सादिक रज़ा मिस्बाही, न्यू एज इस्लाम
२ मार्च, २०२१
बहुत सारे बरकात व फ़ज़ाइल से सजे रजबुल मरज्जब के महीने का
मरकज़ी हवाला यूँ तो मेराज का वाकया है जो इस महीने की २६ तारीख गुज़ार कर २७ वीं शब
में हमारे सबसे बड़े पैगम्बर और इतहास के सबसे महान इंसान हज़रत नबी ए रहमत
सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के साथ पेश आया और यूँ यह शबे मुबारक करार दी गई, लेकिन इस माहे
मुबारक का एक और हवाला भी है जिसे हम कुंडे की नयाज़ से जानते हैं। यह नियाज़ असल
में हज़रत इमाम हुसैन रज़ीअल्लाहु अन्हु के पड़पोते हज़रत इमाम जाफर सादिक रहमतुल्लाह
अलैह की अकीदत व मुहब्बत से इबारत है।
हमारे बहुत सारे भाई इस नियाज़ को बिदअत कहते हैं और इसका
एहतिमाम करने वालों को भी बिदअती कहते हैं। उनका कहना है कि यह नियाज़ असल में
रसूलुल्लाह के सहाबी हज़रत अमीर मुआविया रज़ीअल्लाहु अन्हु से अदावत (दुश्मनी) पर
आधारित है। शिया हज़रात इस सहाबी की वफात की ख़ुशी में हलवा पुरी पकाते हैं और नियाज़
करके ख़ुशी का इज़हार करते हैं। हालांकि एतेहासिक रिवायात इसकी नफी करती हैं क्योंकि
हज़रत अमीर मुआविया का विसाल ६ रजब को हुआ और कुंडे की नियाज़ का आगाज़ १२० हिजरी से
हुआ अर्थात पुरे ६० साल के बाद। असल में शक तारीख से पैदा हुआ है। यह नियाज़ २२ रजब
को दी जाती है और यही तारीख एक बयान के मुताबिक़ हज़रत अमीर मुआविया का विसाल का दिन
भी है। एतेहासिक तथ्य बताते हैं कि हज़रत अमीर मुआविया रज़ीअल्लाहु अन्हु का विसाल
६० सन हिजरी में हुआ है मगर उनकी विसाल की तारीख में बहुत मतभेद पाया जाता है।
किसी के नज़दीक एक रजब है, तो किसी के नजदीक ९ रजब, कोई १५ रजब को तारीखे विसाल मानता है तो कोई २२ रजब को, मगर सहीह बयान के मुताबिक़ विसाल की तारीख १५ रजब है, २२ रजब नहीं। इसलिए उल्लेखित एतेराज़ खुद बखुद दूर हो जाता है। और फिर मोटी
सी बात यह है कि अगर शिया हज़रात मजकुरा सहाबी ए रसूल की अदावत में उनकी तारीखे
विसाल पर नियाज़ करके ख़ुशी का इज़हार करते हैं। तो यह ख़ुशी का इज़हार उनके विसाल के
दिन और विसाल के सन अर्थात ६० हिजरी से ही क्यों ना शुरू हुआ, इसकी इब्तिदा पुरे साठ साल बाद १२० हिजरी से क्यों हो रही है। इन साठ साल
के दौरान खामोशी क्यों छाई रही?
यह बात दुरुस्त है कि किसी भी प्रमाणिक रिवायात से कुंडे की
नियाज़ की वास्तविकता साबित नहीं अलबत्ता इतना अवश्य है कि हज़रत इमाम जाफर सादिक के
किसी अकीदत मंद ने हज़रत से गुजारिश की कि अल्लाह पाक से मेरे लिए दुआ फरमा दीजिये
कि मेरा फलां काम हो जाए। औलिया अल्लाह की दुआएं अल्लाह की बारगाह में मकबूल होती
हैं। इसलिए जब इस अकीदत मंद का उद्देश्य पूरा हो गया तो वो जोशे अकीदत में नियाज़
का एहतिमाम करने लगे और फिर धीरे धीरे विसाल के बाद भी यह सिलसिला जारी रहा और अब
तक जारी है। जिस दिन हज़रत के अकीदत मंद ने कुंडे की नियाज़ का एहतिमाम किया था वह
२२ रजबुल मरज्जब था और इसी तरह रजबुल मरज्जब की २२ तारीख एक मामूल के तौर पर
यादगार हो गई। अब बताइए कि हज़रत अमीर मुआविया के विसाल से इसकी क्या मुनासिबत है?
