अरशद आलम, न्यू एज इस्लाम
उर्दू से अनुवाद, न्यू एज इस्लाम
1 मई 2021
क्या इस्लाम ने जाहिलियत के जमाने
का अंत कर दिया या उसे जारी रखा?
झलकियाँ:
1. इस्लाम से पहले अरब को मुशरिकाना और रुजअत पसंदाना बताने वाली
छवि को समझना इतना आसान नहीं है।
2. हज़रत खदीजा की शख्सियत इस बात का सुबूत है कि उस समय महिलाओं
को काफी आज़ादी हासिल थे।
3. संभव है कि तौहीद के इस्लामी अवधारणा की जड़ें खुद उलूहियत के
बारे में इस्लाम से पहले के अवधारणाओं में उपस्थित हों।
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आमतौर पर जब हम किसी मुस्लिम मौलवी की बात सुनते हैं तो हमें पूर्व-इस्लामिक अरब के बारे में एक बहुत ही सीधी-सादी बात सुनने को मिलती है। कहानी यह है कि इस्लाम के आगमन से पहले अरब समाज शिर्क में डूबा हुआ था। प्रत्येक जनजाति के अपने देवी-देवता थे, जिनकी वे प्रतिदिन और विशेष अवसरों पर पूजा करते थे। इसके अलावा, समाज के सामाजिक मानदंड बहुत प्रतिक्रियावादी थे। बच्चियों का नरसंहार आम बात थी। हमें बताया जाता है कि इस्लाम के आगमन ने सब कुछ बेहतर कर दिया। और यह परिवर्तन न केवल धर्म के संदर्भ में बल्कि प्रासंगिक सामाजिक और सांस्कृतिक सिद्धांतों के संदर्भ में भी था। आश्चर्य नहीं कि पूर्व-इस्लामिक काल को अज्ञानता का युग कहा जाता था। लेकिन इन दावों का ऐतिहासिक महत्व क्या था? या हम इसे सिर्फ इसलिए मान लें क्योंकि इस्लामी उलमा ऐसा चाहते हैं? ऐतिहासिक साक्ष्यों से पता चलता है कि इस्लाम ने अज्ञानता के युग को उस तरह से अवरुद्ध नहीं किया जिस तरह से हम में से अधिकांश मानते हैं। इस्लाम से पहले और इस्लाम के बाद अरब समाज के बीच एक महत्वपूर्ण निरंतरता थी।
लेकिन पहले अज्ञान शब्द को खत्म करना जरूरी है। विजेता हमेशा अपने दृष्टिकोण से इतिहास लिखते हैं। क्योंकि अक्सर ऐसा होता है कि ज्यादातर विजेता हमें एक ऐसी कहानी सुनाते हैं जो उनकी जीत को सही ठहराती है। आधुनिक यूरोप ने गुलामों और अन्य कालोनियों को उनकी विजय का औचित्य सिद्ध करने के लिए ज्ञानोदय की कहानी गढ़ी। अश्वेत और एशियाई लोगों को उनकी अपनी भलाई के लिए जीता जाना था ताकि वे श्वेत सभ्यता को विरासत में प्राप्त कर सकें। ऐसा लगता है कि प्रारंभिक इस्लाम ने उस कौम को वश में करने के लिए उसी रणनीति का सहारा लिया, जिस पर उसने शासन किया था।
इस्लाम के आगमन से पहले की अवधि को पूर्ण अज्ञानता के युग के रूप में वर्णित किया गया। ऐसा लगता है कि इस्लाम के पहले के अरब किसी भी अच्छाई से रहित थे और इस क्षेत्र में इस्लाम का आगमन ही एकमात्र अच्छी बात थी। इस बयान के साथ बड़े मुद्दे हैं। जिस तीव्रता के साथ इस्लाम ने 'काफिराना' प्रथाओं की निंदा की, उसका मतलब था कि अतीत की किसी भी सांस्कृतिक बू का मिलना मुश्किल था जब कि यह अस्तित्व में था और इसे नजरअंदाज कर दिया गया था। उदाहरण के लिए, हम जानते हैं कि इस्लाम के पहले के अरब में भाषा और साहित्य का बड़ा बोलबाला था, और कवियों के लिए बहुत सम्मान था। तत्काल मुशायरों की मजलिसें आयोजित होती थीं और कुछ बेहतरीन कलामों को काबा की दीवारों पर सार्वजनिक रूप से लटका दिया जाता था। इसलिए बिना आश्चर्य के कुरआन को सबसे पहले जिन चुनौतियों का सामना था वह उसी मजबूत शाएराना रिवायत से थे। कुरआन ने अल्लाह का कलाम होने का दावा किया था, इसलिए उस समय के विभिन्न शाएरों द्वारा इसकी अद्वितीय फ़साहत व बलागत को चुनौती दी गई थी। कुरआन विभिन्न आयतों में [11:13, 17:88, 2:23] समान चिंताओं का उत्तर दिया है । तथ्य यह है कि कुरआन को इन चुनौतियों का जवाब देना ही था, जिसका अर्थ है कि फसाहत व बलागत के मोर्चे पर वे कुरआन के साथ प्रतिस्पर्धा में थे। इसलिए जब इस्लाम बहुत शक्तिशाली हुआ तो उसने इन शायरों की शायरी बाजू के ताकत से मिटा दिया।
