कनीज़ फातमा, न्यू एज इस्लाम
२० फरवरी, २०२१
अभी अजमेर शरीफ में ज़ायरीन का हुजूम है। लोग
उर्से ख्वाजा गरीब नवाज़ में शिरकत के लिए दूर दराज़ से हाज़िर हुए हैं। इस मौके पर
लोग भिन्न भिन्न अंदाज़ में, कोई कव्वाली का समा कर के,
कोई उनकी दास्ताँ पढ़ कर, कोई उनकी हयाते
मुबारका के गोशों पर रौशनी डाल कर अपनी तरफ से खराजे अकीदत पेश कर रहा है, ऐसे में हम ने भी खयाल किया कि उनकी ज़िन्दगी के कुछ गोशों का ज़िक्र कर के
उन्हें खिराजे अकीदत पेश करें और भारत के तमाम शहरियों के हक़ में बल्कि दुनिया की
तमाम मखलूक के लिए हुज़ूर ख्वाजा गरीब नवाज़ के वसीले से अल्लाह रब्बुल इज्ज़त की
बारगाह में दुआ करें कि अल्लाह उन पर अपना फज़ल व करम फरमाए।
हज़रात! अल्लाह पाक ने जिन मुकद्दस हस्तियों
का तजकिरा अपने मुकद्दस कलाम में निहायत ही सुनहरे अंदाज़ से अर्थात गम व खौफ दोनों
की नफी के साथ उन्हें अपना दोस्त बताते हुए लोगों को तंबीह किया कि ऐ लोगों सुनों!
अल्लाह का दोस्त और महबूब कौन है फरमाया: “अला इन्ना औलिया अल्लाही ला
खौफुं अलैहिम वला हुम यह्ज़नून”___ अर्थात अल्लाह के वलियों
को किसी चीज का खौफ और गम नहीं होता____क्योंकि वह जब जो
चाहते हैं अल्लाह की इजाज़त से सब उनके लिए हाज़िर होता है इसलिए ना उन्हें उन चीजों
के हासिल होने का गम है और ना ही उनके फना का खौफ इसी वजह से यह दुनिया व माफीहा
से बिलकुल बे नियाज़ और फना फिल्लाह हो कर अपनी ज़िन्दगी गुजारते हैं।
उन्हीं हस्तियों में जिनकी उपर प्रशंसा की गई
में से एक वह हस्ती भी है जिसने पुरे भारत पर एह्साने अज़ीम फरमा कर सारे भारतीयों
को नैतिक और आध्यात्मिक तमाम रोगों से शिफा बख्शा और उनको उनका खोया हुआ मुकाम अता
किया और इतना नवाज़ा की दुनिया आप को गरीब नवाज़ के नाम से पुकारने लगी और आपकी यह
फैयाज़ी और दरियादिली केवल उसी समय के भारतीयों पर नहीं बल्कि आज और रहती दुनिया तक
हमेशा हमेश के लिए आप बंदा नवाज़ बन कर हम मंगतों के दस्तगीर, सुल्तानुल हिन्द बन गए और दिलों पर ऐसी सल्तनत कायम कि जिसकी मिसाल मिलना
मुश्किल है। वह हमारे रूह के सुलतान उस वक्त भी थे और आज भी हैं और हमेशा रहेंगे।
आज कुर्सी चाहे किसी को मिल जाए हुकुमत तो ख्वाजा की ही है! (कुर्सी पर चाहे कोई
भी बैठे--------राजा तो हमारा ख्वाजा है)
हज़रत ख्वाजा गरीब नवाज़ के पैदाइश का सन
प्राचीन उल्लेख कर्ताओं ने पैदाइश की तारीख
का ज़िक्र नहीं किया है। प्रोफेसर खलीक अहमद निज़ामी का कौल है कि हज़रत शैख़ अब्दुल
हक़ मुहद्दिस देहलवी रहमतुल्लाह अलैह ने आपकी वफात का सन ६३३ हिजरी स्वीकार किया
है। (अख्बारुल अखियार, फ़ारसी, पृष्ठ:२२) मौलाना जमाली ने लिखा है---“ख्वाजा गरीब
नवाज़ की उम्र शरीफ ९७ साल हुई, (सैरुल आरेफीं, फ़ारसी, पृष्ठ:१६) इस बुनियाद पर हिसाब लगाने से आप
