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Hindi Section ( 14 Aug 2020, NewAgeIslam.Com)

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Bengaluru Muslim Violence: There Is A Need to Question the Islamic Theological Consensus on Blasphemy बंगलूरू में मुस्लिम हिंसा तौहीन ए रिसालत के इस्लामी जवाज़ पर सवाल करने की आवश्यकता


अरशद अल्लम, न्यू एज इस्लाम

१२ अगस्त २०२०

बंगलूरु में मुसलमानों ने एक ऐसे फेसबुक पोस्ट पर हंगामा बरपा किया जिसमें पैगम्बर ए इस्लाम की तौहीन की गई थी। इस पोस्ट को हटा दिया गया और जिस व्यक्ति ने इसे पोस्ट किया था उसे गिरफ्तार किया गया लेकिन तब तक देर हो चुकी थी और परिणाम कीमती माल की तबाही हुई और तीन लोग अपनी जिंदगी से हाथ धो चुके थे। खबर है कि भीड़ ने आरोपीके घर को आग के हवाले करने की कोशिश की थी जो कांग्रेस के स्थानीय एम् एल ए के एक दलित संबंधी थे। दलित मुस्लिम एकता की आशा की किरण जिसे कुछ लोगों ने रौशन किया था बुझ गया। बहुत सारे लोग ऐसे मिलेंगे इस विषय का रुख बदलने का प्रयास करेंगे कि मुस्लिमों का गुस्सा ना केवल नबी अलैहिस्सलाम की निंदा के खिलाफ था इस वजह से भी कि एक निचली ज़ात के व्यक्ति ने इसे अंजाम दिया था। इस आरोप से कितना भी मुसलमान इनकार कर लें लेकिन वास्तविकता यह है कि इनके समाज भी दोसरे धार्मिक समूहों की तरह जातीय भेदभाव का व्यवहार रवां दवां है।

 According to police, a crowd of almost a thousand people gathered in front of the KG Halli police station demanding that a Congress MLA's relative named Naveen be arrested.

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यह घटना अयोध्या में राम मंदिर के भूमि पूजन के कुछ दिनों बाद पेश आया। बहुत सारे लोगों ने इस प्रोग्राम को भारत में हिन्दू राज्य के कयाम की शुरुआत करार दिया था और वह मुसलमानों के भविष्य के बारे में चिंतित थे। लेकिन इसके बावजूद बंगलूरु में हिंसक भीड़ ने मुसलमानों के संबंध में बदलते हुए राजनीतिक हालात में संवेदनशीलता का भी प्रदर्शन नहीं किया। यह निश्चित रूप से डरे हुए मुसलमान की तस्वीर नहीं है जिसे कुछ लोग पेश करना चाहते हैं। यह बात बिलकुल सही है मुस्लिम भावना आहत हुई है, लेकिन उनके पास अपनी शिकायत प्रदर्शित करने के लिए और भी बेहतर तरीके हैं। थोड़ी सी ही हिकमत व तदबीर मुस्लिम समाज के लिए सहायक साबित हो जाती।

महत्वपूर्ण बात यह है कि इस घटना को हलके में ना लिया जाए। मुसलमान हमेशा इस मामलों पर ज़िद करते रहे हैं जिनका समबन्ध उनके ईमान व अकीदे से होता है, चाहे यह सलमान रुश्दी की पुस्तक पर प्रतिबंद करने की मांग हो या फिर तसलीमा नसरीन पर हमला करने और उसे पश्चिम बंगाल से बाहर फेकने का सवाल हो, मुसलमानों ने अपने धार्मिक मांगों को मनवाने के लिए विभिन्न सरकारों पर सफलता के साथ दबाव डाला है। यह अविस्मरणीय है कि आजादी के बाद भारत में मुसलमानों का सबसे बड़ा प्रतिरोध शाह बानों समस्या के बीच हुआ था जब मुस्लिम उलेमा ने पार्लियामेंट को सुप्रीम कोर्ट के तरक्की पसंद निर्णय को रद्द करने पर मजबूर किया था। इसके उलट मुसलमानों ने शिक्षा और नौकरियों के मुतालबे के लिए कभी भी नहीं भड़के, न ही कभी इस मामले में को रैली निकाली। इन्होने मुश्किल से ही किसी दोसरे संघर्ष में भाग लिया हो। इस देश में मुस्लिम प्राथमिकताएं हमेशा से स्पष्ट हैं।

