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The Philosophy of the Veil in Deen-e-Hanfiah इस्लाम में हिजाब, मसलेहत और तकाज़ें

मौलाना नादीमुल वाजदी

१३ जुलाई. २००९

खबर है कि फ्रांस में हिजाब पर प्रतिबंध लगाई जा रही है, संसद में राष्ट्रपति निकोलस सरकोजी ने मुस्लिम महिलाओं के हिजाब के खिलाफ बहुत भड़काऊ तकरीर की है, यह जानते हुए कि मुस्लिम महिलाएं हिजाब को इस्लामी शरीअत की चेतावनी की वजह से पहनती हैंउन्होंने प्रतिबंध का पुरजोर समर्थन करते हुए कहा: "हिजाब गुलामी और अपमान का प्रतीक है। हिजाब पहनने वाली महिलाएं सामाजिक जीवन से वंचित हैं। इससे पहले फ्रांस सरकार ने स्कूलों में धार्मिक प्रतीक के प्रयोग पर प्रतिबंध लगा चुकी है। फ्रांसीसी मुस्लिम महिला छात्रों द्वारा अपने सिर को ढंकने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले स्कार्फ को निशाना बनाया गया। एक ऐसा विषय है जिस पर इस्लाम की हमेशा आलोचना की गई है। इस आलोचना का नतीजा यह है कि मुस्लिम पुरुष खुलेआम घूमते हैं और अपनी महिलाओं को घरों में कैद कर देते हैं। यहाँ तक कि अगर  वे घर से बाहर निकलना चाहती हैं तो उन्हें अपने पूरे शरीर को सिर से पैर तक छुपाना पड़ता है। यह मानवता के आधे हिस्से के लिए क्रूरता नहीं है तो क्या है? यह तो गैर हिजाब का मामला है और इससे क्योंकि महिलाओं का सीधे संबंध है जिनके सिलसिले में पश्चिमी कौम और हिंसावादी कुछ अधिक ही रहम दिलसाबित हुए हैं वरना हक़ बात तो यह है कि उनको तो इस्लाम के किसी हुक्म में भी कोई टोपी नज़र नहीं आई। यहाँ तक कि उनकी आँखों में तो मर्दों की दाढ़ी भी चुभती है, पिछले दिनों भारतीय न्यायपालिका के एक जज साहब ने दाढ़ी को आलोचना का निशाना बनाया था और उन्होंने एक छात्र की मर्जी पर कह कर खारिज कर दिया था कि भारत में तालिबानिज्म की कोई गुंजाइश नहीं है, उन्हीं जज साहब ने यह भी कहा था कि कल कोई लड़की हिजाब का हक़ प्राप्त करने के लिए अदालत का दरवाज़ा खटखटाएगी। भारत के सम्माननीय जज की यह रूलिंग असल में उसी लम्बी और गहरी साज़िश का शाखसाना है जो पश्चिम से पूरब तक हर जगह जारी है।