का सने पैदाइश ५३६ हिजरी करार पाता है।“
ख्वाजा ख्वाजगान की जाए विलादत
मौलाना माअनी हरात के अनुसार एक बहुत बड़ा
इलाका सीस्तान के नाम से मशहूर है उस क्षेत्र के बाशिंदे अपनी जुबान में इसे सीतान
कहते हैं अहले अराब सजिस्तान और यह सजिस्तानी को मुखफ्फफ करके सजज़ी बोलते हैं।
प्रोफेसर खलीक अहमद निज़ामी मरहूम ने तारीखे मशाइखे चिश्त में रिसाला “अहवाले
पीराने चिश्त” के हवाले से (जिसका प्राचीन कलमी नुस्खा उनके पास था) लिखा है कि
ख्वाजा साहब का वतन सजिस्तान था और इसी वजह से ख्वाजा गरीब नवाज़ को सजज़ी कहा जाता
है, जो कातिब की गलती से संजरी हो गया।
सुल्तानुल हिन्द और इल्म की तलब के लिए सफ़र
ख्वाजा गरीब नवाज़ ने अमल पर इल्म को तरजीह
देते हुए इल्म की तलब के लिए सफर का इरादा किया और अपने घर से पैदल निकल खड़े हुए।
उस दौर में समरकंद और बुखारा उलूम व फुनुन के मरकज़ थे। आपने वहाँ रह कर ज़ाहिरी
उलूम की तहसील की। ज़्यादा करीने कयास यह अम्र है कि पहले आपने समरकंद में कयाम
किया। बहर हाल सब तज़किरा निगार मुत्तफिक हैं कि समरकंद व बुखारा में आपने उलूमे
ज़ाहिरी की तकमील की। सबे पहले कुरआन पाक हिफ्ज़ किया। (सैरुल आरेफीन, फ़ारसी, पृष्ठ:५, उर्दू तर्जुमा
सैरुल अक्ताब, पृष्ठ:१३७)
समरकंद में आपने सर्फ, नहव, उसूले फिकह, हदीस,
उसूले हदीस, तफ़सीर और दुसरे उलूमे अकली की
तहसील की। (हमारे ख्वाजा, पृष्ठ:१)
मौलाना माअनी अजमेरी ने लिखा है “तालिबे इल्मी के ज़माने में आपने समरकंद व बुखारा में कई उस्तादों से
इस्तिफादा किया है लेकिन तज़किरा लिखने वालों ने आपके उस्तादों की फेहरिस्त में
केवल एक मौलाना हिसामुद्दीन का नाम लिखा है। (हमारे ख्वाजा, पृष्ठ:६)
बहर हाल यह स्वीकार करना पड़ेगा कि ख्वाजा
हिन्द अपने ज़माने के ज़बरदस्त आलिम थे।
ख्वाजा गरीब नवाज़ और तलाशे मुर्शिद
सुन्नते इलाहिया जारी है कि कोई शख्स चाहे
मादरजाद वली हो या ना हो उसे किसी मुर्शिदे तरीकत का दामन पकड़ना आवश्यक है। हज़रत
गौसे पाक ने भी मादरजाद वाली होने के बावजूद मुर्शिद का दामन पकड़ा, इसलिये आप भी तलाशे मुर्शिद में निकल पड़े। कस्बा हरवन इलाका नीशापुर में
रहने वाले हज़रत ख्वाजा उस्मान हरुनी चिश्तिया सिलसिले के बहुत बड़े बुज़ुर्ग थे और
आप की अजमत विलायत का शोहरा लोगों की ज़ुबानों पर था। आप उनकी खिदमते आली में ५६२
हिजरी में (गौसे पाक के विसाल के एक साल बाद) हाज़िर हुए और आपसे मुरीद हो गए।
मुरीद होने के बाद ख्वाजा गरीब नवाज़ बीस साल तक खिदमते मुर्शिद में मसरूफ रहे,
यहाँ तक कि सफर में पीर और मुर्शिद का बिस्तर उठा कर मुस्तकिल उनके
साथ रहे। (उर्दू तर्जुमा सैरुल अक्ताब, पृष्ठ: १३८, उर्दू तर्जुमा सैरुल औलिया, पृष्ठ, ४३, प्रकाशक: देहली, २००७)
