मौलाना खालिद सैफुल्लाह
रहमानी
२३ अप्रैल, २०२१
कोरोना वायरस ने इस
वक्त पुरे देश बल्कि पुरी दुनिया को अपनी लपेट में ले रखा है, लोग जैसे दरिंदा
जानवरों से डरा करते थे, आज आपस में एक दुसरे से डरते हैं, पहले ज़िंदा इंसानों
के लिए जगह की तंगी थी, और लोग सर छिपाने के लिए ज़मीन के तलबगार होते थे, अब मुर्दों के लिए
भी जगह कम पड़ रही है, नफ्सी नफ्सी का आलम है, कुरआन मजीद ने कयामत
का नक्शा खींचा है कि लोग अपने करीब तरीन रिश्तेदारों से भी राहे फरार इख्तियार
करेंगे, आज इसका एक नमूना
लोग उसमें देख रहे हैं, अस्पताल तंग पड़ गए हैं, बड़ी बड़ी रकमें दे कर
एक बेड नहीं मिल पा रहा है।
इन हालात ने बहुत सारे सामाजिक, आर्थिक और मनोवैज्ञानिक समस्या पैदा कर दिए हैं, प्रशन यह है कि ऐसी सुरत हाल में मज़हब के नुमाइंदों ख़ास कर दीने हक़ के हामेलीन की क्या जिम्मेदारियां हैं? मज़हब दोहरे रिश्ते को उस्तुवार करता है, वह इंसान के दिल में खुदा की मोहब्बत भी पैदा करता है और खुदा के बन्दों के साथ हुस्ने सुलूक के जज्बे को भी परवान चढ़ाता है: इसलिए यह बात देखी जाती है कि मज़हबी केन्द्रों पर खाने के लंगर चलाए जाते हैं, जिसमें बिला इम्तियाज़ मज़हब व बिरादरी हर एक की भूक मिटाने की कोशिश की जाती हैं, हमारे देश में इसकी बेहतरीन मिसाल सिख भाइयों के गुरुद्वारे हैं, जिनके यहाँ लंगर गुरुद्वारे के बुनियादी कामों में शामिल है, मुसलमानों के यहाँ भी बहुत सी जगह बुजुर्गों के मजारों पर इसका इंतज़ाम किया गया है, मौजूदा वक्त में भूक मिटाने से अधिक महत्वपूर्ण आवश्यकता बीमारों के लिए इलाज की सहूलत फराहम करने की है: क्योंकि हास्पिटल और सरकारी केंद्र भरे हुए हैं, अभी कुछ दिनों पहले एक बा सलाहियत नौजवान आलिम, सहाफी और सामाजिक कार्यकर्ता की वफात हुई, उनके बारे में खबर आई कि जब हालत नाज़ुक हुई तो एक के बाद दुसरे बीस अस्पतालों में ले जाया गया: लेकिन आई सी यू की सहुलत हासिल नहीं हो सकी, अंततः एक ऐसे नर्सिंग होम में एडमिट हुए, जिसमें आईसीयू का विभाग नहीं था, और बहुत थोड़े वक्त में वह दुनिया को अलविदा कहते हुए आखिरत के सफर पर रवाना हो गए। हास्पिटल ही नहीं कुरंटीना मराकिज़ की भी बहुत कमी है, मुसलमान की हैसियत से हमें गौर करने की जरूरत है कि इन हालात में हमारा क्या रवय्या होना चाहिए।
गुजरात की एक मस्जिद में जरूरत के तहत कोविड के मरीजों को रखा गया है
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इस्लामी शिक्षा इस
सिलिसिले में बिलकुल स्पष्ट हैं, और हमारे नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का उसवा हमारे सामने
है,
आप
केवल मुसलमानों के लिए रहमत नहीं, तमाम इंसानों बल्कि तमाम मख्लुकात के लिए रहमत थे: وما ارسلناک الا
رحمۃاللعالمین (انبیاء:107) इंसानी बुनियादों पर
हुस्ने सुलूक की जितनी सूरतें हो सकती हैं, आप सल्लल्लाहु अलैहि
वसल्लम ने उनको मज़हब व मिल्लत से उपर हो कर अंजाम देने की तरगीब दी है। मुशरेकीने
