न्यू एज इस्लाम स्टाफ राइटर
उर्दू से अनुवाद न्यू एज इस्लाम
30 जून 2022
पिछले जुमे को दिल्ली की जामा मस्जिद में पुलिस का सख्त पहरा और नमाज़ियों की तलाशी से मुसलमानों में मायूसी और बेबसी का एहसास है। इससे पहले जुमे के रोज़ नमाज़ के बाद मस्जिद के बाहर नमाज़ियों ने विरोध प्रदर्शन किया था और कुछ लोगों ने हंगामा भी किया था। इसलिए पुलिस ने पिछले जुमे को नमाज़ियों की सख्त निगरानी की और उनकी तलाशी भी ली।
इस स्थिति ने कुछ सवाल खड़े किये हैं जिनका जवाब मुसलमानों को ढूंढना चाहिए ताकि भविष्य में उन्हें नमाज़ पढ़ने के लिए तलाशी न देनी पड़े और सरकारी महकमों को उनकी निगरानी का जवाज़ मिले।
जुमे की नमाज़ मुसलमानों का एक महत्वपूर्ण दीनी फरीज़ा है इसे छोटी ईद भी कहा जाता है। जैसे यह दिन मुसलमानों के लिए तेहवार से कम नहीं। इस दिन के फ़ज़ाइल कुरआन और हदीस में बयान हुए हैं। चूँकि इसे तेहवार का भी दर्जा दिया गया है इसलिए इस दिन मुसलमान बहुत से घरेलू और कारोबारी मामलों को स्थगित कर देते हैं या कोई आवश्यक काम इस दिन तय नहीं करते। ताकि जुमे की नमाज़ का एहतेमाम पुरी एकाग्रता और एहतेमाम के साथ अदा कर सकें।
लेकिन यह अक्सर देखा गया है कि मुसलमानों से संबंधित अहम मामलों पर बात चीत या विरोध प्रदर्शन जुमे को ही नमाज़ जुमा के बाद निर्धारित किया जाता है। जबकि इसके लिए कोई दूसरा दिन जैसे इतवार या जुमेरात को रखा जा सकता है। इतवार को इसलिए कि इस दिन सरकारी छुट्टी होती है और जुमेरात को इसलिए कि इस दिन अधिकतर शहरों और कसबों में कारोबार बंद रहता है। और अधिकतर लोग फुर्सत में होते हैं।
यह भी एक हकीकत है कि मुसलमानों के मकामी मामले भी जुमे के रोज़ मस्जिद में उठाए जाते हैं और कभी कभी मस्जिद ही में या मस्जिद के बाहर झड़प की स्थिति बनती है।
नूपुर शर्मा के मामले में विरोध प्रदर्शन विभिन्न शहरों में जुमे के रोज़ ही शुरू हुए और मुसलमानों ने जुमे की नमाज़ के बाद मस्जिदों के बाहर विरोध प्रदर्शन शुरू किया जो कुछ शहरों में हिंसक हो गया। रांची में एक सोलह साल का युवा कथित तौर पर पुलिस की गोली से हालाक हो गया। कई शहरों में आगज़नी और तोड़ फोड़ और पत्थरबाजी के बाद सैंकड़ों मुसलमान गिरफ्तार हुए। प्रयागराज में तो मोहम्मद जावेद का घर भी नगर पालिका ने ढा दिया जबकि घर ढाए जाने का संबंध विरोध प्रदर्शन से होने से इनकार किया गया। लेकिन यह भी हकीकत है कि घर का ढाया जाना विरोध प्रदर्शन के बाद ही हुआ।
सवाल यह उठने लगा है कि मुसलमानों का विरोध प्रदर्शन जुमे की नमाज़ के बाद ही क्यों? इतवार या जुमेरात या किसी और दिन क्यों नहीं?
