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Hindi Section ( 3 Apr 2021, NewAgeIslam.Com)

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Why The Usage of Fitna in the Quranic verse 2:193 were specific for Arab’s Mushrikin? कुरआन की आयत 2:193 मे उल्लिखित फ़ितना शब्द का इस्तेमाल सिर्फ अरब के मुशरीकिन के लिए क्यों?

ग़ुलाम गौस सिद्दीकी, न्यू एज इस्लाम

3 अप्रैल 2021

हाँ ये सच है की कुछ मुफ़स्सिरिन ने फ़ितना का माना कुफ़र और शिर्क लिखा है लेकिन लिखा भी है तो किनके लिए और क्यों? पहले तो हम हवाला पेश करेंगे फिर उस पर ग़ौर करेंगे और जानने की कोशिश करेंगे कि क्यों आजके मुशरीकिन आयत 2:193 मे उल्लिखित मुशरीकिन कि तरह नहीं हैं।

आयत पर गुफ़्तुगु करने से पहले जान लेना बेहतर होगा कि अरबी मे फितना का इस्तेमाल कई मानों के लिए होता है। कुरान मे भी फितना शब्द का इस्तेमाल कई तरह से हुआ है। जैसे आजमाइश’, ‘बहकाना’, ‘गुनाहों मे मुब्तला करना’, ‘ज़ुल्म को भी फितना कहा जाता है, इसी तरह अगर कोई चीज़ सुंदर और आकर्षिक लगती है तो उसके लिए भी कह दिया जाता है कि ये फातिना (अरबी शब्द) है यानि ये फित्ने मे डालने वाली चीज़ है, यानि दिल को मोह लेने वाली चीज़ है इतियादी। हम इन मानों पर गुफ़्तुगु नहीं करेंगे बल्कि कुरान कि खास आयत जो बहुत चर्चित मे है उस पर गुफ़्तुगु करेंगे और जानने कि कोशिश करेंगे कि इसका यहाँ क्या माना है।  

सूरह बकरह की आयत नंबर 2:193 जो बहुत ज़्यादा पेश किया जा रहा है, उसका अनुवाद यह है, “और उनसे (जो तुमसे जंग करते हैं) जंग करते रहो यहाँ तक कि कोई फ़ितना बाक़ी न रहे और दिन अल्लाह का हो जाये, फिर अगर वो बाज़ रहे तो ज्यादती नहीं है मगर ज़ालिमों पर

ये तो अरबी आयत का लफ़ज़ी अनुवाद है। अब देखते हैं मुफ़स्सिरिन ने क्या लिखा है फ़ितना शब्द के माने के बारे मे। पहले हम इनके तफ़ासिर को पेश करेंगे फिर उन पर ग़ौर करेंगे।

तफ़सीर-ए-आलूसी (जो कि हनफी मजहब के मुफ़स्सिर कि लिखी हुई है) मे लिखा है, “फ़ितना से मुराद शिर्क है, जैसा कि कतादा और सुद्दी से मंकूल है, और ये भी लिखा है कि खास ये अरब के मुशरीकिन के बारे मे है कि उनके हक़ मे (जब वो जंग करे तो दो चीजों मे से एक चीज़ है) या तो इस्लाम कुबूल करें या फिर तलवार (यानी तलवार से जंग किया जाएगा)। (देखिये तफ़सीर ए आलूसी)। ये किताब अरबी मे है और इसका अभी तक उर्दू या अँग्रेजी मे अनुवाद नहीं हुआ है। ये अनुवाद मैंने खुद किया है।

जिनहे हम rationalists कहते हैं यानी मुतजलाह (ये एक फिरका था जो अब तकरीबन नहीं है), उनकी मशहूर तफ़सीर तफ़सीरे कश्शाफ़ है, उसमे लिखा है, “(यहाँ तक कि कोई फ़ितना बाक़ी ना रहे) से मुराद शिर्क है। फिर अगर वो शिर्क से बाज़ रहें तो ज्यादती नहीं की जाएगी। तो तुम बाज़ रहने वालों पर ज्यादती ना करो क्योंकि बाज़ रहने वालों पर ज्यादती करना ज़ुल्म है (तफ़सीरे कश्शाफ़)। इस तफ़सीर का अनुवाद मुझे मिला नहीं तो मैंने ये खुद किया है।

