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Wahhabism is Modern Kharjism वहाबियत जदीद खर्जियत है

ज़ीशान अहमद मिस्बाही

उर्दू से अनुवाद न्यू एज इस्लाम

30 सितंबर 2009

जदीद ख्वारिज कौन हैं? कहाँ, कब और कैसे पैदा हुए? इन सवालों का जवाब निर्धारण के साथ देना कठिन और दुश्वार भी है और इससे बहुत से आबगीनों के टूट जाने का डर भी है। वैसे यह तय है कि कदीम ख्वारिज लोकतंत्र के स्टैंड व तरीके के मुखालिफ एक हिंसक जमात थी, हज़रत अली ने जिसका खात्मा करके उम्मत को एक बड़े फितने से बचा लिया। इस संदर्भ में जदीद ख्वारिज का अवलोकन किया जाए तो उनके बारे में भी बात यकीनी तौर पर कही जा सकती है कि जदीद ख्वारिज भी जम्हूर के स्टैंड व तरीके के खिलाफ एक हिंसक जमात हैं। बल्कि जदीद खार्जियत को हम कदीम प्रारम्भिक खार्जियत की तरह किसी एक लड़ी में नहीं पिरो सकते, बल्कि जिस तरह पुराने ख्वारिज बाद में कई फिरकों और जमातों में बट गए थे, जो जुजवी और फुरुई मसाइल में अलग होते हुए भी कुछ ख़ास मसलों जैसे तकफीर अली व मुआविया आदि में साझा थे, उसी तरह जदीद ख्वारिज भी बहुत अलग शक्ल और रंग में पाए जाते हैं, अलग अलग नामों से जाने जाते हैं, लेकिन इसके बावजूद कुछ मामलों जैसे आक्रामकता और उग्रवाद आदि बहुत एक जैसे पाए जाते हैं। जदीद ख्वारिज में एक हद तक साझा दीनदारी है। खाकम बदहन! हम दीनदारी या इत्तेबा ए शरीअत के खिलाफ लब कुशाई की कल्पना नहीं कर सकते, यहाँ केवल यह बताना मकसद है कि जदीद खार्जियत की कोई शक्ल ऐसी नहीं मिल सकती जो दीन दारी और इत्तेबा ए अहकामे शरअ में सुस्ती बरतने वाली हो। बल्कि वह इस मामले में सख्त बल्कि उग्रवाद और अतिवाद पर उतारू नज़र आते हैं। कदीम खार्जियत के अन्दर भी वह गुण बतौर कद्रे मुश्तरक था, इसी लिए अब्दुल करीम शहरिस्तानी ने उनके बारे में लिखा है कि यह वही लोग थे जिन के बारे में आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने यह फरमाया था कि उनकी नमाज़ों और रोजों को देख कर तुम अपनी नमाज़ों को हकीर समझो गेजदीद ख्वारिज में दुसरा साझा गुण यह है कि उनकी सोच पर भी राजनीति व सरकार का गलबा है और कदीम ख्वारिज की तरह यह भी एक तरह से मुतफर्रिकाना राजनितिक विचारधारा पर कायम हैं। हम यह नहीं कहते कि दीन का राजनीति से कोई रिश्ता नहीं, या राजनीति धर्म से बाहर की कोई चीज है, राजनीति के मसले में जदीद ख्वारिज से जम्हूरे उम्मत मसले का इख्तेलाफ केवल दो आधार पर है। पहली चीज यह है कि लोकतंत्र राजनीति को धर्मों का हिस्सा समझते हैं जबकि जदीद ख्वारिज कथन से न सही, अमल से धर्म को राजनीति का हिस्सा समझते हैं।

