ग्रेस मुबश्शिर, न्यू एज इस्लाम
उर्दू से अनुवाद न्यू एज इस्लाम
(भाग 1)
23 नवंबर 2022
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सबसे पहली जंग जो अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के
नेतृत्व में लड़ी गई अर्थात बद्र की जंग मक्का वालों के खिलाफ थी। अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु
अलैहि वसल्लम ने फरमाया कि जंगे बद्र में जितने भी मोमिनीन मक्का के खिलाफ लादे अल्लाह
ने उनके तमाम गुनाह इस जंग के बाद माफ़ कर दिए। बद्र, उहद और खंदक में अहले मक्का से जंग करने वालों के लिए
अज़ीम फ़ज़ीलत का वादा किया गया था। किसी ऐसे शख्स के बारे में क्या कहा जा सकता है जो
यह समझता हो कि कुरआन व हदीस के इन वादों के मद्देनजर आज भी मक्का पर हमला करने से
वही सिला मिलेगा क्योंकि कुरआन की तमाम आयतें और हदीसों की तालीमात वही के सामान अपरिवर्तनीय,
सार्वभौमिक और आने वाले
हर समय के लिए काबिले इतलाक समझी जाती हैं?...क्या कोई अपने होश हवास में यह सोचेगा कि यह वादे आज
भी बरकरार हैं और इसलिए मक्का पर हमला करने के लिए फ़ौज तैयार करनी चाहिए?
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कुछ हदीसों का हवाला देते हुए, भारत के खिलाफ जंग के लिए इस्लाम के पैगम्बर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के हुक्म को ‘नाफ़िज़’ करने वाली पोस्टें अब सोशल मीडिया पर फ़ैल चुकी हैं। जिहादी उग्रवादी बुनियादी तौर पर इस दुष्प्रचार को फैला रहे हैं ताकि भारतीय मुसलमानों को विश्वास दिलाया जाए कि यह उनका धार्मिक फ़र्ज़ है कि वह विभिन्न आतंकवादी आंदोलनों में शामिल हों जो भारत विरोधी कार्यवाहियों में व्यस्त हैं। अगर आप दक्षिणी भारत, ख़ास तौर पर केरला के कुछ बुनियाद परस्त तत्वों की तकरीरें देखेंगे, तो आप देखेंगे कि वह भी ऐसी तहरीकों की हिमायत कर रहे हैं।
दक्षिणी भारत के उन बुनियादपरस्त मुसलमानों को यह एहसास नहीं है कि यह इस महान इंसान के खिलाफ वैचारिक हिंसा के बराबर है लगभग डेढ़ हज़ार साल पहले दुनिया में तशरीफ लाए थे और जिससे तमाम मुसलमान मोहब्बत का दावा करते हैं। इस्लामोफोबिया और जिहादी अस्करियत पसंदों की तरफ से बराबर तौर पर फैलाई गई यह तमाम अफवाहें, इल्मी इमानदारी के बिना कुरआन व हदीस की किताबों से निकाले गए कुछ अंश पर आधारित हैं, क्योंकि अगर आप गौर करें तो पाएंगे इन तमाम में संदर्भ को अनदेखा किया गया है। मुसलमान जानते हैं कि उन जंगों के 1400 साल बाद जंग की कुरआनी आयतें या इससे संबंधित कथन अब उन पर लागू नहीं होते। बुनियाद परस्त मुसलमान और इस्लामोफोब दोनों के दावे गलत हैं और संदर्भ से हट कर हैं। इस लेख में इस मसले का विस्तारपूर्वक अवलोकन किया गया है।
आइए अब हम हदीसों का अवलोकन करें जिनका दावा दक्षिणी इस्लामोफोब और बुनियाद परस्त मुसलमानों ने किया है ताकि यह साबित किया जा सके कि इस्लाम के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने मुसलमानों को भारत को दुश्मन के तौर पर देखने और भारत को तबाह करने की कोशिशों में लिप्त होने की शिक्षा दी।
1. “मेरी उम्मत के कुछ लोग भारत को फतह कर के उसके बादशाहों को पाबंदे सलासिल कर लेंगे, ऐसा करने के बदले में अल्लाह पाक मुसलमानों को बख्श देगा।“ यह हदीस निस्बतन गैर मकबूल और कम प्रमाणिक हदीसों के मजमुए किताबुल फितन में नईम इब्ने हम्माद की एक रिवायत में है कि उन्होंने अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को यह फरमाते हुए सुना कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने अपने शागिर्द अबू हुरैरा रज़ीअल्लाहु अन्हु को फरमाते हुए सुना कि: फिर वह शाम वापस जाएंगे, और वहाँ ईसा इब्ने मरियम से मुलाक़ात करेंगे।