इसका एक जवाब शायद यह है कि जुमे को अधिकतर मुसलमान नमाज़ पढ़ने के लिए मस्जिद में आते हैं। हालांकि नमाज़ मुसलमानों पर पांच वक्तों में फर्ज़ है मगर अधिकतर मुसलमान पांच वक्तों की नमाज़ नहीं पढ़ते। आम दिनों में मस्जिदों में मुसल्लियों की संख्या उँगलियों पर गिनी जा सकती है। नमाज़ को इस्लाम के पैगम्बर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने अपनी आँखों की ठंढक फरमाया है। कुरआन ने भी मुसलमानों को अपनी नमाज़ों की हिफाज़त करने का हम दिया है। बाजमात नमाज़ की तलकीन हदीसों में की गई है। लेकिन आम मुसलमान चाहे वह युवा हो या बुज़ुर्ग पंच वक्त की नामाज़ की पाबंदी नहीं करता और इस तरह खुदा और रसूल की नाराजी मोल लेता है। हुजूर पाक सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से अपनी मोहब्बत का सबसे बड़ा सुबूत तो यह है कि मुसलमान नमाज़ कज़ा न करे मगर मुसलमान नमाज़ तो कज़ा करता है मगर खुदा की इताअत और रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की मोहब्बत का दवा करता है। इस्लाम से आम मुसलमानों की वाबस्तगी बस इतनी है कि वह हफ्ते में एक बार जुमे की नमाज़ पढ़ ले जिस तरह ईसाई हफ्ते में एक दिन जो छुट्टी का होता है चर्च में जा कर इबादत कर लेते हैं।
चूँकि मुसलमानों की बड़ी संख्या जुमे को ही मस्जिद में आती है मुसलमानों के मिल्ली व सियासी कायदीन को मुसलमानों को किसी मिल्ली या कौमी मसले पर विरोध प्रदर्शन के लिए जमा करना आसान होता है। इस दिन अगर किसी मसले पर विरोध प्रदर्शन का आयोजन करना हो तो यह विरोध प्रदर्शन कामयाब होता है। इमाम जुमे के दिन आध या पौन घंटे का जो खुतबा उर्दू में देते हैं उस खुतबे में वह इस विशेष मसले या विषय की संगीनी पर तकरीर करते हैं और आम मुसलमानों को इस मसले के अवाकिब व अवातिफ आधे घंटे में ही समझा देते झें और फिर उन्हें आगे का एक्शन प्लान भी बता देते हैं। और इस तरह कौम और मिल्लत का एक मसला आधे घंटे में हल हो जाता है या कम से कम उसके हल का रास्ता मिल जाता है।
यह भी एक मुसल्लम हकीकत है कि हमारे अधिकतर मिल्ली कायदीन की तकरीरें जज़बाती ज़्यादा और मंतिकी और अकली कम होती हैं। लहजा भी ऐसा होता है जैसे कि हालते जंग में हों। इन जोशीली तकरीरों को सुन कर नौजवान जोश में आ जाते हैं और होश खो बैठते हैं।
रांची में जुमे की नमाज़ के बाद कुछ नौजवान विरोध प्रदर्शन करने लगे। पुलिस पहले से किसी विरोध प्रदर्शन के इमकान की वजह से तैयार थी। विरोध प्रदर्शन में पथराव भी हुआ और पुलिस की गोली से एक लड़का हालाक हो गया। एक आँख से देखे हुए गवाह ने बताया कि जुमे के बाद मुसलमानों का विरोध प्रदर्शन का कोई प्रोग्राम नहीं था। विरोध प्रदर्शन के लिए किसी ने अपील नहीं की थी। बस कुछ कमसिन लड़के मस्जिद से निकल कर जुलूस की शक्ल में जलते हुए नारे लगाने लगे। पुलिस ने इस बाकायदा विरोध प्रदर्शन समझ लिया।
जुमे को होने वाले विरोधों की वजह से अब प्रशासन जुमे के दिन चौकस रहने लगी है। आम तौर पर कानून यह है कि किसी भी विरोध प्रदर्शन या जलसे के लिए स्थानीय प्रशासन से इसकी इजाज़त लेनी पड़ती है और इसे पुरे प्रोग्राम से आगाह करना पड़ता है। प्रशासन की इजाज़त मिलने पर ही प्रोग्राम किया जाता है। लेकिन जब जुमे को जोशीली तकरीर सुनने के बाद कुछ लोग भड़क कर सड़कों पर निकल आएं और फिर वह विरोध प्रदर्शन किसी वजह से हिंसक हो जाए तो फिर पुलिस भी जुमे को इस डर की वजह से चौकस रहेगी कि पता नहीं जुमे के खुतबे को सुन कर कुछ मुसलमान भड़क जाएं और मस्जिद के बाहर पेशगी सुचना या अनुमति के विरोध प्रदर्शन करने लगें और हिंसक हो जाएं।
मुसलमान अक्सर यह शिकायत करते हैं और यह शिकायत कई मौकों पर सहीह भी साबित होती है कि पुलिस और प्रशासन मुसलमानों के साथ पक्षपातपूर्ण व्यवहार करती है। इस हकीकत से वाकिफ होने के बावजूद मुसलमान बे एहतियाती और जज्बातियत का मुज़ाहेरा करते हैं और नुक्सान उठाते हैं।
हमारे मिल्ली कायदीन अगर वाकई कौम की कयादत सहीह लाइन पर करना चाहते हैं तो उन्हें मस्जिद के आफियत के गोशे से निकल कर बाहर आना चाहिए और कौमी, समाजी और सियासी मसलों पर भी वैसी ही सरगर्मी दिखानी चाहिए जैसी वह दीनी मामले में दिखाते हैं। किसी कौम की तरक्की केवल दीनी मसलों के हल कर लेने से नहीं होती बल्कि आर्थिक और राजनीतिक मसले भी बराबर अहमियत के हामिल होते हैं। इस्लाम चौतरफा तरक्की के लिए काम करने की हिदायत देता है। आध घंटे की कयादत से मामलात सुलझने की बजाए बिगड़ते हैं।
तौहीने रिसालत केवल दीनी वर्ग का मामला नहीं है। यह हर मुसलमान का मामला है। इसलिए इस मसले पर गुफ्तगू के लिए जुमे का दिन चुना जाए और केवल मिल्ली कायदीन ही इस मामले में तहरीक की बाग़ डोर न संभालें बल्कि मुस्लिम बुद्धिजीवी,सामाजिक कार्यकर्ता और कानून विशेषज्ञों को भी इस तरह के मामलों में मुशावरत के लिए शामिल किया जाए। हस्सास मामलों में इज्तिमाई तौर पर कोई भी फैसला न लिया जाए।
Urdu Article: Why Protest only on Friday? جمعہ کو ہی احتجاج کیوں؟
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