अरशद आलम, न्यू एज इस्लाम
उर्दू से अनुवाद न्यू एज इस्लाम
14 फ़रवरी 2022
कौम को यह फैसला करने की जरूरत है कि क्या वह अपने बच्चों को
मध्यकालीन मानसिकता की तरफ ले जाना चाहते हैं
प्रमुख बिंदु:
1. मदरसों को शिक्षा के अधिकार एक्ट 2009 से अलग कर दिया गया है।
2. इसका मतलब यह है कि उसमें पढ़ने वाले मुस्लिम बच्चे उम्र
के अनुसार शिक्षा का मुतालबा नहीं कर सकते।
3. मुस्लिम ही एक अकेली कौम है जिसके लगभग 10 प्रतिशत बच्चे कोई आधुनिक विषय
नहीं पढ़ रहे हैं।
4. विभिन्न सरकारों को इसकी शैक्षिक खराबियों का ज़िम्मेदार
ठहराने से कोई लाभ नहीं।
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11 फरवरी को देश के सुप्रीम कोर्ट ने मदरसों और वैदिक स्कूलों को शिक्षा के अधिकार कानून के तहत लाने की मांग वाली याचिका पर सुनवाई करने से इनकार कर दिया। इस मांग में विशेष रूप से उल्लेख किया गया है कि इन संस्थानों में पढ़ने वाले बच्चों को उस शिक्षा से वंचित किया जा रहा है जिसकी परिकल्पना आरटीई में की गई है और इसलिए यह उनके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है। उल्लेखनीय है कि आरटीई एक्ट 2009 ने उम्र के अनुसार विशेष शिक्षा को मौलिक अधिकार बना दिया है, लेकिन 2012 के संशोधनों ने मदरसों और अन्य धार्मिक संस्थानों को इससे अलग करार दिया गया था। शीर्ष अदालत ने कहा कि चूंकि अपवाद स्पष्ट है, इसलिए याचिका अस्वीकार्य है। कम से कम यह तो कहा जा सकता है कि सुप्रीम कोर्ट का यह रवैया परेशान करने वाला है क्योंकि यह मुद्दा लाखों बच्चों के मौलिक अधिकारों से जुड़ा है।
बेशक, यह सच है कि यह अपवाद केवल मदरसों जैसे मुस्लिम धार्मिक संस्थानों के साथ ही नहीं बल्कि वैदिक स्कूलों और अन्य अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थानों के साथ भी है। हालाँकि, जैसा कि मैंने पहले ही बताया है, मदरसों की स्थिति की तुलना अन्य धार्मिक अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थानों से नहीं की जा सकती है। आर्य समाजवादियों से लेकर ईसाई मिशनरियों तक, सभी के पास स्कूलों का अपना नेटवर्क है, लेकिन यह समझना महत्वपूर्ण है कि वे ऐसे स्कूलों में जाने वाले बच्चों को आधुनिक शिक्षा प्रदान करने से इनकार नहीं करते हैं। मदरसों में स्थिति बहुत अलग है। सरकारी सहायता प्राप्त मदरसों के अलावा, कोई ऐसी आधुनिक शिक्षा नहीं है जो छात्रों को दी जा रही हो। देवबंद से जुड़े जमीयत उलेमा जैसे धार्मिक संगठनों के प्रभाव में मदरसे बड़ी संख्या में अपने छात्रों को कोई आधुनिक विषय नहीं पढ़ाते हैं। तो हमें यह समझने की जरूरत है कि ऐसे मदरसों में छात्रों की संख्या सरकारी सहायता प्राप्त मदरसों में छात्रों की संख्या से काफी अधिक है।
इन मदरसों में पढ़ाने का उद्देश्य छात्रों को "कब्र से आगे के जीवन" के लिए तैयार करना है। इस प्रकार की धार्मिक शिक्षा किसी भी अर्थपूर्ण तरीके से इन छात्रों में आधुनिक समय के मुद्दों से निपटने की क्षमता पैदा नहीं करती है। इनमें से अधिकांश छात्रों को इतिहास, विज्ञान या भूगोल का कोई ज्ञान नहीं है। उन्हें शिक्षा के नाम पर पुरानी धार्मिक पुस्तकों को याद करने के लिए मजबूर किया जाता है। कुछ लोग इतने आत्मनिर्भर होते हैं कि उन्होंने अपना मदरसा स्थापित कर लिया लेकिन इनमें से अधिकतर छात्र अपने परिवारों को लौट जाते हैं। इसलिए मदरसा शिक्षा से भी कोई सार्थक सामाजिक सुधार नहीं होता है। इसके अलावा, उन्हें जो सिखाया जाता है वह उनकी सोच