मोहम्मद यूनुस, न्यू एज इस्लाम
८ फरवरी २०२१
(मोहम्मद यूनुस, साझा लेखक अशफाकुल्लाह सैयद), इस्लाम का बुनियादी संदेश,
आमना पब्लिकेशंस,
अमेरिका २००९)
इस लेख का उद्देश्य निम्नलिखित आयतों के अस्तित्वगत और क्षमा के पहलु पर और रौशनी डालना है।
اِنَّمَا جَزٰٓؤُا الَّذِيۡنَ
يُحَارِبُوۡنَ اللّٰهَ وَرَسُوۡلَهٗ وَيَسۡعَوۡنَ فِى الۡاَرۡضِ فَسَادًا اَنۡ يُّقَتَّلُوۡۤا
اَوۡ يُصَلَّبُوۡۤا اَوۡ تُقَطَّعَ اَيۡدِيۡهِمۡ وَاَرۡجُلُهُمۡ مِّنۡ خِلَافٍ اَوۡ
يُنۡفَوۡا مِنَ الۡاَرۡضِ ذٰ لِكَ لَهُمۡ خِزۡىٌ فِى الدُّنۡيَاوَلَهُمۡ فِى الۡاٰخِرَةِ
عَذَابٌ عَظِيۡمٌ۔ اِلَّا الَّذِيۡنَ تَابُوۡا مِنۡ قَبۡلِ اَنۡ تَقۡدِرُوۡا عَلَيۡهِمۡفَاعۡلَمُوۡۤا
اَنَّ اللّٰهَ غَفُوۡرٌ رَّحِيۡمٌ (سورہ المائدہ، آیت نمبر ۳۳ و
۳۴)
जनाब यूसुफ अली साहब ने इसका अनुवाद इस तरह किया है-
अल्लाह और उसके रसूल सल्लाल्लाहु अलैहि वसल्लम के खिलाफ जंग करने वालों और ताकत के साथ जमीन में फसाद मचाने वालों की सजा: कत्ल या फांसी, या हाथ एक तरफ से और पैर दोसरी तरफ से काट देना या ज़मीन से जिलावतन करना है। यह उनके लिए दुनिया में रुसवाई और आखिरत में उनके लिए बड़ा अज़ाब है। सिवाए उन लोगों के जिन्होंने आपके कब्ज़े में आने से पहले तौबा कर ली, जान लो उस स्थिति में अल्लाह बख्शने वाला मेहरबान है।
وَالسَّارِقُ وَالسَّارِقَةُ فَاقۡطَعُوۡۤا اَيۡدِيَهُمَا جَزَآءًۢ بِمَا كَسَبَا نَـكَالًا مِّنَ اللّٰه وَاللّٰهُ عَزِيۡزٌ حَكِيۡمٌ۔ فَمَنۡ تَابَ مِنۡۢ بَعۡدِ ظُلۡمِهٖ وَاَصۡلَحَ فَاِنَّ اللّٰهَ يَتُوۡبُ عَلَيۡهِ اِنَّ اللّٰهَ غَفُوۡرٌ رَّحِيۡمٌ۔ ( سورہ المائدہ، آیت نمبر ۳۸ و ۳۹)
जहां तक चोरी करने वाले मर्द और चोरी करने वाली औरत का संबंध है तो उनके हाथ काट दिया करो, उनको अपराधों के बदले अल्लाह की तरफ से निश्चित की गई मिसाली सज़ा यही है और अल्लाह ग़ालिब हिकमत वाला है। लेकिन अगर चोर अपने जुर्म के बाद तौबा करता है और अपना चाल चलन ठीक कर लेता है तो अल्लाह उस पर रुजुअ फरमाएगा बेशक अल्लाह बख्शने वाला मेहरबान है।
यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि दोनों ही इबारतों में हाथ और पैर के काटने की सजा की घोषणा के तुरंत बाद क्षमा का उल्लेख है।
क्लासिकी इस्लामी कानून यानी शरीअत में अंगों को काटना अनिवार्य कर दिया गया है। क्योंकि वे हदों का हिस्सा हैं और अल्लाह की हद से आगे बढ़ने की सजा ऊपर की आयतों में बताई गई है। हालांकि, उनका आवेदन अपराध की गंभीरता और प्रकृति पर निर्भर करता है।
अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से भी रिवायत है कि वह चोरी के मामूली घटनाओं को दरगुजर फरमा दिया करते थे। (सहीह बुखारी, जिल्द नंबर ८, हदीस नम्बर, ७८० से ७८८)
सुरह मायदा की आयत नंबर ३३ और ३५ की एतेहासिक पृष्ठभूमि