दूसरी बात यह है कि जम्हूर राजनीति व हुकूमत के लिए दीन और अहले दीन की कुर्बानी को सहीह नहीं समझते, बल्कि दीन और अहले दीन की मसलेहत के लिए वह राजनीति व हुकूमत से दस्त बरदारी को आवश्यक समझते हैं, जबकि जदीद ख्वारिज राजनीति व हुकूमत के लिए मज़ाहिब और अहले मज़हब की कुर्बानी को केवल उचित ही नहीं समझते बल्कि आज पुरी दुनिया में राजनीति व हुकूमत के लिए इस्लाम की बदनामी और मुसलमानों की कुर्बानी का फरीज़ा बड़ी ख़ुशी से जिहाद और अह्काक समझ कर, अंजाम दे रहे हैं। ख्वारिज की पैदाइश तह्कीम की घटना (37 हिजरी) के बतन से हुई थी। इत्तेफाक से आज पुरी दुनिया में तह्कीम की एक नई शक्ल पार्लियामेंट है। मुस्लिम और गैर मुस्लिम, तमाम ही देशों में, जहां लोकतंत्र नाफ़िज़ है, अवाम अपने नुमाइंदों को चुन कर के पार्लियामेंट भेजते हैं। जहां पहुँच कर वह निजामे हुकूमत के लिए कानून साज़ी का अमल करते हैं जो इस्लाम की तरजीह नहीं है, या फिर लोकतांत्रिक, ऐसे ही अक्सर गैर मुस्लिम देशों में भी लोकतांत्रिक हुकूमत है। लोकतांत्रिक हुकूमत शख्सी और खानदानी हुकूमत से बहर कैफ बेहतर है कि वहाँ शख्सी राय को दीन, कानून और शरीअत नहीं समझा जाता। बल्कि यह अवश्य है कि इस्लामी शूराई निज़ाम, जो इस्लाम का मतलूब है, जदीद लोकतंत्र इससे अलग है। लेकिन सवाल है कि इस्लामी शूराई निज़ाम के अभाव के समय मुसलमान क्या करें? जदीद लोकतंत्र को कुबूल कर लें या शूराई निज़ाम की तशकील करें? होना तो यह चाहिए कि मुसलमान मुस्लिम देशों में शूराई निज़ाम के लिए कोशां हों और शरीअत के विशेषज्ञ ही कानून बनाएं।

लेकिन यह बात कहने और सुनने में जितनी भली मालूम होती है अमली तौर पर इतनी ही मुश्किल है। क्योंकि अगर इस्लामी देशों में शूराई निज़ाम का कयाम है तो सवाल है कि मौजूदा फिरका बंदी के दौर में अरबाबे शूरा कौन होंगे? यहाँ तो हाल यह है कि हर ग्रूप दुसरे ग्रूप के इस्लाम से खारिज होने का फतवा दे चुका है। पहले तो मौजूदा कसीर आबादी और कसीर मस्लकी दौर में अरबाबे शूरा का इंतेखाब ही करीबन महाल है और अगर किसी तरह किसी दिन यह इंतेखाब अमल में आ भी जाए तो दुसरे दिन ही अरबाबे शूरा क़त्ल कर दिए जाएंगे। और दूसरी सूरत में वह तीसरे दिन अपने मसलक मुखालिफ अफराद को फांसी पर लटका देंगे। अफगानिस्तान व पाकिस्तान की मस्लकी जंगे इसकी स्पष्ट मिसालें हैं कि मामूली कुवत मिलते ही मस्जिदों और मजारों पर बमबारी शुरू हो जाती है। ऐसे में नुमाइंदों के इंतेखाब में मौजूदा लोकतांत्रिक तरीका ही आइडियल न सही, काबिले अमल है। गैर मुस्लिम देशों में जहां मुसलमान अल्पसंख्यक की जिंदगी गुज़ार रहे हैं, हुकूमत के मामले में उनके लिए कुछ आपरेशन है (1) लोकतांत्रिक हुकूमत को कुबूल कर लें और अपने वोट का इस्तेमाल कर के कोशिश करें कि ऐसे नुमाइंदे चुने जाएं। जो उनके हक़ में निस्बतन बेहतर हों। (2) लोकतांत्रिक हुकूमत में रहें मगर वोट का इस्तेमाल न करें। इससे दो नतीजे सामने आएँगे। पहला यह कि निस्बतन बेहतर लीडरों से महरूम हो जाएंगे। दुसरे जब हुकूमत को यह मालूम होगा तो उनकी वतन दोस्ती मशकूक होगी, वह बहुत सी रियायतों से महरूम हो जाएंगे और आखिर में कैद व बंद या हिजरत आदि पर मजबूर होंगे। (3) गैर मुस्लिम देशों, जैसे यूरोपीय व अमेरीकी देशों, या भारत और नेपाल जैसे देशों में मुसलमान बगावत कर दें और इस्लामी हुकूमत कायम करें, ऐसी संघर्ष को बस एक ही नाम दिया जा सकता है और वह है आत्महत्या। मौजूदा दौर में राजनीति व हुकूमत के संबंध से संभावित स्थितियों और रवयों को सामने रखने के बाद जदीद खार्जियत के हामिले इफ्कार पढ़े। दारुल उलूम नदवतुल उलमा लखनऊ के एक उस्ताद शैख़ मोहम्मद अलाउद्दीन नदवी, माहनामा अल्लाह की पुकार दिल्ली शुमारे मई 2009 के मेहमान इदारिये में लिखते हैंक्या इस्लाम की तकदीर को सेकुलर लोकतंत्र से वाबस्ता कर दिया जाएगा और ऐसा करने से एक मुसलमान का अकीदा ए तौहीद जर्रा बराबर दाग दार नहीं होगा? क्या यह निज़ाम लोकतंत्र इंसानों के लिए गुलामी का तौक नहीं? जिसको उतारने के लिए हर ज़माने में नबी तशरीफ लाए। (पेज-7) “हैरत की बात यह है कि सिक्का रायजुल वक्त लोकतांत्रिक राजनीति की आब व हवा में किताब व सुन्नत के हवाले से इस्लामी रुझान का इज़हार कीजिये या बातिल राजनीति से किनारा कशी का उल्लेख कीजिये, लोगों की नोके जुबान पर यह जूमला आ जाता है कि इलेक्शन से किनारा कशी या बाईकाट मुस्लिम उम्मत के लिए आत्महत्या के बराबर है।