को और अधिक रूढ़िवादी बनाता है। उदाहरण के लिए, ऐसे मदरसों के स्नातक (फारिगुल तहसील) अपने परिवार की महिलाओं पर हिजाब थोपने वाले पहले व्यक्ति होते हैं। उन्हें अपने कौमी जीवन से संबंधित किसी भी चीज़ में शायद ही दिलचस्पी होगी, जैसे कि संविधान, हिंदू धर्म और अन्य धर्मों का ज्ञान, या देश की सांस्कृतिक विविधता। मदरसों में वे जो पढ़ते हैं वह एक अजीब व गरीब इस्लाम है जिसकी आज की दुनिया में कोई वास्तविकता नहीं है। हदीस और कुरआन की तफसीरें उन्हें "हकीकी इस्लाम" के समय में वापस ले जाती हैं जो सातवीं-आठवीं शताब्दी का अरब है
यह एक ऐसा इस्लाम है जो ईश्वर के अन्य धर्मों पर अपनी सर्वोच्चता का दावा करता है और इसलिए इसकी शिक्षाएं भारत जैसे लोकतंत्र के लिए अत्यधिक अनुपयुक्त हैं। देश की सांस्कृतिक विरासत के बारे में जानने के बजाय, वे अरबी इस्लामी मॉडल को लागू करना जानते हैं और केवल उसी बात की परवाह करते हैं जिसे वह अनुकरण के योग्य हैं। इससे केवल एक अजनबी जीवन मिल सकती है। इसलिए, यह आश्चर्य की बात नहीं है कि ऐसे मुसलमान राष्ट्रीय समुदाय की परंपराओं और रीति-रिवाजों से पूरी तरह से कटे हुए हैं।
इन शिक्षण संस्थानों को चलाने वाले मुसलमान अपने बच्चों को कभी भी अपने मदरसों में पढ़ने के लिए नहीं भेजते हैं। मैं मदरसों के कई प्रशासकों से मिला हूं जिनकी अपने छात्रों के बारे में बहुत कमजोर राय है। इन मदरसों में पढ़ने वाले छात्र ज्यादातर गरीब और निचली जाति के मुसलमान हैं जिनके लिए मदरसा किसी भी तरह की शिक्षा का पहला अवसर है। कई माता-पिता जो अपने बच्चों को मदरसों में भेजते हैं, वे आधुनिक और धार्मिक शिक्षा के बीच के अंतर को नहीं समझते हैं। बहुत से लोग अपने बच्चों को केवल धार्मिक शिक्षा के लिए और कभी-कभी सिर्फ अच्छे भोजन के लिए इन जगहों पर भेजते हैं। इसलिए मदरसों की फंडिंग और प्रबंधन करने वाले लाखों मुस्लिम बच्चों के शैक्षिक भविष्य पर डाका डालने के दोषी हैं।
असली समस्या यह है कि कोई भी मुस्लिम समाज में मदरसा शिक्षा के बुरे प्रभावों के बारे में बात नहीं करता है। मुसलमान अक्सर शिकायत करते हैं कि वे "शैक्षिक रूप से पिछड़े अल्पसंख्यक" बन गए हैं क्योंकि किसी भी सरकार ने उनकी शैक्षिक आवश्यकताओं पर ध्यान नहीं दिया है। हालाँकि, मुस्लिम कौम ने ही मदरसों को अपनी धार्मिक पहचान से जोड़ा है। उनका मानना है कि मदरसों में सुधार का कोई भी प्रयास उनके धर्म और संस्कृति पर हमला है। उन्हें इस बात का एहसास नहीं है कि यह पिछड़ापन आंशिक रूप से उनका अपना है। एक समाज का विकास कैसे हो सकता है जब उसके लगभग 10% बच्चे आधुनिक वास्तविकताओं से अनजान हों? यह पिछड़ेपन का एक उत्कृष्ट उदाहरण है जिसमें मुसलमान खुद शिक्षा और रोजगार के लिए बाजार से दूरी बनाने को तैयार हैं। लेकिन फिर, ऐतिहासिक गलतियों के लिए खुद एह्तेसाबी की तुलना में सरकार को दोष देना आसान काम है।
अगर मुस्लिम कौम को अपने बच्चों के शैक्षिक भविष्य को नष्ट करने का कोई पछतावा नहीं है, तो कोई अदालत उनके बचाव में क्यों आए?
English Article: How Madrasas Obliterate Muslim Educational Futures
Urdu Article: How Madrasas Obliterate Muslim Educational Futures کیسے مدارس مسلمانوں کے تعلیمی
مستقبل کو برباد کر رہے ہیں
Malayalam Article: How Madrasas Obliterate Muslim Educational Futures മുസ്ലീം വിദ്യാഭ്യാത്തെ മദ്രസകൾ ഭാവിയിൽ എങ്ങനെ ഇല്ലാതാക്കുന്നു
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