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Hindi Section ( 7 May 2021, NewAgeIslam.Com)

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The Reality of Deobandi- Barelvi Dispute देवबंदी बरेलवी मतभेद की हकीकत

मौलाना नदीमुल वाजिदी

२८ जुलाई, २००९

मसलक के नाम पर हिंसा की रिवायत पाकिस्तान में है और वहाँ इस पर पुरे खुलूस के साथ अमल भी होता है अफ़सोस अब हमारे देश में भी हिंसा के जरिये मसलकी मतभेद को बढ़ावा देने की कोशिश शुरू हो गई है, हाल ही में रामपुर के कस्बा सेवार की मस्जिद के मामले में देवबंदी और बरेलवी मकातिब के मामले में देवबंदी और बरेलवी मकातिबे फ़िक्र के लोगों ने जिस तरह अपनी अपनी ताकत का प्रदर्शन किया है इससे हर मुसलमान का सर शर्म से झुक गया, मस्जिदें केवल अल्लाह की इबादत के लिए हैं, उनको मतभेद का केंद्र बनाना गलत ही नहीं बल्कि सख्त गुनाह भी है। हम जिस देश में रहते हैं वहाँ पहले ही से हमारे लिए ज़बरदस्त मुश्किलात और मसाइल हैं और दिन ब दिन इनकी संख्या बढ़ती ही जा रही है, क्या इन हालात में मसलक के नाम पर एक दुसरे की टांग पकड़ कर खींचना और एक दुसरे के खिलाफ थाना पुलिस करना मिल्लत के उलेमा ए दीन और अवाम को शोभा देता है, हम डेढ़ सौ साल से मस्लकी मतभेद की आग में झुलस रहे हैं, क्या यह आग कभी ठंडी नहीं होगी, पाकिस्तान की बात छोड़िये वह तो तबाही के रास्ते पर चल रहा है, क्या हम भी उसके साथ कदम से कदम मिला कर चलना चाहते हैं, अगर एक मस्जिद को दोनों मसलक के लोग अपनी मस्जिद स्वीकार कर लें और उसमें आज़ादी के साथ नमाज़ पढ़ें तो इसमें किसी का क्या नुक्सान होगा, मुझे तो इसमें भी कोई नुक्सान नज़र नहीं आता कि एक वह मिल्लत के हितों के लिए मसजिद की तवल्लियत और इमामत से दस्त बरदार हो कर उसे दुसरे ग्रुप के हवाले कर दे, अगर दोनों मस्लाकों के लोग इखलासे नियत के साथ मसले को हल करने के लिए बात चीत की मेज़ पर बैठेंगे तो कोई ना कोई हल अवश्य निकले गा, लाठी डंडा, थाना कचहरी किसी मसले का हल नहीं पहले हुआ और ना अब होगा, फिर किस लिए दोनों मसलक के लोगों को किसी साज़िश के तहत हिंसा का रास्ता दिखलाया जा रहा हो, मतभेद पर नज़र डालें तो हमारा खयाल केवल ख्याली ही नहीं बल्कि हकीकत नज़र आता है।