हम समझते है कि आत्महत्या तो दीन से इन्हेराफ में है। एक और बात जो बड़ी शद्द व मद के साथ कही जाती है कि हिन्दुस्तानी मुसलमानों के हालात और दीन की मसलेहत का तकाजा यह है कि लोकतांत्रिक निज़ाम की पुश्त पनाही की जाए, फिर उन ख़ास हालात और मखसूस मसलेहते दीनी की वजाहत नहीं की जाती। फिर اھون اللیلتین फलसफे का सहारा लिया जाता है और اھون الشرکبن पर अमल किया जाता है। इस हवाले से कुरआन के आयतों की ऐसी ताबीर व तशरीह की जाती है कि कुरआन के तहरीफ़ का शक होने लगता है। (पेज:8) “इलेक्शन की हैसियत को जो लोग एक दीनी और शरई फरीज़ा समझते हैं, वह अल्लाह के रूबरू महशर के रोज़ खड़े होंगे तो घाटे का सौदा करने वालों और शिर्क की हम नवाई करने वालों की कतार में नजर आएँगे। दीनी दृष्टिकोण से राजनीति और इलेक्शन में हिस्सा लेने का सवाल केवल तौहीद के अकीदे का मसला है। यह कोई बागीचा ए इतफाल और दिन रात का तमाशा नहीं है। (पेज-9) संक्षिप्त करने की कोशिश के बावजूद यह उद्धवरण तफसील से इसलिए नकल कर दिए गए ताकि यह स्पष्ट हो जाए कि मेरा दावा हवा में नहीं बल्कि जदीद खार्जियत एक जमीनी हकीकत है जिसे झुटलाया नहीं जा सकता। इन उद्धरण में जो दलील पेश किये गए हैं वह अपने आप में इतने फुसफुसे हैं कि उनके रद्द की आवश्यकता नहीं है। मामूली फहम का मुसलमान भी इन दलीलों पर केवल एक इहानत आमेज़ तबस्सुम के साथ गुज़र जाएगा।

