गुलाम गौस सिद्दीकी, न्यू एज इस्लाम
28 सितम्बर 2019
आईएसआईएस के
आतंकवादी अक्सर अपने अवैध और गैर-इस्लामी कार्यों को सही ठहराने के लिए कुरआन की
आयत 9:5 का हवाला देते हैं। आईएसआईएस के जिहादियों ने अपने दावे को सही ठहराने के
लिए अपनी पत्रिका “दाबिक” में इस आयत का हवाला दिया है कि "इस्लाम तलवार का
धर्म है, शांतिवाद का
नहीं" (दाबिक, सातवां अंक, पृष्ठ 20)। इस रिसाले में इब्ने कसीर की तफसीर के संदर्भ
में लिखा गया है कि:
“इब्ने अबी तालिब
(रज़ीअल्लाहु अन्हु) फरमाते हैं कि “अल्लाह के रसूल
सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम चार तलवार के साथ भेजे गए हैं: एक तलवार मुशरेकीन के लिए {फिर जब हुरमत वाले
महीने निकल जाएं तो मुशरिकों को मारो जहां पाओ} [अल तौबा:5], एक तलवार अहले किताब
के लिए}
लड़ो
उनसे जो ईमान नहीं लाते अल्लाह पर और कयामत पर और हराम नहीं मानते उस चीज को जिसको
हराम किया अल्लाह और उसके रसूल ने और सच्चे दीन के अधीन नहीं होते अर्थात वह जो
किताब दिए गए जब तक अपने हाथ से जीजया न दें ज़लील हो कर} [अल तौबा: 29], एक तलवार मुनाफेकीन
के लिए}
ऐ
गैब की ख़बरें देने वाले (नबी) जिहाद फरमाओ काफिरों और मुनाफिकों पर} [अल तौबा:73], और एक तलवार बग़ावत
(सरकशी और ज़्यादती करने वालों) के लिए {ज़्यादती वाले से लड़ो
यहाँ तक कि वह अल्लाह के हुक्म की तरफ पलट आए} [अल हुजरात:9]”[तफसीर इब्ने कसीर] (आईएसआईएस पत्रिका
दाबिक से अंश, 7वां अंक, पृष्ठ 20)
उपरोक्त आयत के शाने
नुज़ूल से स्पष्ट है कि यह आयत युद्ध की स्थिति में प्रकट हुआ था। हालाँकि, इन आयतों का उपयोग वर्तमान में ISIS और अन्य आतंकवादी
समूहों द्वारा अंधाधुंध हत्याओं, आत्मघाती हमलों, सार्वजनिक स्थानों को नष्ट करने और तथाकथित 'शहीद' अभियानों को सही
ठहराने के लिए किया जा रहा है। नतीजतन, पूरे विश्व में
फितना और फसाद का माहौल बढ़ रहा है, इसलिए इस फितने को
दबाना समय की आवश्यकता है।
इस लेख में मैं पूरी
दयानतदारी के साथ आयत (9:5) का विश्लेषण करने की सआदत हासिल करूँगा (अल्लाह सबसे
बेहतर जानता है)। बल्कि, यह आईएसआईएस और इसके
जैसे अन्य आतंकवादी समूहों के साथ-साथ उन लोगों के लिए एक जवाब होगा जो अभी भी
उपलब्ध कई व्याख्याओं से भ्रमित हैं। यह खंडन क्लासिकी हनफ़ी सिद्धांतों पर आधारित
है और आप पाठकों के लिए कई खंडों में प्रस्तुत किया जाएगा क्योंकि इस लेख में कुछ
विवरणों की आवश्यकता है। यह लेख छह भागों में प्रस्तुत किया जाएगा। उनमें जिन
लेखों पर चर्चा की जाएगी वे इस प्रकार हैं। १) आयत (९:५) में मुशरिकीन शब्द का
शाब्दिक विश्लेषण, २) कुरआन की आयत
(९:५) में वर्णित मुशरिकीन कौन हैं? ३) आयत (९:५) और यह
सिद्धांत कि जब नस और ज़ाहिर के बीच संघर्ष होता है तो नस को वरीयता दी जाती है, ४) नस्ख की अवधारणा और आयत (९:५), ५) आयाते मोहकमात पर आधारित रद्दे बलीग, और ६) उमुमियत की तख्सीस (आम खस अन्हु अल बाज़) पर आधारित
रद्द) , और यह कि एक बार जब किसी भी आम तख्सीस को कतई दलील द्वारा
निर्धारित किया जाता है, तो इन हदीसों की मदद
से इसमें और तख्सीस किया जा सकता है (जो दलील बनने की क्षमता रखती हैं)।
आयत (9:5) में शब्द ‘मुशरिकीन’ का शाब्दिक विश्लेषण
इस पहले भाग का
उद्देश्य वर्णित आयत में वारिद होने वाले “मुशरिकीन” का “शाब्दिक विश्लेषण
करना है जिस का फरमान है “ मुशरिकों को मारो जहां पाओ” (9:5)। वाक्य “मुशरिकीन को मारो” का अर्थ ज़ाहिर है, और सुनने या पढ़ने
वाला गौर व फ़िक्र किये बिना इसका ज़ाहिरी अर्थ समझ जाता है। लेकिन इसके बावजूद शब्द
‘मुशरिकीन’ में और व्याख्या और
तख्सीस का इमकान मौजूद है।
अरबी में, शब्द "मुशरिकीन" एक बहुवचन रूप है जो सामान्यता
को इंगित करता है। जो लोग अरबी होते हुए भी अरबी भाषा को अच्छी तरह से नहीं जानते
