ग्रेस मुबश्शिर, न्यू एज इस्लाम
उर्दू से अनुवाद न्यू एज इस्लाम
25 जुलाई 2022
ओरियन्टलिस्ट की लेखनियों में मुसलमान औरत को इस्लाम के पिदरसराना
निज़ाम और मुस्लिम मर्दों की बे एतेनाई की ‘शिकार’ के तौर पर पेश किया गया है।
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Amina
Wadud, an American-African-Muslim scholar
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कुरआन के महिला अधिकार के आलम बरदार अनुवादकों का कहना है कि मुस्लिम महिलाओं को एतेहासिक तौर पर इस्लाम के इल्मी और समाजी शोबों से अलग रखा गया है क्योंकि इस्लाम के बुनियादी अकीदों की मुस्तनद व्याख्या पर मर्दों का गलबा है। यह मक्तबा ए फ़िक्र तफसीर की रिवायती तरीकों पर आलोचना करते हुए और लैंगिक न्याय के विषय पर ज़ोर देते हुए कुरआन का अध्ययन करने में सफल रहा है।अमीना वदूद की Qur'an and Woman: Rereading the Sacred Text from a Woman's Perspective (1992) को इस बाब में एक क्लासिकी मतन के तौर पर शुमार किया गया है। इस मकतबे फ़िक्र का केरला के मुस्लिम इल्मी हलकों और साथ ही साथ आलमी सतह पर भी अनुभव किया गया है और इसने बहुत से मुबाहेसों का रास्ता खोला है। आमना वदूद की किताब के मलयाली अनुवाद के साथ केरला में यह मुबाहेसा अब तक जीवित है। इस सिलसिले में मलयालियों ने वदूद के साथ कम और अधिक दुसरे निसवां मुफ़स्सेरीन पर भी बहस की है। इस लेख का मकसद केरला के इल्मी हलकों, ख़ास तौर पर मुस्लिम इलाकों में कुरआन की महिला अधिकारों के अलमबरदारों की व्याख्या से पैदा होने वाले मुबाहेसों का एक जायज़ा पेश करना है।
इस्लामी लैंगिक न्याय के बहसों का एतेहासिक पसे मंज़र
इसके दो महत्वपूर्ण कारण हैं जिनकी वजह से मुस्लिम दुनिया लैंगिक न्याय के बारे में एक आलमी इजलास पेश करने पर मजबूर है जैसा कि इस्लाम ने कल्पना किया है। उनमें पहला इस्लामोफोबिया और इसके बाद की बेगानगी है जो आलमी स्तर पर इस्लाम के खिलाफ ज़ोर पकड़ रही है। दुसरे वह प्रश्न हैं जो खुद इस्लाम के अंदर से लैंगिक न्याय के बारे में उठते हैं। इस्लाम में लैंगिक न्याय पर मुबाहसों का फुतुहात के साथ गहरा संबंध है। मुस्तशरेकीन की लेखनी में मुसलमान महिला को इस्लाम के पितृसत्तात्मक निज़ाम और मुस्लिम मर्दों की बे एतेनाई की ‘शिकार’ के तौर पर पेश किया गया है। मुख्य धारे के महिला अधिकारों के आंदोलनों ने फुतुहात की इस मंतिक के इमकानात को इस्तेमाल करते हुए मुस्लिम महिला को सुखन का विषय बनाया है। इस तरह, नए आबाद होने वाले मुस्लिम बहुसंख्यक क्षेत्रों के जबरी सेकुलाराइज़ेशन, और मुस्लिम समाज के अंदर तशकील पाने वाले निशाते सानिया के ख्यालात ने इस्लाम में लैंगिक न्याय के बारे में नई बहसें शुरू कर दी हैं। कई शिक्षा विशेषज्ञों ने इस्लामी महिला अधिकार को 1980 और 90 की दहाई के पश्चिमी एशियाई और उत्तरी अफ़्रीकी क्षेत्रों में महिलाओं की धार्मिक गतिविधि करार दिया है। मार्गट बदरान, अफज़ाना नजमाबदी और ज़ेबा मीर हुसैनी इस शोबे के विशिष्ट उलमा हैं। स्पष्ट रहे कि तथाकथित महिला अधिकारों के अलमबरदार आम तौर पर इस इस्तेलाह को स्वीकार करने से गुरेज़ करते रहे हैं।
