चला
था कि यह कहता हुआ वापस आया कि मैं गवाही देता हूँ कि यह नबियों के फैसलों के
अनुसार फैसले हैं। ऐ अमीरुल मोमिनीन मुझे क़ाज़ी के करीब कर दें कि वह फैसला फरमाएं
और उसने कलमा पढ़ा: لا إله إلا الله و أشهد أن محمدا عبده و رسوله, और कहने लगा: ऐ अमीरुल मोमिनीन! अल्लाह कि कसम यह आप ही की
जिरह है जो मैंने आपके ऊंट से निकाली थी। हजरत अली रदी अल्लाहु अन्हु ने फरमाया:
" أما إذا أسلمتَ فهي لك
" جب تو ایمان لے آیا تو اب یہ تیری ہے۔ [ سنن کبری : 20252 ]
इस्लाम में इस तरह
का इन्साफ है कि खुद अमीरुल मोमिनीन इस्लाम के क़ाज़ी के सामने उस यहूदी शख्स के साथ
फैसला के लिए हाज़िर हैं बावजूद इसके कि आप हक़ पर थे और पावर फुल थे और क़ाज़ी भी
प्रमाण तलब कर रहे हैं, इसी बात पर अमीरुल मोमिनीन मुस्कुराए भी कि वह हक़ पर हैं
मगर उनके पास कोई सबूत नहीं है। क्योंकि वह मुद्दई थे और हदीस पाक है: أن الْبَيِّنَةَ عَلَى
الْمُدَّعِي، وَالْيَمِينَ عَلَى الْمُدَّعَى عَلَيْهِ. [ سنن ترمزی : 1342 ] अर्थात दलील मुद्दई
पर और कसम मुद्दा अलैह पर है।
यह नरमी का ही मामला
है कि अमीर और रिआया में से एक यहूदी के बीच कोई फर्क नहीं किया गया। और इस फैसले
ने उस शख्स को हैरान कर दिया यहाँ तक कि ईमान ले आया।
जीज़िया की मशरुईयत
अल्लाह पाक इरशाद
फरमाया है:
قَاتِلُوا الَّذِينَ
لَا يُؤْمِنُونَ بِاللَّهِ وَلَا بِالْيَوْمِ الْآخِرِ وَلَا يُحَرِّمُونَ مَا
حَرَّمَ اللَّهُ وَرَسُولُهُ وَلَا يَدِينُونَ دِينَ الْحَقِّ مِنَ الَّذِينَ
أُوتُوا الْكِتَابَ حَتَّىٰ يُعْطُوا الْجِزْيَةَ عَن يَدٍ وَهُمْ
صَاغِرُونَ [ سورہ التوبة : 29 ]
अनुवाद: अहले किताब में से
जो लोग न तो (दिल से) ख़ुदा ही पर ईमान रखते हैं और न रोज़े आख़िरत पर और न ख़ुदा और
उसके रसूल की हराम की हुई चीज़ों को हराम समझते हैं और न सच्चे दीन ही को एख्तियार
करते हैं उन लोगों से लड़े जाओ यहाँ तक कि वह लोग ज़लील होकर (अपने) हाथ से जीज़िया
दे[९:२९]
इस आयत के तहत इमाम
कुर्तुबी रहमतुल्लाह अलैह फरमाते हैं:
قَالَ عُلَمَاؤُنَا
رَحْمَةُ اللَّهِ عَلَيْهِمْ: وَالَّذِي دَلَّ عَلَيْهِ الْقُرْآنُ أَنَّ
الْجِزْيَةَ تُؤْخَذُ مِنَ الرِّجَالِ الْمُقَاتِلِينَ، لِأَنَّهُ تَعَالَى قَالَ:
"قاتِلُوا الَّذِينَ" إِلَى قَوْلِهِ: "حَتَّى يُعْطُوا
الْجِزْيَةَ" فيقتضي ذلك وجو بها عَلَى مَنْ يُقَاتِلُ. [ تفسیر قرطبی ]
अर्थात हमारे उलेमा
किराम ने बयान फरमाया है: कुरआन की दलालत यह है कि जीज़िया जंग करने वालों से लिया
जाएगा, क्योंकि आयत उस पर जीज़िया
के वजूब का तकाजा करती है जो जंग करे।
तो क्या उन पर सख्ती
और परेशानी में डालना और उनकी हुर्रियत को सलब करना और ताकत से अधिक टेक्स लेना है?
या यह इस्लाम की
विस्तृत रहमत जो तमाम आलमीन को शामिल है कि रब फरमाता है: { وَمَا
أَرْسَلْنَاكَ إِلَّا رَحْمَةً لِّلْعَالَمِينَ } [ سوره الأنبياء : 107 ]
अनुवाद: “हमने ना भेजा मगर
सारे जहां के लिए रहमत बना कर”।
इस्लाम ने ज़िम्मियों
की अमन व सलामती के लिए क्या तम्बीहात जारी फरमाई हैं?