हैं, उन्हें पता होना
चाहिए कि कुरआन के सामान्य शब्दों में हमेशा कुछ लोगों, अधिक लोगों, कम लोगों या कभी-कभी
एक व्यक्ति को शामिल करने की भी क्षमता होती है।
कुरआन में कई जगहों
पर सामान्य शब्दों को बहुवचन रूप में शामिल किया गया है और कभी यह एक या एक से
अधिक व्यक्तियों या केवल एक व्यक्ति को संदर्भित करने के लिए भी इस्तेमाल होता है।
उदाहरण के लिए, कुरआन कहता है, "और जब फरिश्तों ने कहा, 'ऐ मरियम, वास्तव में अल्लाह
ने तुम्हें चुना है और तुम्हें शुद्ध किया है और आज दुनिया की सभी महिलाओं में से
तुझे पसंद किया है।" (3:42)। इस आयत में, शब्द "मलाएका, मलीक का बहुवचन है फरिश्ता के अर्थ
में है, जबकि यह केवल एक
फ़रिश्ते को संदर्भित करता है और वह जिब्राइल अलैहिस्सलाम है। अल्लामा आलूसी कहते
हैं। "मलाएका शब्द से मुराद जिब्राइल अलैहिस्सलाम हैं जो फरिश्तों के प्रमुख
है" (तफ़सीर अल-आलूसी 3:42), अल्लामा राज़ी लिखते
हैं, "मुफ़स्सेरीन कहते हैं
कि" मलाएका (बहुवचन शब्द) से मुराद यहाँ केवल एक फरिश्ता है, अर्थात जिब्राइल अलैहिस्सलाम हैं। (तफ़सीर अल-राज़ी 3:42)।
कुरआन मजीद का
अध्ययन करने से हमें यह भी पता होता है कि जब इसमें बज़ाहिर कोई आम शब्द वारिद होता
है और उस शब्द से उसके तमाम लोग या तमाम जुज़ मुराद होते हैं तो अल्लाह पाक इस शब्द
की इस तरह वज़ाहत फरमाता है कि इसके बाद इसकी मुराद के अलावा मज़ीद किसी व्याख्या व
तख्सीस की कोई गुंजाइश बाकी नहीं रहती है। जैसे कि अल्लाह ने फरमाया कि तमाम
फरिश्तों ने हज़रत आदम अलैहिस्सलाम के सामने सजदा किया, आयत मुलाहेज़ा फरमाएं
“फसजदा (सजदा किया)
अल मलाइकतु (फरिश्तों नें) कुल्लुहुम (सब के सब) अजमउन (मिल कर)” (15:30)। शब्द ‘मलाएका’ बहुवचन है जिसका
बज़ाहिर अर्थ “तमाम फरिश्ते” है, तथापि, इसके कुछ कुछ अफराद
को खारिज कर के इसमें अभी भी तख्सीस का इमकान मौजूद है। लेकिन कुरआन करीम ने शब्द “कुल्लुहुम” कह कर तख्सीस के
तमाम दरवाज़े बंद कर दिए। फिर इसके बाद भी तावील के जरिये तफरीक का इमकान मौजूद है
कि तमाम फरिश्तों ने आदम को एक साथ सजदा किया या अलग अलग लेकिन कुरआन मजीद ने ‘अजमउन’ कह कर तावील के इस
इमकान को भी खत्म कर दिया। इसलिए इस मिसाल में “कुल्लुहुम” और “अजमउन” के शब्द “मुफस्सिर” हैं जिन्होंने इन
शब्दों “फरिश्तों ने [आदम के
सामने] सजदा किया” की वज़ाहत इस अंदाज़ में की कि अब मज़ीद वज़ाहत की कोई जरूरत
नहीं रही।
इसलिए आयत में “मुशरिकीन को क़त्ल
करो जहां पाओ” में “कुल्लुहुम” और “अजमउन” जैसा कोई मुफस्सिर शब्द नहीं है और न ही इसकी कोई व्याख्या
है कि इससे “हर दौर और हर तरह के शांतिपूर्ण मुशरिकीन मुराद हैं”। इस सिद्धांत से यह
पता चलता है कि आयत (9:5) में तख्सीस या तशरीह का इमकान मौजूद है।
यह उदाहरण हमारे लिए
यह समझने के लिए पर्याप्त है कि कुरआन ने बहुवचन रूप या सामान्य शब्द का उपयोग यह
जानने के लिए किया है कि यह एक व्यक्ति या कुछ लोगों को संदर्भित करता है या नहीं।
इस सिद्धांत के तहत, हर युग के फुकहा ने
अपने फिकह के क्षेत्र में सर्वसम्मति से स्थापित किया है कि कुरआन का कोई भी शब्द
जिसका अर्थ स्पष्ट है लेकिन फिर भी विशेषज्ञता या व्याख्या की संभावना रखता है।
इसलिए इस दुनिया में कोई भी इसकालर इस आयत (9:5) से यह साबित नहीं कर सकता कि इस
आयत मे वर्णित "मुशरिकीन" से दुनिया के सभी मुशरिकीन या हर युग के
मुशरीकिन मुराद हैं। इसके विपरीत, हमारे पास यह ठोस
सबूत भी हैं (जिसे हम अगली किस्तों मे देखेंगे) जो हमें यह स्वीकार करने के लिए
प्रेरित करता है कि आयत 9:5 में मुशरिकीन शब्द मक्का के ऐसे मुशरिकों को संदर्भित
करता है जो धार्मिक रूप से शोषण करते थे और मुसलमानों के साथ युद्ध की हालत में
थे।
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