किताब सैरुल औलिया हज़रत निजामुद्दीन औलिया के करीबुल अहद की तसनीफ है।
मकसदे हयात मुकम्मल होने की खुशखबरी
अगर बीस साल की खिदमत के बाद गरीब नवाज़ की
बातिनी तालीम हो गई और खिलाफत मिली, लेकिन यहाँ यह स्पष्ट करना
आवश्यक है कि बैत होने के फ़ौरन बाद ही पीरो मुर्शिद की जुबान मुबारक से यह मुज़दा
जां फिजा सूना कि “मुईनुद्दीन तुम्हारा काम पूरा हो गया।“
(सैरुल अक्ताब, उर्दू तर्जुमा, पृष्ठ: १३८)
आखिर में आपको ख्वाजा उस्मान हरुनी ने खरका ए
खिलाफत से सरफराज किया। (सैरुल आरेफीन, फ़ारसी, पृष्ठ:५)
इसके अलावा जो तबर्रुकात सिलसिले के
बुजुर्गों से पीरो मुर्शिद को मिले थे सबके सब गरीब नवाज़ को अता कर दिए।
(हमारे ख्वाजा पृष्ठ:९, सैरुल अक्ताब, उर्दू तर्जुमा, पृष्ठ:१३८)
ख्वाजा गरीब नवाज़ के विभिन्न शहरों में सफर
के मकसद
प्रोफेसर खलीक अहमद निज़ामी मरहूम ने भारत आने
से पहले ख्वाजा गरीब नवाज़ के सफरों के वजूहात इस तरह बयान किये हैं।
बुखारा व समरकंद का सफर तो इल्म हासिल करने
के लिए किये गए। फिर नीशापुर के कस्बा हरुन में आकर आपने पीरे तरीकत से बीस साल
इस्तिफादा किया और उनका बिस्तर मुबारक सर पर रख कर चलते रहे। फिर तनहा सफर किये और
उन अकाबिर, मशाइख व उलेमा से मुलाकातें की जो उस दौर
के मज़हबी फ़िक्र व अमल पर गहरा असर रखते थे। (बहवाला सैरुल औलिया, पृष्ठ: ४५)
फिर उस दौर के मुस्लिम सकाफत के अक्सर
केन्द्रों (जैसे बग़दाद, नीशापुर, तबरेज़, ओश, अस्फहान, सब्जवार, मह्ना, खरकान,
इस्त्राबाद, बलख, और
गजनेन) का सफर किया ताकि मुसलमानों की मज़हबी ज़िन्दगी के अहम रुझानात का गहराई से
मुताला करें। आपके अखलाकी और रूहानी औसाफ व इक्दार ने बहुत से मशाईख को आप की तरफ
आकर्षित किया और आपने सब्जवार और बल्ख में अपने खुलेफा मुकर्रर किये। शैख़
ओह्दुद्दीन किरमानी और शैख़ शहाबुद्दीन सहर्वर्दी की तरह और बहुत सारे मशाईख आपकी
सोहबत रूहानी से मुस्तफीद हुए। उन तमाम इलाकों का दौरा किया जो अभी क्राख्ताई और
गज़ कबीलों के हमलों के ज़ख्म खूर्दा थे और अभी शिफायाब नहीं हुए थे और जो अभी मंगोलों
की लाइ हुई तबाही व बर्बादी से दो चार होने वाले थे।
बग़दाद में आतिश परस्तों को दावते इस्लाम
साहबे सैरुल अक्ताब का बयान है कि बग़दाद में
सात आतिश परस्त थे, जो अपनी रियाज़त की वजह से ख़ास तौर पर मशहूर
थे। छः छः माह में लुकमा खाते थे। इस बिना पर बहुत ज़्यादा लोग उनके मोअतकिद थे। एक
दिन यह सातों हज़रात ख्वाजा साहब की मुलाक़ात के लिए आए। हज़रत ख्वाजा की जैसे ही उन
पर नज़र पड़ी वह सब हैबत से कांपने लगे और चेहरे का रंग पिला पड़ गया। वह बे इख्तियार
क़दमों पर गिर पड़े। हज़रत ख्वाजा ने उनसे फरमाया कि ऐ बे दीनों! अल्लाह से तुम्हें
शर्म नहीं आती कि उसको छोड़ कर दूसरी चीज को पूजते हो। उन लोगों ने कहा ऐ ख्वाजा!
