शकील शम्सी
16 अप्रैल, 2017
भारत और पाकिस्तान में कई वर्षों से एक रिवाज चल पड़ा है कि धर्म के नाम पर एक भीड़ जमा होती है और जिसको दोषी समझती है,उसकी हत्या कर देती है, यूं तो इस भीड़ का धर्म अलग होता देश भी अलग होता है लेकिन भीड़ में शामिल लोगों का स्वभाव बिल्कुल एक जैसा होता है। उग्र भीड़ जिसकी हत्या करना चाहता है उस पर कभी गौ हत्या तो कभी लड़की छेड़ने का आरोप लगाता है। कभी यही भीड़ धर्म का अपमान करने के नाम पर किसी को मार देती है। भारत में पहलू खान को चरमपंथियों की एक भीड़ क़त्ल कर देती है तो पाकिस्तान के मरदान शहर में मशाल खान नाम के मुस्लिम युवक की हत्या करके उसके परिवार में चरमपंथ की मशाल से अंधेरा कर दिया है। इन दोनों घटनाओं में न तो कोई अंतर है, न मरने वालों के चेहरों में कोई अंतर है और न मारने वालों की दरिंदगी में। हाँ उन भाषाओं में ज़रूर अंतर है जो पहलू खान की हत्या किए जाने पर नाराजगी व्यक्त करनें में लगी थीं,लेकिन मशाल खान की हत्या किए जाने पर एक दम चुप हैं। पहलू खान ने तो फिर भी गाय खुद ही खरीदी थी जबकि मशाल खान को तो एक ऐसे अपराध की सजा मिली,जिसका उससे कोई सीधा संबंध नहीं था। जिन लोगों को मशाल खान के मरने की वजह नहीं पता है, उन्हें बताते चलें कि पाकिस्तान के प्रांत खैबर पख्तून ख्वा के मरदान शहर में स्थित खान अब्दुल वली खान विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग के एक छात्र मशाल खान ने मशहूर कवि स्वर्गीय अब्दुल हमीद अदम के शेर:
दिल खुश हुवा है मस्जिदे वीरान को देख कर
मेरी तरह खुदा का भी खाना खराब है
फेसबुक पर पोस्ट कर दिया, हालांकि यह कविता अदम नें अपने जीवन में पाकिस्तान के मुशायरों में पढ़ा तथा कई जगह छपा भी, लेकिन किसी मुसलमान ने इस पर आपत्ति नहीं किया क्योंकि उन्हें पता है कि इस कविता में मस्जिदों को वीरान छोड़ देने वाले मुसलमानों पर कटाक्ष किया गया। वास्तव में,यह कविता कम से कम पचास साल पुराना है लेकिन कभी ऐसा नहीं हुआ कि पाकिस्तान के मुसलमानों ने इस कविता के कारण अदम पर हमला किया हो। इस बात का इनकार नहीं किय जा सकता कि मुसलमानों ने उर्दू शायरी के बगावती तेवरों पर कभी तीर नहीं चलाए। गालिब ने अगर कहा ''हम को मालूम है जन्नत की हकीक़त लेकिन '' ... या मीर ने कहा '' कशकह खींचा देर में बैठा कब का तर्क इस्लाम किया.... '' तो किसी मुसलमान ने मीर और ग़ालिब को इस्लाम से बाहर नहीं किया। शायरे मशरिक अल्लामा इकबाल ने तो शिकवा अल्लाह से खाकम बदहन है मुझको ... कह कर पूरी कविता लिख डाली, परन्तु किसी मुसलमान ने कुछ नहीं कहा। उर्दू शायरों ने शराबखानों को अच्छी और काबा व बुतखाने को बुरी जगह कहा और शराबियों को सबसे अच्छा जीव और वाईज व नासेह (उपदेशक)को बुरा आदमी कह कर पेश किया परन्तु किसी मौलवी ने कोई फतवा जारी नहीं किया,लेकिन जब से आतंकवाद और उग्रवाद ने मुसलमानों के एक विशिष्ट समूह में अपनी जगह बनाई है तब से कवियों के कलाम पर भी मुसीबत आ गई है और इसी वजह से एक सुंदर और सजीले युवा को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा कि उसने एक शेर फेसबुक पर पोस्ट कर दिया था जो चरमपंथियों की नज़र में अल्लाह का अपमान करने के पर्याय था।
मैं तो वह वीडियो देख कर हैरान था कि जिसमें विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले कुछ युवा एक असहाय और निहत्थे लड़के को जमीन पर गिरा कर उस पर कूद रहे थे और नारे तकबीर लगाकर अल्लाहो अकबर के नारे का अपमान कर रहे थे। मुझे तो इस भीड़ में शामिल प्रत्येक छात्र आइएसआइएस का कारकुन लग रहा था फर्क सिर्फ इतना था आइएसआइएस के दरिंदों के हाथों में हथियार होते हैं जबकि इस भीड़ के पास जुनून के अलावा कुछ नहीं था। अफसोस की बात यह है कि मरने के बाद भी मशाल खान के खिलाफ जो घृणा दिलों में थी वह कम नहीं हुई बल्कि उसके शव को घसीटा गया और फिर उसे जलाने की कोशिश भी की गई। मुझे तो मशाल खान के मृत शरीर पर कूदते हुए लोगों को देखकर यही लग रहा था कि यह भीड़ किसी मुस्लिम युवक के शरीर को नहीं कुचल रही थी बल्कि उस पाकिस्तान को अपने पैरों तले कुचल रही है जिसे मुसलमानों का स्वर्ग समझा गया था।
16 अप्रैल, 2017 स्रोत: इन्केलाब, नई दिल्ली
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