बल्कि कदीम खार्जियत की इससे समानता क्या है, कुछ जुमलों में पेश की जा रही है। (1) कदीम ख्वारिज ने तह्कीम को तौहीद के खिलाफ एक शिर्किया अमल करार दिया था, जदीद ख्वारिज भी पार्लियामेंट को तौहीद के खिलाफ शिर्किया अमल समझते हैं। (2) कदीम ख्वारिज तह्कीम को यह समझते थे कि यह खुदा की जगह बंदों को हाकिम बनाना है जदीद ख्वारिज भी पार्लियामेंट को इसी नजर से देखते हैं कि यहाँ खुदा की जगह बंदों को हाकिम बनाया गया है। जबकि हकीकत यह है कि तह्कीम का मामला इसलिए हुआ था कि हज़रत अली और हज़रत मुआविया के बीच मसालेहत हो, यह मसालेहत कुरआन व सुन्नत की रौशनी में की थी। लेकिन किताब व सुन्नत हुक्म खुद नहीं बताते, उनसे हुक्म निकाल कर बताने वाला कोई इंसान ही होगा और चूँकि वहाँ इख्तिलाफ और जंग की सूरत थी, ऐसे में यह इंसान वही हो सकते थे जिन पर दोनों पक्ष राज़ी हों। इसलिए दोनों पक्षों ने अपना एक एक नुमाइंदा पेश किया जिन पर फर्ज़ था कि किताब व सुन्नत की रौशनी में फैसला करें। इस तरह तह्कीम तौहीद के खिलाफ खुदा के गैर की हाकमियत का इकरार नहीं था। लेकिन खार्जियों ने अपनी कज फहमी की वजह से इसे शिर्क करार दिया। इसी तरह मौजूदा अहद में लोकतंत्र सबसे पहले मुसलमानों समेत तमाम इंसानों को मज़हबी आज़ादी अता करती है। अलबत्ता हुकूमत के जो दुसरे मामले हैं, उनको तय करने के लिए देश के हर कोने और हर तबके से नुमाइंदे मुंतखब हो कर आते हैं। ऐसा करना इसलिए आवश्यक है कि तमाम मसले हल करने के लिए किसी एक धर्म की किताब को और उसके नुमाइंदों को इसका हक़ नहीं दिया जा सकता, अगर ऐसा किया गया तो कोई मुसलमान अल्पसंख्या में रहते हुए किसी बहुसंख्यक की धार्मिक पुस्तक और धार्मिक लोगों को अपने लिए स्वीकार नहीं कर सकता और जब मुसलमान कम संख्या में रहते हुए बहुसंख्यक धर्म के कानून को स्वीकार नहीं कर सकता तो फिर यह कैसे संभव है कि बहुसंख्यक वर्ग के धार्मिक कानून को अपनी ज़िन्दगी का दस्तूर बनाए।

इस विवाद को ख़त्म करने का संभावित रास्ता वही है जो लोकतंत्र का रास्ता है। अब अगर इस संभावित रास्ते को कोई मुसलमान कुबूल करता है तो उसके उस अम्ल को शिर्क और उनको मुशरिक करार देना केवल खार्जियत का ही दृष्टिकोण हो सकता है, जिसका अंजाम तबाही और हलाकत के सिवा कुछ नहीं होगा। (3) ख्वारिज का सिद्धांत था कि खलीफा अगर शरीअत से जर्रा बराबर मुंह मोड़े तो उसे अपदस्थ बल्कि क़त्ल कर देना चाहिए। जदीद ख्वारिज भी आज पुरी दुनिया में शासकों को क़त्ल करने पर आमादा नजर आ रहे हैं। मौजूदा हालत में जबकि अवाम क्या खवास बल्कि उलमा तक से १०० प्रतिशत इस्तेकामत अलल शरीअत की उम्मीद नहीं राखी जा सकती। ऐसे में जो हाकिम भी शरीअत से या जदीद ख्वारिज की फर्जी शरीअत से मामूली विचलन करता है यह उसके क़त्ल के दर पे हो जाते हैं, इस पर आत्मघाती हमले करते हैं, उसे गोलियों और बमों का निशाना बनाते हैं। (4) ख्वारिज के यहाँ हर गुनाहगार काफिर था। यहाँ तक कि अगर कोई अपने इज्तीहाद से उनके खिलाफ कोई रास्ते कायम कर लेता और ऐसा अमल करता जो उसकी नजर में गुनाह नहीं होता केवल ख्वारिज की नजर में गुनाह होता, ख्वारिज के नजदीक ऐसा शख्स भी काफिर था। मौजूदा ख्वारिज का रवैया भी लगभग यही है। वह अपनी हर बात को नसे कतई समझते हैं और उसके लिए किसी तरह की अमली व इज्तिहादी खता को गवारा नहीं करते। इस वक्त मेरे सामने जमाअतुल मुस्लेमीननामक संगठन के किसी मसूद अहमद की किताब है जिसका शीर्षक ही है तर्के सुन्नत गुनाह हैइसमें शद्द व मद के साथ मुतलकन यह साबित करने की कोशिश की गई है कि सुन्नत को छोड़ना गुनाह और गुमराही है। (5) हज़रत अली ने ख्वारिज के दलील  ان الحکم الاللہ, हुक्म केवल अल्लाह का है, पर तबसिरा करते हुए फरमाया था کلمتہ حق اریہ بہا الباطلएक अच्छी बात बोल कर गलत अर्थ मुराद लिया गया है। जदीद ख्वारिज के बारे में भी हम यही कह सकते हैं, क्योंकि वह खिलाफत की बात करते हैं, खुदा की हाकमियत की बात करते हैं, तौहीद की बात करते हैं, और नतीजे के तौर पर तमाम उम्मत की तकफीर करते हैं और तमाम हुकूमतों के खिलाफ बगावत का झंडा उंचा करने की बेवकूफी भरी बात करते हैं। उन पर भी केवल यही टिप्पणी की जा सकती है: ‘‘ کلمۃ حق ارید بہا الباطل ’’ (6) ख्वारिज अच्छाई का हुक्म और बुराई से रोकने के लिए सफल रास्ता तलवार को समझते थे। और इस्लाम के पैगम्बर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने जो यह फरमाया था कि बुराई को हाथ से मिटाओ, क्षमता न हो तो जुबान से रोको और इसकी भी न हो तो दिल से बुरा मानोंअमलन वह इसका विरोध करते थे। जदीद ख्वारिज भी इस्लाह के केवल एक रास्ते को सहीह समझते हैं, जंग और कत्ल व खून रेज़ी का रास्ता वह उसकी परवाह नहीं करते कि हालात उसके पक्ष में हैं या नहीं और ऐसा करने से नतीजा क्या सामने आएगा।

