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Hindi Section ( 7 May 2021, NewAgeIslam.Com)

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Nasir Misbahi Rejects Maulana Wajidi’s view of Deobandi-Bareilwi Differences देवबंदी बरेलवी मतभेद..........जवाब आँ ग़ज़ल

मोहम्मद नासिर मिस्बाही

इस दौर में इफ्तेराक बैनल मुस्लेमीन को ले कर जहां पुरी उम्मते मुस्लिमा परेशान है और इस बात की भरपूर कोशिश की जा रही है कि किसी तरह मुसलमानों की सफों में एकता कायम हो जाए और जहां आपसी तफरका बाज़ी की वजह से मुस्लिम कौम आए दिन नए नए मसाइल से दो चार है और अंदेशा यह ज़ाहिर किया जा रहा है कि इस इफ्तेराक व इंतेशार के रहते मुसलमानों का ज़्यादा दिनों तक दुनिया में एक ज़िंदा कौम बन कर जीना निहायत मुश्किल होगा, वहीँ दूसरी तरफ कुछ लोग हालात में किसी तरह का सुधार नहीं चाहते।

यह हजरात अगर साहबे कलम हैं तो अपनी लेखनी के माध्यम से लगातार फितने जगाते रहते हैं और तनाव के माहौल को कायम रखते हैं। बजाहिर फिकरे मिल्लत के मूतहम्मिल यह लोग साधारणतः आटे में नमक के बराबर हैं और इस तरह मिल्लत के नाम पर अपने विशेष नजरिये की नुमाइंदगी और तर्जुमानी करते हैं, लेकिन उनकी दीदा दिलेरी का कोई जवाब नहीं। मौलाना नदीमुल वाजदी साहब उन्ही लोगों में से एक हैं।

मौसूफ़ का मज़मून देवबंदी बरेलवी मतभेद (२० जुलाई रोजनामा हिन्दुस्तान एक्सप्रेस देहली) नज़र से गुजरा। यह लेख निहायत फितना अंगेज़ और सख्त गुमराह कुन है। इस लेख में मौसूफ़ ने सेवार (रामपुर) के हालिया विवाद को बहस का विषय बना कर बरेलवी उलेमा और ख़ास कर इमाम अहमद रजा खान अलैहि रहमा पर सख्त किस्म के आरोप लगाए हैं इससे मुसलमानों के बीच बड़ा फितना भी सर उभार सकता है।

अफ़सोस की बात यह है कि इख्तेलाफी बातों की छोड़े और उन पर लड़ने झगड़ने का ठीकरा आम तौर पर बरेलवी मकतबे फ़िक्र के लोगों के सरों पर फोड़ा जाता है जैसा कि खुद साहबे मज़मून ने भी यही किया है, जब कि वह खुद ही मतभेद बढ़ाते और फितना अंगेज़ बातें करते हैं। गौर कीजिए तो सेवार मस्जिद विवाद से संबंधित बात चीत में यह कहने की बिलकुल जरूरत नहीं थी कि मौलाना अहमद रजा खान ने अपने अहद में बड़ी बड़ी मुस्लिम शख्सियात के खिलाफ हुक्म तकफीर सादिर किया और बरेलवी उलेमा आज भी तकफीर साजी की मुहीम को आगे बढ़ाने में लगे हैं।

अफ़सोस कि कितने ही कासमी और नदवी फुजला रक्मुल हुरूफ़ से यह शिकवा करते रहे हैं कि आप लोग मतभेद अधिक करते हैं और नदीमुल वाजदी साहब की तहरीर पर उनकी तरफ से कोई प्रतिक्रिया या निंदा नहीं आई। जब कि यही लेख अगर किसी बरेलवी की तरफ से प्रकाशित होती और देवबंद या उलेमा ए देवबंद के खिलाफ इसी किस्म के आरोप को दोहराया जाता तो निंदाओं का चौतरफा सिलसिला शुरू हो जाता और हर कोई इत्तेहाद बैनल मुस्लेमीन की दुहाई देते नहीं थकता।

असल में यह कलबी तौर पर गिरोह पसंदी और आपसी इत्तेफाक के लिए दिलों में वाकई सच्चे खुलूस के ना होने की वजह से है। अब जब कि तहरीर छप चुकी है और किसी भी तरफ से इसकी निंदा नहीं की गई, गोया जो कुछ लिखा गया उसे सहीह मान लिया गया, मजबूरन मुझे यह लेख लिखनी पड़ी ताकि इस झूट व बोहतान को फलने फूलने से रोका जाए।