मक्का जब पुरी ताकत के साथ इस्लाम और मुसलमानों पर यलगार कर रहे थे, उस वक्त भी आप
सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम ने इसका लिहाज़ रखा, गौर कीजिये कि गजवा
उहद हो चुका है, सत्तर सहाबा रज़ीअल्लाहु अन्हुम की शहादत का जखम बिलकुल ताज़ा
है,
उसी
जमाने में मक्का में शदीद कहत पड़ा, लोग दरख्त के पत्ते
और सुखा हुआ चमड़ा खाने पर मजबूर हो गए, जब आप सल्लल्लाहु
अलैहि वसल्लम ने उनके लिए कहत दूर होने की दुआ भी फरमाई, और मदीना के फाका कश
मुहाजेरीन व अंसार से रिलीफ वसूल करके पांच सौ दीनार उनको भिजवाए, पांच सौ दीनार कोई
मामूली रकम नहीं थी, क्योंकि दीनार सोने का सिक्का होता है और बीस दीनार साढ़े
सत्तासी ग्राम सोने के बराबर होता है, नीज यह खतीर रकम आप
सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने कुरैश मक्का के उन दो सरदारों को तकसीम के लिए भेजी जो
मुसलमानों के खिलाफ लड़ाई में पेश पेश थे, अर्थात अबू सुफियान
और सफवान बिन उमय्या, जो बाद को दामन
इस्लाम में आए। यह मुसीबत के वक्त केवल गैर मुस्लिमों की मदद नहीं थी, बल्कि जानी दुश्मनों
की मदद थी।
गरज कि मुसीबत की
घड़ी में मज़हब व मसलक का लिहाज़ किये बिना तमाम इंसानों की मदद की जाए, यह इस्लाम की
बुनियादी शिक्षा है। मौजूदा सूरतेहाल यूँ तो बिरादराने वतन की तरह मुसलमानों के
लिए भी तकलीफ देह है, मगर एक दाई उम्मत होने की हैसियत से यह हमारे लिए एक मौक़ा
भी है। यह मौक़ा है अपने नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के उसवा को पेश करने का, मौक़ा है नफरत की उस
आग को बुझाने का जो फिरका परस्त तत्वों की तरफ से बिरादराने वतन के दिलों में
सुलगाई जा रही है, मौक़ा है इस्लाम की रवादारी, फराखदिली और
इंसानियत परवरी को पेश करने का, और मौक़ा है इस बात को स्पष्ट करने का यह उम्मत दुनिया तलब
कौमों की तरह नहीं है, बल्कि दाई उम्मत है, जो राजनितिक
उद्देश्यों और दुनयावी हितों के लिए नहीं, बल्कि अपने खालिक व
मालिक को राज़ी करने और आखिरत का अजर हासिल करने के लिए इंसानियत की खिदमत करती है, बीमारों के लिए
मसीहा बनती है, गरीबों के लिए बिछ जाती है और बे गरज हो कर खिदमते खल्क का
काम अंजाम देती है।
अल्लाह का शुक्र है
कि पिछले साल के लाक डाउन में करीब करीब हर इलाके में मुसलमानों ने अपनी सलाहियत
के मुताबिक़ इस फरीज़ा को अंजाम दिया, और नफरत अंगेज़
प्रोपेगेंडे के बावजूद हकीकत पसंद लोगों ने इसका एतेराफ किया, अब जो कोरोना की नई
लहर आई है, इसमें भी कुछ मुसलमानों ने इस मैदान में अपने कदम बढ़ाए हैं
देश के कई बड़े मदरसों ने कोरंटीन के लिए तमाम सहुलातों के साथ अपनी इमारतें पेश की
हैं,
कुछ
जगह मस्जिदों को भी कोविड सेंटर बनाने की पेशकश की गई है, और बिला तफरीके मज़हब
व मिल्लत वहाँ मरीजों का इलाज हो रहा है, जरूरत है कि इस
कोशिश को और आगे बढाया जाए। अल्हम्दुलिल्लाह देश के चप्पे चप्पे में मदरसे हैं, अच्छी खासी संख्या