प्राचीन काल से ले कर इस्लाम के आरम्भ तक, अरब आदिवासी वातावरण में रहते थे, प्रत्येक जनजाति का एक प्रमुख था, शक्ति और अधिकार का कोई वर्गीकरण नहीं था। जनजातियाँ संरचनात्मक रूप से स्वतंत्र थीं। कोई केंद्रीय प्रशासन नहीं था। कोई आदिवासी पुलिस नहीं थी, कोई कानूनी अदालत नहीं थी, कोई आपराधिक मुकदमें की सुनवाई नहीं होती थी, कोई जेल नहीं था और अपराधी को दंडित करने के लिए कोई संस्था नहीं थी। इसलिए अपराधियों के पास लगभग असीमित शक्ति थी। वास्तव में, उस समय के आदिवासी परिवेश में, व्यक्तिगत जवाबदेही या अपराधों के लिए व्यक्तिगत दंड के लिए कोई जगह नहीं थी। पूरी जनजाति को अपराध के लिए दोषी ठहराया जाता था। यदि किसी जनजाति के सदस्य ने अपराध किया है, तो उसी जनजाति के निर्दोष सदस्य को भी दंडित किया जा सकता है। क़ुरआन में वर्णित न्याय के सार्वभौमिक सिद्धांत से आदिवासी सामाजिक वातावरण पूरी तरह से अपरिचित था। इसलिए कुरआन को इसके लिए सख्त स्वर अपनाना पड़ा, क्योंकि अरब सार्वभौमिक न्याय की अवधारणा से पूरी तरह अपरिचित थे और यह अवधारणा उनके आदिवासी नेतृत्व के हितों के खिलाफ भी जाता था।
जैसे जैसे वही का सिलसिला अपने तकमील को पहुँच रहा था, लोगों के जूक दर जूक इस्लाम में दाखिल होने और इस्लामी उम्मत के उत्थान के साथ ही आदिवासी प्रणाली भी समाप्त हो रही थी। अब समय आ गया था कि कुरआन पुलिस का रोल अदा करता, और हर तरह के प्रचलित अपराधों का व्यक्तिगत हिसाब करता और व्यक्तिगत सज़ा नाफ़िज़ करता। अतीत के इतिहास में इस तरह की मिसालें मौजूद थीं कि पिछले शासकों ने क़त्ल व गारत गरी लूट मार करने वालों और बगावत करने वालों को उनके हाथ पैर काट कर सजाएं दी थीं। कुरआन उल्लेखित आयतों में अपने पाठकों को इस तरह की सजाओं की धमकी देता है। तथापि, सज़ा के ज़िक्र के फ़ौरन बाद क्षमा के ज़िक्र, खुदाई रहमत व मगफिरत पर आयतों का इख्तिताम और हुजुर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के माध्यम से मामूली अपराध के लिए निर्धारित हुदूद को माफ़ किये जाने वाली रिवायात से स्पष्ट तौर पर यह इशारा मिलता है कि कुरआन हाथ पैर कांटने जैसी सज़ा को उसूली तौर पर लाज़िम करार नहीं देता है।
उपर्युक्त बहस की रौशनी में, हुदूद की सज़ा को अगर दायमी मानें तो इसका मतलब यह होगा कि कुरआन का ताज़िराती अदल केवल अपने दौर तक सीमित था।
चूँकि मध्य युग से अब तक जिस्मानी सज़ा से संबंधित इंसानी खयालात में बड़ी तब्दीलियाँ आई हैं। कुरआनी सज़ा जो उस समय के हालात को सामने रख कर बनाई गई थी, आज वहशियाना और सफ्फाकाना मालुम पड़ती हैं। इससे इस्लाम की अमन और रहमत वाली छवि खराब होती है और मुस्लिम दहशतगर्द संगठनों को वहशियाना अपराधों के प्रतिबद्ध का लाइसेंस भी मिल जाता है। इसलिए इस्लामी कानून के विशेषज्ञ को शायद हुदूद के वैकल्पिक तरीकों पर गंभीरता से गौर करना होगा, जैसा कि संवैधानिक कानून के तहत कई मुस्लिम बहुल देशों ने किया है।
यह कोई अजीब विचार नहीं है। इस काल के सबसे महान आलिम और प्रख्यात विद्वान मोहम्मद असद ने उपरोक्त आयतों का विस्तृत विश्लेषण इस प्रकार किया है:
मुफ्स्सिरों ने उपरोक्त आयत को एक कानूनी नियम के रूप में व्याख्यायित करने का प्रयास किया है, जिसे एकमुश्त खारिज कर दिया जाना चाहिए, चाहे वह मुफस्सिर कितना भी महान क्यों न हो। (नोट ५४, सुरह मायदा, कुरआन का पैगाम, मोहम्मद असद, पेज २१७)
जब अरब में अकाल पड़ा तो हज़रत उमर रज़ीअल्लाहु अन्हु ने चोरी की हद अर्थात हाथ काटने को माफ कर दिया था। और इस प्रकार इस आदेश का आवेदन तत्कालीन मौजूदा सामाजिक सुरक्षा योजना के संदर्भ में सीमित कर दिया था।
