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The Quran Should Be the Basis of Islamic Teaching इस्लामी शिक्षाएं कुरआन पर आधारित होनी चाहिए

सुहैल अरशद, न्यू एज इस्लाम

उर्दू से अनुवाद न्यू एज इस्लाम

25 नवंबर 2022

कुरआन इस्लामी शरीअत और इस्लामी जीवन शैली का मूल किताब है। कुरआन मुसलमानों की ज़िन्दगी का महवर है। कुरआन ने ही मुसलमानों को नेक और बद, हलाल व हराम की तमीज़ सिखाई और अखलाकी, मुआशी और सियासी जीवन के आदाब सिखाए। शुरू के दौर के मुसलामानों ने सीधे कुरआन से हिदायत की रौशनी हासिल की। उनके सामने सहाब ए कराम ताबईन व तबा ताबईन की रिवायतें थीं जो उनके लिए काबिले तकलीद थीं। इस्लामी समाज उस दौर में एक संयुक्त समाज था।

लेकिन बाद के दौर में कुरआन की तफसीर की रिवायत को फरोग हुआ। सैंकड़ों ताफ्सीरें सैंकड़ों उलमा और मुफ़स्सेरीन ने लिखीं। उस दौरान मुसलमानों में अनगिनत नजरियाती गिरोह और मकातिबे फ़िक्र वजूद में आ गए जिन्होंने अपने अपने तौर पर कुरआन की तफसीर पेश कीं। इसका नतीजा यह हुआ कि कुरआन को कम और तफसीरों और उलेमा की राय को अधिक अहमियत दी जाने लगी। कुरआन से मुसलमानों की दूरी बढ़ती गई। लोग इस्लाम को समझने के लिए सीधे कुरआन से रुजुआ करने के बजाए माध्यमिक स्रोत और उलमा की राय पर भरोसा करने लगे। एक वर्ग की तरफ से आम मुसलमानों में यह बात भी फैला दी गई कि बिना किसी आलिम के कुरआन पढ़ना गुमराही का कारण हो सकता है। इसलिए केवल किसी मोतबर और प्रमाणिक आलिम से ही कुरआन पढ़ना चाहिए। एक लम्बे समय तक कुरआन के गैर अरबी भाषाओं में अनुवाद की भी हौसला शिकनी की गई। क्योंकि मुसलमानों में यह ख्याल गहराई तक जड़ पकड़ चुका था कि कुरआन खुदा का कलाम है और किसी दूसरी भाषा में अल्लाह के कलाम के अर्थ व मफहूम को कोई इंसान पुरी मानवियत और हुस्न के साथ मुन्तकिल नहीं कर सकता। इसलिए कुरआन का किसी दूसरी भाषा में अनुवाद उसके साथ अन्याय होगी। इसका नतीजा यह हुआ कि कुरआन के नुज़ूल के पांच सौ साल तक कुरआन गैर अरबी मुसलमानों और दुसरे गैर मुस्लिम कौमों तक नहीं पहुँच सका। कुरआन का भारत में पहला फ़ारसी अनुवाद शाह वलीउल्लाह मुहद्दिस देहलवी ने अठारहवीं सदी के पहले अर्ध में किया और उर्दू अनुवाद उनके साहबजादे शाह अब्दुल कादिर ने अठारहवीं सदी की आठवीं दहाई में किया। जबकि मुसलमान भारत में इस्लाम के पैगम्बर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की हयात ही में आ चुके थे और आठवीं सदी से भारत में मुसलमानों की हुकूमत कायम हो चुकी थी। दसवीं और ग्यारहवीं सदी से शुमाली हिंद में बाकायदा इस्लामी हुकूमतें कायम हो चुकी थीं मगर उनके पास कुरआन का भारतीय भाषाओं में फ़ारसी सहित तर्जुमा नहीं था। विभिन्न सूफिया कुरआन की शिक्षा जुबानी तौर पर अवाम व खवास को देते थे। इस सिलिसले में सूफी बा यज़ीद बुस्तामी का एक कथन उल्लेखनीय है।

मैं अबू अली सिंधी से तौहीद में फना का दर्स लेता था और अबू अली मुझसे अलहम्द और कुल हुवल्लाह का सबक पढ़ते थे....

