कमाल मुस्तफा अजहरी, न्यू एज इस्लाम
४ मई २०२१
(न्यू एज इस्लाम के
लिए लेख)
उर्दू से अनुवाद, न्यू एज इस्लाम
संदेह नम्बर १: क्या
इस्लाम क्या इस्लाम गैर मुस्लिमों को इस्लाम कुबूल करने के लिए बिला वजह मजबूर करता
है?
क्या इस्लाम आतंकवाद
को बढ़ावा देता है?
बिस्मिल्ला हिर्रहमानिर्रहीम
प्रिय पाठकों! इस
फितने भरे दौर में अपने और पराए आए दिन इस्लाम के पवित्रता और वकार को मजरुह और
पामाल करने और इस्लाम के असल स्रोत से संबंधित लोगों के दिलों और दिमाग में शुकुक
व शुबहात डालने की नापाक कोशिशें कर रहे हैं। अभी तक तो इन्कारे हदीस रसूल
सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का फितना होता था और अब खुद इस्लाम की तशरीआत के पहले और
असली स्रोत पर हमला करने की कोशिश की जा रही है। इन नाज़ुक हालात में हमें कुरआन और
सुन्नत पर मजबूती से अमल पैरा रहने की आवश्यकता है।
जैसा कि सरवरे दो
जहां सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने ऐसे हालात की बाबत पहले ही इरशाद फरमा दिया है: تركتُ فیکم أمرين، لن تَضِلوا ما تمسكتم بهما ، كتاب الله و سنتي " [مؤطا امام مالک : 899/2]
अनुवाद: मैं तुममें
दो चीजें यानी अल्लाह की किताब और अपनी सुन्नत छोड़ रहा हूँ जब तक तुम इन दोनों को
थामे रहोगे हरगिज़ गुमराह नहीं होगे।
इन शुबहात को तरतीब
से तरदीद के साथ कुछ फसलों में पेश किया जाता है।
संदेह नम्बर १: क्या
इस्लाम क्या इस्लाम गैर मुस्लिमों को इस्लाम कुबूल करने के लिए बिला वजह मजबूर करता
है?
क्या इस्लाम आतंकवाद
को बढ़ावा देता है?
कुछ इस्लाम के दुशमन
अज्ञान और कम अकल लोगों के दिलों में यह शक पैदा करते हैं कि इस्लाम दुसरे दीन
वालों पर इस्लाम में दाखिल होने के लिए अत्याचार करता है और जो दाखिल नहीं होना
चाहें उनसे बिलावजह जिहाद का हुक्म देता है क्योंकि इस पर कुरआन मजीद की कई आयतें
हैं जो आतंकवाद (Terrorism) को बढ़ावा देती
हैं।!!!!! (अलअमान वल हफीज)
इस फासिद शक की
निम्नलिखित चार कारणों से दलील के साथ कुरआन और सुन्नत से रद्द की जाती है:
१- यह इस्लाम
की पाक दामनी पर बेजा आरोप है। यह हकीकत हर अक्ल वाले पर ज़ाहिर है कि अकीदा बिना
किसी जब्र व इकराह के पुख्ता इरादा व यकीन का नाम है।
इस्लाम किसी इंसान
को अपनी आगोश में आने के लिए बिलावजह जब्र व इकराह को पसंद नहीं करता जैसा कि खुद
इंसान का दस्तूरे हयात कुरआन करीम इसका एलान फरमाता है:
{ لا اکراہ فی الدین قد تبین الرشد من الغی } [سورہ البقرۃ : 256] अर्थात “कुछ ज़बरदस्ती नहीं
दीन में बेशक खूब जुदा हो गई है नेक राह गुमराही से”।
इस्लाम धर्म यह
चाहता है कि केवल अल्लाह की इबादत की जाए क्योंकि वही सबका खालिक व मालिक है और
उसके साथ किसी को शरीक ना किया जाए यही इंसान का मकसदे हयात है, खालिके कायनात इरशाद
फरमाता है:
{ یأَیُّهَا ٱلنَّاسُ ٱعبُدُوا رَبَّكُمُ ٱلَّذِی خَلَقَكُم وَٱلَّذِینَ مِن قَبلِكُم لَعَلَّكُم تَتَّقُونَ } [سوره البقرة :21]ऐ लोगों अपने रब को
पूजो जिसने तुम्हें और तुमसे अगलों को पैदा किया यह उम्मीद करते हुए कि तुम्हें
परहेज़गारी मिले।
और फरमाता है:
{ وَٱعبُدُوا ٱللَّهَ وَلَا تُشرِكُوا بِهِ شیئا} [سورہ الالنساء : 36] और अल्लाह की बंदगी
करो और उसका शरीक किसी को ना ठहराओ।
इसी लिए इस्लाम ने
गैर अरब मुशरेकीन पर जीजिया रख कर उन्हें अमान की सूरत अता फरमाई और इस्लाम लाने
पर जीजिया भी साकित हो जाता है।
इस्लाम एक रौशन मज़हब
है जिसकी हक्कानियत के साक्ष्य और प्रमाण स्पष्ट हैं इसलिए इस में दाखिल होने के
लिए किसी पर बिलावजह जब्र और इकराह की कोई हाजत नहीं है अर्थात ईमान लाना सआदत
अजली पर मौकूफ है। अल्लाह पाक ने जिसे हिदायत अता फरमाई उसके सीने को कुशादा और
बसीरत को मुनव्वर फरमा दिया, ईमान वही लाएगा जिसके लिए तौफीके इलाही शामिल हो।
और रब्बे कदीर जिसके
दिल को अंधा फरमा देता है और उसकी देखने और सुनने पर परदे डाल देता है तो उसको दीन
में जब्रन दाखिल किया भी नहीं जा सकता कि इर्शादे रब्बानी है:
{ وَمَن یُضلِلِ ٱللَّهُ فَمَا لَهُۥ مِن هَادࣲ } [سوره الرعد : 33] और जिसे अल्लाह
गुमराह करे उसे कोई हिदायत करने वाला नहीं।
अल्लाह पाक ने अपने
हबीब सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से मुखातिब हो कर इरशाद फरमाया:
{ وَ لَوْ شَآءَ رَبُّكَ لَاٰمَنَ مَنْ فِی الْاَرْضِ كُلُّهُمْ جَمِیْعًاؕ - اَفَاَنْتَ تُكْرِهُ النَّاسَ حَتّٰى یَكُوْنُوْا مُؤْمِنِیْنَ } [سقرہ یونس آیت : 99]
और अगर तुम्हारा रब
चाहता ज़मीन में जितने हैं सबके सब ईमान ले आते तो क्या तुम लोगों को ज़बरदस्ती
करोगे यहाँ तक कि मुसलमान हो जाएं।
इस आयते मुकद्द्सा
में अल्लाह पाक ने अपने हबीब सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को तसल्ली अता फरमाई कि आप
चाहते हैं कि सारे लोग ईमान ले आएं और दीने इस्लाम में दाखिल हो जाएं लेकिन आपकी
कोशिश के बावजूद यह दाखिल नहीं होते हैं तो आप गमगीन ना हों क्योंकि जो रोज़े अज़ल
से शकी है वह ईमान नहीं लाएगा।
और इरशाद फरमाया: { فَإِنَّمَا عَلَیۡكَ ٱلۡبَلَـٰغُ وَعَلَیۡنَا ٱلۡحِسَابُ } " [ سوره الرعد : 40 ] तो बहर हाल तुम पर
तो सिर्फ पहुंचाना है और हिसाब लेना हमारा ज़िम्मा है
दूसरी जगह पर
फरमाया:
وَلَوۡ شَاۤءَ ٱللَّهُ لَجَعَلَكُمۡ أُمَّةࣰ وَ احِدَةࣰ وَلَـٰكِن یُضِلُّ مَن یَشَاۤءُ وَیَهۡدِی مَن یَشَاۤءُۚ (سورة النحل : 93) और अल्लाह चाहता तो
तुम को एक ही उम्मत करता लेकिन अल्लाह गुमराह करता है जिसे चाहे और राह देता है
जिसे चाहे।
इमाम बगवी
रहमतुल्लाह अलैह इस आयत के तहत फरमाते हैं: على ملة واحدة و هي الإسلام : وه ملت واحدہ اسلام ہے. [ تفسیر البغوی ]
२ – रहमते आलम
सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने मक्का शरीफ में १३ साल कयाम फरमाया और लोगों को अल्लाह
की तरफ बुलाया कि केवल अल्लाह की इबादत करो, आप की दावत पर उस
मुद्दत में कसीर लोग ईमान ले आए जबकि उस वक्त आप के पास ऐसी ताकत भी नहीं थी कि आप
दूसरों पर इस्लाम में दाखिल होने का दबाव बनाते।
३- एतिकाद के मामले
में यकीने कामिल होना जरुरी है इसलिए कि जो मजबूर हो वह बहुत जल्द ही कमज़ोर सबब
पाते ही फिर जाता है, जबकी यहाँ यह हकीकत है कि पहले सफ के मुसलमान खुद अपनी
मर्जी से अपने जान व माल को दीन पर कुर्बान करने के सच्चे जज्बे के साथ इस्लाम में
दाखिल हुए।
४- सीरते रसूले खुदा
सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम में ऐसे अनगिनत वाकेआत हैं कि आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम
ने मुशरेकीन पर ताकत व कुव्वत रखने के बावजूद भी उनको इस्लाम लाने के लिए मजबूर
नहीं फरमाया बल्कि उन्हें सोचने समझने और खुद इस्लाम लाने की खुली आज़ादी (Freedom of Religion) अता फरमाई थी।
जैसा कि हजरत सफवान
बिन उमय्या रदी अल्लाहु अन्हु के इस्लाम में दाखिल होने की मिसाल है:- मक्का फतह
होने के मौके पर वह यमन की तरफ राहे फरार इख्तियार करने के लिए सवार होने लगे तो
हज़रत उमेर बिन वहाब रदी अल्लाहु अन्हु ने बारगाहे रिसालत सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम
में अर्ज़ किया: या नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम: إن صفوان بن أمية سيد قومه، وقد خرج هاربا منك؛ ليقذف نفسه في البحر، فأمِّنه، صلى الله عليك ، قال : " هو آمن ".
या रसूलुल्लाह
सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम काफिरों का सरदार सफवान बिन उमय्या आप से भाग कर अपने आप
को पानी में हालाक करने गया है, या रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम उसको अमान अता फरमा
दें आपने फरमाया: “उसको
अमान है” आखिर में उमेर बिन
वहाब रज़ीअल्लाहु अन्हु ने उन्हें इस बात की खबर दी और अपने साथ हुजुर सल्लल्लाहु
अलैहि वसल्लम की बारगाह में ले आए तो सफवान बिन उमय्या ने कहा कि मुझे इस्लाम में
दाखिल होने के लिए दो महीने की मोहलत अता फरमाएं तो आप ने फरमाया: “أنت بالخيار فيه أربعة أشهر” तुम्हें चार महीने
का इख्तियार है।
और फिर वह खुद
इस्लाम में दाखिल हुए। [सीरत इब्ने हश्शाम: ४१७/२]
प्रिय पाठकों!
इस्लाम तो दीने सलाम
है,
इसका
नाम इस्लाम तो खुद सलाम (सलामती व आफियत) से लिया गया है यह किसी पर बिलावजह जब्र
व तशद्दुद कैसे कर सकता है।
उल्लेखित सबूतों और
गवाहों से यह बात स्पष्ट हो गई कि इस्लाम किसी गैर मुस्लिम को मुसलमान होने के लिए
बिलावजह मजबूर नहीं करता है बल्की हर दौर में लोग खुद इसकी हक्कानियत को देख उसमें
शामिल होते हैं।
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