मुस्लिम इंतेजामिया के तहत चलने वाले स्कूलों की है और हर शहर बल्कि कसबे में
कुशादा मस्जिदें मौजूद हैं, जो तमाम जरूरतों से आरास्ता हैं, नमाज़ के लिए मत्लुबा
जगह बचाते हुए उनको आरजी तौर पर गवर्नमेंट को कोविड सेंटर बनाने के लिए पेश किया
जा सकता है, इससे लोगों को बड़ी सहुलत होगी, क्योंकि आम तौर पर
मस्जिदों में तमाम बुनियादी इन्फ्रास्ट्रकचर मौजूद होता है, रौशनी का माकूल
इंतज़ाम,
पंखे, खुला हुआ हवादार माहौल, इस्तिन्जाखाना, वाज़ुखाना, पीने का पानी, स्तेमाल का पानी, सफाई सुथराई का नज़म, शोर गुल से हिफाज़त वगैरा यह रूह के मरीजों के साथ साथ जिस्म
के मरीजों के लिए भी साज़गार माहौल प्रदान कर सकता है, जहां मस्जिदें दो मंजिला
हों,
और
फिलहाल एक मंजिला नमाज़ के लिए काफी होती हो, या जो मस्जिदें काफी
वसीअ व अरीज़ हों, उनके एक हिस्से में लकड़ी के पर्दे या कनातें घेर कर नमाज़ें
पढ़ी जा सकतीं हों, या एक हिस्सा अन्दर का हो और एक हिस्सा बरामदे का हो, वहाँ फ़ाज़िल जगहें
मौजूदा वबाई हालात के लिए आरजी तौर पर हुकूमत को या रफाही जज्बे से काम करने वाले
अस्पतालों को या चैरिटी इदारों को दी जाएं और इस पर मस्जिद की इंतेजामिया का
कंट्रोल हो तो इससे समाज में एक प्रोपेगेंडा का इजाला होगा, और क्या खूब हो कि
अगर ऐसे आरजी सेंटरों पर बोर्ड लगा दिया जाए: “आरजी कोविड सेंटर
तहत मस्जिद_____” (खाली जगह में
मस्जिद का नाम आ जाए)। और वहाँ हस्बे जरूरत हिंदी या स्थानीय भाषा में अनुवाद के
साथ रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के संक्षिप्त इंसानियत नवाज़ इरशादात के
फ्रेम लगा दिए जाएं, यह खामोश दावत होगी, यह एक ऐसी दावत होगी
जिसमें जुबां के बोल तो ना होंगे, लेकिन दिलों में उतरने की सलाहियत होगी, कुरआन मजीद ने
बिरादराने इंसानियत को मानूस करने के लिए “तालीफे कल्ब” का जो शब्द इस्तेमाल
किया है,
उस
मकसद की तकमील होगी, हस्बे हालात जगह देने से आगे बढ़ कर मरीजों और उनके तीमारदारों
के लिए खाने पीने का इंतज़ाम भी कर दिया जाए तो यह भी बेहतर सूरत होगी, और बिह्म्दुलिल्लाह
मुसलमानों में सार्वजनिक तौर पर खैर का जज़्बा काबिले कदर है, खुद लाक डाउन की इस
मुसीबत में ग़ुरबत और आर्थिक गिरावट के बावजूद मुसलमानों ने जो कुर्बानी दी है, वह इंसानी खिदमत का
एक रौशन बाब है और जरूरत है कि इसको नुमायाँ किया जाए।
मदारिस व मकातिब, मुस्लिम स्कूलों और इदारों में अगर ऐसे सेंटर कायम किये
जाएं तो इसके सहीह होने पर तो शायद कोई इश्काल ना हो; लेकिन मस्जिदों के
बारे में शरई दृष्टिकोण से यह ख्याल पैदा होता है कि क्या यह अमल सहीह होगा? क्या गैर मुस्लिम
हजरात को मस्जिद में ठहराया जा सकता है, जो अकीदा की निजासत
के अलावा जिस्मानी तौर पर भी तहारत व निजासत के उसूल पर कारबंद नहीं होते? और क्या यहाँ मरीजों
को ठहराना मस्जिद के अदब के खिलाफ नहीं होगा? क्योंकि इसमें मस्जिद
के गंदगी से आलूदा होने का डर है?