कुरआन ने क़त्ल या फांसी या विपरीत दिशा से हाथ पैर काट कर फिरऔन के मुंह में डालने (सुरह अल आराफ़, १२४, सुरह ताहा आयत नंबर ७१, सुरह अल शुअरा, आयत नंबर ४९) जैसी सजाओं को बुराई का मज़हर कहा है। इसलिए अगर हर ज़माने में अपराधियों के लिए एक ही तरह की सज़ा निर्धारित हो जाए, तो फिर खुदा की रहमत और अज़मत का कोई मतलब नहीं रह जाएगा। असल में, किसी भी सभ्यता में अपराध की शकलें ज़मान व मकान के एतिबार से बदलती रहती हैं। यही हाल अपराध की शिद्दत की प्रशंसा, (जो एक क्षेत्र या जमाने में शदीद है वह किसी दुसरे क्षेत्र और जमाने में मामूली हो सकता है), अपराध की पहचान, अपराध के आरोप को साबित करने और सज़ा की प्रकृति का भी है, इसलिए, इंसानियत के इस हमा वक्त बदलते रहने वाले और विस्तृत पहलु का घेराव करना कुरआन के लिए असंभव था। दुसरे शब्दों में, इंसानी सभ्यता के हर ज़मान व मकान के समाजी माहौल में होने वाले असीमित प्रकृति के अपराध के लिए सज़ा का एक ही तरीका बयान करना कुरआन के लिए माद्दी हैसियत से असंभव था। शायद इसी कारण से कुरआन ने अपने नियमों की व्याख्या का काम इस वर्ग के विशेषज्ञों के सर छोड़ दिया।
من قوم موسى أمة يهدون بالحق وبه يعدلون ( سورہ الاعراف، آیت نمبر ۱۵۹)
अनुवाद: और मूसा (अलैहिस्सलाम) की कौम में से एक जमात (ऐसे लोगों की भी) है जो हक़ की राह बताते हैं और उसी के अनुसार न्याय (पर आधारित फैसले) करते हैं।
وَ مِمَّنْ خَلَقْنَاۤ اُمَّةٌ یَّهْدُوْنَ بِالْحَقِّ وَ بِهٖ یَعْدِلُوْنَ۠ (سورہ الاعراف، آیت نمبر ۱۸۱)
अनुवाद: हमारी मखलूक में कुछ ऐसे लोग भी हैं जो दीने हक़ की हिदायत करते हैं और हक़ के साथ ही न्याय करते हैं।
इस लेख को लिखकर लेखक 'अल्लाह के अधिकारों' को नकारने के किसी भी आरोप या सुझाव से स्वयं को बरी करता है, क्योंकि लेखक अच्छी तरह से जानता है कि अल्लाह के अधिकारों की रक्षा बड़े अपराधों पर प्रतिबंध लगाने से उतनी नहीं होती है जितनी कि एक व्यापक आपराधिक व्यवस्था की तशकील से होगी, जिसमें यह मानवीय विवेक पर छोड़ दिया जाए कि वह इसे सभ्यता के विकास के साथ तरक्की देता है।
मुहम्मद यूनुस ने आईआईटी में केमिकल इंजीनियरिंग का अध्ययन किया और कॉर्पोरेट कार्यकारी के पद से सेवानिवृत्त हुए और 1990 के बाद से कुरआन का गहराई से अध्ययन करने और इसके वास्तविक संदेश को समझने की कोशिश कर रहे हैं। इस्लाम का बुनियादी पैगाम नामक किताब के साझा लेखक हैं, इस किताब को 2002 में अल-अजहर अल-शरीफ, काहिरा द्वारा अनुमोदित किया गया था और इसमें यूसीएलए के डॉक्टर खालिद अबु फज़ल का समर्थन है और मोहम्मद युनुस की किताब इस्लाम का असल पैगाम आमिना पब्लिकेशन, मेरी लैंड, अमेरिका ने, २००९ में प्रकाशित किया।
-----------
URL:
New Age Islam, Islam Online, Islamic
Website, African
Muslim News, Arab
World News, South
Asia News, Indian
Muslim News, World
Muslim News, Women
in Islam, Islamic
Feminism, Arab
Women, Women
In Arab, Islamophobia
in America, Muslim
Women in West, Islam
Women and Feminism