इस इक्तिबास से यह अंदाजा होता है कि कुरआन के तराजिम की अनुपलब्धता की वजह से कुरआन की शिक्षाओं का दर्स लेना सूफियों तक के लिए मुश्किल था। और वह महदूद सतह पर ही कुरआन सीखते सिखाते थे।

कुरआन के अनुवाद की अनुपलब्धता की वजह से शरीअत का इल्म आम मुसलमानों को फिकह की किताबों और इमामों और उलमा के अक्वाल से ही होता था भारत में औरंगजेब आलमगीर की इमा पर फतावा आलमगीरी मुरत्तब की गई। इस तरह शुरू ही से मुसलमानों के नज़दीक फिकह की किताबें अव्वल और कुरआन दीन का सानी स्रोत बन गया। दीन को सीखने सिखाने के लिए इन्हीं सानी स्रोत का प्रयोग किया गया।

कुरआन से इसी दूरी की वजह से विभिन्न बिदआत व मसलकी अकीदों को बढ़ावा मिला और मुसलमानों में मसलकी तफरका और नफरत में इज़ाफा हुआ। ऐसे नज़रियात मुसलमानों में राह पा गए जिनका कुरआन में कहीं ज़िक्र नहीं है जबकि कुरआन में अल्लाह बार बार कहता है कि इस्लाम की शिक्षा का पहला स्रोत कुरआन है और इस्लामी शिक्षा केवल कुरआन की मदद से दी जानी चाहिए। चूँकि इस्लाम का दीनी तालीमी निज़ाम पूरा का पूरा मसलकी बुनियाद पर कायम है और कुरआन से शिक्षा देने पर मसलकी अकीदों की इमारत ढह जाती है इसलिए दरसे निज़ामी में कुरआन से अधिक मसलकी लिट्रेचर और उलमा की राय को अहमियत दी जाती है। अल्लाह कहता है कि इस्लामी शिक्षा कुरआन की मदद से दी जानी चाहिए।

और ये कि मै क़ुरान पढ़ा करुँ फिर जो शख्स राह पर आया तो अपनी ज़ात के नफे क़े वास्ते राह पर आया और जो गुमराह हुआ तो तुम कह दो कि मै भी एक एक डराने वाला हूँ (अन नमल:92)

और नसीहत कर उनको कुरआन से (अल अनआम:60)

और इस क़ुरान के ज़रिए से तुम उन लोगों को डराओ जो इस बात का ख़ौफ रखते हैं कि वह (मरने के बाद) अपने ख़ुदा के सामने जमा किये जायेंगे (और यह समझते है कि) उनका ख़ुदा के सिवा न कोई सरपरस्त हे और न कोई सिफारिश करने वाला ताकि ये लोग परहेज़गार बन जाएं (अल अनआम:51)

और यह तो महज़ नसीहत है सारे जहाँन के लिए (अल अनआम: 90)

समय समय से इन्फिरादी उलमा और संगठनों से इस मसले की तरफ मुसलमानों का ध्यान आकर्षित कराया जाता है और कुरआन से रिश्ता जोड़ने की मुसलमानों को तरगीब दी जाती है। लेकिन जब तक इस्लामी दरसी निज़ाम में बुनियादी तब्दीलियाँ न लाइ जाएं तब तक कुरआन से मुसलमानों की दूरी बरकरार रहेगी और मुसलमान सान्वी दीनी स्रोत को ही इस्लाम की बुनियादी किताबें समझ कर पढ़ते रहेंगे और मसलकी मुनाफरत और तफ़रके के हिसार में कैद रहेंगे।

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Urdu Article: The Quran Should Be the Basis of Islamic Teaching اسلامی تعلیمات کی بنیاد قرآن پر ہے

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