अरशद आलम, न्यू एज इस्लाम
उर्दू से अनुवाद न्यू एज इस्लाम
15 जुलाई 2022
आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने काबे का तवाफ़ उस वक्त किया जब
इसके अंदर बुत नसब थे
प्रमुख बिंदु:
1. ईदुल अज़हा इब्राहीम अलैहिस्सलाम की अल्लाह की इताअत
व फार्माबरदारी की याद है
2. उलमा ने इस तेहवार को इस तौर पर समझा है जिस की बुनियाद
पर बहुत सी इस्लाम के पहले की रस्में इस्लाम का हिस्सा बन गईं
3. पैगंबर को बुतपरस्ती के खिलाफ समझा जाता है लेकिन उन्हें
उस हाल में भी खाना ए काबा का तवाफ़ करने में कोई मसला नहीं था जब उसके अंदर बुत रखे
हुए थे
4. क्या यह केवल रणनीति थी या इस्लाम के पैगम्बर अपने पैरुकारों
को कोई और संदेश दे रहे थे?
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ईदुल अज़हा (बकरीद) के संबंध में पारंपरिक मुसलमानों की परंपरा यह है कि यह अल्लाह और इब्राहीम अलैहिस्सलाम के बीच समझौते की यादगार है। अल्लाह ने इब्राहीम अलैहिस्सलाम को वह चीज कुर्बान करने का आदेश दिया जो कि उनके लिए सबसे महत्वपूर्ण और प्रिय है, इस पर इब्राहीम अलैहिस्सलाम ने अपने बड़े बेटे इस्माइल को ज़बह करने का फैसला किया। अपने ‘बंदे’ की मोहब्बत से प्रभावित हो कर, अल्लाह ने उनके बेटे का फिदया ‘अज़ीम कुर्बानी’ से अदा किया [37: 100-102]। यही रिवायत तौरात में भी नुमाया फर्क के साथ हमें देखने को मिलती है कि यहूदी रिवायत के मुताबिक़ छोटे बेटे इसहाक को बाँध कर कुर्बान किया गया था। चूँकि इस्लाम का मकसद खुद को यहूदी-मसीही नजरिये से जोड़ना था, इसलिए इस्लाम ने इस कहानी को अपनी एक रिवायत के तौर पर बयान किया। इब्राहीम मुसलमान हो गया और इंसानी कुर्बानी का यह सारा ड्रामा मक्का में पेश आया है। हमें बताया जाता है कि हज खुदा के लिए बाप बेटे की अंधी मोहब्बत और इताअत की याद है। यह और बात है कि यहूदी दुनिया के अक्सर लोगों ने कभी भी इब्राहीम और उनकी कुर्बानियों की तकलीद नहीं की, लेकिन मुसलमान इस पर इस तरह कायम रहे जैसे यह उनकी असल रिवायत हो।
जहां पुरी दुनिया इब्राहीम की इताअत से प्रभावित है, वहीं दहशतगर्द हज़रत इस्माइल की ‘अखलाकी कुरबानी’ से प्रभावित हैं क्योंकि क़त्ल पर उनकी रज़ा मंदी के बिना यह साड़ी रस्म बेकार चली जाती। इस फर्क को स्पष्ट करना आवश्यक है कि हजरत इब्राहीम तो अल्लाह के हुक्म की तामील कर रहे थे, लेकिन उनका बेटा अपने बाप, जो कि एक इंसान की खातिर अपनी जान दे रहा था। इतिहासकार फैसल देवजी का कहना यह है कि इन्फेरादी खुदी की यह खुद सपुर्दगी, अर्थात एक “बड़ी नेकी” के लिए खुद को फना कर देने का जज़्बा ही है जिसकी बिना पर बहुत से दहशतगर्द गिरोह इस्माइल को अपना हीरो मानते हैं।
कोई भी मज़हब समाजी या नज़रीयाती खुला में पैदा नहीं होता। और हालांकि इस्लाम मुस्तकिल तौर पर खुद को यहूदियत और इसाइयत की तकमील करार देता है, लेकिन इसकी सामाजिक इफादियत भी शिर्क या बुत परस्ती से ही संबंधित है। अगर चह अफसानवी तौर पर, इस्लाम खुद को पहला मज़हब और आदम को पहला मुसलमान करार देता है, लेकिन तीनों रिवायतें (यहूदियत, इसाइयत और बुत परस्ती) ने इस्लाम को बुनियादी तौर पर प्रभावित किया है। जैसे उलमा ने इस बात की वजाहत की है कि किस तरह हज में इस्लाम से पहले की कई गैर इस्लामी मामूलात शामिल हैं, जैसे हजरे असवद को चूमना, सफा व मरवा की पहाड़ियों के बीच दौड़ना और जानवरों की कुर्बानी वगैरा। ताहम, रिवायती इस्लामी इतिहास में एक घटना ऐसा भी है जिस पर मज़ीद बहस की जरूरत है। और वह नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम और आप के असहाब का फतहे मक्का से पहले उमरा करने का वाकेआ है।
