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Hindi Section ( 21 Sept 2018, NewAgeIslam.Com)

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Islam: A Religion of Peace or Violence? The Evidence in Quran- Part 3 इस्लाम धर्म शांति या हिंसा? कुरआनी प्रमाण

 

कनीज़ फातमा, न्यू एज इस्लाम

18 अगस्त 2018

कुरआन जो इस्लाम का मूल स्रोत है, इसका सार्वभौमिक उद्देश्य युद्ध की स्थिति में शांति और सहअस्तित्व स्थापित करना हैl हाँ यह बात सहीह है कि कुफ्फार और प्रारम्भिक दौर के मुसलामानों के बीच जंगे हुईं और उन जंगों में कुरआन ने मुसलमानों की राहनुमाई कीl

हम यह जानते हैं जंगे दो प्रकार की होती हैं जिनका हम आज भी अवलोकन कर सकते हैं, एक वह जो आतंकवाद भड़काती है जो आज आइएसआइएस लड़ रहा है और दूसरी जो आतंकवाद को समाप्त करती हैl बारह साल तक लगातार सब्र और सहिष्णुता का प्रदर्शन करने के बाद प्रारम्भिक दौर के मुसलामानों ने अरब के काफिरों की आतंकवादी गतिविधियों के खिलाफ जंगें कीं ताकि वह अपने धार्मिक दिनचर्या की अदायगी और अपनी जानों की सलामती के लिए आज़ादी प्राप्त कर सकेंl

एक महान गैर मुस्लिम विचारक एम एम पीकथाल जिन्होंने बाद में इस्लाम कुबूल किया और कुरआन का अंग्रेजी अनुवाद किया, इस हवाले से लिखते हैं:

मुसलमान वह हैं जो अल्लाह की राह में लड़ते हैं, (जैसा कि कुरआन में बयान किया गया है), और उनकी लड़ाई अपने बचाव में है या समाज के दबे कुचले लोगों के लिए है या अत्याचार के खात्मे के लिए हैl केवल लोगों के धार्मिक विचारों के आधार पर ही मैदाने जंग गर्म करने की अनुमति नहीं है, और ना ही ऐसी जंग को किसी भी स्थिति में जिहाद का नाम दिया जा सकता हैl जिहाद तो अल्लाह की राह में संघर्ष करने का नाम है, और अगर हम अल्लाह की राह के लिए कोई मॉडर्न शब्द चुनना चाहें तो वह शब्द “इंसानियत की तरक्की के लिए लगन” होगाl जब कोई कौम या समाज मुसलामानों के साथ अत्याचार करे और उनको मिटाने की कोशिश करे या उन्हें गुलाम बनाने की कोशिश करे और दमन और अत्याचार के पंजे से हकीकत का गला घोटने की कोशिश करे तो उनके खिलाफ जंग करना मुसलामानों का कर्तव्य हैl (M. M. Pickthall, The Cultural Side of Islam, p. 27, Islamic book Trust, India)

कुछ लोग अक्सर कुरआन की उन आयतों को पेश करते हैं जिनमें कहा गया है कि “और काफिरों को जहां पाओ मारो और उन्हें निकाल दो जहां से उन्होंने तुम्हें निकाला था और उनका फसाद तो क़त्ल से भी सख्त है और मस्जिदे हराम के पास उनसे ना लड़ो जब तक वह तुम से वहाँ ना लड़ें और अगर तुमसे लड़ें तो उन्हें क़त्ल करो काफिरों की यही सज़ा है,” (2:191), जब हुरमत वाले महीने निकल जाएँ तो मुशरिकों को मारो जहां पाओ और उन्हें पकड़ो और कैद करो और हर जगह उनकी ताक में बैठो फिर अगर वह तौबा करें और नमाज़ कायम रखें और ज़कात दें तो उनकी राह छोड़ दो बेशक अल्लाह बख्शने वाला मेहरबान है (9:5), लेकिन अफ़सोस की बात यह है कि वह इन आयतों को इनके सहीह अर्थ में समझने की कोशिश नहीं करतेl और केवल इन आयतों को उठाते हैं और इनका सामान्य इतलाक करते हैं और मुसलामानों और मुशरिकों के बीच फसाद पैदा करते हैंl इसकी जबरदस्त निंदा की जानी चाहिएl

जब वह इन आयतों 2:5, 2:191 का अध्ययन करते हैं तो यह समझने की कोशिश क्यों नहीं करते कि वह आयतें सशस्त्र मुशरेकीन के खिलाफ जंग के लिए थीं जो मुसलामानों को उनके बुनियादी अधिकारों से महरूम करना और उनके वजूद को नेस्त व नाबूद करना चाहते थेl जब पुर्णतः उनके संदर्भ में इन आयतों का अध्ययन किया जाए तो यह बात बिलकुल स्पष्ट हो जाती है:

“और जो लोग तुम से लड़े तुम (भी) ख़ुदा की राह में उनसे लड़ो और ज्यादती न करो (क्योंकि) ख़ुदा ज्यादती करने वालों को हरगिज़ दोस्त नहीं रखता (190) और तुम उन (मुशरिकों) को जहाँ पाओ मार ही डालो और उन लोगों ने जहाँ (मक्का) से तुम्हें शहर बदर किया है तुम भी उन्हें निकाल बाहर करो और फितना परदाज़ी (शिर्क) खूँरेज़ी से भी बढ़ के है और जब तक वह लोग (कुफ्फ़ार) मस्ज़िद हराम (काबा) के पास तुम से न लडे तुम भी उन से उस जगह न लड़ों पस अगर वह तुम से लड़े तो बेखटके तुम भी उन को क़त्ल करो काफ़िरों की यही सज़ा है (191) फिर अगर वह लोग बाज़ रहें तो बेशक ख़ुदा बड़ा बख्शने वाला मेहरबान है (192) और उन से लड़े जाओ यहाँ तक कि फ़साद बाक़ी न रहे और सिर्फ ख़ुदा ही का दीन रह जाए फिर अगर वह लोग बाज़ रहे तो उन पर ज्यादती न करो क्योंकि ज़ालिमों के सिवा किसी पर ज्यादती (अच्छी) नहीं (193) हुरमत वाला महीना हुरमत वाले महीने के बराबर है (और कुछ महीने की खुसूसियत नहीं) सब हुरमत वाली चीजे एक दूसरे के बराबर हैं पस जो शख्स तुम पर ज्यादती करे तो जैसी ज्यादती उसने तुम पर की है वैसी ही ज्यादती तुम भी उस पर करो और ख़ुदा से डरते रहो और खूब समझ लो कि ख़ुदा परहेज़गारों का साथी है (194) और ख़ुदा की राह में ख़र्च करो और अपने हाथ जान हलाकत मे न डालो और नेकी करो बेशक ख़ुदा नेकी करने वालों को दोस्त रखता है (195)” (2:190-195)

अगर हम इस आयत 2:191, को इसके संदर्भ के साथ अध्ययन करेंगे तो इसके बारे में जो बदगुमानी जबरदस्ती हमारे मन में पैदा कर दी गई है वह समाप्त हो जाएगी, जैसा कि उपर ज़िक्र किया गयाl

दूसरी आयत 9:5, जो कि आयत 2:191 की ही तरह है, इसकी बेहतर व्याख्या डॉक्टर अब्दुल हलीम ने अपने इन शब्दों में पेश की है:

“हमें उन आयतों पर भी टिप्पणी करना चाहिए जिन्हें कसरत के साथ पेश किया जाता है और जिन्हें संदर्भ से बाहर गलत तरीके से इस अंदाज़ में पेश किया जाता है कि उन्हें तलवार वाली आयत का नाम दे दिया गया “....फिर जब हुरमत वाले महीने निकल जाएं तो मुशरिकों को मारो जहां पाओ और उन्हें पकड़ो और कैद करो और हर जगह उनकी ताक में बैठो,”(9:5)l मुसलामानों से काफिरों की दुश्मनी और अदावत (8:39; 2:193) और उनका फितना फसाद इतना बढ़ गया कि कुफ्फार मुसलामानों को कुफ्र की तरफ वापस फेरने या उनको ख़तम कर देने पर कमर बस्ता हो गए थेl” और उनका फसाद क़त्ल से सख्त तर है और हमेशा तुमसे लड़ते रहेंगे यहाँ तक कि तुम्हें तुम्हारे दीन से फेर दें अगर बन पड़े” [2:217]

अरब के यही वह ज़ालिम काफिर थे जो मुसलामानों को उनके घरों से निकालने या कुफ्र की तरफ वापस फिरने से कम पर राज़ी नहीं थे और जो हमेशा अपने समझौतों को तोड़ रहे थे, जिनके साथ मुसलामानों को ऐसा सुलूक करने का हुक्म नहीं दिया गया बल्कि उनकी आखरी तंबीह की गई और उन्हें खबरदार किया गया कि चार पवित्र महीनों के गुज़ारने के बाद, कि जिनका ज़िक्र ऊपर आयत 9:5 में किया गया, मुसलमान उनके खिलाफ जंग का अलम बुलंद करेंगेl इस आयत से “मुशरिकों को क़त्ल करो” यह बुनियादी वाक्य कुछ पश्चिमी विचारकों ने उठा लिया ताकि वह जंग से संबंधित इस्लामी रवय्या लोगों के सामने पेश कर सकेंl यहाँ तक कि कुछ मुसलमान भी यही दृष्टिकोण रखते हैं और यह कहते हैं कि इस आयत ने जंग से संबंधित दूसरी आयतों को मंसूख कर दियाl