2. इसी मजमुए की एक और हदीस में अबू हुरैरा रज़ीअल्लाहु अन्हु के बारे में मरवी है कि उन्होंने रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से लगभग यही बात सुनी थी। कहा जाता है कि अगर वह उल्लेखित जंग के समय जिंदा होते तो अपना तमाम माल बेच कर लश्कर में शामिल हो जाते और नबी के सामने यह उम्मीद ज़ाहिर की कि जब वह वापस आएँगे तो हज़रत इसा अलैहिस्सलाम से मुलाक़ात करेंगे। लेकिन इन दोनों हदीसों के रावी इस कद्र जईफ हैं कि इस बात की निशानदही करना भी संभव नहीं कि कि यह खबर अबू हुरैरा रज़ीअल्लाहु अन्हु से किसने सुनी है। संक्षिप्त यह कि यह हदीसें जो सरीहन काबिले कुबूल हैं उनसे यह साबित नहीं होता कि ऐसी गुफ्तगू रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम और अबू हुरैरा के बीच हुई थी।
3. एक और हदीसे मुसनद में है जो इमाम अहमद का एक बड़ा मजमुआ है। “मेरे प्यारे दोस्त। अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने मुझे बताया है कि सिंध और हिंद की तरफ फ़ौज का खुरुज इसी उम्मत की तरफ से होगी, अगर मैं शहीद हो जाऊं तो यह मेरे लिए अच्छा है, हदीस में है कि अबू हुरैरा रज़ी अल्लाहु अन्हु ने फरमाया कि अगर मैं इस जंग से जिन्दा वापस आ जाऊं तो मेरे तमाम गुनाह माफ़ कर दिए जाएंगे, इस हदीस के दर्ज न होने से मालुम होता है कि यह प्रमाणिक नहीं है, इसके अलावा इसके रावियों में बराअ बिन अब्दुल्लाह नामक एक जईफ शख्स भी है।
4. खुद इमाम अहमद की मुसनद में अबू हुरैरा की एक और हदीस में भी यही है। “रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने हमसे भारत के खिलाफ जंग का वादा किया था, अगर मैं उसमें शहीद हो जाऊं तो बेहतरीन शहीद बन सकता हूँ, अबू हुरैरा रज़ीअल्लाहु अन्हु ने कहा कि अगर मैं फतह याब हो कर वापस आ जाऊं और शहीद न हूँ तो मैं जहन्नम से आज़ाद एक इंसान की ज़िन्दगी गुज़ार सकता हूँ। इस हदीस के भी रावी मुहद्देसीन के नज़दीक नाकाबिले कुबूल हैं। क्योंकि इसे अबू हुरैरा से जाबिर बिन उबैदा नामक एक ना मालुम शख्स ने रिवायत किया है। इसी वजह से उलमा ने इस हदीस को जईफ कहा है। काबिले गौर है कि अहमद और इब्ने अबी अज़वेम के मजमुओं में भारत से संबंधित एक भी हदीस ऐसी नहीं है जिनमें नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से सहीह रिवायत मौजूदा हो।
5. एक और मजमुआ ए हदीस जिसमें इस विषय पर हदीसें पाई जाती हैं वह इमाम अहमद निसाई की सुनन है जो उलमा के नज़दीक प्रमाणिक है। निसाई ने बाब ‘गज्वतुल हिंद’ में दो हदीसें दर्ज की हैं। उनमें से एक वही हदीस है जिसके अलफ़ाज़ में मामूली तब्दीली है जिसकी इब्तिदा मुसनद अहमद में ‘अल्लाह के रसूल ने हमसे जंग हिंद का वादा किया था’ से है। निसाई ने इस हदीस को अबू हुरैरा की सनद से दो अलग अलग रावियों से नकल किया है। लेकिन इन दोनों रावियों में अबू हुरैरा के फ़ौरन बाद जब्र बिन आबदा है जैसा कि मुसनद में देखा, गया है। इस बिना पर शैख़ नासिरुद्दीन अल बानी ने इन दोनों जईफ करार दिया है।
6. निसाई में दूसरी हदीस अबू हुरैरा की नहीं बल्कि रसूलुल्लाह के एक और सहाबी सौबान की है। हदीस में है कि सौबान रज़ीअल्लाहु अन्हु ने रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को फरमाते हुए सुना: “अल्लाह पाक ने मेरी उम्मत के दो गिरोहों को जहन्नम से आज़ाद कर दिया है, एक भारत को फतह करने वाला गिरोह और दूसरा वह गिरोह जो ईसा इब्ने मरियम अलैहिस्सलाम के साथ आएगा।“ यही हदीस अहमद मुसनद में सौबान से भी मरवी है।
कुछ अहले इल्म की राय है कि सौबान की रिवायत, जैसा कि निसाई और अहमद ने दर्ज किया है अबू हुरैरा की रिवायत से मजबूत है जो विभिन्न किताबों में ‘जंगे हिंद’ से संबंधित है। शैख़ नासिरुद्दीन अल्बानी जो कि जदीद मुहद्देसीन में सबसे मुमताज़ हैं, उन्होंने इस हदीस को ‘सहीह’ करार दिया है। हदीस में है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया: “अल्लाह पाक ने मेरी उम्मत के दो गिरोहों को जहन्नम से आज़ाद कर दिया है, एक वह गिरोह जो हिन्दुस्तान को फतह करेगा और दूसरा वह गिरोह जो इब्ने मरियम (हज़रत इसा अलैहिस्सलाम) के साथ होगा।“
नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के इस कौल का क्या मतलब है जब आपने यह फरमाया कि: ‘मेरी उम्मत में से, वह गिरोह जो हिन्दुस्तान पर फौजी कार्यवाही करेगा जहन्नम से आज़ाद है’? अगर यह हदीस सहीह है तो इस्लामी तारीख का बुनियादी इल्म रखने वाले के लिए भी यह समझना बहुत आसान है।
डेढ़ हज़ार साल पहले दिए गए एक बयान के मकसद को समझने के लिए इसका तारीखी संदर्भ जानना आवश्यक है, तब ही ऐसे मसले पर बहस को आगे बढ़ाया जा सकता है।
यह बात मशहूर है कि नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम अपनी ज़िन्दगी के आखिरी मरहले में मदीना, हिजाज़, अरब में कायम एक सरकार के सरबराह बने। मदीना का इस्लामी का रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की हुकूमत में वजूद में आया। यह छोटी सी शहरी रियासत थी जिसकी बुनियाद तक्सरियत और इंसानों के भाई चारे के उसूलों पर थी जो कि इस समय अरब के रेगिस्तान में प्रचलित कबायली हिजाजियों के जार्ज करने और गलबा के सामाजिक नमूने के खिलाफ था। हिजाज के विभिन्न इलाकों के मशरिक अरब कबायल फितरी तौर पर इससे नाखुश थे। वह इस नए मज़हब को और फैलने नहीं दे सकते थे। इस तरह वह पैगम्बरे इस्लाम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) और उनके पैरुकारों के जरिये तबलीग किये हुए मज़हब इस्लाम को जड़ से उखाड़ फेंकने की साज़िश कर रहे थे। उन्होंने फैसला किया कि ऐसा करने का अमली तरीका यह है कि जंगों के जरिये मदीने को तबाह कर दिया जाए इसलिए वह मुसलसल इस की कोशिशों में मसरुफे अमल रहे।
गुज़िश्ता सदियों में इस्लाम के पैगम्बर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के बहादुर सहाबा ने इस्लाम के दुश्मनों ने इस्लाम के दुश्मनों के खिलाफ सीमित तैयारियों के साथ इस्लाम के पैगम्बर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के शाना बशाना जंगे लड़ीं। उन्होंने इन जंगों में भारी हथियारों से लैस दुश्मनों के साथ पुरी बहादुरी और जवांमर्दी के साथ लड़ाई की और अपनी जानों की कुर्बानियां पेश कीं। यह कोशिश केवल मदीना नामक एक शहरी रियासत के सुरक्षा के लिए नहीं बल्कि एक मुकद्दस उसूल इंसानियत की बका के लिए थी। यह बात याद रखना काफी है कि उनकी कुरबानियों ने ही रुए ज़मीन पर इस्लाम की बुनियाद रखी। इसलिए जंगों में शिरकत स्पष्ट तौर पर एक नेक अमल था।
खुद हिजाज़ के विभिन्न अरब कबीले और इलाके मदीना के दुश्मनों के साथ थे। इसलिए इस्लाम के पैगम्बर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के बहुत से ऐसे प्रसिद्ध कथन हैं जिनमें मदीना के बचाव और इस्लाम जैसे इस नवजाईदा मज़हब की हिफाज़त के लिए ऐसी मुकद्दस जंगों में शहादत/ शिरकत पर अज़ीम इनामात का वादा किया गया है। हर अक्लमंद शख्स इस बात से इत्तेफाक करेगा कि अरब के विभिन्न कबीले से इस्लाम की मुस्तकिल और कतई दुश्मनी नहीं है और कयामत तक उनसे जंग करना एक नेक अमल नहीं रहेगा जिसपर आखिरत में इनाम का वादा है। स्पष्ट तौर पर जंग ख़त्म होते ही उनके खिलाफ जंग की हिदायत मतरूक हो गईं।
सबसे पहली जंग जो रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की कयादत में लड़ी गई अर्थात बद्र की जंग मक्का वालों के खिलाफ थी। रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया कि जंग बद्र में जितने भी मोमिनीन मक्का के खिलाफ लादे अल्लाह ने उनके तमाम गुनाह इस जंग के बाद माफ़ कर दिए। बद्र, उहद और खंदक में अहले मक्का से जंग करने वालों के लिए अज़ीम फजीलत का वादा किया गया था। किसी ऐसे शख्स के बारे में क्या खा जा सकता है जो यह समझता हो कि कुरआन व हदीस के इन वादों के पेशे नज़र आज भी मक्का पर हमला करने से वही सिला मिलेगा क्योंकि कुरआन की तमाम आयतों और हदीसों की तमाम तालीमात वही के सामान अपरिवर्तनीय, सार्वभौमिक और आने वाले हर समय के लिए काबिले इतलाक समझी जाती हैं?