हम लोग डर कर आग पूजते हैं कि शायद कल यह हम को जला ना दे। हज़रत ख्वाजा ने फरमाया
कि अहमकों! जब तक खुदा की परस्तिश ना करोगे, आग से छुटकारा
नहीं पा सकते। उन लोगों ने कहा कि हजरत आप तो अल्लाह को पूजते हो अगर यह आग आपको
ना जलाए तो फिर हम लोग आपके आसमान वाले खुदा पर ईमान ले आएं। हज़रत ख्वाजा ने
फरमाया कि अल्लाह का हुक्म होगा तो यह आग मुइनुद्दीन के जुटे भी नहीं जला सकती। आग
वहाँ पर मौजूद थी। आपने उसी वक्त अपने जुटे उसमें दाल दिए और फरमाया कि ऐ आग
मुइनुद्दीन के जुटे की हिफाज़त करना। उसी वक्त आग ठंडी हो गई और गैब से आवाज़ आई
जिसको हाज़रीन ने भी सुना कि आग की क्या मजाल जो मेरे दोस्त के जुटे को जला दे। उन
आतिश परस्तों की जमात हजरत की बुज़ुर्गी और अजमत से प्रभावित हो कर उसी वक्त
मुशर्रफ बा इस्लाम हुई और उन लोगों ने हज़रात की मुलाज़मत इख्तियार कर ली और फिर कुछ
ही मुद्दत में औलियाए कामेलीन में से हो गए। (सैरुल अक्ताब उर्दू तर्जुमा, पृष्ठ: १३९-१४०)
हकीकत यह है कि हज़रत ख्वाजा मदीने से भारत के
सफर के लिए खातिमुल अंबिया के सफीर बन कर चले तो उनके नुकुशे कदम से तबलीग इस्लाम
की राहें रौशन हो गईं और ज़ुल्मते कुफ्र दूर होने लगी।
भारत में ख्वाजा गरीब नवाज़ से पहले मुसलमानों
की आबादियाँ
प्रोफेसर खलीक अहमद निज़ामी ने लिखा है। “आम तौर से यह खयाल किया जाता है कि भारत में मुसलमानों की आबादी मोहम्मद
गौरी के हमलों के बाद शुरू हुई। यह खयाल गलत ही नहीं गुमराह कुन भी है। मोहम्मद
गौरी के हमले से पहले (अर्थात हिन्दू राजाओं के अहदे हुकूमत में) भारत में कई जगह
मुसलमानों की नई आबादी थीं जहां उनके मदरसे, खानकाहें और
दिनी इदारे कायम थे। जो लोग दीनी इदारों की तशकील व तामीर की हौसला शिकन मुश्किलात
का थोड़ा भी तजुर्बा रखते हैं वही उन मसाइब का भी अंदाजा लगा सकते हैं जिनसे उन
बुजुर्गों को दोचार होना पड़ा। अजमेर के अलावा जहां ख्वाजा मुईनुद्दीन ने पृथ्वी
राज के ज़माने में अपनी खानकाह बनाई थी, बदायूं, कन्नौज, नागौर और बिहार के कुछ शहरों में मुसलमानों
की खासी आबादी थी। बनारस (हिन्दू) यूनिवर्सिटी के एक प्रोफेसर डॉक्टर आर एस
त्रिपाठी ने कन्नौज के मुताल्लिक हाल ही में एक किताब प्रकाशित की है जिसमें बताया
है कि कन्नौज में मुसलमानों की हुकूमत के कायम होने से पहले मुसलमान मौजूद थे।
बिहार के मुताल्लिक भी जदीद तहकीकात यही हैं कि मोहम्मद बिन बख्तियार खिलजी की फतह
(११९९ ई०) से पहले वहाँ सुफिया और बुज़ुर्गाने दीन पहुँच चुके थे”। (तारीखे मशाइख चीश्त, पृष्ठ:१४४)