तफ़सीर-ए-इब्ने कसीर जो की सलफ़ी जमाअत की मशहूर तफ़सीर है, उसमे लिखा है, “आयत (यहाँ तक की कोई फ़ितना बाक़ी ना रहे) से मुराद शिर्क है। और इस बात को इब्न अब्बास (सहाबी), अबुल आलिया, मुजाहिद, हसन, कतादा, रबी, मुकातील इब्न हययान, सुद्दी और ज़ैद बिन असलम ने कहा है लेकिन उन्होने ये भी लिखा है, “फिर अगर वो शिर्क करने और मुमिनो से लड़ने से बाज़ आ जाएँ तो उनसे रुक जाओ (उनसे लड़ने से रुक जाओ) क्योंकि जो उनसे इसके बाद लड़ेगा वो ज़ालिम है (तफ़सीर-ए-इब्न कसीर)। तफ़सीरे कसीर अरबी मे लिखी गयी थी और इसका अनुवाद अँग्रेजी और उर्दू मे हो चुका है। लेकिन मैंने ये अनुवाद खुद किया है। 

ऐसी ही बातें तकरीबन हर तफ़सीर मे लिखी हुई है। लेकिन अब इन पर ग़ौर करते हैं, पहले ये समझ लें की मुफ़स्सिर का काम बस इतना होता है की वो अनुवाद करें और अगर कोई हदीस या कोई क़ौल हो उस आयत के सिलसिले मे तो उसको बस पेश कर देना। यही बात हदीस के साथ है की एक मुहद्दिस बस हदीस की सनद को पेश करके हदीस बयान करते हैं। इन सबसे बड़ा काम एक फ़कीह का होता है, जो उन तफ़सीरों और हदिसों मे ग़ौर करके सहबा-ए-कराम के जमाने से आ रहे कुरान व सुन्नत समझने के उसूल की रौशनी मे उन तफ़सीरों और हदीसों से हुक्म निकालते हैं। कुरान व सुन्नत को समझने के उसूल ऐसे हैं जो कभी नहीं बदलते बल्कि उनकी बुनियाद पर हर जमाने के हालात पर ग़ौर करके हुक्म बताए जाते हैं। हर दौर मे एक फ़कीह का काम होता है वो अपने  दौर के हालात का जायजा लेकर ही उनका हुक्म उस दौर या जमाने के मुताबिक बताते हैंये कुरान का मुजजा (miracle) है कि हर जमाने के हालात के मुताबिक, फितरत के मुताबिक साहिह रहनुमाई फरमाता है। मिसाल के तौर पर एक उसूल ये है कि किसी मसले पर हुक्म उसके सबब कि वजह से लगाया जाता है मगर जब वह सबब बदल जाये तो हुक्म भी बदल जाता है। मगर इसके कुछ कवाइद और शराइत हैं जो सिर्फ एक फ़कीह ही समझ सकता है।   

मैं कोई फ़कीह नहीं, कोई मुफ़स्सिर नहीं, कोई मुहद्दीस नहीं, बल्कि अदना तालिबे इल्म हूँ और इन तफ़सीरों और हदिसों पर ग़ौर करने के बाद जिस नतीजे पर पहुंचा हूँ उसे मैं आपको यहाँ समझाने की कोशिश करता हूँ और ये इरादा रखता हूँ ताकि समाज मे गलतसमझी पैदा नो हो। ये काम मैं पहले आतंकवादियों को सुधारने के लिए कर रहा था मगर अब अपने देशवाशियों को बताने के लिए। मेरा मक़सद साहिह समझ लोगों को देना है बाक़ी समझने का काम खुद उनका है।

