सुमित पाल, न्यू एज इस्लाम
13 अप्रैल 2022
अब जब कि हिजाब पर मज़हबी और सियासी हंगामा कुछ कम हुआ है, अब वक्त है कि पुरे मामले का एक हकीकत पसंदाना और गैर पक्षपातपूर्ण जायज़ा लिया जाए।
सबसे पहली बात यह है कि कुरआन की 6236 आयतों में कहीं भी पर्दा या हिजाब को स्पष्ट तौर पर
औरतों के लिए अनिवार्य नहीं करार दिया गया है। कुरआन औरत की पारसाई और उसकी इज्जत व
इस्मत की तो बात करता है लेकिन पर्दे को अनिवार्य करार नहीं देता।
सेमियोटिक्स के संस्थापक अम्बर्टो इको के अनुसार, यह विशेष रूप से दमनकारी 'कपड़े का टुकड़ा' एक जमाने में अरब के रेगिस्तान में असहाय महिलाओं पर पुरुषों द्वारा लगाया गया था और महिलाओं को उनकी इच्छा के विरुद्ध हिजाब पहनने के लिए मजबूर किया गया था। उनके पास कोई विकल्प नहीं था। लेकिन 9/11 के बाद मुसलमानों की मानसिकता सामूहिक रूप से बदल गई है। वही महिलाएं जो कभी इस अलोकप्रिय और प्राचीन रिवाज के खिलाफ बोलती थीं, अब बड़े आत्मविश्वास से हिजाब पहन रही हैं और इसे अपनी 'संप्रभुता' और पहचान का प्रतीक बता रही हैं। जब पीड़ित स्वयं अस्पष्ट धार्मिक अनुष्ठानों और प्रथाओं को सही ठहराने लगते हैं, तो यह 'स्टॉकहोम सिंड्रोम के लिए धार्मिक औचित्य' बन जाता है।
इस सिंड्रोम में शिकार/असीर अपने असीर करने वाले /तकलीफ देने वाले के साथ सहानुभूति रखने लगता है। इसलिए, इस विशेष संदर्भ में, हिजाब स्टॉकहोम सिंड्रोम का एक अवचेतन लिबासाना औचित्य / अभिव्यक्ति बन गया है। चाहे मुस्लिम महिलाओं का बुर्का हो या करवा चौथ या हिंदू महिलाएं जितने भी धार्मिक व्रत रखती हैं, इन सब में धर्म के नाम पर महिलाओं को ही तकलीफ उठाना पड़ता है।
सलमान रुश्दी ने सहीह कहा कि बुर्का औरत की ‘प्राइवेट जेल’ है। यह एक चलते हुए खेमे की तरह है और बी आर अम्बेडकर के हवाले से तो यह भी कहा
जाता है कि ‘जमीन पर सबसे अधिक घिनावना और परेशान करने वाला मंज़र ‘ गर्मी की दोपहर में किसी मुस्लिम औरत को कव्वे के काले
लिबास में उपर से नीचे तक छिपा हुआ देखना है। ‘हर मज़हबी अमल एक जरूरत के तहत वजूद में आता है और वह
जरूरत एक मज़हबी अकीदा बन जाती है।
इस्लाम के शुरुआती दिनों में बुर्का एक आवश्यकता बन गया जब अरब रेगिस्तान युद्धरत जनजातियों से घिरा हुआ था और वे महिलाओं को माले गनीमत के रूप में लेते थे। उनके चेहरे बुर्के से ढके हुए होते थे ताकि हमलावर उन्हें देख न सकें। और इस क्षेत्र के रेगिस्तानी तूफान इतने हिंसक होते थे कि पुरुष भी अपना चेहरा ढांप लेते थे, और अब भी ऐसा करते हैं जब वे चिलचिलाती रेगिस्तानी गर्मी में बाहर निकलते हैं। हालांकि बुर्के को 'शिक्षित' महिलाओं द्वारा वैध करार दिया जाने लगे, लेकिन जो लोग लैंगिक समानता में विश्वास करते हैं वे इसे कभी स्वीकार नहीं कर सकते। अगर पूरे यूरोप ने बुर्के पर आपत्ति जताई तो इसे 'इस्लामोफोबिया' नहीं कहा जाना चाहिए।
ईसाई या यहूदी धर्म के अनुयायी यूरोप इस्लाम से क्यों डरते हैं? बुर्का की विश्व स्तर पर निंदा की जा रही है क्योंकि यह इस्लाम के धार्मिक कट्टरवाद (अतिवाद) का स्पष्ट प्रतीक है जो पुरुषों द्वारा लगाया जाता है। क्या बुर्का वाकई औरत को अंदर से बदल देता है? क्या केवल एक पोशाक महिला को पूरी तरह से बदल सकता है? मैं बुर्का-पहने महिलाओं या इस्लाम का अपमान नहीं करना चाहता, लेकिन मैंने तेहरान, काहिरा, त्रिपोली, अंकारा और अन्य देशों की सड़कों पर बुर्का-पहने वेश्याओं को देखा है। क्या इस्लाम की महिलाओं ने कभी सोचा है कि निस्वानी हया को पर्दे के रूप में प्रतीकात्मक प्रदर्शन की आवश्यकता नहीं है? क्या उन्होंने कभी सोचा कि यह सरासर दिखावे का कार्य था?