मौलाना नादीमुल वाजदी साहब ने अपने लेख में आरोप लगाया है कि मुसलमानों के बीच मसलकी इंतेशार की शुरुआत मौलाना अहमद रजा खान बरेलवी और उनके माध्यम से दिए गए तकफीरी फतवों से हुई। यह सरासर बोहतान और केवल झूट बाँधना है। यह इतिहास से अज्ञानता या फिर जानबूझ कर आँख चुराना है। हकीकत यह है कि मुसलमानों में मसलकी इंतेशार इमाम अहमद रजा से बहुत पहले शाह इसमाइल देहलवी और उनकी किताब तकवियतुल ईमान की वजह से पैदा हुआ। तकवियतुल ईमान से पहले अखंड भारत में केवल दो गिरोह थे सुन्नी और शिया। तकवियतुल ईमान के बाद मुसलमानों में सुन्नी वहाबी की तफरीक पैदा हुई। उस समय ना अहमद रजा थे और ना उनके अनुयायी और मानने वाले ।

मौलाना अबुल कलाम आज़ाद लिखते हैं: शाह अब्दुल अज़ीज़ के बाद जब इसमाइल देहलवी ने तकवीयतूल ईमान और जिलाउल ऐनैन लिखी तो तमाम उलेमा में हलचल मच गई। मौलाना मुनव्वर अमदैन ने उनके रद्द में बड़ी सरगर्मी दिखाई, कई किताबें लिखीं और १२४० हिजरी वाला मशहूर मुबाहेसा जामा मस्जिद देहली में किया, तमाम उलेमा ए हिन्द से फतवा मुरत्तब किया, फिर हरमैन से फतवा मंगाया। (आज़ाद की कहानी प्रिशाथ ५६, प्रकाशन देहली)

हजरत शाह अबुल खैर फारुकी के फ़र्ज़न्द मौलाना ज़ैद अबुलहसन फारुक का ब्यान है कि: हजरत मुजद्दिद अल्फ सानी के ज़माने से १२४० हिजरी तक भारत के मुसलमान दो फिरकों में बटे रहे एक अहले सुन्नत व जमाअत दुसरे शिया। इस्माइल देहलवी ने उर्दू में तकवियतुल ईमान लिखी, इस किताब से मज़हबी आज़ादी का दौर शुरू हुआ, कोई गैर मुकल्लिद हुआ, कोई वहाबी बना, कोई अहले हदीस कहलाया, किसी ने अपने को सल्फी कहा। (मौलाना इसमाइल देहलवी और तकवियतुल ईमान चितली कब्र देहली)

खुद हल्का देवबंद के उलेमा ने स्वीकार किया है कि तकवियतुल ईमान ही इफ्तेराक बैनुल मुस्लेमीन का असल और बुनियादी सबब है।

मुमताज़ देवबंदी आलिम सैयद अहमद रज़ा बिजनौरी लिखते हैं अफ़सोस है कि तकवियतुल ईमान की वजह से मुसलमाने हिन्द व पाक जिनकी संख्या बीस करोड़ है, और लगभग नब्बे प्रतिशत हनफी मसलक हैं, जो गिरोह में बट गए (अनवारुल बारी)।

खुद मौलवी इसमाइल देहलवी ने लिखा है कि मैंने यह किताब लिखी है और मैं जानता हूँ कि ज़रा तेज़ अलफ़ाज़ भी आगए हैं और कुछ जगह हिंसा भी हो गया है। इन वजूह से मुझे डर है कि इसकी इशाअत से शोरिश अवश्य होगी (हिकायाते औलिया) अरवाहे सलासा) पृष्ठ ५९)

गरज इफ्तेराक बैनल मुस्लिमीन की इब्तेदा तारीखी और वाकई हैसियत से तकवियतुल ईमान से हुई थी। यह एक तारीखी हकीकत है जिसे किसी भी सूरत में झुटलाया नहीं जा सकता। तकवीयतुल ईमान के बाद दूसरी हंगामा खेज़ किताब तह्जीरुन्नास सामने आई। जिसके बारे में खुद मौलाना अशरफ अली थानवी कहते हैं कि जिस वक्त मौलाना कासिम नानौतवी ने तहजीर अल नास लिखी है, किसी ने भारत भर में मौलाना के साथ मवाफिकत नहीं की, बजुज़ मौलाना अब्दुल हई के (अल अफाजतुल यौमिया)।