उपरोक्त इबारत में निज़ामी साहब ने खानकाह
बनाने की बात मंसूब की है जबकि बाबा फरीद गंज शकर के बकौल ख्वाजगान चीश्त में
खानकाह बनाने का रिवाज नहीं था। गरीब नवाज़ ने अजमेर में मुस्तकिल कयाम किया था।
ख्वाजा गरीब नवाज़ तुर्कों की फतह से पहले भारत में आ चुके थे और सिलसिला ए
चिश्तिया का कयाम अमल में आ गया था।
जब ख्वाजा गरीब नवाज़ भारत तशरीफ लाए तो शहर
के करीब उस जंगल में पहुँच गए जहां इस वक्त अजमेर आबाद है। उस जंगल के एक बड़े
दरख्त के साए में आपने अपने चालीस साथियों के साथ आराम फरमाया, और आप के हुक्म पर ऊंट के बैठ कर ना उठने वाला मशहूर व मारुफ़ वाकिया उसी
जगह पेश आया। इस शहर की जिस पहाड़ी पर ख्वाजा गरीब नवाज़ ने कयाम किया वहाँ एक गार
भी था जो अभी तक मौजूद है और ख्वाजा साहब का चिल्ला कहलाता है। उसी गार में या
उससे बाहर फर्श पर आसमानी शामियाने के नीचे ख्वाजा साहब ने अपने तमाम हमराहियों के
साथ मुस्तकिल तौर पर रहना इख्तियार कर लिया और अल्लाह रब्बुल इज्ज़त की इबादत में
अहर वक्त मसरूफ रहने लगे। (देखिये: हमारे ख्वाजा, पृष्ठ २०)
चूँकि वहाँ के लोगों के लिए खुदा ए वाहिद ला
शरीक की इबादत का यह तरीका नया था, इसलिए उन्होंने अपनी नाराज़गी
का इज़हार मुखालिफत की सूरत में किया। कुछ लोगों ने ख्वाजा साहब पर हमला भी किया,
लेकिन अल्लाह रब्बुल इज्ज़त के फज़ल व करम से आप महफूज़ रहे। अजमेर के
मुखालिफों ने गरीब नवाज़ का नया तरीका इबादत देख कर जो गम व गुस्सा का इज़हार किया
वह उनकी अपने मज़हब से अदमे वाकिफियत का नतीजा था। ख्वाजा गरीब नवाज़ का यह अमल
हमारे लिए नमूना है कि आपने अपने मुखालिफ के हर हमले और तकलीफ के बावजूद सब्र व
तहम्मुल के दामन को हाथ से छुटने नहीं दिया। लोग आपके इल्म व अमल और करामत व
बुज़ुर्गी ज़ोह्द व तकवा को देख कर खुद इस्लाम कुबूल करने पर आमादा होने लगे। ख्वाजा
गरीब ने दावत का बेहतरीन नमूना पेश किया, उन्होंने कभी किसी
को ज़बरदस्ती इस्लाम की दावत नहीं दी। वह ज़बरदस्ती मुसलमान बना भी नहीं सकते थे
क्योंकि कुरआन करीम ने निम्नलिखित आयतों में जब्र व इकराह से मुसलमान बनाने की
सख्ती से रोका है।
कुरआन करीम की आयतें:
१ ला इक्राहा फिद्दीन........अर्थात दीन में
कोई जब्र नहीं (सुरह अल बकरा, आयत: २५६)
२ लकुम दीनुकुम वलियदीन.........तुम्हारे लिए
तुम्हारा दीन और मेरे लिए मेरा दीन। (सुरह काफिरून: पारह: ३०)
पैगम्बरे इस्लाम अलैहि सलातु वस्सलाम जब
मक्का से हिजरत फरमा कर मदीने तशरीफ लाए तो आपने यहूद से जो मुआहेदा किया उसमें भी
यही अलफ़ाज़ थे......
