सुहैल अरशद, न्यू एज इस्लाम
उर्दू से अनुवाद न्यू एज इस्लाम
17 जनवरी 2022
इस्लाम के शुरू के संकट के दौरान मुसलमानों की रहनुमाई के लिए
सियाक व सबाक वाली आयतें नाज़िल की गईं
प्रमुख बिंदु:
कुरआन पड़ोसियों, मुसाफिरों और जरुरतमंदों के साथ उनके धर्म का उल्लेख
किये बिना हुस्ने सुलूक की शिक्षा देता है।
सियाक व सबाक की आयतें केवल जंग और टकराव के समय के लिए थीं।
कुरआन मुसलमानों को अपने गैर मुस्लिम मां बाप के साथ सम्मान
और शफकत से पेश आने के लिए कहता है।
जंगी आयतों को आफाकी आयतों के साथ मिलाने से उलझन पैदा हो गई।
कुछ उलमा ने सियाक व सबाक से संबंधित जंगी आयतों को आतंकवाद
के नजरिये को आफाकी रास्ता देने से ताबीर किया।
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कुरआन मजीद इस्लामी शरीअत का सरचश्मा है। यह मुसलमानों की सामाजिक, राजनितिक और व्यक्तिगत जीवन में मुसलमानों के लिए रहनुमाई की किताब है। लेकिन कुरआन में आयतों की दो किस्में हैं। एक, सियाक व सबाक से संबंधित आयतें जो मुसलमानों की रहनुमाई के लिए नाजिल हुईं कि दुश्मनों से कैसे निमटा जाए और नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की ज़िन्दगी में दुश्मनों की जानिब से आक्रामकता की सूरत में क्या करना चाहिए।
यह जंग वाली आयतें जंग के वक्त के लिए थीं। इन आयतों में मुसलमानों को अपने हितों के सुरक्षा के लिए दुश्मनों से लड़ने की इजाज़त दी गई थी। दुसरे, कुरआन में ऐसी आफाकी आयतें हैं जो इस्लामी शरीअत की बुनियाद हैं। यह आयतें मुसलमानों को नसीहत करती हैं कि मुसलमानों और गैर मुस्लिमों के साथ मामला करते वक्त हमदर्दी और नरमी का मुज़ाहेरा किया जाए। यह आयतें अमन के दौर में मुसलमानों की रहनुमाई करती हैं और जब हम इन आयतों का बारीक बीनी से मुताला करते हैं तो हमें मालुम होता है कि कुरआन पाक गैर मुस्लिमों के साथ शांतिपूर्ण सह अस्तित्व की शिक्षा देता है।
यकीनन कुरआन एक ऐसे समाज की अवधारणा पेश करता है जहां हर व्यक्ति समाज की बुराइयों से परेशान होगा और सामाजिक और धार्मिक बुराइयों को दूर करने के लिए काम करता रहेगा। वह मज़लूमों और दबे कुचले लोगों की कामयाबी के लिए भी लगातार काम करेगा और साथ ही खुदा की वहदानियत के पैगाम को आम करने के लिए भी काम करता रहेगा। लेकिन वह खुदा के पैगाम को फैलाने के लिए कभी दबाव या हिंसा या जब्र का सहारा नहीं लेगा।
खुदा कुरआन में कहता है कि हमने इंसान को हिकमत और जहानत से नवाज़ा है और इसलिए वह अपने आमाल और अपने अकीदे का खुद जिम्मेदार है। उसने अपनी मख्लुकात के अंदर ही गौर व फ़िक्र का सरचश्मा पैदा कर दिया है। पस मुसलमानों का काम केवल यह है कि इंसान की तवज्जोह कायनात की तखलीक में मौजूद कमाल की तरफ मब्जूल कराएं और इंसान को नेकी करने और बुराई से बाज़ रहने की तलकीन करें।
“और तुम्हारे पास क़ुरआन नाज़िल किया है ताकि जो एहकाम लोगों के लिए नाज़िल किए गए है तुम उनसे साफ साफ बयान कर दो ताकि वह लोग खुद से कुछ ग़ौर फिक्र करें” (अन नहल:44)
किसी भी आयत में कुरआन मुसलमानों को काफिरों पर हिंसा करने की नसीहत या हिदायत नहीं करता है क्योंकि कुरआन बार बार कहता है कि रुए ज़मीन पर मौजूद तमाम लोग अपने दिल के मर्ज़ की वजह से सच्चाई पर ईमान नहीं लाएंगे। खुदा बदकार लोगों को हिकमत से नहीं नवाजता है। असल में खुदा फरमाता है कि वह उन लोगों के दिलों और कानों पर मुहर लगा देता है जो बदकार हैं और खुदा का कलाम सुनना नहीं चाहते और ज़मीन पर फसाद बरपा करते हैं।