११ सितंबर के बाद अहकाम के हवाले से पश्चिम की अवामी सूरत में काफी परिवर्तन हुई है। मुसलमान अपने धर्म की तरफ सिमट रहे हैं, गैर मुस्लिमों को इस धर्म से गहमा गहमी पैदा होने लगी है इस्लाम कुबूल करने की घटनाएं अधिक पेश आ रही हैं, एक अंदाज़े के अनुसार इस्लाम कुबूल करने वालों में अधिकतर महिलाएं हैं, उनमें भी एक बड़ी संख्या उन महिलाओं की है जो इस्लाम के हुक्म ए हिजाब से प्रभावित हो कर इस्लाम में दाखिल हुई हैं, पन्द्रह साल पहले उन देशों में इत्तेफाकन ही कोई औरत ऐसी नज़र आ जाती थी जिसने हिजाब से अपना बदन छिपा रखा हो, अब यह कसरत इस तरह की महिलाऐं सार्वजनिक स्थानों पर नज़र आने लगी हैं, इस स्थिति से पश्चिमी नेताओं के हवास फाख्ता हो गए हैं, हिजाब की इस आंधी ने उनके दीवानों में ज़लज़ला पैदा कर दिया है, फ्रांस के राष्ट्रपति का यह मूर्खतापूर्ण बयान उसी हवास बाख्तगी का गुम्माज़ है वरना बैठे बैठाए इस तरह का सख्त फैसला लेने की आवश्यकता ही नहीं थी, कोई उसने पूछे कि आखिर हिजाब से फ्रांस की सरकार या जनता को किस प्रकार का खतरा है, अगर यह कदम महिलाओं के अधिकारों की सुरक्षा के लिए उठाया जा रहा है तो अमल व इंसाफ का तकाजा यह है कि पहले पश्चिमी कौमें महिलाओं को वह इज्ज़त, वकार और सम्मान दें जो इस्लाम ने उन्हें प्रदान किया है, फिर महिलाओं के अधिकारों की बात करें क्या यह हकीकत नहीं है कि पश्चिमी समाज में औरत केवल शो पीस है या एक लैंगिक खिलौना है असल में बात यह है कि पश्चिम में अभी तक मर्दों का वर्चस्व है वह बराबरी का कितना भी दावा करें मगर हकीकत यही है कि मर्द अपनी लैंगिक आवश्यकताओं की स्वतंत्र पूर्ति के लिए और अपने दिल व नज़र को हुस्न बे हिजाब से आनंदित रखने के लिए औरतों को बे हिजाब बल्कि बे लिबास ही रखना चाहता है, उन्हें यह डर है कि अगर हिजाब का चलन इसी तरह बढ़ता रहा तो यह गैर मुस्लिम महिलाओं में भी स्वीकृत हो जाएगा, क्योंकि उन्हें बहुत जल्द यह अंदाजा हो जाएगा कि हिजाब उसके लिए सुरक्षा का ही माध्यम नहीं है बल्कि वकार का ज़ामिन भी है, इस तरह उनकी मनोरंजन का सामान और लैंगिक इच्छाओं की पूर्ति का माध्यम निगाहों से ओझल हो जाएगा बल्कि उनकी हाथ से निकल जाएगा।

पश्चिमी देशों में फ्रांस सभ्यता और संस्कृति के एतेबार से कुछ अधिक ही आज़ाद खयाल देश है, इसे फैशन की दुनिया कहा जाता है, और मौजूदा दौर में फैशन नग्नता और निर्वस्त्रता का दुसरा नाम है, इस देश में फैशन के नाम पर जिस्म की नुमाइश का सिलसिला बरसों से जारी है, वह औरत अत्यंत खुबसूरत और बा कमाल कल्पना की जाती है जो कम से कम कपड़ों में जिस्म के अधिक से अधिक जिस्म नुमाया कर सके, लाखों भूखी निगाहें उन शारीरिक सुंदरता पर केन्द्रित रहती हैं, फैशन शो के लिए बनाए गए विशेष प्लेटफ़ॉर्म से गुजरने वाली हर खातून की शारीरिक हरकतें उनकी आँखों में भी कैद हो जाती हैं और उन कैमरों में भी जिनके माध्यम से यह हुस्न व इश्कवाले दृश्यों का लाइव  टेलीकास्ट कर के उन करोड़ों शौकीनों और नज़ारा करने वालों को दिखाए जाते हैं, यह है वह इज्जत और वकार जो पश्चिमी महिलाओं को अता किया जा रहा है और यह है वह आज़ादी जिसका ढिंढोरा पिटा जा रहा है, इस नग्नता से तो देश के राष्ट्रपति को किसी भी हालात में यह गवारा नहीं हो सकता कि उनके देश की कुछ महिलाएं अपने जिस्म को छिपा कर रखें, और पर्दे में रह कर अपनी ज़िन्दगी गुजारें, निकोलस सरकोजी के बारे में बदकिरदारी की बहुत सारी दास्तानें मशहूर हैं, उन्होंने अपनी छात्रावस्था से ले कर आज तक जब कि वह चौवन साल के हो चुके हैं अनेकों मुआश्के किये हैं, कुछ इश्क के नतीजे में उनकी शादी भी हो चुकी है, कुछ नए आशिकी के चक्कर में उनकी कई शादियाँ असफल हो गई हैं, पिछले वर्ष उन्होंने एक प्रसिद्ध मॉडल और गायकार से शादी की थी, फ्रांस के अवाम अपने सदर के इस किरदार (बदकिरदारी) को अच्छी नज़र से देखते हैं जब ही तो वह सदारत की गद्दी पर बैठे हैं, जिस देश का सदर ऐसा हो वहाँ हिजाब को कैसे बर्दाश्त किया जा सकता है जो पवित्रता का प्रतीक है, जो समाज शादी के बिना मियाँ बीवी की हैसियत से रहने वाले बच्चे पैदा करने में कोई आर ना समझता हो जिस समाज में लैंगिक तकाज़ों की पूर्ति पर कोई पहरा ना हो तो वह समलैंगिक की शकल में क्यों ना हो और जहां औरत को नंगा देखना ही सभ्यता का मेराज समझा जाता हो, वहाँ सर से पाँव तक कपड़ों में छुपे बदन कैसे बर्दाश्त किये जा सकते हैं।

