न्यू एज इस्लाम स्टाफ राइटर
उर्दू से अनुवाद न्यू एज इस्लाम
14 दिसंबर, 2022
पिछले हफ्ते इंडोनेशिया के सरकरदा उलमा की दिल्ली में एक कांफ्रेंस हुई थी जो दोनों देशों की सरपरस्ती में आयोजित हुई थी। जो दोनों कांफ्रेंस हुई थी जो दोनों देशों की सरपरस्ती में आयोजित हुई थी। इस सम्मलेन में आतंकवादी और धार्मिक अतिवाद के खात्मे और तक्सीरी समाज में रवादारी को बढ़ावा देने की रणनीति पर विचार किया। इस सम्मलेन में क्या रणनीति अपनाई गई और आइंदा के लिए कौन सा कार्य योजना तैयार किया गया इसकी तफसील अखबारों में नहीं आई और सरकार की तरफ से भी कोई घोषणा जारी नहीं किया गया।
लेकिन इस कांफ्रेंस के फ़ौरन बाद इंडोनेशिया के जावा में एक आत्मघाती बमबार ने एक पुलिस स्टेशन पर हमला कर दिया जिसके नतीजे में एक पुलिस अफसर हालाक और कई लोग जख्मी हो गए। इस हमले को आतंकवादियों के तरफ से प्रतिक्रिया समझा जा सकता है। इस हमले से कुछ पहले और बाद अफगानिस्तान, सोमालिया और यमन में होटल, मस्जिद और मदरसों में हमले हुए जिनमें दो दर्जन से अधिक हालाक और सैंकड़ों ज़ख़्मी हुए। इससे पहले भी उलमा और संगठनों की तरफ से आतंकवाद की निंदा की जा चुकी है और इन हमलों को इस्लामी सिद्धांतों के खिलाफ करार दिया जा चुका है लेकिन फिर भी अतिवादी संगठन न केवल आतंकवादी गतिविधियां जारी रखे हुए हैं बल्कि मदरसों और मस्जिदों में हमले करती रहती हैं जिसके नतीजे में मुस्लिम बच्चे और मुस्लिम नमाज़ी सहित इमाम उलमा भी हालाक होते हैं।
इन दर्दनाक घटनाओं के बाद आलमे इस्लाम की तरफ से कोई प्रतिक्रिया नहीं आती। न तो इस्लामी हुकूमतों की तरफ से हिंसा और खूंरेजी पर फ़िक्र मंदी का इज़हार किया जाता है और न ही उलमा और मज़हबी संगठनों की तरफ से निंदित बयान या हमला आवर संगठनों के खिलाफ कुफ्र का फतवा ही जारी किया जाता है।
दिसंबर 3 को यमन की एक मस्जिद में किसी कबायली संगठन के सदस्य ने ग्रेनेड फेंका जब मुसलमान नमाज़ के लिए जमा हुए थे। इस हमले में एक नमाज़ी हालाक और बीस नमाज़ी ज़ख़्मी हुए।
दिसंबर 2 को अफगानिस्तान के एक मदरसे में एक बम धमाका हुआ जिसमें 19 लोग हालाक हुए। ज़ाहिर है हालाक होने वालों में अधिकतर संख्या कमसिन और मासूम छात्रों की होगी जो दीन का इल्म हासिल कर रहे होंगे।
अगस्त के महीने में भी अफगानिस्तान के एक मदरसे में आतंकवादी हमला हुआ था 20 लोग हालाक हुए थे। ज़ाहिर है इस मदरसे में भी कमसिन तलबा अर्थात मुसलमान ही मारे गे होंगे।
सितंबर के महीने में अफगानिस्तान की एक मस्जिद में नमाज़ के दौरान किसी आतंकवादी ने बम धमाका किया जिसके नतीजे में इमाम और नमाज़ी सहित 18 अफराद हालाक हुए थे।
पिछले महीने अर्थात 28 नवंबर को सोमालिया के राजधानी मोरगा देशु के एक बड़े होटल में आतंकवादी हमला हुआ जिसमें चार लोग हालाक हुए। इस हमले में सोमालिया का वित्त मंत्री बाल बाल बच गया।
दिसंबर के पहले हफ्ते में अफगानिस्तान के मज़ार शरीफ में एक तेल कम्पनी के मुलाजमीन की बस को निशाना बना कर बम धमाका किया गया जिसमें 7 लोग हालाक हुए।