खुलासा यह कि मुसलमानों में तफरीक या गिरोह बंदी पैदा करने वाले अकाबिर देवबंद हैं या उनकी किताबें। नदीमुल वाजदी ने मौलाना अहमद रज़ा खान पर यह आरोप भी लगाया है कि उन्होंने बड़ी सतह पर मुसलमानों की तकफीर की (नउज़ुबिल्लाह) और रुबाही, कादियानी, तबराई, राफजी सबके कुफ्र पर मुहर फतवा सब्त किया है। लेकिन यहाँ वाजदी साहब यह भूल गए कि कादियानी, राफजी, तबराई आदि खुद उलेमा ए देवबंद के नजदीक भी दायरा ए इस्लाम से बाहर हैं। रहे बकिया वहाबी नेचरी आदि उनकी तकफीर मौलाना अहमद रजा खान से पहले बड़ी संख्या में उलेमा ए अरब व अजम कर चुके थे। शाह इसमाइल देहलवी और तकवियतुल ईमान की मुखालिफत से शुरू हो गई थी।

मौलाना आज़ाद के कथन के अनुसार उनके वालिद वहाबियों के कुफ्र पर वसुक के साथ यकीन रखते थे और उन्होंने बारहा फतवा दिया कि वहाबिया या वहाबी के साथ निकाह जायज़ नहीं। मौलाना के कहने के अनुसार उनके वालिद गुमराही की तरतीब पहले वहाबियत और फिर नेचरियत करते और नेचरियत को इल्हाद ए कतई ख्याल करते थे। (आज़ाद की कहानी पृष्ठ २८१)

मौलाना अहमद रजा के फतवा तकफीर से पहले दो फतवे इन्तेहाई ज़िम्मेदार उलेमा रामपुर (यूपी) की तरफ से भी आ गए थे। एक फतवा १३०७ हिजरी में मौलाना नजीर अहमद खान रामपुरी ने दिया और दूसरा १३२० हिजरी में मौलाना शाह सलामतुल्लाह रामपुरी ने तहरीर किया। इसके अलावा मौलाना वलीउल्लाह रामपुरी भी फतवा तकफीर दे चुके थे।

इमाम अहमद रजा बरेलवी ने तो बाद में फतवा लिखा। वह भी असल में १३२० हिजरी को हज्जे बैतुल्लाह के मौके पर उलेमा ए देवबंद की कुफरी इबारतों को उलेमा व मुफ्तियाने हरमैन शरीफैन की खिदमत में पेश कर के उनसे फतावा लिखवाए। जिनका मजमुआ आज हिसामुल हरमैन के नाम से मशहूर है और जिसकी ताईद व तौसीक में भारत के पेशावर से ले कर बंगाल तक के २६८ उलेमा व मशाइख ने अपनी तस्दीकात तहरीर फरमाई और उनकी तस्दीकात का मजमुआ अल सवारिमुल हिंदिया के नाम से प्रकाशित हुआ। यह सारी तफ्सीलात सैंकड़ों किताबों व रिसालों में मजकुर हैं।

असल में इमाम अहमद रजा फाज़िले बरेलवी ने अपने पेशरौ और समकालीन अहले सुन्नत के नक़्शे कदम पर चलते हुए अपनी इमानी बसीरत, इल्मी सलाहियत और तहरीरी कुव्वत से मुन्तशिर कुव्वतों को इकट्ठा किया और ज़िन्दगी की आखरी सांस तक बातिल के खिलाफ बरसरे पैकार रहे। वह मुसलमानों के लिए फितना वहाबिया को सबसे अधिक खतरनाक और ईमान सोज़ ख्याल करते थे।

यही वजह है कि इस बाब में आपका नाम सबसे ज़्यादा मशहूर हो गया और आपको रद्दे वहाबिया का निशान समझा जाने लगा। मगर अफ़सोस कि कुछ लोगों का आज कल यह शेवा बन चुका है कि वह दुसरे हज़ारों उलेमा अहले सुन्नत का नाम छोड़ कर सिर्फ अहमद रजा खान का नाम ले कर मुसलमानों को भड़काने की कोशिश करते हैं कि उन्होंने तकफीर का बीड़ा उठाया और वहाबियों के खिलाफ भारत में इतनी शोरिश पैदा की।