हिजाब पर पाबंदी के सिलसिले में यह प्रोपेगेंडा बड़े शिद्दत के साथ किया जा रहा है कि इससे मुसलमान औरतों की आज़ादी पर फर्क पड़ता है और यह कि हिजाब गुलामी और जिल्लत की निशानी है, सवाल यह है कि वस्त्र पर पाबंदी को क्या कहें गे, क्या इससे किसी की आज़ादी पर फर्क नहीं पड़ता, ख़ास तौर पर उस समय जब कि इस लिबास का धर्म के साथ संबंध भी हो, फ्रांस एक लोकतांत्रिक देश है, लोकतंत्र में नागरिकों को जो अधिकार दिए गए हैं उनमें एक हक़ यह भी है कि है व्यक्ति अपनी पसंद की ज़िनदगी गुज़ार सकता है, लेकिन शर्त यह है कि उससे किसी दुसरे की आज़ादी प्रभावित ना हो, देखा जाए तो हिजाब पर पाबंदी से व्यक्ति का यह हक़ बुरी तरह पामाल हो रहा है, ख़ास तौर पर उस स्थिति में जब कि उस हक़ के प्रयोग से किसी दुसरे की आज़ादी पर कोई फर्क नहीं पड़ रहा है, समाज के व्यक्तियों का किरदार प्रभावित हो रहा है, और बच्चों और युवाओं में ख़ास तौर पर बे राहरवी बढ़ रही है, यह अजीब बात है कि नग्नता को मूल अधिकार कहा जा रहा है, और तन छुपाने को बुनियादी हक़ की खिलाफवर्जी कहा जा रहा है हालांकि हिजाब प्रयोग करने वाली महिलाएं इसे अपना बुनियादी हक़ समझती हैं और इसे इस्तेमाल कर के खुश हैं, ना केवल यह कि खुश हैं बल्कि इसमें अपने लिए सुरक्षा भी अनुभव कर रही हैं और इसे सम्मान का कारण भी समझ रही हैं।

हिजाब पर पाबंदी वहाँ लगाई जा रही हैं जहां पहले ही से ईसाई ननों और बच्चों को सर ढांप कर रहने और ढीला ढाला लिबास पहनने की अनुमति हासिल है और उनके इस लिबास को धार्मिक पवित्रता का प्रतीक समझा जाता है, उस समाज में मुस्लिम महिलाओं को उनके धार्मिक लिबास से किस तरह वंचित किया जा सकता है, पश्चिम का जातीय भेदभाव नहीं है और क्या इस पाबंदी के माध्यम से वह धर्मों की महिलाओं के बीच अंतर नहीं बरती जा रही है, अगर नग्नता ही आज़ादी है और बेलिबासी ही वकार व सम्मान है, और नंगे बदन घूमना फिरना ही अधिकारों की रक्षा है तो कंवारी मरियम (अलैहिस्सलाम) की ख्याली तस्वीर के सर पर स्कार्फ और बदन पर लिबास क्यों है, सबसे पहले तो सदर सरकोजी को इस प्रतीकात्मक फोटो के बारे में सोचना चाहिए फिर उन ननों के स्कार्फ और ढीले लिबास पर पाबंदी लगानी चाहिए, जो फ्रांस सहित सभी पश्चिमी देशों में फैली हुई हैं, हमें पता है सदर निकोलस सरकोजी ऐसा नहीं कर सकते, क्योंकि ऐसा करने से दुनिया ए इसाइयत में उनके खिलाफ तूफ़ान खड़ा हो जाएगा, हकीकत यह है कि नग्नता धार्मिक शिक्षा नहीं है और ना किसी लोकतंत्र का कानून है, यह केवल इस्लाम दुश्मनी है और इस दुश्मनी का कारक वह डर है जो इस्लाम के बढ़ते हुए प्रभाव के नतीजे में पश्चिमी देशों के सत्ताधाती वर्ग में पैदा हो रहा है।