रफअत हसन, अज़ीज़ा अल हजरी, फातमा मुर्निसी, आमना वदूद, अस्मा बरलास और दूसरों ने इस सिलिसले में अपनी सेवाएं पेश की हैं। कासिया अली, आयशा हिदायतुल्लाह और सादिया शैख़ जैसी शोधकर्ताओं को पहली नस्ल के महिला अधिकार के इस्लामी मुतव्विन के अध्ययन से दूसरी नस्ल करार दिया जा सकता है। आयशा हिदायतुल्लाह के अनुसार, वदुद और बरलास ने इस सिलिसले में कुरआन में लिंग के विषय पर काफी तफसील के साथ तफसीर लिखी हैं। जोहरा अय्यूबी का कहना है कि वदूद की किताब रिवायती कुरआनी व्याख्या की निस्वानी तनकीद पर पहली तहकीक है।
वदूद और बरलास कहती हैं कि मुसलमान महिलाओं का मज़हबी मुकाल्मों से बाहर होना उनके अधिकारों का उल्लंघन है क्योंकि वह भी अल्लाह का नुमाइंदा हैं। वदूद का यह भी कहना है कि मुस्लिम महिलाओं की हकीकी पहचान की बाज़याफ्त और बेगानगी को खत्म करने के लिए महिलाओं का कुरआन पढ़ना आवश्यक है। वदूद का मानना है कि मेरे अध्ययन को माबाद नव आबादियात के इस्लामी मुबाहिस माना जा सकता है क्योंकि वह अज़ीम दास्तानों से आगे बढ़ कर और लिंग के विषय को परिचित करते हुए कुरआन की व्याख्या करती है, या एक निस्वानी अध्ययन कहा जा सकता है क्योंकि मैं नुमाइंदा महिला अधिकारों का तरीक कार इस्तेमाल करती हूँ। इस दलील की तरदीद करते हुए कि कुरआन एक जाबिराना मतन है, आसमा बरलास की व्यख्या की पहचान उनकी आज़ादी पर ज़ोर देने से है।
आलोचकों का आरोप है कि पश्चिमी महिला अधिकारों के प्रभाव ने महिला मुफ़स्सेरीन को प्रभावित किया है। बिलकुल उसी तरह जिस तरह निसवां मुफ़स्सेरीन ने रिवायती मुफ़स्सेरीन (शुरूआती दौर के मुफ़स्सेरीन) के नज़रियात पर आलोचना की है। निसवां मुफ़स्सेरीन पर एक और काबिले ज़िक्र आलोचना यह है कि उन्होंने कुरआन पर आधुनिक नज़रियात मुसल्लत करने की कोशिश की है। आलोचकों का कहना है कि वह जदीद व्याख्या को अपनाने के लिए इस्लामी रिवायत को बिलकुल मुस्तरद करती हैं और उनका मिशन आधुनिक महिला को इस्लाम में फिट करना है। (2005) में वदूद की नमाज़े जुमा की इमामत के सिलसिले में, जिससे आलमे इस्लाम में एक बड़ा शोर बरपा हो गया था। उनकी कुरआन की तफसीर पर काफी आलोचना की गईं थीं। सिवाए कुछ प्रतिक्रिया के, पुरे इस्लामी बिरादरी ने वदूद की इमामत को विवादास्पद बना दिया है। आलोचक महिलाओं के नेतृत्व और इख्तियार के मसाइल और वदूद की व्याख्या में विरोधाभासों को चिन्हित कर के वदूद की एक इस्लाम विरोधी तस्वीर पेश करने में सफल हो चुके हैं।
English Article: Female Qur'an Interpretations and Kerala Muslim
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کی نسوانی تشریحات اور کیرالہ کے مسلمانوں کا رد عمل
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