पहले तो तफ़सीरे आलूसी की बात जह मे रखिए की ये खास अरब के मुशरीकिन के बारे मे है, जैसा की खुद अल्लामा आलूसी ने ही आयत 9:5 की तफ़सीर मे लिखा है है की इससे मुराद वो मुशरीकिन हैं जिनहोने अमन के साथ रहने के मुआहिदा (peace treaty) को तोड़ा था। और आयत 2:193 की तफ़सीर मे भी उन्होने यही बात लिखी है इससे अरब के मुशरीकिन मुराद हैं। तो इसका मतलब हुआ अरब के अलावा मुशरीकिन मुराद नहीं हैं।

इस बात को जहन मे रखने के बाद ग़ौर कीजिये कि अरब के ये कैसे मुशरीकिन थे जिनके शिर्क और कुफ़र को (इबने कसीर कि तफ़सीर के हवाले से) हज़रत इब्ने अब्बास (सहाबी), अबुल आलिया, मुजाहिद, हसन, कतादा, रबी, मुकातील इब्ने हययान, सुद्दी और ज़ैद बिन असलम ने फ़ितना कहा।?

क्यों अरब के शिर्क और कुफ़र को इबने अब्बास जैसे फकीह सहाबी ने फ़ितना कहा? बात इन तफ़सीर कि किताबों से ही ज़ाहिर है, कि ये लोग न तो peace treaty कि क़दर जानते थे, ये इस्लाम को बर्दाश्त नहीं कर पा रहे थे, ये अल्लाह के दीन को मिटाने पर आमादा थे, ये मरने मारने पर तुले थे, इनके सामने मुसलमानो के पास दो ही ऑप्शन थे, या तो दीन छोड़ दें या दीन के लिए जंग करें, और इसी तरह अरब के इन मुशरीकिन के पास भी दो ही ऑप्शन थे, या तो जंग करें या इस्लाम कुबूल करें, क्योंकि ये लोग तीसरे ऑप्शन के लिए तैयार नहीं थे। मुसलमान तो तीसरे ऑप्शन के लिए तैयार भी हुए थे और अमन का मुआहिदा भी किया लेकिन अरब के मुशरीकिन ने उस मुआहिदा को तोड़ दिया। याद रखिए उस वक़्त भारत का संविधान उन मुशरीकिन के पास नहीं था जो उन्हें ये सीखा सके कि हर किसी को अपने मजहब के मुताबिक ज़िंदगी गुजारने का हक़ है, और हर किसी कि जान कि हिफाज़त कि जाएगी हर किसी को इंसाफ मिलेगा इत्यादि।

उस वक़्त दो ही ऑप्शन बचे थे जिसे हम अँग्रेजी मे do or die कह सकते हैं, या लड़ो या मरो। ग़ौर कीजिये उस वक़्त मुसलमानो के पास दो ही ऑप्शन थे मगर अरब के मुशरीकिन के पास तीन ऑप्शन थे, 1) अमन के साथ रहो या फिर ये कि मुआहिदा तोड़ने के बाद अब चूंकि तुम जंग कि हालत मे हो तो बस दो ही ऑप्शन हैं या तो 2) इस्लाम कुबूल करलो या 3) जंग करते रहो क्योंकि तुम वो लोग हो जो अमन के मुआहिदा कि पासदारी नहीं करते और ना ही तुम हमे हमारे दीन पर अमल करने देते हो, यानी तुम वो लोग हो जो खुदा के दीन पर अमल करने से हमे रोकते हो, तुम शिर्क करते थे कुफ़र करते थे तो आयत नाज़िल हुई थी, “तुम्हारे लिए तुम्हारा दीन हमारे लिए हमारा दीन मगर तुमने इसका भी लिहाज ना रखा बल्कि तुम्हारा शिर्क और कुफ़र हद से ज़्यादा बढ़ गया कि तुम फ़ितना (मजहब की बुनियाद पर ज़ुल्म) पर तूल गए हो यानी तुम तो हमारी जान लेने पर तूल गए हो, हमसे हमारा दीन लेने पर ही तूल गए हो, अब कोई ऑप्शन ही नहीं छोड़ा अब तुम जंग कि हालत मे आ गए हो, तो सुन लो अब जबकि तुमने कोई रास्ता नहीं छोड़ा तो हमारी तादाद तुमसे कम है, हम कमजोर हैं, हमारे पास ईमान के सिवा कुछ नहीं, हमारा ईमान हमे हमारी जान से ज़्यादा अज़ीज़ है, तुमसे लड़ कर मरना पसंद कर लेंगे मगर अपना दीन नहीं छोड़ेंगे, तभी खुदा का हुक्म हुआ कि लड़ो उनके खिलाफ जो तुम से दीन कि वजह से जंग कर रहे हैं ......और (जब लड़ो तो) उनसे लड़ते रहो जब तक कि उनका फ़ितना खत्म न हो जाये और अल्लाह का दीन कायम हो जाये यानी अल्लाह के दीन पर अमल करने वाले मुसलमान का वुजूद बाक़ी रहे।