सदर निकोलस सरकोजी का यह बयान अज्ञानता पर आधारित है कि हिजाब कोई धार्मिक आदेश नहीं है, यह ऐसा ही है जैसे भारतीय सुप्रीम कोर्ट के सम्मानित जज माकंडे ही ने दाढ़ी ना रखने वाले मुसलमानों की अक्सरियत को देख कर यह राय कायम कर ली थी कि दाढ़ी रखना धार्मिक फरीज़ा नहीं है, इस मौके पर भी कहा गया था और इस मामले में भी कहा जाएगा कि किसी चीज की फर्जियत और उस पर अमल करना दोनों अलग अलग चीजें हैं, कितने ही लोग हैं जो राष्ट्रीय कानून पर अमल नहीं करते, क्या उनके अज्ञानता की वजह से कहा जाएगा कि यह कानून सिरे से मौजूद ही नहीं हैं, इसी तरह दाढ़ी और हिजाब जैसे मामलों में, इस्लाम में इनको आवश्यक करार दिया गया है, हो सकता है कुछ लोग शरीअत के इन अह्कामों पर अमल ना करें, उनके अनजान होने से यह अहकाम साकित नहीं होंगे, अगर कुछ लोग अमल कर रहे हैं तो वह धर्म के अहकाम पर अमल कर के अपना धार्मिक फरीज़ा अदा कर रहे हैं और जो लोग अमल नहीं कर रहे हैं वह अपने धर्म के अह्कामों पर अमल ना करने के मुजरिम हैं। जहां तक हिजाब का संबंध है यह एक शरई हुक्म है जो किताब व सुन्नत की स्पष्ट नुसूस से साबित है इस सिलसिले में कुरआन करीम की सात आयतों और रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की सत्तर रिवायतों में मौजूद हैं, पर्दे का हुक्म उस मसलों में से है जिन पर मुस्लिम उम्मत का इज्माअ रहा है, सहाबा और ताबईन रहमतुल्लाह अलैह और बाद के ज़माने में कोई सोच भी नहीं सकता था कि औरतों के लिए पर्दा नहीं है, लेकिन तशद्दुद पसंदी के इस दौर में पहले कुछ तथाकथित मुसलमान बुद्धिजीवियों ने और पश्चिमी सभ्यता के चाहने वालों ने परदे की मशरुइयत पर सवाल उठाने शुरू कर दिए हैं, फ्रांस के सदर का हिजाब विरोधी बयान भी इस परिदृश्य में देखा जाना चाहिए।

जाहिलियत के ज़माने और प्रारम्भिक इस्लाम में लोगों की यह आदत थी कि वह एक दुसरे के घरों में किसी इजाज़त और रोक टोक के बिना चले जाया करते थे, सरकार दो आलम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के घर भी इससे अलग नहीं थे, अल्लाह ने इस उम्मत के हक़ में इस आदत को गैरत के खिलाफ करार दिया और इस पर पाबंदी लगा दी और इस सिलसिले में जो आदेश नाज़िल हुआ, मुफ़स्सेरीन के इत्तेफाक से वही हिजाब की फर्जियत का सबसे पहला हुक्म है, सुरह अहज़ाब की यह लम्बी आयत कई अहकाम व आदाब पर आधारित है, फरमाया (ऐ ईमान वालों अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के घरों में बिना इजाज़त मत जाया करो, वहाँ अगर तुम्हें खाने के लिए आने की इजाज़त दी जाए तब कोई हर्ज नहीं मगर उस समय खाने के मुन्तजिर मत रहो, और जब तुम्हें बुलाया जाए तो तब जाया करो, फिर जब खाना कहा चुको तो उठ कर चले जाया करो और बातों में मशगूल हो कर मत बैठा करो इससे रसूलल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को नागवारी होती है, और तुम्हारा लिहाज़ करते हैं और साफ़ बात कहने में किसी का लिहाज़ नहीं करता और आइन्दा बिन (अज़्वाजे मुतहरात) से कोई चीज मांगों तो परदे के पीछे मांगो यह बात तुम्हारे और उनके दिलों के पाक रहने का अच्छा ज़रिया है” (अल अहजाब:५३) इस आयत में हालांकि उल्लेख अज़्वाजे मूतहरात का है, मगर मुफस्सेरीन का इस बात पर इजमाअ है कि हुक्म आम है और इसमें सारे मुसलमान औरतें शामिल हैं, इस आयत के माध्यम से अल्लाह पाक ने हिजाब को फर्ज़ करार दिया है इससे पहले औरतों के लिए हिजाब जरूरी नहीं था, आयते करीमा में हुक्म हिजाब की जो वजह बयान की गई है कि हिजाब तुम्हारे और उनके दिलों की तफ़सीर का बेहतरीन ज़रिया हैइस इल्म की इल्मियत भी है और इसकी उमुमियत की वाजेह दलील भी कि जब अज़वाज ए मूतहरात जैसी पाकबाज़ और नेक दिल महिलाओं और फरिश्तों जैसी जमात सहाबा के दिलों की पाकीज़गी और तहारत के नए हिजाब को जरूरी करार दिया जा रहा है तो आम मुसलमान इस हुक्म पर अमल के ज़्यादा पाबंद होने चाहिए, क्योंकि बेहिजाबी की वजह से उनके दिलों को आलूदगी का खतरा अधिक है और वह ताबीर के अधिक जरूरतमंद हैं।