जदीद ख्वारिज आज पुरी दुनिया में अपना नेटवर्क कायम कर चुके हैं, उनकी हमनवाई करने वाले शिक्षित भी हैं और जाहिल अवाम भी, मौलवी भी हैं और कालेज के शिक्षित जवान भी। आज जब कि एक आम मुसलमान की सोच यह है कि किस तरह लोकतांत्रिक देशों की रियायतों से लाभ उठाते हुए मुसलमानों को दीनी तालीमी और मुआशी तौर पर स्थिर किया जाए, किस तरह दावत तबलीग के दायरे को बढाया जाए, किस तरह हुकूमत के सामने इस्लाम और मुसलमानों की पुरअमन शबीह पेश की जाए, उन खार्जियत पसंदों का वतीरा यह बन गया है कि वह हुकूमतों के खिलाफ बेवकूफी भरे बगावत की सोच में जी रहे हैं, चुनावों का बायकाट और अदलिया व इंतेजामिया की मुखालिफत कर रहे हैं, वह हुक्मरानों पर हमले करने की बातें कर रहे हैं, वह गैर मुस्लिमों को क़त्ल करने की साजिशें रच रहे हैं, आम मुसलमानों की शांतिपूर्ण ज़िन्दगी के लिए खतरे पैदा कर रहे हैं, इस्लाम और मुसलमानों की आतंकवादी शबीह तशकील दे रहे हैं और इन सारे अहमकाना ख्यालात व हरकात को ऐन इस्लाम बल्कि पहला फर्ज़ समझ रहे हैं। ख्वारिज के बारे में इतिहास की किताबों में उल्लेखित है कि जो शख्स भी उनके ख्यालों से इत्तेफाक नहीं करता, वह बेदरेग उसे क़त्ल कर देते, इस संदर्भ में न वह सहाबी और गैर सहाबी का लिहाज़ रखते और न मर्द व औरत का लिहाज़, जदीद ख्वारिज का हाल भी यही है, कराची से पेशावर तक और काबुल से मज़ार शरीफ और कंधार तक इसके दर्जनों नहीं सैंकड़ों मिसालें हमारे सामने हैं, जदीद ख्वारिज ने अपने मुखालिफ मस्जिदों और मजारों और उलमा व मशाइख के साथ जो कुछ किया, औरतों, बच्चों और बच्चियों के साथ जो कुछ किया वह जग ज़ाहिर है। आज अफ़सोस है कि मुस्लिम दुनिया में शेरे खुदा हजरत अली रज़ीअल्लाहु अन्हु जैसा कोई मजबूत काएद नहीं जो इस नए पैदा हुए खार्जियत को जड़ से उखाड़ फेंकता। वैसे भी चूँकि आज मुसलमान पुरी दुनिया में फैले हुए हैं और संचार की फरावानी ने करीब और दूर के हर शख्स से राब्ते को आसन बना दिया है। ऐसे में जदीद खार्जियत भी कदीम खार्जियती के मुकाबले अधिक वुसअत और तनोअ इख्तियार किये हुए है।

