गुलाम गौस, न्यू एज इस्लाम
भाग 3
26 अक्टूबर 2019
रद्द करने का यह भाग ज़ाहिर और नस के फिकही सिद्धांत पर आधारित है जिसमें यह साबित किया गया है जब इन दोनों का आपस में तसादुम हो तो तरजीह नस को दी जाती है।
आगे बढ़ने से पहले हम ज़ाहिर और नस की परिभाषा जान लेते हैं। लुगत में ज़ाहिर का अर्थ रौशन, खुला हुआ इत्यादि है। इस्तेलाह में उसूलीऐन के अनुसार ज़ाहिर वह कलाम है जिसकी मुराद सुनने वाले को बिना विचार किये केवल कलाम सुनते ही पता चल जाए, या इमाम बज्दवी के शब्दों में “ ज़ाहिर हर उस कलाम का नाम है जिसका उद्देश्य सुनने वालों को उसके शब्दों से ज़ाहिर हो जाता है”, जबकी इमाम सरखसी ज़ाहिर की परिभाषा इस तरह करते हैं कि “ज़ाहिर वह है जो केवल सुनने से, गौर व फ़िक्र किये बिना ही समझ में आ सके। ज़ाहिर का अर्थ स्पष्ट होता है लेकिन इसके बावजूद इसमें गुंजाइश होती है कि वह एक वैकल्पिक व्याख्या भी स्वीकार कर सके। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि इसका ज़ाहिरी अर्थ हमेशा उस प्रसंग के साथ हम आहंग नहीं जिसमें उसका नुज़ूल हुआ है, दूसरे शब्दों में इस प्रकार समझें कि कभी कभी ज़ाहिर और नस में विरोधाभास होता है।
नस उस चीज को कहते हैं जिसके लिए कलाम को लाया गया हो अर्थात कलाम को लाने का जो उद्देश्य हो उसे नस कहा जाता है। नस एक स्पष्ट इबारत की निशानदही करता है जिससे कलाम के वारिद होने का कारण स्पष्ट होता है। नस से कायल का उद्देश्य ज़ाहिर होता है जबकि कभी ज़ाहिर का अर्थ कायल का उद्देश्य नहीं होता।
इसे एक उदहारण से इस प्रकार समझिये कि जब कुछ मक्का के मुशरेकीन ने दावा किया कि ‘बैअ और ‘रिबा’ दोनों एक ही जैसे हैं। कुरआन उनके दावे का हवाला इस प्रकार पेश करता है, “उन्होंने कहा बैअ भी तो सूद ही के मानिंद है” (2:275)
उन लोगों के जवाब में और बैअ और रिबा के बीच फर्क पैदा करने के लिए अल्लाह ने यह आयत नाजिल की “और अल्लाह ने हलाल किया बैअ को और हराम किया सूद” (2:275)
यह आयते नस है इन दोनों इस्तेलाहों ‘बैअ’ और ‘सूद’ के बीच अंतर ज़ाहिर करने में इस लिए दोनों एक नहीं है। और यह आयत ज़ाहिर है अपने इस अर्थ में कि तिजारत हलाल है और सूद हराम है।
ज़ाहिर है नस का हुक्म यह है कि इन दोनों पर अमल किया जाएगा। हालांकि, अगर इन दोनों के बीच कोई विवाद हो जाए तो नस को ज़ाहिर पर तरजीह दी जाएगी।
अब हम आयत 9:5 “मुशरिकों को मारो जहां पाओ” से संबंधित ज़ाहिर और नस पर गौर करते हैं। यह आयत मोमिनीन को मुशरेकीन जहां कहीं भी पाए जाएं मार डालने का हुक्म देने में ज़ाहिर है जबकि आयत जंग की हालत में धार्मिक शोषण करने वालों और संधि का उल्लंघन करने वालों के खिलाफ लड़ने का आदेश देने में नस है। इस आयत के नुज़ूल का मकसद जंग की हालत में धार्मिक शोषण करने वालों और उग्रवादियों के क़त्ल की अनुमति देना है। क्योंकि वह “मरो या मार डालो” की सी स्थिति थी। अगर जंग से संबंधित आयतों को सामने रखा जाए तो इस उद्देश्य को आसानी के साथ समझा जा सकता है, जैसे आयत “और ऐ महबूब अगर कोई मुशरिक तुमसे पनाह मांगे तो उसे पनाह दो वह अल्लाह का कलाम सुने फिर उसे उसकी अमन की जगह पहुंचा दो यह इसलिए कि वह नादान लोग हैं” (9:6), “और अल्लाह की राह में लड़ो उनसे जो तुमसे लड़ते हैं और हद से न बढ़ो अल्लाह पसंद नहीं रखता हद से बढ़ने वालों को” (2:190)।
“इस तरह हमें पता चला कि आयत 9:5 एक ऐसा नस है जिसमें कई बिंदु शामिल हैं, जैसे (1) लड़ाई मज़हबी अकीदे के आधार पर नहीं अत्याचार के आधार पर होनी चाहिए, (2) जंग अमन संधि समाप्त होने और एलाने जंग के बाद ही लड़ी जानी चाहिए, (3) क़त्ल जंग की हालत में ही होनी चाहिए। इस आयत के नुज़ूल का बुनियादी उद्देश्य यह तीन बिंदु थे। इसके उलट, इस आयत का ज़ाहिर यह मुतालबा करता है कि चूँकि इस आयत में शब्द मुशरेकीन उल्लेखित है और वह बहुवचन है शब्द मुशरिक का, इसलिए इसके तमाम लोग जहां पाए जाएं उन्हें क़त्ल कर दिया जाए। हालांकि, नस (इस आयत के नुज़ूल का उद्देश्य) इस आयत के ज़ाहिर के खिलाफ है। और यह एक प्रसिद्ध सिद्धांत है जो इस्लामी मदरसों के पाठ्यक्रम में भी पढ़ाई जाती है जब नस और ज़ाहिर में टकराव हो जाए तो हमेशा नस को ही तरजीह दी जाएगी।
“दुसरे शब्दों में, मैं फिर यही बात कहता हूँ कि अरब के मुशरेकीन के खिलाफ लड़ने का हुक्म इस लिए नाजिल हुआ था कि उन्होंने मुसलमानों पर अत्याचार किये थे और अमन संधि का उल्लंघन किया था, न कि केवल इस वजह से कि उन्होंने शिर्क या कुफ्र का प्रतिबद्ध किया था। और इसी अर्थ में यह आयत नस है। जहां तक इस आयत के ज़ाहिर का मामला है तो यह इस आयत के नस के साथ हम आहंग नहीं है और उलमा ए सलफ में इस पर इत्तेफाक ए राय है कि जब नस और ज़ाहिर में टकराव हो जाए तो हमेशा नस को ही तरजीह दी जाएगी। ताकि कुरआन की बेहतर समझ हासिल हो।
ज़ाहिर और नस के सिद्धांत के तहत आयत 9:5 को समझने के बाद इस आयत से आईएसआईएस या इस जैसी दूसरी आतंकवादी जमातों के लिए 21 वीं शताब्दी के संदर्भ में मुशरेकीन के क़त्ल का कानून अख्ज़ करना सहीह नहीं होगा क्योंकि यह शताब्दी इस्लाम के शुरू की शताब्दियों से बिलकुल अलग है।
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