मतभेद खुद में कोई मज्मूम चीज नहीं, किसी इल्मी मामले में, किसी राजनीतिक या सामाजिक नज़रिए में किसी को कभी कोई मतभेद हो सकता है, मगर हर मतभेद के कुछ आदाब होते हैं और कुछ हुदूद होती हैं, अगर इन हुदूद व आदाब की रिआयत ना की जाए तो वह मतभेद मतभेद नहीं रहता बल्कि विवाद बन जाता है जिससे मना किया गया है और झगड़ा मत करो वरना तुम पस्त हौसला हो जाओगे और तुम्हारी हवा उखड़ जाएगी (अनफ़ाल- ४६)। इसके उलट वह मतभेद महमूद है जो इल्मी बुनियादों पर हो, माकूल हो, नियत के इखलास के साथ हो और जिसका उद्देश्य सामने वाले के खयाल की इस्लाह हो या अपने फ़िक्र की सुधार हो, इस्लाम के दौरे अव्वल से ही मुसलामानों में इस तरह के मतभेद कभी विवाद नहीं बने, मतभेद ही रहा, इख्तिलाफ विवाद की सूरत उस वक्त इख्तियार कर लेता है जब एक पक्ष दुसरे पक्ष पर झूटे सच्चे आरोप लगा कर उसे नीचा दिखलाने की कोशिश शुरू कर देता है, बहुत से मसाइल भिन्न नज़र आते हैं मगर कभी नहीं सूना गया कि किसी सहाबी ने दुसरे सहाबी को किसी मतभेद के कारण बुरा भला कहा हो, काफिर करार दया हो, फासिक व फाजिर कहा हो, यह मतभेद ही फिकह में मतभेद का आधार बना, इसी से चार मशहूर फिकही मकातिब रखने वाले हज़ारों फकीह शरई मसाइल में एक दुसरे से मतभेद करते हैं लेकिन किसी को इस्लाम के दायरे से बाहर नहीं करते और ना अपमान जनक अलकाब और ख़िताब से नवाजते हैं, एक मकतबे फ़िक्र के फुकहा में भी इख्तिलाफ आता है, इमाम मोहम्मद और इमाम अबू यूसुफ रहमतुल्लाह अलैह दोनों इमामे आज़म अबू हनीफा रज़ीअल्लाहु अन्हु के विशिष्ट शिष्यों में से हैं, कई मसाइल में उन्होंने अपने उस्ताद की राए से मतभेद किया है, कभी यह दोनों भी एक दुसरे से मतभेद करते नज़र आते हैं, मगर किसी ने नहीं देखा कि शागिर्दों ने अपने उस्ताद की बेअदबी की हो, या उस्ताद ने शागिर्दों को हिक़ारत की नज़र से देखा हो, या उन दोनों शागिर्दों ने एक दुसरे को नीचा दिखलाया हो, इल्मी तारीख में अल्लामा सखावी रहमतुल्लाह अलैह और अल्लामा जलालुद्दीन सुयूती रहमतुल्लाह अलैह की समकालीन चश्मक मशहूर है उन्होंने एक दुसरे के खिलाफ अपनी अपनी किताबों में काफी कुछ लिखा है, शैख़ अब्दुल कादिर जीलानी जैसे बुज़ुर्ग और सूफी जैसे मुहद्दिस, सुधारक और लेखक भी एक दुसरे से मतभेद करते नज़र आते हैं, नवाब सिद्दीक हसन खां कन्नौजी और मौलाना अब्दुल हई फिरंगी महली के इल्मी मुनाजरे भी किताबों के पन्नों पर मौजूद हैं मगर इन लोगों ने मतभेद को मतभेद ही रखा, झगड़े में परिवर्तित नहीं किया, उन्होंने फिरका आराई की और ना खिलाफे तहज़ीब जुबान इस्तेमाल करके अपने इल्मी कद को कोताह किया, यह चीज केवल देवबंदी बरेलवी मतभेद ही में देखने में आती है कि मतभेद ने तमाम हदों और कैद को पार कर के तकफीर इख्तियार कर लिया और तफ्सीक तक किसने पहुंचाया, देवबंदीयों ने या बरेलवियों ने? इस मुसलमानों के बीच मतभेद में गलती किसकी है देवबंदीयों की या बरेलवियों की?

बरेलवी मकतबे फ़िक्र के संस्थापक मौलाना अहमद रज़ा खां हैं उनका सियासी पसे मंजर यह है कि उनके बाप दादा अंग्रेजों के वफादार रहे हैं, यह वफादारी उनमें भी स्थानांतरित हुई, यही वजह है कि उन्होंने अपनी किताबों में अंग्रेजों की तारीफों के पुल बांधे हैं, जिहाद की निषेधता के फतवे दिए हैं, तहरीके ख़िलाफ़त और तर्के मवालात की मुखालिफत की है, उनका शैक्षणिक पृष्ठभूमि यह है कि वह मौलाना फजले रसूल बदायुनी के शागिर्द थे और उनका सिलसिला ए तलमद मौलाना फजले हक़ खैराबादी से था, यह दोनों उस्ताद शागिर्द इस्माइल शहीद और दुसरे बुज़ुर्गान देहली के सख्त तरीन मुखालिफ थे, यहाँ तक कि मौलाना फजले हक़ ने अपने असर व रसूख से काम ले कर जामा मस्जिद देहली में शाह इस्माइल शहीद का वाज़ बंद करवा दिया था, इन दोनों हजरात की फिकरी विरासत मौलाना अहमद रज़ा खां ने हासिल की, उनकी मज़हबी पृष्ठभूमि यह है कि उनका खानदान मज़हबन शिया था, उनके पर दादा काजिम अली खां ने अवध के शिया नवाब शुजाउद्दौला और अंग्रेजों के साथ मिल कर उस वक्त की सुन्नी रियासत रोहेल खंड को मिटाने में भरपूर किरदार अदा किया था, शीइयत का यह रंग मौलाना अहमद रज़ा खां पर ग़ालिब रहा और उनकी तहरीरों में भी पुरी तरह झलकता है, उनके उस्तादों में शिया उलेमा भी थे, हमने यह तीनों पृष्ठभूमि इसलिए बयान किये हैं ताकि उलेमा ए देवबंद से मौलाना अहमद रज़ा खां के इस शदीद मतभेद की असल वजह समझ में आ सके।