इसकी जड़ें अधिक गहराई तक उतरी हुई हैं। ऐसे में इस जदीद खार्जियत का खात्मा और भी कठिन लगता है। इसमें शक नहीं कि पुरी दुनिया के जम्हूर मुसलमान अमन पसंद हैं और दुनिया के बड़े बड़े बुद्धिजीवी अपनी तकरीर व तहरीर के माध्यम से उन ख्वारिज की समझ की कोशिश कर रहे हैं मगर जिस तरह कदीम ख्वारिज, गुफ्तगू और इफ्हाम व तफहीम को काबिले एतिना नहीं समझते थे, जदीद ख्वारिज भी पुरे ढिटाई के साथ हटधर्मी पर आमादा हैं और इफ्हाम व तफहीम की हर कोशिश को वह एक मज़ाक से अधिक महत्व नहीं देते। बहुत अफ़सोस है कि जिस तरह मुट्ठी बहर ख्वारिज की शरपसंदी के कारण हज़रत अली के जमाने में अनगिनत मुसलमानों की जानें गईं, आज मुट्ठी भर शर पसंद जंगजू तत्व पुरी दुनिया में मुसलमानों के क़त्ल व बर्बादी, कैद व बंद और जोर और सितम का कारण बन रहे हैं और कई स्थानों पर मुसलमान आपस में दस्त गिरेबां हैं, यहाँ तक कि फुरुई इख्तेलाफ को बातचीत और तहरीर व तकरीर से हल करने की बजाए बम और बारूद से हल करने का मिजाज़ परवान चढ़ने लगा है। इस दृष्टि से गौर कीजिये तो बड़ी मायूसी होगी कि जंगे नहरवान में केवल कुछ ख्वारिज बच गए तो उमवी और अब्बासी दौर तक उनकी फितना अन्गेज़ियाँ जारी रहीं तो जदीद ख्वारिज जिनके खात्मे के आसार कम नजर आ रहे हैं, उनसे उम्मते मुस्लिम कितने सालों या सदियों तक ज़ख्म खाती रहेगी, कुछ नहीं कहा जा सकता। वैसे जदीद खार्जियत के खात्मे के ताल्लुक से हमें बहुत अधिक न उम्मीदी है, क्योंकि आधुनिक युग में अमन पसंदी का जो ज़ाहिर सामने आया है, कि लोग तेज़ी से इस्लाम की तरफ भी बढ़ रहे हैं और इसी तेज़ी से शिद्दत पसंदी और आक्रामकता के खिलाफ अमन का झंडा भी बुलंद कर रहे हैं। मुसलमानों ने पुरी शिद्दत के साथ यह महसूस कर लिया है कि अगर पुरी दुनिया में हमें इस्लाम की दावती व तबलीगी बालादस्ती मंज़ूर है तो उसके लिए केवल एक ही रास्ता है, शांतिपूर्ण रास्ता। शांतिपूर्ण तरीके से हम उन देशों में भी इस्लाम की तबलीग कर सकते हैं जिन्हें साधारणतः इस्लाम दुश्मन समझा जाता है, जबकि शिद्दत पसंदी की वजह से हम खुद भी परेशान होंगे, उम्मते मुस्लिमा भी परेशान होगी और इस्लाम के फलने फूलने के रास्तों में भी रुकावटें पैदा होंगी। दुनिया भर में पैदा होने वाले इस जदीद ज़ाहिरा से उम्मीद की जाती है कि यह सीधे न सही, बिल वास्ता तौर पर जदीद खार्जियत का खात्मा कर देगा। लेकिन इसमें कितना वक्त लगे गा, यह कहना वक्त से पहले होगा। अरब कलम कार अब्दुल कादिर सालेह लिखते हैं ख्वारिज की शुरूआती नशो नुमा कुर्रा (हाफ़िज़े कुरआन, इबाद वहाद) की एक जमात की शक्ल में हुई। इस्लामी सकाफत में इल्मे फिकह, इल्मे हदीस और इल्मे उसूल आदि के रिवाज पाने से पहले कुर्रा को ही उम्मत का आलिम समझा जाता था। इन खारजी कुर्रा का इल्मी, फिकही मेयार नाकिस था, इसी लिए यह लोग हज़रत अली व मुआविया के बीच मतभेद से पैदा होने वाले नए राजनितिक स्थिति को नहीं समझ सके और न वह इस जंग के अंदाज़ को समझ सके।