उन अरब के मुशरीकिन के शिर्क और कुफ़र ही हालत ही कुछ ऐसी थी कि इबने अब्बास जैसे सहाबी ने भी कह दिया कि उनका शिर्क और कुफ़र फ़ितना है। मुफ़स्सिरिन ने इसी बात को सिर्फ नक़ल कर दिया मगर ये काम तो एक फ़कीह का है कि इस बात को खुद साहिह से समझे और अपने अपने जमाने के लोगों को समझाये।   

ग़ौर कीजिये ये उस वक़्त के मुसलमानो के वुजूद कि जंग थी और वुजूद के लिए जंग आज कौन नहीं लड़ता, आज हर मुल्क ने न्यूक्लियर जैसे हथियार बनाए हैं अपनी अपनी हिफाज़त के लिए, जंग के लिए सबके पास फौज है।

यहाँ सिर्फ अरब के मुशरीकिन के फित्ने को खतम करने कि बात कि जा रही है कुफ़र और शिर्क करने वालों मे उस वक़्त औरतें भी थीं, बच्चे भी थे, बूढ़े भी थे, लेकिन इन सब के बारे मे वही हज़रत इबने अब्बास हदीस बयान कर रहे हैं कि अगर जंग हो रही हो और उनके मर्द जंग कर रहें हो तब भी उन्हें नहीं मारा जाएगा, क्योंकि ये औरतें हैं, ये बच्चे हैं, ये बूढ़े हैं, ये शिर्क तो करते हैं, ये कुफ़र तो करते हैं, लेकिन ये मुशरीक मर्दों कि तरह फितना नहीं कर रहे हैं, ये शिर्क और कुफ़र के साथ साथ आप पर ज़ुल्म नहीं कर रहे हैं। ये अमन पसंद हैं। लिहाजा जंग के दौरान भी इन्हे नहीं मारा जाएगा। गौर कीजिएगा आयत 2:193 पर। यहाँ कहा जा रहा है, उनसे लड़ते रहो जब तक उनका फितना खत्म ना हो जाये। अगर सारे कुफ़र और शिर्क फितना है तो औरतों, बच्चों को छोड़ने की बात क्यों की जा रही है। हदीस की किताबें भरी हुई हैं इस बात से की जो जंग नहीं लड़ते जो अमन से रहने का वादा करते हैं उनके साथ वादा निभाओ, बच्चे, औरतें जंग नहीं लड़ते तो उनके मर्द अगर जंग लड़े तो जंग के दौरान भी उन औरतों पर बच्चों पर हमला न करो। किसी के फसलों को तबाह ना करो। किसी दरख्त को तबाह ना करो। इन बातों के साथ आयत को समझने की कोशिश कीजिये। 

अब सवाल है कि आज के दौर मे इ आयत से क्या हुक्म निकलता है? कौन जवाब देगा? इन मुफ़स्सिरिन को साहिह से समझ कर आसान अंदाज़ मे कौन अनुवाद बताएगा? ज़ाहिर है ये फ़कीह का काम है। मैं नाचीज़ खुद को फ़कीह नहीं समझता मगर इतना मानता हूँ कि अल्लाह जिसको चाह ले उसे दीन कि साहिह समझ देदे क्योंकि साहिह इल्म भी एक नेमत है। तो मैं उस दौर के हालात और अब के हालात को मद्दे नज़र रख कर हुक्म बताऊंगा।