यह सरासर एक वहम, और एक वाक्य के छोटे से भाग को उठा लेना और इसे एक गलत संदर्भ में पेश करना हैl इसकी सहीह तस्वीर आयत 1:59 से उजागर होती हैl जिनमें मुशरेकीन से लड़ने के हुक्म की कई कारण बयान की गई हैंl उन्होंने लगातार अपने समझौतों को तोड़ा और मुसलामानों के खिलाफ दूसरों की मदद की, उन्होंने मुसलामानों से दुश्मनी शुरू कर दी, दूसरों को इस्लाम कुबूल करने से मना किया, मस्जिदे हराम से और यहाँ तक कि उनके घरों से मुसलामानों को निकालाl कम से कम इस आयत में मुसलामानों के खिलाफ काफिरों के गलत कामों को आठ बार बयान किया गयाl

दुसरे स्थानों पर जंग पर पाबंदियों से संबंधित दूसरी आयतों की संगतता में तलवार वाली आयत के संदर्भ में भी ऐसे काफिरों को “ख़ारिज करार दिया गया है जो अपने समझौतों को नहीं तोड़ते और मुसलामानों के साथ अमन से रहते हैं[9:7] l इसमें यह हुक्म दिया गया है कि जो दुश्मन सुरक्षा चाहें उनकी सुरक्षा की जाए और उन्हें सुरक्षित जगह पहुंचा दिया जाए [9:6]

आयत 5 के सभी संदर्भ और इसकी सारी पाबंदियों और निषेधताओं को उन लोगों ने बिलकुल अनदेखा कर दिया जो आयत के एक हिस्से को चुन लेते हैं ताकि “तलवार वाली आयत” पर इस्लाम में जंग पर अपनी थ्योरी कायम कर सकें, हालांकि कुरआन में कहीं भी शब्द तलवार स्थित ही नहीं हुआ हैl (Muhammad Abdul Haleem, “Understanding The Qur’an” {I.B. Tauris & Co Ltd 2005}, pp. 65-66, “Jihad: a war against all Non-Muslims or not? By Kevin Abdullah Kareem”)

उपर्युक्त उद्धरण की रौशनी में हम आयत 2:191 और 9:5, की सहीह समझ हासिल कर सकते हैंl इसलिए कि अगर इन आयातों में सभी मुशरेकीन मुराद होते तो यह आयतें 9:6, 9:7, 60:8 कुरआन में नाज़िल ना होतीं जिनमें यह कहा गया है कि:

“और (ऐ रसूल) अगर मुशरिकीन में से कोई तुमसे पनाह मागें तो उसको पनाह दो यहाँ तक कि वह ख़ुदा का कलाम सुन ले फिर उसे उसकी अमन की जगह वापस पहुँचा दो ये इस वजह से कि ये लोग नादान हैंl” (9:6)

“(जब) मुशरिकीन ने ख़ुद एहद शिकनी (तोड़ा) की तो उन का कोई एहदो पैमान ख़ुदा के नज़दीक और उसके रसूल के नज़दीक क्योंकर (क़ायम) रह सकता है मगर जिन लोगों से तुमने खानाए काबा के पास मुआहेदा किया था तो वह लोग (अपनी एहदो पैमान) तुमसे क़ायम रखना चाहें तो तुम भी उन से (अपना एहद) क़ायम रखो बेशक ख़ुदा (बद एहदी से) परहेज़ करने वालों को दोस्त रखता हैl” (9:7)

“जो लोग तुमसे तुम्हारे दीन के बारे में नहीं लड़े भिड़े और न तुम्हें घरों से निकाले उन लोगों के साथ एहसान करने और उनके साथ इन्साफ़ से पेश आने से ख़ुदा तुम्हें मना नहीं करता बेशक ख़ुदा इन्साफ़ करने वालों को दोस्त रखता हैl” (60:8)

आयत (60:8) के बारे में अक्सर मुफ़स्सेरीन की एक राय यह है कि यह आयत मोहकम है और यह मंसूख नहीं हुईl इन आयतों में मुसलामानों को मुशरिकों और काफिरों सहित सभी गैर मुस्लिमों के साथ बराबर सुलूक करने से मना किया गया है इसका अर्थ यह है कि अल्लाह मुसलामानों को उन मुशरिकों और काफिरों सहित गैर मुस्लिमों के साथ अच्छा बर्ताव करने से मना नहीं करता जो मज़हब के मामले में मुसलामानों से जंग नहीं करते और मुसलामानों के साथ अमन और न्याय के साथ ज़िन्दगी गुजारते हैंl

एम एम पीकथाल अपनी किताब “The Cultural Side of Islam” में लिखते हैं कि “कुरआन की जिन आयतों में जंग का ज़िक्र है उनमें शब्द काफिर से मुराद जंग करने वाले इस्लाम के दुश्मन हैंl उनका इतलाक गैर मुस्लिमों पर नहीं किया जा सकता और ना ही मुशरिकों पर उनका इतलाक किया जा सकता है, जैसा कि मुशरिकों के उन बे ईमान कबीलों से इज़हार ए बराअत वाली आयत (9:1-4) के हवाले से साबित है जिन्होंने मुसलामानों के साथ समझौता करने के बाद उन्हें लगातार पामाल किया और उन पर हमले किए हैंl”

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