(العقایدو الادیان،ص :124) अब्दुल कादिर सालेह ने कदीम ख्वारिज के फसादे नजर पर जो तब्सिरा किया है, वही तब्सिरा हर्फ़ ब हर्फ़ जदीद ख्वारिज पर भी सादिक आता है। ख्वारिज के पैदा होने के सिलसिले में यह तब्सिरा बहुत व्यापक है। इसकी रौशनी में जदीद खार्जियत के खद व खाल बखूबी समझे जा सकते हैं। जदीद खार्जियत भी बड़ी सादा और काबिले रहम है। जो लोग शुरू में इसका अलम लेकर उठे वह ख्वारिज की तरह ही, बहुत ही आबिद, जाहिद और सादा लौह थे। वह इस्लाम के लिए और कुरआन के लिए केवल मरना जानते थे, इस्लाम व कुरआन का मतलूब उनकी फहम व फिरासत से कोसों दूर था। और जिस तरह कदीम ख्वारिज जब नए हालात से दोचार हुए और उनके सामने पहली बार यह स्थिति सामने आई कि दो पक्षों ने अपने मोतमिद को फैसला करने के लिए आगे बढ़ाया तो उन्हें अचानक यह लगा कि यहाँ कुरआन को फैसल मानने की बजाए इंसान को फैसल माना जा रहा है और खुदा की हाकमियत की जगह इंसानों की हाकमियत स्वीकार की जा रही है। उन्हें अचानक ऐसा लगा कि इस्लाम की बुनियाद तौहीद इससे हिल जाएगी जिसके बाद वह हवास याफ्ता मरने मारने पर तुल गए। जदीद ख्वारिज की जमात भी सादा लौहों का एक टोला है जो इस्लाम के लिए शदीद जज़्बाती है। वह सख्त तरीन नफ्सियाती प्रतिक्रिया का शिकार है। इस युग में इसे अचानक यह ;लगने लगा है कि मुसलमान खुदा की हाकमियत स्वीकार करने से मुकर गए हैं, इसलिए वह मुसलमानों और गैर मुस्लिमों के खिलाफ नंगी तलवार बने फिर रहे हैं। उन्होंने देखा कि खिलाफत का खात्मा हो गया, मुस्लिम सल्तनत का खात्मा हो गया, अब लोकतांत्रिक रियासत कायम है। इस लोकतंत्र को इस दृष्टि से देखने की बजाए कि मुसलमान अल्पसंख्या में होते हुए भी पुरी दुनिया में धार्मिक आज़ादी और तबलीगे इस्लाम के इमकानात से बहरा वर हो गए हैं, वह इस अंदाज़ से सोचने लगे कि लोकतंत्र में मुसलमान पार्लियामेंट को स्वीकार कर के खुदा का इनकार कर बैठे हैं।