उलेमा ए देवबंद के संबंध में यह हकीकत अब इतिहास का हिस्सा बन चुकी है कि हज़रत शाह अब्दुल अज़ीज़ के फतावा जिहाद को अगर किसी ने अमली जामा पहनाने की कोशिश की तो वह उलेमा ए देवबंद ही थे, १८५७ ई० की तारीख जिहाद का एक एक बार उलेमा ए देवबंद के कारनामों से भरा पड़ा है, यह जिहाद नाकाम हुआ, मगर दारुल उलूम के कयाम के बाद फिर हुर्रियत वतन के लिए उलेमा ए देवबंद ने मोर्चा संभाला, कैद व बंद की तकलीफें बर्दाश्त कीं, आखिर में उनका संघर्ष इस्तिख्लासे वतन की सूरत में अपने अंजाम को पहुंची, मौलाना अहमद रज़ा खां क्योंकि अंग्रेजों के हामी थे इसलिए उन्हें उलेमा ए देवबंद का यह मुजाहेदाना किरदार सख्त ना पसंद था, हज़रत शाह अब्दुल अज़ीज़ और उनके खांदान के दुसरे बुजुर्गों और आलिमों से उलेमाए देवबंद का संबंध शागिर्दी और अकीदत का रहा और मौलाना अहमद रज़ा खां साहब का मौलाना फजले रसूल बदायुनी के शागिर्द होने की वजह से मुखालिफत का रहा है, यह वजह भी उलेमाए देवबंद से मतभेद के पृष्ठभूमि में बड़ी अहमियत रखती है। क्योंकि हज़रत शाह अब्दुल अज़ीज़ रहमतुल्लाह अलैह ने अपनी तकरीरों के जरिये शिया फिरके की सख्त मुखालिफत की थी और उनके अकीदों के राह में तोहफा इसना अश्रियाऔर अल सिर्रुल जलील फी मसअलतुल फुजैलजैसी किताबें लिखी थीं इस लिए शिया उनके सख्त मुखालिफ थे, उलेमा ए देवबंद ने भी शियों की मुखालिफत जारी रखी, इसलिए दारुलउलूम के संस्थापक नतीततुल इस्लाम हज़रत मौलाना मोहम्मद कासिम नानौतवी ने हदिया अल शियाफ्युज़े कासमियाइन्तेबाहुल मोमिनीनऔर अजूबा अरबईनऔर उनके दर्स हज़रत मौलाना अहमद गंगोही ने बिदाया अल शियाजैसी ठोस आलिमाना किताबें लिखीं, फितरी तौर पर मौलाना अहमद रज़ा खां उलेमा ए देवबंद के इस तर्ज़ और रुख से भी ब्राफर रख्ता हुए, मौलाना मोहम्मद कासिम नानौतवी की किताबें देख कर तो उन्होंने गुस्से में यह फतवा सादिर फरमाया: قاسمیہ لعلہم اللہ मलउन व मुर्तद हैं (फतावा रिजविया: ५/५९) और मौलाना रशीद अहमद गंगोही रहमतुल्लाह अलैह की किताब पढ़ कर यह इरशाद फरमाया इसे जहन्नम में फेंका जाए और आग इसे जला देगी और जुक अंतल अश्र्फुर्रशीद का मज़ा चखाएगी। (खालिसुल एनकाद अहमद रज़ा खां बरेलवी, पृष्ठ:६२)