ज़िम्मियों से ज़ुल्म
व तकलीफ को दूर करने की कुरआन पाक और हदीसों और सीरते सहाबा में कसीर मिसालें
मौजूद हैं।
अल्लाह पाक इरशाद
फरमाता है:
لَّا يَنْهَاكُمُ
اللَّهُ عَنِ الَّذِينَ لَمْ يُقَاتِلُوكُمْ فِي الدِّينِ وَلَمْ يُخْرِجُوكُم
مِّن دِيَارِكُمْ أَن تَبَرُّوهُمْ وَتُقْسِطُوا إِلَيْهِمْ ۚ إِنَّ اللَّهَ
يُحِبُّ الْمُقْسِطِينَ (سورہ ممتحنہ آیت ۸)
अर्थात “जो लोग तुमसे
तुम्हारे दीन के बारे में नहीं लड़े भिड़े और न तुम्हें घरों से निकाले उन लोगों के
साथ एहसान करने और उनके साथ इन्साफ़ से पेश आने से ख़ुदा तुम्हें मना नहीं करता बेशक
ख़ुदा इन्साफ़ करने वालों को दोस्त रखता है”।
नबी करीम सल्लल्लाहु
अलैहि वसल्लम ने फरमाया: " مَنْ قَتَلَ مُعَاهَدًا لَمْ يَرِحْ رَائِحَةَ
الْجَنَّةِ، وَإِنَّ رِيحَهَا تُوجَدُ مِنْ مَسِيرَةِ أَرْبَعِينَ عَامًا "
[صحيح البخاري : 3166 ]
अर्थात “जिसने किसी जिम्मी
को नाहक कत्ल किया वह जन्नत की खुशबु भी नहीं पाएगा और बे शक जन्नत की खशबू चालीस
साल की राह से सूंघी जा सकती है”।
रहमते आलम
सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने इरशाद फरमाया: " ألا من ظلم معاهدا، أو
انتقصه، كلفه فوق طاقته، أخذ منه شيئاً بغير طيب نفس منه ، فأنا حجيجه يوم
القيامة. " [ سنن أبو داؤد : 3052 , سنن كبرى : 18511 ]
खबरदार! जिस किसी ने
किसी अहद वाले (जिम्मी) पर ज़ुल्म किया या उसकी तनकीस की (अर्थात उसके हक़ में कमी
की) या उसकी हमीयत से बढ़ के उसे किसी बात का मुकल्लफ़ किया या उसकी दिली रज़ा मंदी
के बिना कोई चीज तो कयामत के रोज़ में उस जिम्मी को इन्साफ दिलाऊंगा।“
तशरीए जीज़िया में
हिकमत
इस्लाम ने जीज़िया मुकर्रर
कर के गैर मुस्लिमों के साथ भलाई की है ना यह कि उनको यक बारगी इस्लाम में दाखिल
होने पर मजबूर किया है।
सदरुल अफाज़िल हजरत
अल्लामा नईमुद्दीन मुरादाबादी तहरीर फरमाते हैं: जीज़िया मुक़र्रर करने की हिकमत यह
है कि कुफ्फार को मोहलत दी जाए ताकि वह इस्लाम के महासिन और दलीलों की कुव्वत
देखें और क़ुतुब कदीमा में हुजुर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की खबर और हुजुर की नेमत
व सिफत देख कर मुशर्रफ बा इस्लाम होने का मौक़ा पाएं। [तफसीर खजाइनुल इरफ़ान, सुरह तौबा: २९]
अगर जिम्मी इस्लाम
कुबूल कर ले तो वह जीज़िया भी उससे साकित हो जाता है जैसा कि हज़रत सुफियान सौरी से
इसकी वजाहत मालुम की गई तो उन्होंने फरमाया: "إِذَا أَسْلَمَ فَلَا
جِزْيَةَ عَلَيْهِ " अर्थात जब कोई शख्स इस्लाम कुबूल कर ले तो उस पर जीज़िया
नहीं। [सुनन अबू दाउद: ३०५४]
प्रिय पाठकों!
उपर्युक्त तथ्यों से
यह बात बदरे मुनीर से अधिक रौशन हो गया कि इस्लाम ने अहले ज़िम्मा को जो हुकुक
फराहम किये हैं उससे पहले वह मुतसव्वुर नहीं होते और इसकी मिसाल इस्लाम के अलावा
किसी तरफ से किसी भी ज़माने में नहीं मिलती।
खुलासा: इस्लाम ही दीने हक़ व अदल व रहमत है जिसके लुत्फ़ व करम के बादलों से सारी इंसानियत सैराब हो रही है। वह मुफ्तरी जो जीज़िया की तशरीअ और उसके अलावा दुसरे तशरीआत पर इफ्तेरा करते हैं इस्लाम के नुसुस आदेला व दलाइल सातेआ ईन कज्जाबों के हर शक और शुबहे का मुस्कित जवाब हैं।
Related Article:
URL: https://www.newageislam.com/hindi-section/removing-doubts-concerning-verses-jihad-part-2/d/124836
New Age Islam, Islam Online, Islamic Website, African Muslim News, Arab World News, South Asia News, Indian Muslim News, World Muslim News, Women in Islam, Islamic Feminism, Arab Women, Women In Arab, Islamophobia in America, Muslim Women in West, Islam Women and Feminism