ठीक है आज हमारे प्यारे हिंदुस्तान मे हर मजहब के मानने वाले लोग हैं, शिर्क करने वाले भी हैं कुफ़र करने वाले भी हैं। लेकिन ये बात भी जहन मे रखिए कि आज मुसलमान भी दूसरे मुसलमान को मुशरीक और काफिर मानता है। खैर एक दूसरे को काफिर कहने का रिवाज आम बात हो चुकी है। साहिह गलत समझने समझाने वाले लोग आज भी मौजूद हैं। लेकिन इसके बावजूद एक बात नोट कीजिये इतनी बड़ी तादाद मे लोग यहाँ रहते हैं। अमन व शांति के साथ रहते हैं। आज अगर हम हॉस्पिटल जाते हैं इलाज के लिए, तो हम देखते हैं, हमारे हिन्दू डोक्टोर्स हमारा इलाज करते हैं। हमारा ऑपरेशन करते हैं। वो ये नहीं देखते कि मुसलमान है या हिन्दू है। वो बस इतना देखते हैं ये इंसान है। भारतवासी है। हिंदुस्तानी है। इसी तरह का मामला हर शहर मे है। हर देहात मे है। हर ज़िले मे है। लोग अमन व शांति से रहने को भाई चारगी का नाम देते हैं। दोस्ती का नाम देते हैं। इंसानियत का नाम देते हैं। ये हिन्दू हैं। हमारे हिंदुस्तानी भाई हैं। ये कैसे अरब के उन मुशरीकिन कि तरह फ़ितना परवर हो सकते हैं जिनहोने नबी करीम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) और उनके सहाबा पर ज़ुल्म व सितम ढाए, बेरहमी की मिसाल पेश की।

ठीक है आज कुछ लोग हैं जो नासमझ हैं फसाद फैलाने पर तुले रहते हैंकुछ वजह तो यह है कि हमने उनके सवालों को समझने या उन्हे साहिह से समझाने की कोशिश नहीं की। खैर हमारे देश मे इंसाफ की अदालत मौजूद है कुछ लोग अपना ईमान और इंसाफ का धर्म बेच सकते हैं लेकिन हर कोई अपने धर्म और ईमान का सौदा नहीं कर सकता। इंसाफ तो मिलेगा ज़रूर दुनिया मे नहीं तो आखिरत मे ज़रूर। हम मुसलमानो ने संविधान के मुताबिक ज़िंदगी गुजारने का वादा किया है इस देश के अंदर रहते हुए कभी ज़ुल्म भी हो तो कानून हाथ मे नहीं लेते हैं। आज हर मुसलमान ऐसा ही नज़रिया रखता है। अगर कोई ज़ुल्म या कानून हाथ मे लेने का जुर्म मुसलमान भी करता है तो वो सज़ा का हकदार है। ये तो हम सब मानते और समझते चले आए हैं।

लेकिन बात कुछ नासमझ लोगों की हो रही है तो ऐसे कुछ लोग तो अपने आपस मे भी लड़ते हैं। मुसलमानो मे भी ऐसे कुछ लोग हैं। एक भाई दूसरे भाई की ज़मीन जायदाद हड़पता है। मिया बीवी के झगड़े। माँ बाप के हूकूक़ अदा नहीं किए जा रहे हैं। झूठ, बेईमानी, पाप, लालच, मक्कारी, अत्याचार इत्यादि आम बात हो गयी है। ये हाल तो मुस्लिम और ग़ैर मुस्लिम सभी क़ौम की हो गयी है। अच्छे लोग उनमे मौजूद हैं मगर जो बुरे हैं उन्हे सुधारने की ज़रूरत है।