यह दो बुनियादी अवामिल और मोहरिकात हैं जिन्होंने बरेलवी मकतबे फ़िक्र के संस्थापक मौलाना अहमद रज़ा खां को उलेमा ए देवबंद से दुश्मनी और बुग्ज़ व इनाद का रास्ता इख्तियार करने पर मजबूर किया और जब एक बार उन्होंने इस रास्ते पर कदम बढ़ा दिए तो फिर पीछे नहीं हटे बल्कि दिन बदिन उनके क़दमों की तेज़गामी में इज़ाफा ही होता रहा, यहाँ तक कि उन्होंने तफरीक बैनुल मुसलेमीन और तक्फिरुल मुस्लेमीन की ज़िम्मेदारी संभाल ली वह इस ज़िम्मेदारी की अदायगी के लिए कितने फ़िक्रमंद थे इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि किसी को काफिर करार देने के लिए अगर आपकी किताबों की इबारतों में उन्हें कता व बरीद भी करनी होती तो इससे भी दरेग नहीं फरमाते, मिसाल के तौर पर हज़रत मौलाना मोहम्मद कासिम नानौतवी रहमतुल्लाह अलैह का एक संक्षिप्त सा रिसाला है तह्जीरुन्नासइसमें सरकारे दो आलम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की खतमे नबूवत पर अकली दलीलें फराहम किये गए हैं, मौलाना अहमद रज़ा खां साहब ने इस किताब के पेज १४,२८,३ की इबारतों के कुछ हिस्से हज़फ करके बाकी मांदा हुसूल को मुसलसल इबारत बना दिया और इसकी बुनियाद पर हिजाज़ के उलेमा फतवा लेने मक्का और मदीना जा पहुंचे, मौलाना अहमद रज़ा खां ने जो नई इबारत बनाई वह निम्नलिखित है गो बिल फर्ज़ आप के ज़माने में भी कहीं और कोई नबी हो जब भी आप का खातिम होना बदस्तूर बाकी रहता है, बल्कि अगर मान लिया जाए कि बाद के जमाना ए नबूवत में भी कोई नबी पैदा हो तो भी खात्मियत मुहम्मदी में कुछ फर्क नहीं आएगा, अवाम के खयाल में रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का खातिम होना इस अर्थ में है कि आप सब में आखरी नबी हैं मगर अहम फहम पर रौशन कि तकद्दुम या तअख्खुर में बिलजात कुछ फ़ज़ीलत नहीं (हुसामुल हरमैन, पृष्ठ १०१) इस इबारत में आखरी जूमला अवाम का खयालअसल किताब में पृष्ठ ३ पर है, शुरू का जूमला: १४ पर है और दरमियानी जूमला पृष्ठ २८ पर है, मौलाना अहमद रज़ा खां ने इन तीनों जुमलों को एक मुसलसल इबारत की शकल दे दी जिससे यह गुमान होता है कि मौलाना मोहम्मद कासिम नानौतवी रहमतुल्लाह अलैह खात्मियत ज़मानी के मुफक्किर हैं, फिर इस इबारत का अरबी अनुवाद किया तो उसमें से शब्द बिलज़ात हज्फ़ कर के शब्द असलन बढ़ा दिया जिससे अर्थ कुछ के कुछ हो गए, उलेमा ए देवबंद की इबारतों में इस तरह तरमीम करके उन्होंने उलेमा ए नज्द व हिजाज़ से कुफ्र के फतवे हासिल किये और ख़ुशी ख़ुशी भारत लौटे, खुदा मालुम किसी ने उनसे पूछा भी या नहीं कि आखिर इन फतवों से उन्हें क्या मिला? मुसलमानों को दो खानों में बाँट कर उन्होंने इस्लाम की कौन सी खिदमत अंजाम दी?

दूसरी तरफ उलेमा ए देवबंद अपनी बराअत का इज़हार करते रहे, हज़रत मौलाना मोहम्मद कासिम नानौतवी रहमतुल्लाह अलैह ने फरमाया खात्मियत ज़मानी अपना दीन व ईमान है नाहक तोहमत का अलबत्ता कोई इलाज नहीं (जवाबात मह्ज़ुरात, पृष्ठ:२९) अपना दीन व ईमान है बाद रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम किसी और नबी का एह्तिमाल नहीं जो इसमें ताम्मुल करे उसे काफिर समझता हो (मकतुबात मौलाना मोहम्मद कासिम नानौतवी रहमतुल्लाह अलैह: १०३) इसी तरह मौलाना मोहम्मद रज़ा खां साहब बरेलवी ने कुतुबुल इरशाद हज़रत मौलाना रशीद अहमद गंगोही रहमतुल्लाह अलैह पर यह तोहमत लगाई कि वह अल्लाह पाक को झुटा कहते हैं, यह मसला इम्काने किज्ब के नाम से मशहूर है, इस सिलसिले में हज़रत मौलाना रशीद अहमद गंगोही रहमतुल्लाह की तरफ मंसूब एक जाली और मनगढ़त फतवे को बुनियाद बनाया गया है, हालांकि आज तक यह साबित ना किया जा सका कि वह फतवा कहाँ दिया गया, हिसामुल हरमैन पृष्ठ: १०२ पर मौलाना अहमद रज़ा खां ने इस फतवा का हवाला दिया और कहा कि मैं ने फतवा खुद देखा है, पृष्ठ २९ लिखा कि इस फतवा की असल पेश ना कर सके।

