मुश्ताकुल हक़ अहमद सिकंदर, न्यू एज इस्लाम
उर्दू से अनुवाद न्यू एज इस्लाम
03 फ़रवरी 2023
एक सलफी मौलाना के साथ मज़हबी मसाइल पर चर्चा
प्रमुख बिंदु
1. अधिकांश मौलानाओं ने इस्लाम की सेवा करने से अधिक इसे बदनाम
किया है।
2. अधिकांश सलफियों का मत है कि पैगंबर मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि
वसल्लम ने दाढ़ी बढ़ाने का आदेश दिया है और इस्लाम में दाढ़ी काटने या ट्रिम करने की
अनुमति नहीं है।
3. सलफियों ने उम्मत के बीच विभाजन को पाटने के नेक लक्ष्य के साथ
शुरुआत की, लेकिन अंततः उम्मत को एकजुट करने की प्रक्रिया में खुद सांप्रदायिक बन गए।
4. सूफियों के प्रयासों से कश्मीर में इस्लाम का प्रसार हुआ,
जिनका सलफियों ने कड़ा
विरोध किया।
....
मौलानाओं से मैं हमेशा सावधान रहा हूं। अधिकांश मौलानाओं ने इस्लाम की सेवा करने से अधिक इसे बदनाम किया है। ऐसा हुआ कि मैं अपने एक मित्र के घर शोक मनाने गया, जिसके पिता का देहांत हो गया था। वहां मेरी मुलाकात एक मौलाना से हुई, जिनकी लंबी दाढ़ी और कटी हुई मूंछों ने मुझे विश्वास दिलाया कि वह सलफी संप्रदाय से संबंधित हैं।
यह वाकई काफी दिलचस्प है कि दाढ़ी की लंबाई मुसलमानों के संप्रदाय को बता सकती है। अधिकांश सलफियों का मत है कि पैगंबर मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने दाढ़ी बढ़ाने का आदेश दिया और इस्लाम में दाढ़ी काटने या ट्रिम करने की अनुमति नहीं है। अपनी किशोरावस्था में, मैंने मुख्तार अहमद सलफ़ी की एक किताब पढ़ी, जो अल-बलाग मासिक और अल-दारिस अल-सल्फ़िया पब्लिशिंग हाउस के संपादक थे, और किताब का शीर्षक था (दाढ़ी के मसाइल कुरआन व सुन्नत की रौशनी में)।
किताब में सारा तर्क इस बात पर था कि तमाम नबी, उनके सहाबा, उलमा, मशाईख और अल्लाह के दोस्त दाढ़ी रखते थे, इसलिए दाढ़ी कटवाना गुनाह और हराम है। इस पुस्तक का निश्चित रूप से मेरे प्रभावशाली मन पर बहुत प्रभाव पड़ा। उस समय मेरा चेहरा लड़कों जैसा था, लेकिन मैंने ठान लिया था कि एक बार दाढ़ी बढ़ जाने के बाद मैं इसे न कटवाऊंगा और न ही ट्रिम करूँगा। इसलिए मेरे हाई स्कूल और कॉलेज के दिनों में मेरी लंबी दाढ़ी थी और अभी तक मैंने कभी क्लीन शेव नहीं की है। इस किताब की वजह से मैंने दाढ़ी न रखने वाले मुसलमानों की तक़वा और परहेज़गारी पर सवाल उठाना शुरू कर दिया, इसलिए जब भी मैंने किसी को इस्लाम के बारे में बात करते या उपदेश देते सुना, तो मुझे इस बात पर गुस्सा आता कि उसे इस्लाम के बारे में बात करने या प्रचार करने का कोई अधिकार नहीं है। क्योंकि उनकी दाढ़ी नहीं है, दाढ़ी मेरे लिए धार्मिकता का प्रतीक बन गई।
बाद में मुझे समझ में आया कि यह दाढ़ी संप्रदायों की निशानी है, लंबी सलफियों की, छोटी जमात-ए-इस्लामी की, बे तरतीब बरेलवियों की और देवबंदियों की रंगी हुई दाढ़ी। उनके चाहने वालों ने भी रंग भी बाँट लिए। बरेलवियों के लिए हरा, देवबंदियों के लिए सफेद और सलाफियों के लिए काला। यह भी काफी दिलचस्प है शियाओं में, सैय्यदों के लिए काला और गैर-सय्यदों के लिए सफेद आरक्षित है, और कोई भी शिया इस विभाजन और भेद पर सवाल नहीं उठा सकता है।