विभिन्न इस्लामी माध्यम से हमें मालुम है कि काबा के अन्दर बुत नस्ब थे (कुछ कहते हैं कि इसमें 360 बुत थे) ऐसी घटनाएं भी हैं जिनसे यह मालुम होता है कि खाना काबा की दीवारों पर मरियम और इसा की तस्वीरें भी मौजूद थीं। रिवायत बताती है कि जब मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने मक्का फतह किया तो आपने तमाम बुतों को फेंक दिया और इस तरह काबे को उसके मुशरिकाना अतीत से पाक कर दिया। मक्का के आस पास में और भी बुत और काबे थे जिन्हें नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के स्पष्ट हुक्म पर ढा दिया गया।इसलिए यह सब कुछ 630 में मक्का फतह होने के बाद पेश आया है। लेकिन इससे पहले काबे में वह तमाम बुत रखे हुए थे और तवाफ़ करने का मतलब उन बुतों के गिर्द घूमना भी था। इस्लाम के पैगम्बर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने सुलह हुदैबिया के एक साल बाद 629 में उमरा फरमाया।
शुरूआती इस्लामी इतिहास के इतिहासकार अल तबरी का कहना है कि 628 में नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम अपने सहाबा के साथ 70 ऊँटों के साथ हज के इरादे से मक्का रवाना हुए। लेकिन, इस बार कुरैश ने आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को इसकी इजाज़त नहीं दी। इसके बाद दोनों पक्षों के बीच एक समझौता हुआ, जिसके तहत नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को अगले साल हज करने की इजाज़त मिली। और यही वजह है कि 629 के उमरा को ‘हज की तकमील’ कहा जाता है क्योंकि इसका मकसद समझौते में किये गए वादे को पूरा करना था। इस उमरा में जानवरों की कुरबानी की सहीह स्थति पर कोई इत्तेफाक नहीं है। इब्ने इसहाक (अल तबरी में) के मुताबिक़, नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम और आपके असहाब के पास ऊंट नहीं थे बल्कि उन्होंने मवेशी ज़बह किये, जब कि एक और रिवायत (तबरी में) है कि वह इसके लिए अपने साथ 60 फर्बा ऊंट की कर गए थे।
जिस बात पर कोई मतभेद नहीं वह यह है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम और आपके सहाबा ने खाना खाबा का तवाफ़ किया। तबरी ने इब्ने अब्बास की रिवायत से लिखा है कि: “जब रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम मस्जिद में दाखिल हुए तो आपने अपनी चादर अपने दाहिने बाजू के नीचे डाली और इसका निचला हिस्सा अपने बाएँ कंधे पर डाल दिया, जिससे आपका दाएं बाजू बे पर्दा हो गया।....आपने कोने में मौजूद पत्थर को छुवा और तवाफ़ करने लगे, आपके सहाबा भी आपके साथ उसी रफ़्तार से तवाफ़ कर रहे थे। फिर जब खाना काबा ने आपको लोगों (कुरैश) से छिपा लिया और आप ने दक्षिणी कोने को छु लिया आप चलते रहे यहाँ तक कि उसने हजरे असवद को छू लिया, फिर इसी अंदाज़ में जल्दी जल्दी तीन चक्कर पुरे किये। आपने बकिया तवाफ़ पैदल किया।“ [तारीखे तबरी, जिल्द 8, 134-135]