इसका उसूली जवाब यह
है कि हालते इख्तियार और हालते मजबूरी के अहकाम अलग अलग होते हैं, आम हालात में
मस्जिदों को मुसाफिर खाना और अस्पताल बनाने की इजाजत नहीं दी जा सकती, यह मस्जिद के भी
खिलाफ है और अदब के भी; लेकिन इस वक्त मजबूरी की सूरते हाल है, और शरीअत ने कदम कदम
पर इंसानी मजबूरियों की रिआयत मल्हुज़ रखी है, उसवा ए नबवी की
रौशनी में गौर कीजिए तो मस्जिदों में गैर मुस्लिम हजरात के आने और ठहरने का सबुत
खुद रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के ज़माने में मौजूद है। आप सल्लल्लाहु अलैहि
वसल्लम की खिदमत में नजरान के ईसाईयों का वफद आया, आप सल्लल्लाहु अलैहि
वसल्लम ने उनको मस्जिदे नबवी में ठहराया; हालांकि वह
अभी ईमान नहीं लाए थे (बुखारी, हदीस नम्बर: ४३८१) । कबीला बनू सकीफ का
वफद खिदमते अकदस में हाज़िर हुआ, आप ने उनके लिए मस्जिद में खेमा लगाया, सहाबा ने अर्ज़ किया:
यह तो नापाक लोग हैं, आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम उन्हें मस्जिद में ठहरा रहे हैं? आप सल्लल्लाहु अलैहि
वसल्लम ने अपने जवाब में इरशाद फरमाया: कि इंसान निजासत से नापाक हो जाता है, जमीन नापाक नहीं
होती: انہ لیس علی الأرض من
أنجاس الناس شئی (طحاوی: ۱؍۱۳)
गजवा ए बदर में जो मुशरेकीन कैद किये गए आप सल्लल्लाहु
अलैहि वसल्लम ने उनको मस्जिद ही में ठहराया, कबीला बनू हनीफा के
समामा बिन असाल कैद किये गए, वह भी मस्जिद में ही ठहराए गए, (बुखारी, हदीस नम्बर: ४६२) रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की
खिदमत में मुख्तलिफ गैर मुस्लिम कबीलों के वफूद आया करते थे, आप सल्लाल्लाहुआ
लिही वसल्लम अधिक तर उनको मस्जिदे नबवी ही में ठहराया करते थे, वहीँ उनका कयाम होता
था, वहीँ उनसे गुफ्तगू होती थी; इसलिए अगर मस्जिद
में ऐसे गैर मुस्लिमों को ठहराया जाए जो शर पसंदी के जज्बे से नहीं आए हों तो इसकी
गुंजाइश है, मुहद्देसीन व फुकहा ने भी इसकी सराहत की है।
जहां तक मस्जिद में मरीजों को ठहराने की बात है तो बिला
जरूरत ऐसा करना वाकई मुनासिब नहीं, यह भी मस्जिद के मकसद और अदब के खिलाफ है; लेकिन अगर दूसरी
मुनासिब जगह उपलब्ध ना हो और इस वजह से मस्जिद में मरीजों का अस्थायी कयाम कराया
जाए तो इसमें हर्ज नजर नहीं आता, खुद रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की हयाते तय्यबा
में इसकी मिसाल मौजूद है।
गजवा ए खंदक के मौके से हजरत साद बिन मुआज़ रज़ीअल्लाहु अन्हु
शदीद ज़ख्मी हो गए थे, उनका घर मस्जिद से दूर था, हुजुर सल्लल्लाहु
अलैहि वसल्लम चाहते थे कि अपनी खुसूसी निगहदाश्त में उन्हें रखें और उनकी बेहतर
देख भाल करें; इसलिए आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने मस्जिदे नबवी के अन्दर
उनके लिए खेमा लगवाया, उस वक्त मस्जिद में कबीला बनू गफ्फार का भी एक खेमा था, हजरत साद रज़ीअल्लाहु
अन्हु के जख्म से रिसने वाला खून बह कर बनू गिफ्फार के खेमे तक पहुँच गया तो वह
घबरा गए, उन्होंने पुछा कि इस खेमे से खून क्यों आ रहा है? फिर मालुम हुआ कि
हज़रत साद बिन मुआज़ रज़ीअल्लाहु अन्हु के जिस्म से बहने वाला खून है,आखिर उसी में उनकी
वफात हो गई, (बुखारी, हदीस नम्बर: ४६३, باب
الخیمۃ فی المسجد للمرضیٰ وغیرھم) इससे शारेहीन हदीस
और फुकहा ने यह बात अख्ज़ की है कि जरूरत व हाजत की बिना पर मस्जिद में मरीज़ को रखा
जा सकता है: جواز
التمریض .......فی المسجد للضرورۃ والحاجۃ (منار القاری شرح البخاری: ۲؍۳۶)
मौजूदा हालात में अगर सरकारी अस्पतालों में जगह नहीं है, प्राइवेट भी भरे हुए
हैं, या उनमें जगह हो लेकिन गरीब मरीजों के अंदर उनका जालिमाना
बिल अदा करने की सलाहियत ना हो, और किसी खैराती इदारे को ऐसे मरीजों के लिए वक्ती तौर पर
जगह मतलूब हो तो उनको मस्जिद में जगह प्रदान करने की गुंजाइश है, और अगर मस्जिद की
बजाए मदरसा या मिल्ली मकासिद के लिए इस्तेमाल होने वाली कोई इमारत हो तो यह तो और
भी बेहतर है। हकीकत यह है कि यह बिरादराने वतन के सामने खामोश दावत पेश करने का
बेहतरीन मौक़ा और बहुत ही प्रभावी माध्यम है, काश, मुस्लिम संगठन, संस्था और मस्जिदों
के जिम्मेदार इस पर ध्यान दें!
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