कहा यह भी जाता है कि कुंडे की रस्म कोई सदी डेढ़ सदी पहले
अर्थात करीब १९०६ ई० में लखनऊ और रामपुर यूपी में शुरू हुई। इस दावे की कोई
एतेहासिक हकीकत नहीं मिलती। इस फ़ातिहा पर एक बहुत बड़ा एतिराज़ असल में इलाकाई रसूम
व रिवाज से हम आमेज़ होने की वजह से भी होता है। हमारे अवाम ने अपनी जिहालत और
अज्ञानता की बिना पर कुछ ऐसे तसव्वुरात बना कर रखे हैं जिनकी कोई असल नहीं और जो
केवल जिहालत पर आधारित हैं जैसे कल्पना कर लिया गया कि कुंडे की नियाज़ केवल कुंडे
में ही रख कर दी जा सकती है। कुंडे असल में मिटटी के बर्तन को कहते हैं। एक कल्पना
यह है कि कुंडे की नियाज़ को बाहर नहीं ले जाया जा सकता, उसे किसी और
बर्तन में रख कर नहीं खाया जा सकता या जहां कुंडे की नियाज़ हो वहाँ खाना वगैरा
नहीं खाया जा सकता। आदि। इस तरह के दुसरे अवधारणा और कार्य यक़ीनन बिदअत हैं। अधिक
से अधिक ऐसा करने वाले को आप “बिदअती” कह
सकते हैं मगर असल नियाज़ का एहतिमाम करने वाले क्यों कर बिदअती हो सकते हैं?
अगर उन्हीं अवधारणा और जिहालत पर आधारित आमाल को बुनियाद बना कर असल
चीजों का इनकार किया जाने लगे तब तो हमें बहुत सारी चीजों से हाथ धोना पड़ेगा। जैसे
कि शादी को लें। शादी में हमारे यहाँ क्या क्या नहीं होता। शादी में असल चीज तो
निकाह है मगर इस निकाह के नाम पर हमने ना जाने कितनी बे असल और गैर शरअ चीजें इजाद
कर रखी हैं जो बेशक जहल, बेहूदा रस्मों और गैर शरअ उमूर हैं
तो क्या केवल इन चीजों को बुनियाद बना कर असल हुक्म या असल रिवायते निकाह से इनकार
कर दिया जाए?
घटना यह है कि ज़माने की रफ़्तार और दीन से दूसरी की बिना पर
बहुत सारी चीजें हमने अपने अपने तौर पर इजाद कर रखी हैं। ऐसी सूरत में हमारा रोल
यह होना चाहिए कि हम बस दीन ए इस्लाम का एक उसूल हमेशा याद रखें। हमारे अवाम को भी
दीन का यह उसूल हमेशा याद होना चाहिए कि “जो चीज अल्लाह ने हलाल की है वह हलाल है,
जिसे हराम कहा है वह हराम है और जिसके बारे में खामोशी इख्तियार की
वह मुबाह है। “अर्थात अगर वह अच्छी नियत से किया जाए और
उसमें कोई गैर शरई मिलावट ना हो तो बेशक अच्छा काम है और नेकियों का सबब भी है। अब
सोचिये कि २२ रजबुल मरज्जब को की जाने वाली कुंडे की नियाज़ में अलग अलग मुकामात पर
जो चीजें पकाई जाती हैं मसलन टिकिया, पूरी, खीर, हलवा आदि। उनमें इस्तेमाल होने वाली चीजें मैदा,
चीनी, सूजी, दूध आदि
क्या गैर शरई हैं? इसमें पढ़ी जाने वाली सुरह फ़ातिहा, चारों कुल और दरूद शरीफ क्या कुरआन व हदीस से बाहर की कोई चीज हैं?