इस हकीकत से इनकार नहीं किया जा सकता कि मर्दों का आज़ादाना इख्तेलात (गैर मर्द और औरतों का मेल मिलाप) बहुत सारी बुराइयों का दरवाज़ा खोलता है, खुली आँखों इस का अवलोकन किया जा रहा है, अश्लीलता के जीतने भी घटनाएँ पेश आ रही हैं उनमें से निन्यानवे प्रतिशत घटनाओं का कारण यही है कि मर्द और औरत बिना परदे के एक दुसरे से मेल जोल कर रहे हैं, इस्लाम में बुराइयों के खात्मे का एक पूरा वजूद है, इस प्रणाली में सबसे पहले औरतों, मर्दों के आपसी रब्त ज़ब्त पर ही पाबंदी लगाई गई है, कुरआन करीम में कहीं यह हुक्म दिया गया है कि अगर मुसलमान मर्दों को अज़्वाजे मुतहरात से कुछ मांगना हो या पूछना हो तो पर्दे के पीछे से सवाल करें, किसी जगह यह हुक्म दिया गया है कि वह (अज़्वाजे मुतहरात) घरों के अंदर हैं और जिस तरह जाहिलियत के दौर में बिना हिजाब घुमती थीं उस तरह मत फिरा करें, किसी जगह मुसलमान औरतों और मर्दों को इस बात का पाबंद किया गया है कि वह अपनी निगाहों को नीची रखें, कहीं इस्लाम की औरतों को यह नासिःत की गई है कि अगर किसी वजह से अजनबी मर्दों से बात चीत की नौबत आ जाए तो नर्म लहजा इख्तियार ना करें, बल्कि सपाट और सख्त लहजे में बात करें ताकि विपरीत लिंग को अनावश्यक तौर पर बात बढ़ाने का हौसला ना हो।

हिजाब की आयत के नुज़ूल के बाद यह सवाल पैदा हुआ कि घरों में औरतें हर समय कैद नहीं रह सकतीं, उन्हें किसी जरूरत के तहत घर से बाहर भी निकलना पड़ सकता है, इस सिलसिले में वह आयत नाज़िल हुई जिसमें शरई हिजाब का विवरण बयान किया गया है, इरशाद फरमाया ऐ नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम आप कह दीजिये अपनी बीवियों, बेटियों और मुसलमानों की औरतों से कि वह अपने उपर थोड़ी सी चादर ही लगा लिया करें, इस तरह वह इस बात से करीब हो जाएंगी कि पहचान ली जाएं और कोई उन्हें सताए” (अल अहज़ाब:५९) आयत हिजाब के सिलसिले में बुनियादी अहमियत की हामिल आयत है क्योंकि इसमें सबसे ख़िताब है, केवल अज़्वाजे मूतहरात ही को मुखातिब नहीं बनाया गया है बल्कि मुसलमान महिलाओं को भी इस हुक्म का पाबंद बनाया गया है, दूसरी अहम बात यह है कि इस्मने पर्दे की प्रकृति भी स्पष्ट कर दी गई है, आम तौर पर यह गलत फहमी फैली हुई है कि पर्दा केवल सर और बदन का है चेहरा इस हुक्म में दाखिल नहीं है, इस आयत के माध्यम से सपष्ट कर दिया गया कि चहरे का भी पर्दा है, यहाँ एक शब्द प्रयोग किया गया है जलबाबयह शब्द लुगत के एतिबार से ढांपने का मफहूम रखता है, प्रसिद्ध आलिम अल्लामा इब्ने मंज़ूर ने इस शब्द की तहकीक में लिखा है कि जलबाबउस चादर को कहते हैं जो खुद को छिपाने के लिए सर से पाँव तक ओढ़नी है, यह भी कहा गया है कि जलबाब उस चादर को कहा जाता है जो उसे पूर्ण रूप से छिपा दे इस मफहूम के लिए एक शब्द है (लिसानुल अरब माद्दा जलब)।