इस्लाम को गहराई से पढ़ने और समझने के बाद, मैं दाढ़ी वाली पहचान के इस बाहरी प्रदर्शन से उबर गया। मैं इस तथ्य को समझ गया कि मोक्ष दाढ़ी पर निर्भर नहीं करता है और अल्लाह सर्वशक्तिमान दाढ़ी की लंबाई को मापने के लिए फरिश्तों को कोई पैमाना नहीं देगा कि वह दाढ़ी की लम्बाई नापें और फिर मुसलमानों को जन्नत में दाखिल करें। इसलिए इस्लाम हमें जन्नत का उत्तराधिकारी बनाने के लिए किसी और चीज़ की माँग करता है।
बाद में जब बातचीत शुरू हुई, तो मुझे पता चला कि वह एक स्थानीय सलफी मदरसा में शिक्षक हैं और स्थानीय कश्मीरी भाषा में कुरआन पर अनुवाद और तफसीर लिखने के अलावा एक लेखक भी हैं। मैंने उनसे पवित्र कुरआन का कश्मीरी में अनुवाद करने की आवश्यकता के बारे में पूछताछ की, जबकि मरहूम मीरवाइज यूसुफ शाह से मंसूब एक अनुवाद पहले से ही मौजूद है। हालांकि मैंने उन्हें यह भी बताया कि यह आरोप है कि हनफी सुपुरी ने कुरआन का कश्मीरी में अनुवाद किया था और इसे प्रूफ-रीडिंग और रिवीजन के लिए मीरवाइज को दिया था, लेकिन मीरवाइज ने इसे धोखे से और घोर अनुचित तरीके से अपने नाम से प्रकाशित किया। उन्होंने कहा कि नहीं, हनफ़ी सुपुरी नहीं, बल्कि श्रीनगर के उपनगरों में रहने वाले निर्बल नाम के एक अन्य व्यक्ति ने अनुवाद किया था और इसे हनफ़ी आलिम मीरवाइज़ को सौंपा था।
जब मीरवाइज को कश्मीर से निर्वासित किया गया, तो वह इस अनुवाद को अपने साथ ले गए और कश्मीर के दो हिस्सों के बीच संचार टूट गया। इसलिए उन्होंने असल आलिम और अनुवादक के मरने तक इंतजार किया और फिर इसे अपने नाम से प्रकाशित किया। लेकिन जो लोग इस बौद्धिक साहित्यिक चोरी से वाकिफ हैं वे भी कश्मीरियों में मीरवाइज परिवार की अकीदत के कारण चुप हैं।
चूंकि मैं सलफी मनहज से परिचित हूं, इसलिए मैंने एक सलाफी आलिम से उम्मत के विभाजन के बारे में और पूछताछ की। उन्होंने हमेशा की तरह चार इमामों की नकल की आलोचना की। लेकिन मैंने उनकी बात इस तरह रद्द की कि सलफ़ी या अहले हदीस, हालांकि वे एकजुट नहीं हैं, अब एक संप्रदाय हैं। उन्होंने उम्मत के बीच विभाजन को समाप्त करने के नेक लक्ष्य के साथ शुरुआत की थी, लेकिन अंत में वे उम्मत को एकजुट करने की प्रक्रिया में सांप्रदायिकता का शिकार हो गए। अतः उन्होंने अन्त में उम्मत को जोड़ने के बजाय और बाँट दिया। इसके अलावा, मैंने उनसे मज़ारों और इबादतगाहों पर जाने के बारे में पूछा, क्योंकि यह कश्मीर में एक आम बात है। साथ ही उन्होंने कहा कि कश्मीर में इस्लाम सूफियों के प्रयासों से फैला, जिनका सलफी कड़ा विरोध करते हैं। उन्होंने स्वीकार किया कि इस्लाम में कब्रों पर जाने की अनुमति है लेकिन मृतकों से दुआ मांगने और करने की नहीं है, मैं इस अंतर से सहमत हूं कि मय्यत से दुआ मांगना तो नमाज़ों में भी हो सकता है।
मैं नियमित रूप से दरगाहों पर जाता हूं, लेकिन मैं मृतक से दुआ नहीं मांगता, बल्कि मैं अल्लाह से दुआ करता हूं कि मुझे वह गुण प्रदान करें जो मुझे उसके जैसा एक अच्छा और पवित्र मुसलमान बनने में सक्षम बनाए।