लना दीनुना व लकुम दीनुकुम अर्थात हमारे लिए
हमारा दीन है और तुम्हारे लिए तुम्हारा दीन।
(३) उदउ इला सबीली रब्बिका बिल हिकमती वल
मौइजतिल हसना व जादिल्हुम बिलल्लती हिया अहसन अर्थात (ऐ हबीब) बुलाइए लोगों को
अपने रब की तरफ हिकमत और अच्छी नसीहत के साथ और अगर वह बहस व निज़ाअ करें तो भी उनके
साथ बेहतर तरीका इख्तियार कर। (सुरह नहल, आयत: १२५, पारह १४)
एक आयत में तो कुरआन हकीम ने गैर मुस्लिमों
के खुदाओं को भी बुरा कहने से मना किया। “वला तसुब्बुल लज़ीना यद्उना मं
दुनिल्ल्लाह फ यसुब्बुल्लाहा अदवन बी गैरी इल्म (सुरह अल इनाम आयत १०८ पारा ७)
अर्थात वह लोग खुदा के अलावा जिन्हें पुकारते
हैं तुम उनको अर्थात उनके खुदाओं को बुरा ना कहो, वरना वह
अल्लाह को अपनी अज्ञानता के कारण बुरा कहने लगेंगे।
गरीब नवाज़ यक़ीनन हकीकी दाई ए इस्लाम बन कर आए
लेकिन उनका तरीक तबलीग ऐसा ना था कि किसी की दिल आज़ारी हो या किसी को किसी किस्म
की ज़हनी तकलीफ पहुंचे। आप बिला इम्तियाज़ मज़हब व मिल्लत बे सहारों को सहारा दे रहे
थे, कमजोरों, गरीबों और समाज के पिछड़े
वर्गों को फलाह व बहबूद का रास्ता दिखला रहे थे। आप के अख़लाक़ ए हमीदा, औसाफे हँसना और फयुज़े बातिना से मुतास्सिर हो कर लोग खद बा खुद जुक दर जुक
इस्लाम में दाखिल हो रहे थे। यहाँ केवल यह अर्ज़ करना है कि जो ज़ाते गिरामी सरज़मीने
हिन्द को इंसानियत की आला कद्रों से रुश्नास करा रही थी और भारत के बासियों को
उनका भुला हुआ सबक अर्थात तसव्वुर ए तौहीद इलाही की याद दिला कर उनमें इंसानी
बराबरी, भाईचारा और इम्दादे बाहमी का पैगाम आम कर रही थी
उससे पुजारियों का आमादा पैकार होना एक काबिले मुज़म्म्त अमल था। हिन्दुओं की मज़हबी
किताब महाभारत में ऐसे लोगों के मज़हब की निंदा की गई है जो दुसरे धर्म की तबलीग को
रोकते हैं, महाभारत का श्लोक यह है:
धर्म यो बाधते धर्मो न स धर्म: कुधर्म तत-|
अवीरोधात तु यो धर्म: स धर्म: सत्यविक्रम – वन १३१.११
यही वह मज़हब है जो दुसरे मज़हब की तबलीग को
रोकता है वह अच्छा मज़हब नहीं है बल्कि बुरा मज़हब है, जो मज़हब
दुसरे मज़हब की तबलीग में रुकावट नहीं डालता वही सच्चा मज़हब है।
सुल्तानुल हिन्द का आखरी वक्त और सफर आख़िरत
की तैयारी
६३२ हिजरी के शुरू होते ही ख्वाजा बुज़ुर्ग को
इल्म हो गया कि यह आखरी साल ज़ाहिरी हयात का है और अनकरीब दुनिया से रुखसत हो कर
उक्बा की तरफ सफर करना है। चुनांचा आपने अपने गुलामों को आवश्यक हिदायतें और
वसीयतें करना शुरू कर दें। जिन लोगों को ख़िलाफ़त नहीं अता की थी उनकू इस दौलत से
सरफराज किया और सिलसिला ए चिश्तिया के बुजुर्गों से जो तबर्रुकात आपको मिले थे वह
अपने जांनशीन बाबा कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी को इनायत किये और खुदा के पास
पहुँचने के शौक में आपकी महवियत रोज़ बरोज़ बढ़ती गई। (हमारे ख्वाजा, पृष्ठ:८३)
हुजुर ख्वाजा गरीब नवाज़ का विसाले मुबारक
रजब की पांचवी तारीख ६३२ हिजरी इशा की नमाज़