हज़रत मौलाना खलील अहमद साहब और हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना मोहम्मद अशरफ अली थानवी रहमतुल्लाह अलैह भी इस तकफीरी मुहिम से महफूज़ नहीं रह सके, मौलाना खलील अहमद पर उन्होंने आरोप लगाया कि वह शैतान के इल्म को हुजुर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के इल्म से ज़्यादा जानते हैं और हज़रत अशरफ अली थानवी रहमतुल्लाह अलैह के संबंध में यह कहा गया कि वह सरकारे दो आलम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के इल्म को जानवरों के इल्म के बराबर समझते हैं, मौलाना खलील अहमद अजीन्वी ने अपने उपर लगाए गए आरोपों का यह जवाब दिया कि मैं और मेरे उस्ताद ऐसे शख्स को काफिर और मुर्तद और मलउन कहते हैं जो कि शैतान अलैही लाअना को क्या बल्की किसी मखलूक को जनाब सरकारे दो आलम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से इल्म में ज़्यादा कहे, गर्ज़ खां साहब बरेलवी ने केवल इत्हाम और किज्ब खालिस बंदे की तरफ मंसूब किया है मुझको तो उमर के पुरे मुद्दत में इसका वस्वसा भी नहीं हुआ कि शैतान तो क्या कोई फरिश्ता और वली भी आपके उलूम की बराबरी कर सके और यह कि इल्म में ज़्यादा हो, हर अकीदा जो खां साहब ने मेरी तरफ मंसूब किया है उसका मुतालबा खां साहब से रोज़े जज़ा होगा मैं इससे बिलकुल बरी हूँ (फतावा दारुल उलूम देवबंद, २/४८) हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ अली थानवी रहमतुल्लाह अलैह ने फतवा तकफीर के जवाब में वजाहती रिसाला प्रकाशित कराया और इसे अपनी किताब हिफजुल ईमानका ज़मीमा बना दिया, उन्होंने लिखा कि यह खबीस लेख मैंने किसी किताब में नहीं लिखा और लिखना तो दरकिनार मेरे कल्ब में इस लेख का खतरा नहीं गुजरा जो शख्स ऐसा एतेकाद रखे या बिला एतिकाद सराहतन या इशारतन ऐसी बात कहे मैं उसको इस्लाम से बाहर समझता हूँ, मेरी और मेरे सब बुजुर्गों का अकीदा हमेशा से आप के अफजलुल मख्लुकात फी जमीउल कलिमात अल इल्मिया वल अमलिया होने के बाब में यह है: बाद अज बुज़ुर्ग तुई किस्सा मुख्तसर (फतावा दारुल उलूम देवबंद २/४८, ४९)

उन बुजुर्गों की तमाम तसरीहात और वजाहती इबारात के बावजूद बरेलवी तबका अब तक इस बात पर मुज़िर है कि उलेमा ए देवबंद ने कुफ्रिया इबारतें लिखी हैं और वह काफिर हैं, क्या यह इंसाफ की बात है, हालांकि वह लोग भी यह बात अच्छी तरह जानते हैं कि जो शख्स कुफ्रिया इलज़ाम की नफी करता हो उसे काफिर व मुर्तद नहीं कहा जाएगा। मौलाना अहमद रज़ा खां और उनके अनुयायियों ने केवल उन ही पर कुछ शख्सियतों को निशाना नहीं बनाया बल्कि कुछ इस तरह के फतवे भी उनके कलम से सादिर हुए वहाबी, कादियानी, देवबंदी, नेचरी, चकड़ालवी जूमला मुर्तदीन हैं (मलफुजात मौलाना अहमद रज़ा, १/८४)राफजी, तीजाई वहाबी देवबंदी, वहाबी गैर मुकल्लिद, कादियानी, चकड़ालवी, नेचरी इन सबके ज़बीहे हराम केवल नजिस मुरदार कतई हैं अगर चह लाख बार नामे इलाही लें और कैसे ही मुत्तकी परहेजगार बनते हों कि यह सब मुर्तदीन हैं “(अहकामे शरीअत १२२)वहाबिया पर लाज़िम है कि अपने हर हर फर्द को काफिर मानें इसका खुलासा यह निकला कि जैसे देहलवी व गंगोही व नानौतवी व थानवी यक़ीनन काफिर व मुर्तद हैं (अल इस्तिम्दाद अला अज्यालुल इर्तेदाद पृष्ठ, ५१) मौलाना अहमद रज़ा खां साहब बरेलवी को काफिर बनाने का इस कद्र शौक था कि उन्होंने अपने ज़माने की किसी मशहूर व मारुफ़ इल्मी व दीनी और सियासी शख्सियत को काफिर करार दिए बिना नहीं छोड़ा, सर सैयद, हाली, अल्लामा इकबाल, ज़फर अली खां, मोहम्मद अली जिनाह वगैरा हज़रात केवल इसलिए काफिर करार दिए गए कि उनका किसी ना किसी हैसियत से उलेमाए देवबंद या उनकी मादरे दर्सगाह मदरसा वली अलली से कोई रब्त ज़ब्त था (देखिये, तजानुब अह्लुल सुन्ना, मेहरे मुनीर वगैरा किताबें)