आजकल मुस्लिम औरतें हाथ और उंगलियां भी ढकने लगी हैं क्योंकि उनके उलमा उन्हें बता रहे हैं कि पूरे शरीर को ढंकना जरूरी है और उंगलियों को खुला रखना भी पाप है !! यदि आप इससे बाज़ नहीं आते, तो आप सीधे नर्क में जाएंगे और हमेशा रहेंगे। और महिलाएं इन बेवकूफी भरे फतवे (फरमानों/निर्णय) का पालन कर रही हैं। इन मुस्लिम महिलाओं को यह एहसास नहीं है कि वे बुर्का और खेमा पहने अपने दाढ़ी वाले पुरुषों की तरह खुद को भी सबसे अलग थलग कर रही हैं, बल्कि नोम चॉम्स्की के शब्दों में वे [self-pigeonholing] में शामिल हैं। वह खुद को एक विशेष वर्ग में शामिल कर रही है। इससे उन बुर्का से मोहब्बत करने वाली मुस्लिम महिला के उन महिलाओं पर एहसासे बरतरी का भी सुबूत मिलता है जो बुर्का नहीं पहनती हैं।
क्या बुर्का नहीं पहनने वाली औरतें गिरी हुई हैं? किसी के धर्म, नैतिकता और इफ्फत व पाकबाज़ी को बदनाम क्यों किया जाना चाहिए? केवल इस्लाम ही नहीं बल्कि सभी धर्म प्रतीकवाद की शिक्षा देते हैं। एक ईसाई अपना क्रॉस लहराएगा, एक हिंदू कहेगा जय श्री राम या जय श्री कृष्ण जब वह किसी से मिलेगा, तो एक सिख उसकी पगड़ी के कारण दूर से पहचाना जाएगा। बुर्का सिर्फ एक प्रतीक है। यह एक शक्तिशाली प्रतीक है जो 'स्वतंत्रता' की झूठी भावना पैदा करता है। सच कहा जाए तो लाशऊरी तौर पर हर मुस्लिम महिला इससे नाराज होती है लेकिन वह कर नहीं सकती। और जो लोग इसे स्वेच्छा से पहनते हैं वे यह साबित करना चाहते हैं कि उन्होंने अपनी गहरी धार्मिक नींव को नहीं छोड़ा है। यह दिखावे की परहेज़गारी है। आपको अपनी धार्मिक पहचान को व्यक्त करने के लिए किसी प्रतीक की आवश्यकता नहीं है। कुछ साल पहले, जब दिवंगत कमला दास, एक मलयालम पोर्नोग्राफर, ने 73 साल की उम्र में इस्लाम धर्म अपना लिया और अपना नाम बदलकर सुरय्या कर लिया, तो उन्होंने हिजाब पहनना शुरू कर दिया। अब बताओ, वह दुष्ट कौन है जो दादी अम्मां को देखेगा? नहीं, उसे अपनी नई धार्मिक पहचान दिखानी थी। एक उर्दू कहावत है: नया मुसलमान ज्यादा प्याज खाता है। सभी बुर्का-पहने मुस्लिम महिलाएं नई मुस्लिम लगती हैं जो अपने इस्लाम को अपनी आस्तीन पर और यहां तक कि अपने चेहरे पर दिखाने के लिए उत्सुक हैं!
English
Article: Hijab: A Sartorial Manifestation Of Stockholm
Syndrome
Urdu
Article: Hijab: A Sartorial Manifestation Of Stockholm
Syndrome حجاب:
اسٹاک ہوم سنڈروم کا ایک لباسانہ مظہر
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