यह कुछ आतंकवादी घटना हैं जो अगस्त, सितंबर, नवंबर और दिसंबर के महीनों में हुए हैं। इस तरह के आतंकवादी हमले और आत्मघाती हमले इस्लामी देशों में मामुल बन चुके हैं और ऐसा लगता है कि इस्लामी समाज कत्ल खून और गारतगरी का आदि हो चुका है। इस्लामी समाज बेहिस हो चुका है और मस्जिदों, और मदरसों में भी दर्जनों मुसलमानों हत्ता कि बच्चों की हलाकत पर भी उनका दिल मुज़्तरिब नहीं होता। इन हलाकतों पर न हुकूमते हरकत में आती हैं और न ही इस्लामी संगठन किसी प्रतिक्रिया का इज़हार करती हैं। हमारे मुफ़्ती हज़रात जो तौहीन के घटना पर तो फतवे जारी करते हैं बल्कि मुसलमानों को मस्जिदों और मजलिसों में अपने दीनी फ़राइज़ की अदायगी की तरगीब भी देते हैं और जलसों और जुलूसों का एहतिमाम करते हैं लेकिन जब खुद इस्लाम को मानने वाली संगठनों के लोग मस्जिदों और मदरसों में नमाज़ या तालीम के बीच आतंकवादी हमला कर के मासूम बच्चों सहित दर्जनों मुसलमानों को हालाक कर देते हैं तो यह मुफ़्ती हज़रात और यह इस्लामी संगठन खामोश रहते हैं। आतंकवादियों के जरिये कुरआन और हदीस की शिक्षा क्या उल्लंघन करने वाले आतंकवादियों और उनकी सरपरस्त संगठनों के खिलाफ कोई विरोधी जुलूस निकाला जाता है, न ही उनके खिलाफ कुफ्र के फतवे जारी किये जाते हैं और न मस्जिदों और मजलिसों में उनके खिलाफ जोशीली तकरीरें की जाती हैं। जबकि मस्जिदों मदरसों या बाज़ारों और रिहाइशी इलाकों में खूंरेजी कर के मासूम और नन्हें लोगों को क़त्ल करना कुफ्र है।
यमन की मस्जिद में जो हमला हुआ वह कबायली रंजिश का नतीजा था। मुसलमान अब कबायली रंजिश की बिना पर भी मस्जिदों में एक दुसरे को हालाक करने लगे हैं। पाकिस्तान में भी मसलकी घृणा के नतीजे में मस्जिदों पर आतंकवादी हमले होते रहते हैं। और इस हिंसा के खात्मे के लिए हमारे उलमा सर जोड़ कर नहीं बैठते और न ही सरकारों के पास इस मर्ज़ का इलाज है। मुसलमान किसी भी आतंकवादी घटना या आतंकवादी संगठन को मसलकी दृष्टिकोण से देखते हैं और इसी बिना पर विरोध करते हैं या खामोशी इख्तियार करते हैं। मुसलमान और उनके मिल्ली नुमाइंदे मासूम बच्चों के कत्ल पर इसलिए खामोश रहते हैं कि उनको हलाक करने वाले मुसलमान होते हैं और उन्हीं के मकतबे फ़िक्र से दानिस्ता होते हैं। लेकिन उलमा व मुफ़्ती हज़रात मासूम बच्चों, नमाज़ियों या फिर अफराद के क़त्ल पर खामोश रह कर दहशतगर्दों की हौसला अफज़ाई कर रहे हैं। इंडोनेशिया के उलमा भी इस हिंसा व गारतगरी पर खामोश हैं जो आतंकवाद के खात्मे में उलमा के रोल पर बातचीत करने के लिए जमा हुए थे।
हमारे उलमा व दानिशवर सीरिया के इस बच्चे की इस बात को याद रखें कि। “मैं अल्लाह पाक से जा कर सब बता दूंगा।“
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Urdu Article: Bloodshed in Muslim Countries اس مرض کی دوا کرے کوئی
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