सिराज नकवी
उर्दू से अनुवाद न्यू एज इस्लाम
मार्च 17, 2023
अमेरिका स्थित अंतरराष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता आयोग ने अपनी नवीनतम रिपोर्ट में आरोप लगाया है कि 12 भारतीय राज्यों में पेश किए गए धर्मांतरण विरोधी कानून अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार कानून के तहत धर्म या विश्वास की स्वतंत्रता के अधिकार के संरक्षण का उल्लंघन कर रहे हैं। रिपोर्ट का दावा है कि ये धर्म परिवर्तन कानून भारत द्वारा मान्यता प्राप्त और हस्ताक्षरित अंतरराष्ट्रीय संधियों के खिलाफ हैं। इसने पारित या प्रस्तावित कानूनों की समीक्षा की है जो मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा और नागरिक और राजनीतिक अधिकारों पर अंतरराष्ट्रीय संधियों का उल्लंघन करते हैं। यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि यह संगठन अमेरिकी विदेश विभाग द्वारा वित्त पोषित है और एक अमेरिकी संघीय सरकारी एजेंसी है जो धार्मिक नीतियों की निगरानी करने और इस संबंध में सिफारिशें करने के लिए बाध्य नहीं है। यानी अपने आप में यह एक स्वतंत्र संस्था है। यह संगठन दो साल से भारत की धार्मिक स्वतंत्रता नीति और धार्मिक स्वतंत्रता पर कथित पाबंदियों पर लगातार रिपोर्टिंग कर रहा है. लेकिन अमेरिका ने अपनी रिपोर्ट से निकाले गए निष्कर्षों पर भारत की किसी भी तरह की आलोचना से परहेज किया है। इस संबंध में, रिपोर्ट में धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ कथित भेदभावपूर्ण व्यवहार और सरकारी शोषण का उल्लेख किया गया है और कहा गया है कि इससे सरकार को धार्मिक स्वतंत्रता से संबंधित मामलों में कार्य करने का अवसर और प्रेरणा मिलती है।
भारत का निष्पक्ष और कुछ हद तक साहसी मीडिया, अन्य सरकार विरोधी मुद्दों की तरह, इस मुद्दे पर चुप रहा है, लेकिन वास्तविकता यह है कि इस तरह के कानून देश के धार्मिक अल्पसंख्यकों को धीरे-धीरे और कानून के बल पर हिंदुत्वा की ओर धकेलने के सिवा कुछ नहीं। इन कानूनों पर एक सरसरी नजर ही यह साबित करने के लिए काफी है कि इन्हें हिंदू धर्म के उस एजेंडे को ध्यान में रखकर बनाया गया है, जो देश को एक खास विचारधारा के हिंदुओं का एकाधिकार बनाना चाहता है। हालांकि यह संतोष का विषय है और धार्मिक सहिष्णुता की हमारी परंपरा को देखते हुए गर्व की बात भी है कि भगवा दल की इस हरकत पर देश का बहुसंख्यक हिंदू पक्षधर नहीं दिखता, हालांकि यह भी एक तथ्य है कि वर्तमान सत्ताधारियों ने सत्ता अपने हाथ में लेने के लिए हिंदुत्व नहीं, बल्कि 'सब का साथ और सबका विकास' का नारा देकर सत्ता संभाली और अब ऐसे तमाम हथकंडे अपना रहे हैं जो धार्मिक अल्पसंख्यक के जीवन को तंग कर दें। विभिन्न राज्यों में पेश किए गए धर्मांतरण कानून भी एक चाल है जिसका उद्देश्य धार्मिक स्वतंत्रता को एक निश्चित दिशा में जाने से रोकना है। दूसरी ओर, 'घर वापसी' के बहाने मुसलमानों को धर्म परिवर्तन करा के उन्हें हिंदुओं बनाने की सुनियोजित प्रक्रिया में इससे बाधा न आए। जहां तक ऊपर बताए गए अमेरिकी संगठन की रिपोर्ट की बात है तो यह संगठन भारत में धर्म परिवर्तन को लेकर लगातार तीन साल से इस तरह की रिपोर्ट देता आ रहा है। नवीनतम रिपोर्ट इस श्रृंखला में चौथी है। 2022 की रिपोर्ट में विशेष रूप से उल्लेख किया गया है कि 2021 में, भारत सरकार ने उन नीतियों को बढ़ावा दिया, जिनका मुसलमानों, ईसाइयों, सिखों, दलितों और अन्य धार्मिक अल्पसंख्यकों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा। आजादी की बिगड़ती स्थिति को रोकने के लिए इन धर्मांतरण कानूनों में तीन चीजें समान हैं। पहला धर्मांतरण पर रोक, दूसरा ऐसा करने से पहले नोटिस देना अनिवार्य है और तीसरे दायित्व से बचने के इल्तेजाम के तहत धर्मांतरण के आरोपी पर खुद को बेगुनाह साबित करने की जिम्मेदारी है। यह एक अलग बहस है कि क्या अमेरिका या किसी अन्य देश की एजेंसी द्वारा ऐसी रिपोर्ट जारी करना उचित है और यह हमारा आंतरिक मामला है। लेकिन एक वैश्विक गांव के रूप में हमारी सरकारों के पास कई विदेशी मामले भी हैं जिनमें वे दखलंदाजी करते रहे हैं।