हमारे देश ने हमे हमारे दीन पर अमल करने की इजाज़त दी है। इससे बड़ी दौलत और क्या हो सकती है। हम न तो वोट बैंक रहना और बनना चाहते हैं। हम मुग़लों की तरह हुकूमत करने के आशिक नहीं हैंहम हर तरह कि गलत पॉलिटिक्स से भी दूर रहना चाहते हैं। हम तो बस हज़रत निज़ामुद्दीन की फकीरी को पसंद करते हैं, जिनके यहाँ आज भी मुहताज और भूका शख्श ये सोच कर चला आता है कहीं खाना मिले या ना मिले यहा ज़रूर मिलेगा। ये वही हज़रत निज़ामुद्दीन हैं जिनसे एक बादशाह ने जब मिलने की कोशिश की तो कहा अगर बादशाह एक दरवाजे से आएंगे तो हमारे पास दूसरा दरवाजा मौजूद है हम उस दूसरे दरवाजे से निकल जाएँगे क्योंकि हम बादशाहों से दूर रहना चाहते हैं क्योंकि बादशाहों कि सोहबत से कहीं तकबबूर और गुरूर पैदा न हो जाये। ये तकबबूर और गुरूर इंसान को खुदा से दूर रखता है। खैर ये सूफियाना बातें करने का वक़्त नहीं। और ना ही हज़रत अबू बकर सिद्दिक की सदाक़त, हज़रत उमर के इंसाफ की अदालत, हज़रत उस्मान की सखावत और हज़रत अली की शुजाअत और विलायत की तारीख बताने का वक़्त है। ये वो बादशाह थे जो छुप छुप कर रातों को निकलते थे और घर घर चेक करते थे कि कोई भूका तो नहीं है, और आम आदमी के भेष मे लोगो कि मदद करते, अपनी नेकी छुपाते। उनकी इन पहलुओं पर कोई तवज्जुह नहीं देता क्योंकि ऐसा करना हर किसी के बस कि बात नहीं। ये बाते कभी और, इनशा अल्लाह   

कहने का मक़सद बस इतना है फ़ितना शब्द पर फ़ितना पैदा ना किया जाये। इसे साहिह से समझने कि कोशिश कि जाये। हम अपने देशवाशियों को अरब के उन फ़ितना परवर मुशरीकिन कि तरह नहीं समझते जिनहोने हमारे नबी कि सच्चाई जानने के बावजूद उन पर और उनके सहाबा पर बेशुमार ज़ुल्म किए।

बेशक कुछ ऐसे लोग हैं जो नासमझी मे हमारे खुदा और हमारे नबी कि शान मे आज यूट्यूब वग़ैरा के कमेंट मे गालियां लिखते हैं। एक दो नहीं ऐसे बहुत से कमेंट्स हैं जो सिर्फ गाली कि एक सूरत है। इससे हमे तकलीफ होती है। कुछ लोग अदालत का दरवाजा खटखटाते हैं मुझसे पूछिये तो मैं ये मामला अल्लाह के हवाले करता हूँ। हमारा रब सब कुछ जानता है। उसकी मर्ज़ी के बग़ैर कोई चीज़ नहीं हो सकती। वही बेहतर फैसला फरमाने वाला है। हमारा रब इतना रहमान है कि कुफ़र और शिर्क करने वालों को भी दुनिया के सामान से नवाजता है और किसके दिल मे क्या है वही बेहतर जानता है। किसका फैसला कैसे करना है वही आखिरत मे करने वाला है। मौत से हम भाग नहीं सकते, हमारे झूठ और सच को वही जानता है हमारा ईमान है कि इसका फैसला उसे ही करना है। हम न तकिय्या करते हैं ना ही इसे किस सूरत जायज़ समझते हैं। हम अपने रब के दीन पर ईमान रखते हैं इससे हम राज़ी हैं इससे हमे रौशनी मिलती है और यही हमारी ज़िंदगी है और हम दीन को बताने मे किसी झूठ का सहारा नहीं लेने को जायज़ नहीं समझते।    

(इस पॉइंट पर हिन्दी मे लिखने को हमारे कुछ भाइयों ने हमसे कहा। हिन्दी मे लिखने की मुझे आदत नहीं इसीलिए अगर बात करने के अंदाज़ मे किसी को ठेस पहुंची तो छमा करें)

URL: https://www.newageislam.com/hindi-section/usage-fitna-quranic-verse-2/d/124645


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