के बाद जब ख्वाजा गरीब नवाज़ मामूल के मुताबिक़ हुजरे का दरवाज़ा बंद कर के खुदा की
याद में मशगूल हुए और हुजरे के करीब रहने वाले खुद्दाम (जिनकी औलाद आज हुकुके खिदमत
अंजाम दे रही है) रात भर आपके दर्द और ज़िक्र की आवाज़ सुनते रहे। सुबह होने से पहले
यह आवाज़ बंद हो गई। सूरज निकलने के बाद भी जब दरवाज़ा नहीं खुला तो खुद्दाम ने
दस्तकें दीं। फिर आखिर मजबूरन दरवाज़ा तोड़ कर अंदर दाखिल हुए और देखा कि आप खुदा के
पास पहुँच गए हैं। (सैरुल अक्ताब, उर्दू तर्जुमा, पृष्ठ: १५५, हमारे ख्वाजा, पृष्ठ:
३९)
साहबे सैरुल औलिया का बयान है कि जिस रात
ख्वाजा मुइनुद्दीन हसन संजरी ने वफात पाई थी कुछ बुजुर्गों ने हुजुर सल्लल्लाहु
अलैहि वसल्लम को ख्वाब में देखा कि हुजुर फरमा रहे हैं खुदा का दोस्त मुइनुद्दीन आ
रहा है। हम उसके स्वागत के लिए आए हैं। जब आप वफात पा गए तो आपकी पेशानी मुबारक पर
यह तहरीर नमूदार हुई हाज़ा हबीबुल्लाह माता फी हुब्बुल्लाह अर्थात खुदा के दोस्त ने
उसकी मोहब्बत में वफात पाई। (सैरुल औलिया, फ़ारसी, पृष्ठ:४८) इन्ना लिल्लाही व इन्ना इलैही राजेउन
ऐसी अबकरी शख्सियत जिनकी मुकद्दस ज़िन्दगी का
हर हर लम्हा याद खुदा में सर्फ हुआ हो भला उनकी तारीफ़ व तौसीफ हम ना चीजों से कहाँ
अदा हो सकती है मुख्तसर में उनके इस गोशा ए हयात से ही हमें जो कुछ मिला वही हमारे
लिए राह की मशअल बन सकती है अल्लाह पाक तमाम उम्मते मुस्लिमा को अपने मुहिब्बीन के
तर्ज़ हयात पर ज़िन्दगी गुज़ारने की अकलेसलीम अता फरमाए और बरोज़ हशर हमारा भी शुमार
उनके सच्चे पक्के गुलामों में करे। आमीन बजाह सैय्यदुल मुरसलीन।
मसादिर व मराजे (स्रोत)
१ सैरुल अक्ताब (फ़ारसी) शैखुल्लाह दिया
चिश्ती, नवल किशोर १८८१
२ सैरुल अक्ताब उर्दू तर्जुमा अज: मोहम्मद
मुइनुद्दीन दरदाई, नाशिर फरीद बुक डिपो देहली
३ सैरुल औलिया फ़ारसी: अज सैयद मोहम्मद मुबारक
अल्वी किरमानी अल मारुफ़ बअमीर खुर्द, उर्दू तर्जुमा डॉक्टर
अब्दुल्लतीफ़, मतबूआ देहली १९९०
४ सैरुल आरेफीन फ़ारसी: हामिद बिन फज़लुल्लाह
जमाली देहलवी
५ सैरुल आरेफीन उर्दू तर्जुमा अज: मोहम्मद
अय्यूब क़ादरी
६ सैर आलाम अल नबला, अल्लामा ज़हबी जिल्द ३
७ सीरत ख्वाजा गरीब नवाज़: अज अब्दुल रहीम
क़ादरी, मकतबा रहीमिया
८ अवारिफुल मआरिफ अरबी: शैख़ शहाबुद्दीन
सहर्वर्दी, दारुल क़ुतुब अल अरबिया, बैरुत १९६६
९ अवारिफुल मआरिफ उर्दू तर्जुमा: शम्स बरेलवी
१० अख्बारुल अखियार, शैख़ अब्दुल हक़ मुहद्दिस देहलवी
११ तारीखे मशाइख चीश्त, नदवतुल मुसन्नेफीन, उर्दू बाज़ार देहली
१२ हमारे ख्वाजा: मौलाना अब्दुल बारी माअनी
अजमेरी अलैहि रहमा, दसवीं इशाअत, १९९८
१३ तारीख ख्वाजा ख्वाजगान: प्रोफ़ेसर हाफ़िज़
सैयद मोहम्मद ज्याउद्दीन शम्सी तहरानी
URL for Urdu article: https://www.newageislam.com/urdu-section/urs-e-khawaja-ghareeb-nawaz/d/124356
URL: https://www.newageislam.com/hindi-section/urs-e-khawaja-ghareeb-nawaz/d/124381
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