उनकी सादा मिजाज़ी पर उन्हें ललकारती है इसलिए वह हमेशा जंग के मसले पर गौर करते हैं और इस पर गौर नहीं करते कि जंग का अंजाम क्या होगा? इस नाज़ुक सूरते हाल में इस्लाम के दर्दमंद, मुखलिस, बाशऊर और रौशन दिमाग दोस्तों की जिम्मेदारी बन गई है कि वह अपने सादा लौह भाइयों की तफहीम करें। उन्हें यह समझाने की कोशिश करें कि लोकतंत्र को कुबूल कर के मुसलमानों ने हरगिज़ अल्लाह की हाकमियत का इनकार नहीं किया है बल्कि लोकतंत्र तो यह मौक़ा देती है कि अल्पसंख्या में होते हुए, गैर मुस्लिम देशों में हम आज़ादी से सच्चे हाकिम के अहकाम की पैरवी करें और दूसरों को भी उस हाकिमे मुतलक की तरफ दावत दें। पार्लियामेंट को स्वीकार करना कुरआन का इनकार नहीं है, बल्कि पार्लियामेंट को कुबूल करना तो हमें यह मौक़ा देता है कि अगर कुरआन के खिलाफ जुबान खोली गई तो हम अपने नुमाइंदों के माध्यम से गैर मुस्लिम देशों में भी अपने मवाफिक आवाज़ बुलंद कराएंगे। कोई मुसलमान पार्लियामेंट को इमानियात व इबादात के मामले में फैसल नहीं मानता, बल्कि जो ज़िन्दगी के आम मामले हैं उनमें जहां तक हो सके अपनी तमाम तर मज़हबी आज़ादी को सुरक्षित रखते हुए, अपने लिए बेहतर और संभावित मौकों के हुसूल के लिए पार्लियामेंट को स्वीकार करता है। हमें हैरत है कि नदवतुल उलमा के उस्ताद शैख़ अलाउद्दीन नदवी को यह बात क्यों कर समझ में नहीं आती कि इलेक्शन का बायकाट आत्महत्या के बराबर हैअगर आज दारुल उलूम नदवतुल उलमा इलेक्शन का बायकाट कर दे, पार्लियामेंट के खिलाफ बगावत का झंडा बुलंद कर दे और सुप्रीम कोर्ट के फैसले को मानने से इनकार कर दे तो क्या होगा? क्या शैख़ अलाउद्दीन इसके कल्पना के लिए तैयार हैं? गैरों की करम फर्माइयों के कारण आज तक मुसलमान अपनी वतन परस्ती की कसमें खा रहे हैं, बेहतर होगा कि ऐसे वक्त में जानबूझ कर मुसलमान को गद्दारे वतन बनाने का सबक पढ़ाना छोड़ दिया जाए। हमें इस बात का भी अफ़सोस है कि मुजल्ला अल्लाह की पुकारके एडिटर जनाब खालिद हामदी (प्रोफेसर जामिया मिल्लिया इस्लामिया, नई दिल्ली) लगातार इस प्रकार के वाहियात और मुस्लिम कश लेख अपने मुजल्ला में प्रकाशित करते हैं। शायद वह भी इलेक्शन में हिस्सा लेने और नुमाइंदों को वोट देने को शिर्क फिल हुक्म समझते हैं। आली जाह से सवाल है कि जिस हुकूमत के ऐवान को स्वीकार करना शिर्क फिल हुक्म है, उसी हुकूमत के फैसले को मानना, उसी हुकूमत के संस्था में पढ़ाना और तनख्वाह और भत्ता के नाम पर हर महीने लाखों रूपये हासिल कर के शिकम परवरी करना ईमान का कौन सा हिस्सा है? साल में शिक्षा के दिनों, सीखने और सिखाने के समय, बल्कि सारा निज़ाम उसी ऐवान से मंज़ूर शुदा है, इसे कुबूल करना, ज़िन्दगी के आम समस्याओं में यहाँ तक कि राह चलने में बाएँ जानिब ड्राइविंग करना, यह सब बातें, उसी ऐवान की मंज़ूर की हुई हैं, उन सबको आप स्वीकार करें तो यह ईमान है, और एक आम मुसलमान अपनी भलाई के लिए निस्बतन बेहतर लीडर को चुनने के लिए, किसी लीडर को वोट दे तो वह शिर्क का मुजरिम? इस मानसिकता के लोग बौद्धिक व व्यवहारिक आतंकवाद से तौबा कर लें तो बेहतर होगा वरना उम्मते मुस्लिमा अब बेदार हो चुकी है और दीन के नाम पर बर्बादी के अस्बाक बहुत अधिक दिनों तक पढ़ने के लिए तैयार नहीं है।

Urdu Article:  Wahhabism is Modern Kharjism جدید خار جیت

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