“और उससे बढ़कर और कौन ज़ालिम होगा जिसको ख़ुदा की आयतें याद दिलाई जाए और वह उनसे रद गिरदानी (मुँह फेर ले) करे और अपने पहले करतूतों को जो उसके हाथों ने किए हैं भूल बैठे (गोया) हमने खुद उनके दिलों पर परदे डाल दिए हैं कि वह (हक़ बात को) न समझ सकें और (गोया) उनके कानों में गिरानी पैदा कर दी है कि (सुन न सकें) और अगर तुम उनको राहे रास्त की तरफ़ बुलाओ भी तो ये हरगिज़ कभी रुबरु होने वाले नहीं हैं” (अल कहफ़: 57)
“यूँ ही मुहर कर देता है अल्लाह जाहिलों के दिलों पर” (रूम:59)
“अल्लाह ने उनके दिलों पर और कानों पर मुहर कर दी और उनकी आँखों पर घटाटोप है, और उनके लिए बड़ा अज़ाबम” (बकरा: 7)
उपरोक्त आयतों में अल्लाह पाक स्पष्ट तौर पर फरमाता है कि उसने उनके दिलों पर उनकी शरारतों की वजह से मुहर लगा दी है और इसलिए रसूल भी उनकी रहनुमाई नहीं कर सकते। इसलिए मुसलमान उन्हें रास्ते पर नहीं ला सकेंगे इसलिए उनके खिलाफ हिंसा का प्रयोग करना नादानी होगी क्योंकि यह जमीन पर अमन कायम करने की बजाए समाज में फूट का कारण बनेगा।
अल्लाह पाक ने नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से यह भी फरमाया है कि आप उनकी शरारतों और उनके कुफ्र से परेशान न हों क्योंकि अगर वह ईमान नहीं लाते और उनकी बातों पर कान नहीं धरते तो यह इसलिए है कि अल्लाह ने उनके दिलों पर मुहर लगा दी है। केवल अकलमंद लोग ही हिकमत और सच्चाई की बात को सुनेंगे।
“तो (ऐ रसूल) अगर ये लोग इस बात को न माने तो यायद तुम मारे अफसोस के उनके पीछे अपनी जान दे डालोगे” (अल कहफ़:6)
कुरआन स्पष्ट करता है कि रसूल केवल खुदा का पैगाम पहुँचाने वाले और जहन्नम की आग से डराने वाले बना कर भेजे गए हैं। इसलिए मुसलमानों को भी चाहिए कि वह बदकार कुफ्फार पर हिंसा से काम न लें। खुदा कहता है कि जो राहे रास्त पर आ जाता है वह उसके अपने मुफाद में है और जो हक़ के पैगाम को नहीं सुनता उसका अपना ही नुक्सान है। कोई मुसलमान दूसरों के बुरे कामों का जिम्मेदार नहीं है।
“और हम तो पैग़म्बरों को सिर्फ इसलिए भेजते हैं कि (अच्छों को निजात की) खुशख़बरी सुनाएंऔर (बदों को अज़ाब से) डराएं” (अल कहफ़: 56)
“और (ऐ रसूल) तुम कह दों कि सच्ची बात (कलमए तौहीद) तुम्हारे परवरदिगार की तरफ से (नाज़िल हो चुकी है) बस जो चाहे माने और जो चाहे न माने (मगर) हमने ज़ालिमों के लिए वह आग (दहका के) तैयार कर रखी है जिसकी क़नातें उन्हें घेर लेगी और अगर वह लोग दोहाई करेगें तो उनकी फरियाद रसी खौलते हुए पानी से की जाएगी जो मसलन पिघले हुए ताबें की तरह होगा (और) वह मुँह को भून डालेगा क्या बुरा पानी है और (जहन्नुम भी) क्या बुरी जगह है” (अल कहफ़: 29)
“और न तुम अंधें को उनकी गुमराही से राह पर ला सकते हो तुम तो बस उन्हीं लोगों को (अपनी बात) सुना सकते हो जो हमारी आयतों पर ईमान रखते हैं” (अन नम्ल: 81)
“और ये कि मै क़ुरआन पढ़ा करुँ फिर जो शख्स राह पर आया तो अपनी ज़ात के नफे क़े वास्ते राह पर आया और जो गुमराह हुआ तो तुम कह दो कि मै भी एक एक डराने वाला हूँ” (अन नम्ल: 92)