अपने किसी अज़ीज़ के इन्तेकाल पर हर कोई कुरआन ख्वानी का एहतिमाम करता
है, दरूद शरीफ पढ़ता या पढवाता है, इन्तेकाल
करने वालों को इसाले सवाब करता है। बिलकुल उसी तरह कुंडे या इस जैसी दूसरी नियाजों
में भी कुरआन ख्वानी होती है और साहबे निस्बत बुज़ुर्ग की रूह मुबारक को नज़र किया
जाता है। इसमें हराम और बिदअत कौन सी चीज है? असल में समझ
समझ की बात है और कुछ नहीं।
अब रहा यह सवाल हज़रत इमाम जाफर सादिक रहमतुल्लाह अलैह का
विसाल का दिन तो १५ रजब है मगर २२ रजब ही को क्यों? यक़ीनन नियाजें और इसाले सवाब किसी भी
तारीख को और किसी भी वक्त की जा सकती हैं, वक्त की हद कोई
आवश्यक बात नहीं। जो लोग केवल इसी पर ज़ोर देते हैं वह बेशक गलती करते हैं मगर एक
बात यह भी समझिये कि तारीखें बड़ी अहमियत रखती हैं। हम ज़्यादा दूर क्यों जाएं,
ज़्यादा गौर व फ़िक्र क्यों करें, हमें अपने
समाज, अपने माहौल और खुद अपनी ज़िन्दगी में ही झाँक कर इस
सवाल का जवाब मालुम करना चाहिए। हम आप सब एतेहासिक लम्हों को याद रखते हैं। अपने
और अपने बच्चों का बर्थ डे याद रखते हैं और अब तो बर्थ डे पर केक काटना ऐसा मामूल
बन चुका है कि उलेमा व दाइयों के रोकने से नहीं रुक रहा, शादी
की सालगिरह मनाते हैं, हमारे समाज की किसी बड़ी शख्सियत का
जिस दिन इन्तेकाल होता है तो वह दिन याद रखते हैं और अपने आने वालों को भी इसकी
तालीम देते हैं कि फलां बुज़ुर्ग को याद रखा जाए और उनकी शिक्षाओं को अपनी ज़िन्दगी
में उतारा जाए इसलिए आप हर साल विसाल के दिन पर सेमीनार आदि भी करते हैं और उन्हें
याद करते हैं इसलिए अगर कुछ लोग यह कहते हैं कि कुंडों की नियाज़ २२/ रजब को ना
करके १५ रजब को दी जाए जो हज़रत इमाम जाफर सादिक (पैदाइश: ८२ हिजरी- वफात १४९
हिजरी) की तारीखे विसाल है ताकि इससे शिया हज़रात की नक़ल ना हो सके। तो यह कहना भी
गलत है क्योंकि यादगार तारीखों की भी अपनी एक अहमियत होती है, इससे इनकार किसी भी तरह संभव नहीं।
अंत में एक बात यह भी समझ लेनी चाहिए कि कुंडों की नियाज़ के
लिए जरूरी नहीं कि कुंडे (मिटटी के बर्तन) हों, या टिकिया, खीर,
पूरी ही हो, असल चीज सवाब पहुंचाना और फातिहा है
और यही नियाज़ की रूह और असल है। फातिहा आप किसी भी चीज पर दे सकते हैं और इसाले
सवाब कर सकते हैं और अगर इसकी भी इस्तिताअत (सामर्थ्य) या मौक़ा नहीं तो कुरआन करीम
की आयतों और कलमाते दरुदे पाक पढ़ कर सवाब पहुंचा सकते हैं
sadiqraza92@gmail.com
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