फिर यह प्रश्न सहाबा कराम रजिअल्लाहु अन्हुम की ओर स्थानांतरित हुआ। उन्होंने कहा कि हम सहाबा से सवाल नहीं कर सकते और मैं इस बात से सहमत नहीं हूं क्योंकि सहाबा याक संगी नहीं होते। उनमें से कई प्रकार हैं और पैगंबर के इस दुनिया से जाने के बाद हुई घटनाओं के परिणामस्वरूप उनमें से कुछ ही सही रास्ते पर रह गए थे। मैंने ख़लीफ़ा ए रसूल हज़रत अली रजिअल्लाहु अन्हु और विद्रोही सरदार अमीर मुआविया रजिअल्लाहु अन्हु के बीच सिफ्फीन की लड़ाई के बारे में पूछा। मेरे द्वारा मुआविया रजिअल्लाहु अन्हु को विद्रोही कहे जाने पर वे नाराज़ थे, भले ही कई हदीसों में मुसलमानों और अहलुल बैत के खिलाफ उसके अपराधों का वर्णन किया गया है। बचने के लिए उसने अब्दुल्लाह बिन सबाह के फितना की नकल की।
मेरे लिए यह एक बचने की चाल और हास्यास्पद बात है। यदि हम मानते हैं कि एक व्यक्ति या उसका नेटवर्क सहाबा कराम और ताबईन के एक पूरे समूह को तबाह करने के लिए पर्याप्त था, तो हमें यह स्वीकार करना होगा कि उनके प्रशिक्षण में कुछ कमी रही होगी और वे इतने नेक नहीं थे जितना कि सलफी और दुसरे संप्रदाय के लोग उन्हें बनाते हैं। जब हम यह सोचना बंद कर देंगे कि वे सभी निर्दोष और बेगुनाह हैं, तभी हम मुसलमानों की वास्तविक पीड़ा को समझ पाएंगे। सलफी यह कहकर पलक झाड़ने की कोशिश करते हैं कि हमें सहाबा के बीच मुशाजरात की आलोचना नहीं करनी चाहिए, लेकिन केवल एक समूह हक़ पर है और वह खलीफा ए रसूल इमाम अली रज़िअल्लाहु अन्हु का है और किसी का नहीं। इसमें कोई दो मत नहीं हैं। नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने हमें अपने खानदान (अहले बैत) को सहाबा से अधिक सम्मान देने का आदेश दिया, लेकिन सलफियों ने अहले बैत को मजरुह करते हैं और मुआविया रजिअल्लाहु अन्हु जैसे कुछ विद्रोही सहाबा को इमाम अली रजिअल्लाहु की हैसियत से अधिक बताने की कोशिश करते हैं। इस कारण वे नासबी की श्रेणी में आ जाते हैं।
यह चलन इसलिए है क्योंकि मुआविया रजिअल्लाहु अन्हु और उसके बाद के उनके वंशजों ने अपने दमनकारी शासन को बनाए रखने के लिए धन, संपत्ति और लोगों को झूठी हदीसों गढ़ने और उसका प्रसार करने के लिए इस्तेमाल किया। अब भी अरब के तानाशाह और राजा अपने तानाशाही शासन को सही ठहराने के लिए पेट्रो-डॉलर के माध्यम से मुआविया रजिअल्लाहु अन्हु को सम्मानित करने के इस मिथक को स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं क्योंकि मुआविया रजिअल्लाहु अन्हु इस्लाम के पहले राजा और आमिर थे। इसलिए सलफ़ी मौलाना उमवी शासन और उसके संस्थापक के अहले बैत के खिलाफ अपराधों के बारे में मेरी बात का जवाब देने या खंडन करने में विफल रहे। सलफियत का अर्थ है मुसलमानों के बीच राजशाही, तानाशाही और इस्लाम की याक संगी शिक्षाओं का प्रसार करना और यह विफल हो गया है।
----------
English
Article: Meeting a Salafi Maulana
Urdu Article: Meeting a Salafi Maulana ایک سلفی مولانا سے ملاقات
URL:
New Age Islam, Islam Online, Islamic Website, African Muslim News, Arab World News, South Asia News, Indian Muslim News, World Muslim News, Women in Islam, Islamic Feminism, Arab Women, Women In Arab, Islamophobia in America, Muslim Women in West, Islam Women and Feminism