इस्लामी तारीख बताती है कि इस्लाम से पहले कुरैश काबे की दीवारों को कुर्बानी के जानवरों के खून से रंगा करते थे। खाना काबा के बाहर भी बुत रखे हुए थे और वहाँ कुर्बानी भी की जाती थीं। किसी रिवायत में इस बात का ज़िक्र है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम या आपके सहाबा ने हज की मनासिक अदा करने से पहले उस जगह को साफ़ करने की कोशिश की हो। कुरैशे मक्का, समझौते के तहत तीन दिन के लिए शहर से निकल गए। वह पहाड़ों पर गए और वहाँ से मुसलमानों के हज को देखा। उनकी नज़र में मुसलमानों की हज की रस्म उनकी अपनी रस्मों से अधिक भिन्न नहीं मालुम होती थी।
बुखारी और मुस्लिम में दर्ज रिवायतें भी इस बात की तस्दीक करती हैं कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने यह उमरा 629 में अदा किया जो काबा से 360 बुत हटाए जाने से पहले का समय है। बुतों को हटाए जाने से पहले मुसलमानों ने यह रस्म क्यों अदा की इसके बारे में इंटरनेट की तलाशी करने पर कोई जवाब पाना बड़ा मुश्किल काम है। इसका केवल एक जवाब islaamweb.net पर मिला जो कि इस तरह है “काबे के अंदर या उसके आस पास बुतों का मौजूद होना ऐसी कोई रुकावट नहीं है जिससे उमरा में कोई खलल स्थित हो, ख़ास तौर पर उस समय जब सहाबा उन्हें ढाने के काबिल नहीं थे क्योंकि उस समय मक्का कुफ्फारे कुरैश के कब्ज़े में था।“ जवाब में मज़ीद कहा गया है कि “चूँकि नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने उमरा किया और तवाफ़ और सई की (उन हालात में), तो इस बात की दलील है कि यह जायज़ है, इसलिए यह पूछना कोई अच्छी बात नहीं कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने ऐसा क्यों किया” [www.islamweb.net/en/fatwa/184641/why-the-muslims-made-umrah-before-the-conquest-of-makkah]
इसके जवाब से दो दावे सामने आते हैं: पहला यह कि उस समय मुसलमान बुतों को तबाह करने की ताकत नहीं रखते थे इसलिए उन्होंने समझौता किया। इससे यह स्पष्ट होता है कि अगर वह ताकतवर होते तो सबसे पहले बुतों को तबाह करते जैसा कि आखर कार मक्का फतह के बाद हुआ। यह मज़हबी बकाए बाहमी या बहुलता के लिए बिलकुल अच्छी बात नहीं। दुसरे, इस जवाब में मुसलमानों से यह कहा गया है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के अमल करने के तरीके और उसकी संभावित व्याख्या के बारे में बहुत अधिक सवाल न पूछे जाएं। ऐसा लगता है कि यहाँ सारा ज़ोर परेशान कुन सवालों से बचने पर है जो कि किसी भी समाज की बौद्धिक नाशोनुमा के लिए कोई अच्छी बात नहीं है।
इसलिए एक स्पष्ट सवाल यह पैदा होता है कि क्या इस्लामी तौहीद के पैगाम के नाज़िल होने के बाद बुतों के आस पास घूमना और फिर उसे मुसलमानों का इमानी मुज़ाहेरा करार देना सहीह था? अगर नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को ऐसा करने में कोई हर्ज नहीं था तो फिर आज के उलमा मुशरेकीन और तौहीद परस्तों के एक साथ रहने की निंदा क्यों करते हैं? इसके अलावा, कोई यह कह सकता है कि इस्लामी इतिहास का वह हिस्सा जो हमें बताता है कि इस्लाम उसी दिन कायम हो गया था जब जिब्राइल ने नबी से बात की थी, इस पर दुबारा नज़र करने की जरूरत है। बल्कि जो चीज अक्ल से करीब मालुम होती है वह यह है कि इस्लाम धीरे धीरे कायम हो और जिसे आज हम इस्लाम के नाम से पहचानते हैं उसमें मज़हबी और स्यासी असरात का काफी दखल है।
English Article: The Prophet’s Umrah before the Conquest of Mecca
Urdu Article: The Prophet’s Umrah before the Conquest of Mecca فتح مکہ سے پہلے رسول اللہ صلی
اللہ علیہ وسلم کا عمرہ
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