हुदैबिया में दोनों पक्षों के बीच प्रसिद्ध अमन मुआहेदा मदीना की इस्लामी रियासत और मक्का के मुशरिक कुरैश कबीले के बीच जंग की तारीख का एक अहम और मशहूर मोड़ था। जब रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम और आप के सहाबा हिजरत के छटे साल मदीना से बिना किसी जंग के इरादे और बिना किसी जरूरी तैयारी के केवल शांतिपूर्ण तरीके से उमरा करने के लिए मक्का तशरीफ ले गए तो हुदैबिया की सुलह का मरहला तय हुआ। जब मक्का वालों ने मुसलमानों को मक्का में दाखिल होने से रोक दिया तो रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने अपने मशहूर सहाबी उस्मान इब्ने अफ्फान को, जो बाद में तीसरे खलीफा बने, कुरैश के पास भेजा कि वह मक्का वालों के साथ सुलह के लिए बात चीत करें। लेकिन पहले मरहले में मुसलामानों को यह खबर मिली कि मक्का वालों ने उस्मान रज़ीअल्लाहु अन्हु को बेदर्दी से क़त्ल कर दिया है जिन्हें रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने बाजाब्ता तौर पर बात चीत के लिए मुकर्रर किया था। उस समय एक हज़ार से अधिक सहाबा ने एक पेड़ के नीचे रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को विश्वास दिलाया कि अगर यह खबर सच्ची तो हम मक्का वालों से फ़ौरन लड़ने के लिए तैयार हैं। इससे परे कि हम जंग के लिए मानसिक या शारीरिक तैयारी के बिना आए हैं। अल्लाह पाक ने उन्हें यह भी यकीन दिलाया कि वह बहुत जल्द मक्का को फतह करने में सफल हो जाएंगे। क्या कोई अक्लमंद इंसान यह समझेगा कि यह वादे आज भी सहीह हैं और इस लिए मक्का पर हमला करने के लिए फ़ौज तैयार करनी चाहिए
स्पष्ट तौर पर प्रसंग और स्थिति ही हैं जो किसी भी पाक किताब के हुरूफ़ को अर्थ देते हैं। यही मामला भारत की जंग के बारे में हदीस का भी है। आइए इसके सयाक व सबाक का जायज़ा लेते हैं। अगर जंग के समय की आयतें कुरआन व हदीस को सयाक व सबाक से हटा कर लिया जाए तो इस्लाम पर ‘भारत विरोधी’ से अधिक ‘मक्का विरोधी’ होने का आरोप लगाया जा सकता है, क्योंकि केवल एक बज़ाहिर प्रमाणिक सहीह हदीस है जो भारत की बात करती है, जबकि अनगिनत आयतें और हदीसें हैं जिनमें मक्का के खिलाफ जंग की दावत दी गई है।
बहर कैफ, किसी ख़ास हदीस की सनद उन हालात के पेशेनज़र हमेशा मशकूक रहेगी जिनमें वह नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की वफात के कई दहाइयों और सदियों बाद दर्ज की गई थीं। उनकी तहकीक व तफतीश और तस्दीक भी उन्हीं इंसानों ने की थी जिन्हें खुदा की तरफ से वही नहीं आ रही थी। लगभग छः लाख हदीसों को रद्द किया गया और इमाम बुखारी और इमाम मुस्लिम और दुसरे मुहद्देसीन ने केवल 11000 हदीसों को ही अपने विभिन्न मजमुओं में शामिल किया जिन्हें सिहाह सित्ता कहा जाता है।
(जारी है)
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