इस्लाम ने यह भी यकीनी बनाया है कि दुनिया के सामने यह एलान किया जाए कि इस्लाम ही महिलाओं का निजात दहिंदा है। शुरू के मुस्लिम लेखकों ने बच्चियों के क़त्ल के इस्लाम से पहले के अरब मामुलात की निंदा की और इस्लाम को गुनाह से एक अज़ीम निजात देने वाले के तौर पर पेश किया। यह बात भी बहुत अतिश्योक्ति लगती है। बच्चियों के क़त्ल का रिवाज आम नहीं बल्कि कुछ विशेष कबीलों तक ही सीमित था। अगर यह रिवाज इतना आम था जैसा कि दावा किया जाता है तो हमारे पास खदीजा जैसी मजबूत शख्सियत नहीं होतीं जो खुद एक आज़ाद महिला थी। नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की पहली बीवी हजरत खदीजा ने न केवल आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से शादी की तजवीज पेश की बल्कि वह अपना कारोबार भी चलाया करती थीं और मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम उनकी नौकरी में थे। बहुत से लोगों के लिए यह हकीकत इस बात की मिसाल है कि इस्लाम ने महिलाओं को आला मकाम अता किया है। लेकिन मामला बहुत पेचीदा है। यह घटना असल में इस्लाम से पहले के अरब में महिलाओं की आला हैसियत की मिसाल पेश करता है।हमें याद रखना चाहिए कि हज़रत खदीजा ने हुजुर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से निकाह वही के आगाज़ और इस्लाम के कयाम से पहले किया था।
असल में मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने हजरत खदीजा के ज़िंदा रहने तक किसी दूसरी औरत से शादी नहीं की और उनकी मौत के बाद आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम किसी चीज के वारिस नहीं बने। वास्तव में यह घटना इस हकीकत की तरफ इशारा करता है कि शादी खदीजा रज़ीअल्लाहु अन्हा के बनाए एक ख़ास समझौते के अनुसार होनी चाहिए जिसे नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने कुबूल किया है। इस्लाम के पैगम्बर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की बाद की तमाम शादियाँ घरेलू जिम्मेदारियां निभाने के लिए थीं क्योंकि हमें उनकी दूसरी बीवियों में गैर घरेलू कामों में व्यस्त होने की कोई मिसाल नहीं मिलती। संभव है कि इस्लाम ने महिलाओं को अधिक अधिकार के बजाए उनके पहले के कुछ अधिकार छीन लिया हो जो उन्हें पारंपरिक तौर पर हासिल थे। अकद निकाह तैयार करने का रिवाज जारी रहा लेकिन अब एक मिसाली मुसलमान औरत से यह उम्मीद की जाती है कि वह घर में बंध जाएगी और खुद को शौहर की मम्लुका बना दे।
अभी भी इस्लाम से पहले और इस्लाम के बाद के अरब मामलों का सिलसिला जारी है। यह आम धारणा कि पूरा अरब ही मुशरिक था, भी गलत है। क्योंकि इस अवधि में यहूदी धर्म और नेस्टोरियन ईसाई धर्म के अस्तित्व के पूर्ण दस्तावेजी प्रमाण हैं। यह सच है कि विभिन्न जनजातियों के अलग-अलग देवी-देवता थे जिनकी वे पूजा करते थे। लेकिन जैसा कि अहमद अल-जल्द ने बताया है, अल्लाह की अवधारणा अरब में भी मौजूद थी और अल्लाह की यह अवधारणा न केवल हिजाज़ में बल्कि वर्तमान यमन के कुछ हिस्सों में भी बहुत लोकप्रिय थी। आमतौर पर यह माना जाता था कि अल्लाह एक खुदा है जो शिर्क से मुक्त है और पूरे ब्रह्मांड का वास्तव में चलाने वाला है।
इसलिए, इस्लाम से पहले गैर-सामी अरब में तौहीद का यह मूल सिद्धांत पूरी तरह से गायब नहीं था। इस्लामी अवधारणा और यहां तक कि ज़ाते बारी का नाम भी मूल रूप से इलाह शब्द का एक और विस्तार है। कुरआन [4:48] हमें बताता है कि अल्लाह शिर्क को नापसंद करता है, जिसका मूल अर्थ उसके साथ भागीदारों को जोड़ना है। यह, निश्चित रूप से, इलाह की अवधारणा का विकास है जिसका कोई साथी नहीं है। यह भी संभव है कि इस्लाम के पहले के अरब अपने कबीलों के विशिष्ट देवताओं के साथ अल्लाह की पूजा करते रहे हों। शिर्क के खिलाफ कुरआन का आदेश ऐसे संदर्भ में एक सही अर्थ प्रदान करता है। इस्लाम अरबों के धार्मिक इतिहास में एक अंतर पैदा करने के बजाय, यह अधिक प्रशंसनीय लगता है कि इस्लाम से पहले और इस्लामी संदर्भों के बीच एक महत्वपूर्ण निरंतरता मौजूद थी।
लेकिन एक नए जिद्दत का दावा करने के लिए इस्लाम को एक अतीत का आविष्कार करना पड़ा। और इस्लाम को एक प्रगतिशील और आधुनिक शक्ति के रूप में पेश करने के लिए इस अतीत को बदनाम करना जरूरी था। बेशक, अतीत की आवाज हमेशा दबाई जाती है। अब यह मुसलमानों की जिम्मेदारी है कि वे अपने इतिहास के इस असंतुलित दृष्टिकोण को ठीक करें। ऐसा करने से ईमान के मूल सिद्धांतों पर सवाल नहीं उठेंगे, जैसा कि कुछ लोग सोचते हैं। बल्कि, इससे हमारे यहाँ तक पहुँचने की थोड़ी दास्तान सामने आ जाएगी।
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Urdu Article: The Muslim Construction of Pre-Islamic Arabia قبل از اسلام عرب کی مسلم ساکھ
English Article: The Muslim
Construction of Pre-Islamic Arabia
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