इतिहास की गर्दन मरोड़ने वाले खुद साख्ता तौजीह पसंदों से कोई यह पूछे कि शाह इसमाइल देहलवी के वक्त में भी भारत के तूल व अर्ज़ में फैले हुए सैकड़ों हज़ारों उलेमा अहले सुन्नत जिन्होंने इस की बीख कुनी की उनमें अहमद रजा खान शामिल थे, उन्हें जाने दो, केवल यह बताओ कि १२४० हिजरी/१८२५ ई० में मुनाजिर ही जामा मस्जिद देहली में जो उलेमा ए इस्लाम शाह इसमाइल देहलवी और मौलवी अब्दुल हई के खिलाफ सफ आरा थे, उस वक्त अहमद रजा की वालाद्त हुई थी, क्या उन्होंने ही यह मुनाजरा कराया था, और वह सारे उलेमा ए शहर बरेली के रहने वाले थे? और अगर ऐसा नहीं है तो नदीमुल वाजदी साहब बताएं कि जब अहमद रजा खान से बहुत पहले ही उलेमा और मुआसिर उलेमा ए अहले सुन्नत ने वहाबियों के खिलाफ महाज़ खोल दिया था और उनकी कुफरी इबारतों पर सख्त गिरफ्त और तकफीर फरमा दी थी तो अहले सुन्नत के खिलाफ देवबंदी मकतबे फ़िक्र किन उलेमा के तकफीरी फतावा की वजह से वजूद में आया और किन उलेमा ने अहले देवबंद के खिलाफ तकफीर का बीड़ा उठाया? इन्साफ शर्त है।

नदीमुल वाजदी साहब ने कदीम तकफीरी फतावा को अब तक तर्क ना करने की वजह से भी उलेमा ए बरेली पर तनकीद की है। यह तनकीद भी बेजा है। क्योंकि शरई अहकाम व फतावा अय्याम के साथ नाकाबिले कुबूल नहीं होते और उनकी अहमियत बराबर बाकी रहती है। जैसे आज चौदा सौ साल बाद भी इस्लाम के अकाईद अपनी जगह अटल हैं और इन्कारे तौहीद या तौहीने अम्बिया करके दुनिया से रुखसत होने वालों की तकफीर पर यकीन रखना भी निहायत अहम् और जरूरी है। आज प्रोपेगेंडा किया जाता है कि उलेमा ए देवबंद ने कुफरी इबारतों से अपनी मानी मुराद की तअय्युन व तख्सीस कर दी थी। हालांकि फिकह इस्लामी का उसूल है कि सरीह में तावील की गुंजाइश नहीं होती। कोई शख्स अपनी बीवी से कहे कि मैंने तुझे तलाक दी तो अब यह सरीह तलाक किसी तावील की मूतहम्मिल नहीं हो सकेगी और वाके हो कर रहेगी। शौहर की यह बात नहीं मानी जाएगी कि उसने मसलन उमुरे खाना से आज़ाद किया है। हालांकि उसने तलाक से यही अर्थ मुराद लिया हो। उलेमा ए देवबंद की कुफरी इबारतें (जिनकी जानिब नदीमुल वाजदी साहब का इशारा है) किसी तावील व तौजीह की मुतहम्मिल नहीं, इस पर सबसे कवी दलील यह है कि अरब व अजम में जिसने भी इसे सुना कुफरी कलेमात ठहराया। नीज उलेमा ए अरब व अजम ने तकफीर करते वक्त कतअन यह ख्याल नहीं किया कि एक बात में अगर निन्यानबे पहलु कुफ्र के और एक ईमान का निकलता हो तो तकफीर से एह्तेराज़ किया जाना जरूरी है। इसलिए पहले उलेमा ए देवबंद से उनकी मुराद व नियत मालुम कर ली जाए। नदीमुल वाजदी ने तकफीरी फतावा या कुफरी इबारात को पुरानी हो जाने के कारण शायद इसलिए काबिले फरामोश ठहराया है कि किसी तरह मुसलमानों में बाह्मी इत्तेफाक कायम हो जाए जब कि इसका बेहतर तरीका केवल यह कि उलेमा ए देवबंद अपने विशेष अकाबिरे अरबा और उनके ख्याल और नजरिये से दामन झाड़ कर खालिस अल्लाह के लिए ताएब हो जाएं। बरेलवियों के बीच कोई जाती और शख्सि विवाद नहीं, उनके दरमियान यह कुफरी इबारतें ही विवाद का कारण और मतभेद की वजह हैं। अल्लाह पाक हम सब मुसलमानों को दीन हक़ के नाम पर एक और मुत्तहिद फरमाए। आमीन। (लेखक का संबंध रामपुर से है)

(उर्दू से अनुवाद , न्यू एज इस्लाम)

Maulana Nademul Wajidi’s Article is available at:

https://www.newageislam.com/urdu-section/the-reality-deobandi-barelvi-dispute/d/1578

URL for Urdu article: https://newageislam.com/urdu-section/nasir-misbahi-rejects-maulana-wajidi’s/d/1584

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