जो लोग पिछले छः वर्षों में मायूसीके परिणाम में बंगलूरू के हिंसा को तार्किक अंजाम दे रहे हैं, उन्हें मुस्लिम राजनीति की कोई समझ नहीं है। उन्हें यह समझने की आवश्यकता है कि उस शहर में जो कुछ हुआ वह राजनीतिक कार्य प्रणाली का एक ऐसा नमूना है जिसकी नुमाइश हमेशा मुसलमानों ने की है। बेशक इसकी कोई आवश्यकता नहीं कि इसे पिछले छः वर्षों में होने वाले अत्याचार की प्रतिक्रिया से ताबीर किया जाए। उन्हें याद रखना च्चिये कि जब मुसलमानों ने शाह बानों के खिलाफ विरोध प्रदर्शन शुरू किया था तब बीजेपी की कोई सरकार नहीं थी।

हर धर्म अपने मानने वालों के लिए पवित्र है। लेकिन सारे धर्म एक जैसा व्यवहार नहीं करते जब भी कोई उनके अकीदे या अलामत की तरदीद करता है। हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम के समबन्ध में हर समभव तरीके से लिखा गया और उनकी तस्वीर बनाई गई मगर फिर भी हम ईसाईयों को सम्पत्ति जलाते नहीं देखते जब कभी इस तरह की कोई घटना पेश आती है।

लम्बे समय से, हिन्दू धर्म ने अपने अकीदों की अधिकता के अंदर किसी संगठन के अपमान के खिलाफ कभी भी हिंसक प्रतिक्रिया का प्रदर्शन नहीं किया। तथापि ऐसे मामले में सामी हिन्दू मत ने (कभी कभी हिंसक रूप से) अपने प्रतिक्रिया का इज़हार किया, ख़ास तौर पर मुसलमान या ईसाई ही अपमान करने वाले हों। मगर मुसलमानों ने हमेशा ऐसे घटनाओं पर प्रतिक्रिया का इज़हार किया मानों कि यह उनका बुलावा हो। हाल तो यह है कि अगर वह अपने गुस्से का जिस्मानी तौर पर इज़हार करें तो उनका ईमान घट जाएगा।

 Young men are seen holding hands and ensuring that rioters didn’t attack the temple located in in DJ Halli police station limits in the city.

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समस्या यह है कि शायद इस्लामी थियोलोजी मुसलमानों से यह उम्मीद रखते हैं कि मुसलमान इसी तरह का बरताव करेंगे। हालांकि कुरआन तौहीन ए रिसालत की सज़ा के बारे में मुबहम है, तौहीन ए रिसालत के अपराधी के क़त्ल को जायज करार देने के लिए कुछ आयतें पेश की जाती हैं। फिर ऐसी हदीसें भी हैं जिन पर इज्माअ है कि ऐसे लोग जो पैगम्बर अलैहिस्सलाम की शान में गुस्ताखी करते हैं उन्हें कत्ल कर दिया जाना चाहिए। इसलिए यह हैरत की बात नहीं है कि उन सभी दोशों में जहां तौहीन ए रिसालत अपराधी को सजाए मौत दी जाती है, लगभग सभी मुस्लिम देशों में लागू होते हैं।

इन देशों के अंदर, अल्पसंख्यकों, मुसलमानों और दुसरे लोगों की एक बड़ी संख्या को ऐसे नियमों के तहत सज़ा दी जा चुकी है।