अगर जिल्बाब के शाब्दिक अर्थ से नज़र हटा भी लिया जाए तब भी आयत से परदे का यही मफहूम निकलता है कि औरतें अपना चेहरा छिपाएं क्योंकि आयत में हिजाब करने का जो परिणाम बयान किया गया है उससे यही साबित होता है और वह परिणाम यह है कि चादर में लिपट कर वह छिपाई नहीं ना जा सकें, ज़ाहिर है अगर चेहरा खोला हुआ है तो कोई भी औरत सर से पाँव तक कितनी ही चादरें ओढ़ लें हर हालत में पहचान ली जाएगी, सहाबा रज़ीअल्लाहु अन्हु कुरआनी मरावात को अधिक समझते थे, क्योंकि उन्होंने सीधे दर्सगाहे नबूवत से शिक्षा प्राप्त की थी, इस सिलसिले में हज़रात अब्दुल्लाह इब्ने अब्बास से मरवी है कि इस आयत में मुसलमान औरतों को यह आदेश दिया गया है कि जब वह किसी आवश्यकता के तहत घर से बाहर निकलें तो अपनी चादरों से अपने सरों और चेहरों को इस तरह छिपा कर निकलें कि उनकी केवल एक आँख खुली रहे (फतहुल्लाह यरलकोश काफी: ३०७/७) सारे मुफ़स्सेरीन ने इस आयत की तफ़सीर करते हुए हिजाब की जो कैफियत बयान की है उसमें उन्होंने सर पेशानी और चेहरे सबको शामिल किया है, के वल एक आँख या दोनों आँखें खुली रखने की इजाज़त दी है इस हिजाब के तर्ज़ को घुंघट से ताबीर किया जाता है, आज कल निकाब इस आवश्यकता की पूर्ति कर रहा है, इसमें बारीक कपड़े की एक जाली आँखों के सामने लगाई जाती है, महिलाएं इस जाली के ज़रिये आसानी के साथ रास्ता देख कर चल सकती हैं।

अनेकों हदीसों में पर्दे की यह कैफियत बयान की गई है, और इसका इतना एहतिमाम किया गया है कि हालते एहराम में भी इसका लिहाज़ रखा गया है, हज़रात आयशा सिद्दीका फरमाती हैं कि (हज के दिनों में) हम सरकार दो आलम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के साथ एहराम की हालत में होती जब भी गुजरने वाले हमारे सामने से गुजरते तो हम अपनी चादरें सरका कर चेहरे पर डाल लिया करते थे, जब वह लोग आगे बढ़ जाते तो हम अपनी चादरें उपर कर लेते (अबू दाउद: २५४/१) इस विस्तार से मालुम हुआ कि जो लोग हिजाब में चेहरे को शामिल नहीं करते वह गलती पर हैं केवल सर पर स्कार्फ बाँध लेने से परदे की आवश्यकता पुरी नहीं होती, हज़रत अब्दुल्लाह बिन मसूद ने सरकारे दो आलम का यह इरशाद नक़ल किया है कि औरत परदे में रहने वाली चीज है, जब वह बाहर निकलती है तो शैतान उसे बहकाने लगता हैयह झाँक तांक उसी समय संभव जब चेहरा खुला हुआ हो, हालांकि छिपा हुआ होगा तो झाँकने वाला क्या झांकेगा, आज कल श्यातीने इंस (शैतान इंसान के रूप में) इसी झाँक तांक में लगे हुए हैं, अनुभव यह बताता है कि बेपर्दा महिलाओं के मुकाबले में पर्दा वाली महिलाएं उन श्यातीन की झाँक तांक और इज्जतों से अधिक सुरक्षित हैं इस्लाम के फुकहा ने भी औरत के चेहरे को भी हिजाब में शामिल किया है (आईनी इब्ने क्दामा: ४९८/९)