हालाँकि, उपरोक्त रिपोर्ट में बताए गए तीन सामान्य बिंदुओं को गलत नहीं ठहराया जा सकता है। क्योंकि धर्म परिवर्तन पूरी तरह से एक व्यक्ति का निजी मामला है और कानून बनाकर इसे प्रतिबंधित करने की कोशिश एक लोकतांत्रिक देश में नागरिकों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करने के समान है। इसके लिए धर्मांतरणकर्ता को पूर्व सूचना देने का कोई औचित्य नहीं है। आखिर किस आधार पर किसी सरकार या उसके नियुक्त अधिकारी किस आधार पर इस बात का अधिकार पा सकता है किसी के धर्म परिवर्तन से पहले मामले की आधिकारिक जांच हो और इसके बाद संबंधित व्यक्ति को धर्म परिवर्तन करने या न करने के सरकारी आदेश पारित किये जाएं। मामले का तीसरा पहलू पूरी तरह से हमारे देश के दंड विधान और संविधान की भावना के विपरीत है, लेकिन इसके बावजूद दुख की बात है कि किसी अदालत ने इस पर ध्यान नहीं दिया। कोई भी कानून किसी आरोपी व्यक्ति पर अपनी बेगुनाही साबित करने का दायित्व नहीं डालता है। दंड विधान के अनुसार सबूत पेश करना अभियोजन पक्ष का काम है कि वह किसी अभियुक्त के अपराध को साबित करने के लिए सबूत पेश करे, लेकिन धर्मांतरण में सरकारी अधिकारियों को धर्मांतरित के अपराध को साबित करने के इस बोझ से बचा लिया गया है और यह बोझ उसके कमजोर कंधों पर डाल दिया गया है कि आरोपी खुद को बेगुनाह साबित करे। सवाल यह है कि जब अभियोजन पक्ष किसी को आरोपी बना रहा है तो क्या उसके पास असीमित शक्तियां हैं या उसे इस मामले में यह दिया जा सकता है कि वह किसी को महज शक के आधार पर या किसी अन्य कारण से आरोपी बना दे और फिर उसे साबित करने से बचे? क्या यह सरकारी अधिकारियों को अनुचित तरीके से बचाने और धर्मान्तरित लोगों को झूठे जाल में फंसाने का प्रयास नहीं है? अगर यह मामला किसी अदालत में नहीं पहुंचा है और ऐसे कानूनों को चुनौती नहीं दी गई है तो यह भी हमारे लोकतंत्र और न्याय व्यवस्था पर सवालिया निशान है। उक्त रिपोर्ट में उत्तर प्रदेश में बनाए गए इसी तरह के एक कानून का उल्लेख करते हुए इस ओर इशारा किया गया था इसकी अस्पष्ट भाषा इच्छुक धर्मांतरितों को लक्षित कर सकती है। इसी प्रकार, हरियाणा के कानून में 'लव जिहाद' शब्द के प्रयोग को 'अपमानजनक' बताया गया है। जाहिर है, इस शब्द का प्रयोग विधायकों की मंशा को दर्शाता है जिसमें इस्लाम धर्मांतरण 'लव जिहाद' हो जाता है। हालांकि ऐसे मामले हो सकते हैं हर धर्म में समान रूप से देखा जाता है। लेकिन अजीब बात यह है कि अगर कोई मुसलमान किसी भी कारण से हिंदू धर्म में प्रवेश करता है, तो ऐसे कानून उसे 'लव जिहाद' नहीं बल्कि 'घर वापसी' के रूप में घोषित करते हैं। यह स्थिति इस बात का प्रमाण है कि भाजपा के नेतृत्व वाली राज्य सरकारें एक विशेष एजेंडे के तहत मुसलमानों को धर्मांतरण कानून के शिकंजे से बचाने के की कोशिश अपने अधिकारियों के माध्यम से कर रही हैं। जब कि यही अधिकारी हिन्दू से मुसलमान बनने वालों की राह में रुकावटें कड़ी करने पर नियुक्त कर दिए गए हैं। अमेरीकी संस्था की रिपोर्ट इसी तरफ इशारा करती है, और बुनियादी अधिकारों को गस्ब किये जाने की बीजेपी सरकार की पालिसी पर खुल कर आलोचना करती है।
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Urdu
Article: Report of the US Commission on Conversion Law تبدیلی مذہب قانون پر امریکی
کمیشن کی رپورٹ
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