असल में इस तरह के नियमों को अल्पसंख्यकों को विशेषतः निशाना बनाने के लिए तैयार किया गया है। तौहीन ए रिसालत का आरोप ही आरोपी को गहरी चिंता में डालने के लिए काफी है। इस तरह का ही मज़हबी जवाज़ है जिस पर सवाल करने की आवश्यकता है।

बेशक बंगलूरु में स्थिति बहुत भिन्न थी। कोई भी आरोपी के कत्ल का मुतालबा नहीं कर रहा था। वह केवल एफ आई आर दर्ज करने के लिए विरोद कर रहे थे जिसको पुलिस ने शुरू में इनकार कर दिया। इसके बाद गुस्सैल भीड़ ने अपना कहर करीबी संपत्तियों और पुलिस स्टेशन पर निकाल लिया। पुलिस ने इस अराजकता को दूर करने की कोशिश में, तीन मुसलमान प्रदर्शनकारियों को हालाक कर दिया। हम सब जानते हैं कि भारत में हर जगह, असमानुपातिक संख्या में पुलिस की गोलियों से मुसलमानों की एक बड़ी संख्या शिकार हो जाती है।

इस तरह के हालात के मद्देनजर, मुसलामानों को सावधान रहना चाहिए था और उन्हें शांतिपूर्ण विरोध करना चाहिए था। मगर चूँकि हम जानते हैं कि जब भी नबी अलैहिस्सलाम की शान में कोई गुस्ताखी होती है मुसलमान अपनी ज़हनी और तार्किक सलाहियत खो देते हैं। यही अचानक हो जाने वाली स्वभाविक प्रतिक्रिया है जिस पर सवाल करने की आवश्यकता है। अगर हम इस वास्तविकता का निरीक्षण ना करें कि इस तरह के घटनाओं के लिए बड़े पैमाने पर इस्लामी थियोलोजी से जवाज़ मिलता है तो किस तरह हम इस प्रतिक्रिया को समझ सकते हैं।

यह अम्र ख़ुशी की बात है कि मुसलमान धार्मिक परमपराओं की वैकल्पिक व्याख्या के साथ प्रदर्शित हुए हैं और यह बहस करने में लगे हैं कि खुस पैगम्बर ने भी इस तरह के हिंसा से मना किया होगा। वह मुसलामानों को याद दिला रहे हैं कि नबी (अलैहिस्सलाम) ने उन लोगों को किस तरह माफ़ किया जिन्होंने उन पर पत्थर बरसाए और तकलीफ दिए। तथापि, यह सारी व्याख्या ट्विटर और फेसबुक के पेज पर ही रहेंगी। असल दुनिया में मुस्लिम के इफ्कार व नज़रियात और आमाल बड़े पैमाने पर उलेमा और उनके मदरसों से प्रभावित रहेंगे। जब तक कि वह इस तरह की वैकल्पिक व्याख्या की राह नहीं निकालते कुछ भी बदलने वाला नहीं।

हिंसक भीड़ के दौरान ऐसा लगा कि कुछ मुसलमान एक स्थानीय हिन्दू मंदिर पर हमला करना चाहते थे, हालांकि दुसरे मुसलमानों ने मंदिर की हिफाज़त की खातिर मंदिर की घेरा बंदी करते हुए इसे नाकाम बना दिया। यह एक उचित उदहारण है कि इस तरह के धार्मिक जूनून के बीच में भी इंसानियत और हमदर्दी ज़िंदा रह सकती है। तो स्पष्ट रूप से इस तरह के मुसलमानों ने इस्लाम से कुछ अलग शिक्षा सीखी होगी। वह इस्लाम की शिक्षाएं हैं जिन्हें मुस्लिम समाज को पढ़ने की बहुत आवश्यकता है।

अरशद आलम न्यू एज इस्लाम के एक नियमित स्तंभकार हैं।

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