“(ऐ रसूल) बेशक तुम जिसे चाहो मंज़िले मक़सूद तक नहीं पहुँचा सकते मगर हाँ जिसे खुदा चाहे मंज़िल मक़सूद तक पहुचाए और वही हिदायत याफ़ता लोगों से ख़ूब वाक़िफ़ है” (अल क़सस: 81)
“और न तुम अंधों को उनकी गुमराही से (फेरकर) राह पर ला सकते हो तो तुम तो बस उन्हीं लोगों को सुना (समझा) सकते हो जो हमारी आयतों को दिल से मानें फिर यही लोग इस्लाम लाने वाले हैं” (अर रूम: 53)
कुरआन चाहता है कि मुसलमान दुनिया के लिए एक मिसाल बनें और इसी लिए उन्हें तमाम लोगों के साथ इंसाफ से काम लेने की तलकीन करता है चाहे वह मुसलमान हों या गैर मुस्लिम। एक मुसलमान से उम्मीद की जाती है कि वह समाज के तमाम मामलों में शाइस्तगी और संजीदगी का प्रदर्शन करे। नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम यहूद व नसारा और मुशरेकीन के साथ रहम दिल थे और जरुरतमंदों की मदद फरमाते थे। उन्होंने किसी पर भी बिला जवाज़ हिंसा की हिमायत नहीं की।
“इसमें शक़ नहीं कि ख़ुदा इन्साफ और (लोगों के साथ) नेकी करने और क़राबतदारों को (कुछ) देने का हुक्म करता है और बदकारी और नाशाएस्ता हरकतों और सरकशी करने को मना करता है (और) तुम्हें नसीहत करता है ताकि तुम नसीहत हासिल करो” (अन नहल: 90)
कुरआन एक ऐसे समाज की कल्पना करता है जहां मुसलमान गैर मुस्लिमों के साथ रहें और उन्हें उनके सामाजिक,धार्मिक और राजनितिक अधिकार प्रदान करें। इसके साथ साथ वह नेकी का हुक्म देने और बुराई से मना करने का फर्ज़ शांतिपूर्ण तरीके से अदा करें।
सियाक व सबाक की आयतों को कुरआन की अफाकी शिक्षा मान लेने की वजह से ही मुसलमानों के अतिवादी वर्गों में हिंसा का नज़रिया मकबूल हुआ। उन्होंने इस हकीकत को नजरअंदाज़ कर दिया कि जंग किसी भी बिरादरी या कौम की ज़िन्दगी में केवल एक आरज़ी मरहला है। मुसलमान भी इस्लाम के शुरूआती दौर में इस आरज़ी मरहले से गुज़रे जब उनके वजूद को ख़तरा दरपेश था। इस मरहले के गुज़र जाने के बाद, कुरआन की आफाकी आयतें जो अमन और पुर अमन बकाए बाह्मी की तबलीग करती हैं, अमल में आईं। लेकिन कुरआन की जंग वाली आयतों की शिद्दत पसंद व्याख्या ने उन्हें इस्लाम का अफाकी पैगाम समझ कर अतिवाद और फिर आतंकवादी नज़रिए को रास्ता दिया। इसी से आतंकवादी संगठन का जन्म हुआ जिसने सयाक व सबाक से संबंधित जंग वाली आयतों की इस गलत व्याख्या को बढ़ावा दिया।
हकीकत यह है कि कुरआन मुसलमानों को उनके धार्मिक पृष्ठभूमि का उल्लेख किये बिना अपने पड़ोसियों, मुसाफिरों, भूकों को खाना खिलाने और जरुरतमंदों की मदद करने का हुक्म देता है। इंसानियत नवाज़ी कुरआनी पैगाम का मरकज़ है। यह मुसलमानों को यह भी हुक्म देता है कि वह अपने गैर मुस्लिम मां बाप के साथ सम्मान के साथ पेश आएं क्योंकि इंसानी मूल्य कुरआन के लिए अधिक महत्व रखते हैं। कुरआन के सामने इंसानी जान की हुरमत सब पर मुकद्दम है। इसी लिए कुरआन कहता है कि एक बेगुनाह का क़त्ल पुरी इंसानियत के क़त्ल के बराबर है और एक बेगुनाह की जान बचाना पुरी इंसानियत को बचाने के बराबर है।
English Article: Universal Verses
Of The Quran Not The Contextual War Verses Form The Basis Of Islamic Behaviour
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