सरकारे दो आलम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की पाक ज़िन्दगी में आम सहाबियात (औरतों) का मामूल यह रहा है कि वह परदे का बड़ा एहतिमाम करती थीं, यहाँ तक कि सरकारे दो आलम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की खिदमते अकदस में हाज़िर हो कर कुछ अर्ज़ करना होता या कोई चीज लेनी देनी होती तब भी वह पर्दा करतीं, या परदे के पीछे रह कर बात करतीं हज़रात आयशा सिद्दीका रिवायत करती हैं कि एक औरत के हाथ में पर्चा था उसने आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की खिदमत में पेश करने के लिए हाथ बढाया आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने पर्चा नहीं लिया, बल्कि इरशाद फरमाया, पता नहीं यह औरत का हाथ है या मर्द का (अबू दाउद: ४७५/२ सैंड अहमद इब्ने हम्बल: २६२/६) इस रिवायत से साबित होता है कि सहाबियाते रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम में अगर किसी जरूरत से हाज़िर भी होतीं तो पर्दे के पीछे बैठा करती थीं, इसी तरह एक सहाबी कैस बिन शमास रिवायत करते हैं कि एक औरत जिनका नाम उम्मे खुला था सरकारे दो आलम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की खिदमत में निकाब लगा कर हाज़िर हुईं और अपने बेटे के संबंध में मालूमात करने लगीं उनका बेटा किसी गजवे में शहीद शहीद हो गया था, किसी सहाबी ने कहा कि तुम (रंज व गम) इस हालत में भी नकाब लगा कर आई हो, उन्होंने कहा कि मैंने अपना बेटा खोया है, शर्म नहीं खोई कि पर्दे के अहकाम नाज़िल होने के बाद सहाबियात ने उन पर पुरे तरीके से अमल शुरू कर दिया था और इस मामले में इतने मजबूत तीन कि बेटे की शहादत के गम में भी उन्हें पर्दे का खयाल रहा और नकाब लगा कर हाज़िर हुईं, जब कि ऐसे मौके पर औरतें साधारणतः होश व हवास खो बैठती हैं और सीना कोबी करती हुई बाहर निकल आती हैं, इससे पता चलता है कि पर्दा हर हाल में जरूरी है, चाहे ख़ुशी का माहौल हो या गम का।

हिजाब की इस बहस से एक अच्छा पहलु भी उभर कर सामने आया है, फ्रांसीसी सदर के हिजाब विरोधी बयान से नै शिक्षित महिलाओं ने और मुस्लिम बुद्धिजीवियों के एक बड़े हलके ने इस पाबंदी की निंदा की है और इसे धार्मिक आज़ादी के खिलाफ करार दिया है, अखबारों में जो मुरासले, मज़ामीन और बयान प्रकाशित हो रहे हैं उनसे अंदाजा होता है कि हिजाब की अहमियत और जेरुरत स्वीकार की जाने लगी है, केवल उलेमा ही इस हुक्म की वकालत नहीं कर रहे हैं बल्कि मुसलमानों का आधुनिक शिक्षित वर्ग भी इन हुक्म की मसलेहत को समझने लगा है, पश्चिमी सभ्यता ने समाज को तबाही की जिस कगार पर ला खड़ा कर दिया है इससे निजात की केवल यही शकल है कि इस्लामी शिक्षाओं को आम किया जाए और अपनी ज़िन्दगी में दाखिल किया जाए, इन शिक्षाओं में भी सबसे अधिक अहमियत हिजाब को हासिल है, अगर समाज में हिजाब आम हो जाए तो बहुत से फवाहिश और मुन्किरात खुद ब खुद खत्म ही जाएं, उम्मीद की जानी चाहिए कि फ्रांस में लगाई जाने वाली यह पाबंदी बे असर साबित होगी, और वहाँ की महिलाऐं अपना यह लोकतंत्र और द्झार्मिक हक़ बाकी रखने में सफल रहेंगी।

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