दूसरी तरफ उलेमा ए देवबंद जिन्होंने हमेशा उदारता और एहतियात का रास्ता इख्तियार किया है, उनके नज़दीक यह बात किसी तरह सहीह नहीं कि कायल की मुराद और उसके बयान कर्दा मानी मफहूम को नज़र अंदाज़ कर के उसकी किसी इबारत पर कुफ्र का हुक्म लगा दिया जाए वह किसी मुसलमान को काफिर नहीं कहते, बल्की ऐसा कहने वाले को गुनाहगार समझते हैं, मौलाना अहमद रज़ा खां और उनके अनुयायीयों के लिए दारुल उलूम का यह फतवा मौजूद है मौलवी अहमद रज़ा खां साहब बरेलवी के संबंधियों को काफिर कहना सहीह नहीं है बल्कि उनके कलाम में तावील हो सकती है और तकफीरे मुस्लिम में फुकहा ने बहुत एहतियात फरमाई है और यह लिखा है कि एक शख्स के कलाम में निन्यानवे वजूह (एह्तेमालात) कुफ्र के हों और एक वजह ज़ईफ़ इस्लाम की हो तो मुफ्ती को इस ज़ईफ़ वजह (एहतेमाल) की बिना पर फतवा देना चाहिए अर्थात उसको मुसलमान कहना चाहिए (फतावा दारुल उलूम ५५, २/५४)

बरेलवी उलेमा भी अब इस हकीकत को समझने लगे हैं कि कुफ्र साज़ी की एक मुहिम गैर जरूरी थी और इससे खुद उन्हीं को नुक्सान हुआ है, एक बरेलवी आलिम का यह बयान आज का गंभीर इंसान इस तरफ रुख करने से झिझकता है, आम तौर पर इमाम अहमद रज़ा खां के संबंध में मशहूर है कि वह मुकफ्फेरुल मुस्लेमीन (मुसलमानों को काफिर करार देने वाले) थे, बरेली में उन्होंने कुफ्र साज़ मशीन नसब कर रखी थी “(माहनामा अल मीज़ान बंबई अहमद रज़ा खां नंबर २९) बरेलवी उलेमा इस हकीकत का एतेराफ भी करते हैं कि इस तरह के फतवों और तबसिरों की वजह से बरेलवियत जाहिलों में सिमट कर रह गई (देखें अल मीज़ान अहमद रज़ा नंबर २८_२९, फाज़िले बरेलवी और तरके मवालात पृष्ठ:५)

मौजूदा सूरते हाल यह है कि बरेलवी हज़रात आज तक इसी तकफीर मुहिम में लगे हुए हैं, जब यह लोग अपनी तकरीरों में और तहरीरों में देवबंदियों को खुल्लम खुल्ला मुर्तद और काफिर कहेंगे तो सेवार जैसी सूरते हाल अवश्य पैदा होगी, अगर पुराने फतावा दरकिनार कर दिए जाएं और केवल अपने काम से काम रखा जाए तो सेवार ही नहीं पुरे देश में हालात मामूल पर आ सकते हैं, इस वक्त दीन की हिफाज़त और इसका बचाव बुनियादी काम है, इफ्तेराके उम्मत और इन्तेशारे मिल्लत की इस मुहिम से इस काम में रख्ना पड़ रहा है, क्या बरेलवी उलेमा ने कभी इस गंभीर समस्या पर भी गौर व फ़िक्र किया है?

(उर्दू से अनुवाद , न्यू एज इस्लाम)

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